बहार: क्या पति की शराब की लत छुड़ाने में कामयाब हो पाई संगीता

अपने सास ससुर के रहने आने की खबर सुन कर संगीता का मूड खराब हो गया. यह बात उस के पति रवि की नजरों में भी आ गई.

सप्ताहभर पहले संगीता की बड़ी ननद मीनाक्षी अपने दोनों बच्चों के साथ पूरे 10 दिन उस के घर रह कर गई थी. अब इतनी जल्दी सासससुर का रहने आना उसे बहुत खल रहा था.

‘‘इतना सड़ा सा मुंह मत बनाओ संगीता क्योंकि 10-15 दिनों की ही बात है. पहली बार दोनों अपने छोटे से कसबे में रहने आ रहे हैं, इसलिए मैं टालमटोल नहीं कर सकता था.’’

रवि के इन शब्दों को सुन कर संगीता का मूड और ज्यादा उखड़ गया. बोली, ‘‘मेरी खुद की तबीयत ठीक नहीं रहती है. उन की देखभाल के लिए नौकरानी ला दो, तो मुझे कोई शिकायत नहीं. फिर कितने भी दिन रुकें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,’’ तीखे स्वर में जवाब दे कर संगीता ने चादर से मुंह ढका और लंबी चुप्पी साध ली.

अपने मातापिता के आने से परेशान रवि भी था. मीनाक्षी के सामने संगीता के साथ उस का कई बार झगड़ा हुआ था. उन सब झगड़ों की खबर उस के मातापिता तक निश्चित रूप से मीनाक्षी ने पहुंचा दी होगी. वह जानता था कि मातापिता अपना पुरातनपंथी रवैया नहीं छोड़ेंगे और पूरी सोयायटी में उस की जगहंसाई हो सकती है.

शादी होने के सिर्फ 5 महीने बाद बेटाबहू खूब लड़तेझगड़ने लगे थे. इस तथ्य ने उस के मातापिता का दिल दुखा कर उन्हें चिंता से भर दिया होगा. अब रवि उन का सामना करने का हौसला अपने भीतर जुटा नहीं पा रहा था. वह कोविड-19 का बहाना बना कर उन्हें टालता रहा था पर अब वह बहाना चल नहीं रहा था.

लगभग ऐसी ही मनोस्थिति संगीता की भी थी. काम के बोझ का तो उस ने बहाना बनाया था. वह भी अपने सासससुर की नजरों के सामने खराब छवि के साथ आना नहीं चाहती थी. उन का चिंता करना या समझना उसे अपमानजनक महसूस होगा और वह उस स्थिति का सामना करने से बचना चाहती थी. रवि के मातापिता कोविड-19 के दिनों में अकेले ही रहे थे और अकेलेपन को सहज लेते रहे थे.

अगले दिन शाम को उस के सासससुर उन के घर पहुंच गए. दोनों में से किसी

ने भी रवि और उस के बीच 2 साल से चलने वाले झगड़ों की चर्चा नहीं छेड़ी. उसे 2 सुंदर साडि़यों का उपहार भी मिला. सोने जाने तक का समय इधरउधर की बातें करते हुए बड़ी अच्छी तरह से गुजरा और संगीता ने मन ही मन बड़ी राहत महसूस करी.

‘‘अपने सासससुर के सामने न मैं आप से उलझंगी, न आप मुझ से झगड़ना,’’ संगीता के इस प्रस्ताव पर रवि ने फौरन अपनी सहमति की मुहर सोने से पहले लगा दी थी.

अगले दिन शाम को जो घटा उस की कल्पना भी उन दोनों ने कभी नहीं करी थी.

रवि अपने दोस्तों के साथ शराब पीने के बाद घर लौटा. वह ऐसा अकसर सप्ताह में

3-4 बार करता था. इसी क ारण उस का संगीता से खूब झगड़ा भी होता.

उस शाम संगीता की नाक से शराब का भभका टकराया, तो उस की आंखों में गुस्से की लपटें फौरन उठीं, पर वह मुंह से एक शब्द नहीं बोली.

रवि के दोस्तों में से ज्यादातर पियक्कड़ किस्म के थे. रवि की जमात के लोगों को ऊंची जाति के लोग दोस्त नहीं बनाते थे और उसे सड़क छाप आधे पढ़े लोगों को अपना दोस्त बनाना पड़ता था जो सस्ती शराब भरभर कर

पीते थे.

उस की मां आरती मुसकराती हुई अपने

बेटे के करीब आईं, तो शराब की गंध उन्होंने

भी पकड़ी.

‘‘रवि, तूने शराब पी रखी है?’’ आरती ने चौंक कर पूछा.

‘‘एक दोस्त के यहां पार्टी थी. थोड़ी सी जबरदस्ती पिला दी उन लोगों ने,’’ उन से बच कर रवि अपने शयनकक्ष की तरफ बढ़ा.

आरती ने अपने पति रमाकांत की तरफ घूम कर उन से शिकायती लहजे में

कहा, ‘‘मेरे बेटे को यह गंदी लत आप की बदौलत मिली है.’’

‘‘बेकार की बकवास मत करो,’’ रमाकांत ने उन्हें फौरन डपट दिया.

‘‘मैं ठीक कह रही हूं,’’ आरती निडर बनी रहीं, ‘‘जब यह बच्चा था तब इस ने आप को शराब पीते देखा और आज खुद पीने लगा है.’’

‘‘मुझे शराब छोड़े 10 साल हो गए हैं.’’

‘‘जब ब्लडप्रैशर बढ़ गया और लिवर खराब होने लगा, तब छोड़ा आप ने पीना. मैं लगातार शोर मचाती थी कि बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा, पर मेरी कभी नहीं सुनी आप ने. मेरा बेटा अपना स्वास्थ्य अब बरबाद करेगा और उस के जिम्मेदार आप होंगे.’’

‘‘अपनी बेकार की बकबक बंद कर, बेवकूफ औरत.’’

उन की गुस्से से भरी चेतावनी के बावजूद आरती ने चुप्पी नहीं साधी, तो उन के बीच झगड़ा बढ़ता गया. संगीता अपनी सास को दूसरे कमरे में ले जाना चाहती थी, पर असफल रही. रवि ने बारबार रमाकांत से चुप हो जाने की प्रार्थना करी, पर उन्होंने बोलना बंद नहीं किया.

रमाकांत को अचानक इतना गुस्सा आया कि नौबत आरती पर हाथ उठाने की आ गई. तब संगीता अपनी सास को जबरदस्ती खींच कर दूसरे कमरे में ले गई.

रवि देर तक अपने पिता को गुस्सा न करने के लिए समझता रहा. रमाकांत खामोशी से उस की बातें सिर झकाए सुनते रहे

उन के पास से उठने के समय तक रवि का नशा यों गायब हो चुका था जैसे उस ने शराब पी ही नहीं थी. सारा झगड़ा उस के पिता की शराब पीने की पुरानी आदत को ले कर हुआ था. कमाल की बात यह थी कि उसे दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी याद नहीं आया कि उस ने कभी अपने पिता को शराब पीते देखा हो.

शादी के बाद संगीता ज्यादा दिन अपने सासससुर के साथ नहीं रही थी. उन की आपस में लड़नेझगड़ने की क्षमता देख कर उसे अपने रवि के साथ हुए झगड़े बौने लगने लगे थे.

रविवार के दिन आरती और रमाकांत का एक

और नया रूप उन दोनों को देखने के लिए मिला.

संगीता ने आरती द्वारा पूछे

गए एक सवाल के जवाब में

कहा, ‘‘इन्हें घूमने जाने या फिल्म देखने को बिलकुल शौक नहीं है. मुझे फिल्म देखे हुए महीनों बीत गए हैं.’’

‘‘बकवास हिंदी फिल्में सिनेमाहौल पर देखने में 3 घंटे बरबाद करने की क्या तुक है?’’ रवि ने सफाई दी, ‘‘फिर केबल

पर दिनरात फिल्में आती रहती हैं. टीवी पर फिल्में देख कर यह अपना शौक पूरा कर लेती है, मां. नैट विलक्स भी है. बहुत सीरीज हैं, उन्हें देखे न.’’

‘‘असल में तुम बापबेटे दोनों को ही अपनीअपनी पत्नी के शौक पर खर्चा करना अच्छा नहीं लगता है,’’ आरती ने अपनी बहू का हाथ प्यार से अपने हाथ में ले कर शरारती स्वर में टिप्पणी करी.

‘‘तुम हर बात में मुझे क्यों बीच में घसीट लेती हो? अरे, मैं ने तो शादी के बाद तुम्हें पहले साल में कम से कम 50 फिल्में दिखाई होंगी,’’ रमाकांत ने तुनक कर सफाई दी.

‘‘फिल्में देखने का शौक आप को था, मुझे नहीं.’’

‘‘तू तो हौल में आंखें बंद कर के बैठी रहती होगी.’’

अपने पति के कटाक्ष को नजरअंदाज कर आरती ने मुसकराते हुए संगीता से कहा, ‘‘मुझे चाट खाने का शौक था और इन्हें एसिडिटी हो जाती थी बाहर का कुछ खा कर… तुम्हें एक घटना सुनाऊं?’’

‘‘सुनाइए, मम्मी,’’ संगीता ने फौरन उत्सुकता दिखाई.

‘‘तेरे ससुर शादी की पहली सालगिरह पर मुझे आलू की टिक्की खिलाने ले गए. टिक्की की प्लेट मुझे पकड़ाते हुए बड़ी शान से बोले कि जानेमन, आज फिर से करारी टिकियों का आनंद लो. तब मैं ने चौंक कर पूछा कि मुझे आप ने पहले टिक्की कब खिलाई? इस पर जनाब बड़ी अकड़ के साथ बोले कि इतनी जल्दी भूल गई. अरे, शादी के बाद हनीमून मनाने जब मसूरी गए थे, क्या तब नहीं खिलाई थी एक प्लेट टिक्की?’’

आरती की बात पर संगीता और रवि खिलखिला कर हंसे. रमाकांत झेंपेझेंपे अंदाज में मुसकराते रहे. शरारत भरी चमक आंखें में ला कर आरती उन्हें बड़े प्यार से निहारती रहीं.

अचानक रमाकांत खड़े हुए और नाटकीय अंदाज में छाती फुलाते हुए रवि से बोले, ‘‘झठीसच्ची कहानियां सुना कर मेरी मां मेरा मजाक उड़ा रही है यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता.’’

‘‘आप को इस बारे में कुछ करना चाहिए, पापा,’’ रवि बड़ी कठिनाई से अपनी आवाज में गंभीरता पैदा कर पाया.

‘‘तू अभी जा और पूरे सौ रुपए की टिक्कीचाट ला कर इस के सामने रखे दे. इसे अपना पेट खराब करना है, तो मुझे क्या?’’

‘‘बात मेरी चाट की नहीं बल्कि संगीता के फिल्म न देख

पाने की चल रही थी, साहब,’’ आरती ने आंखें मटका कर उन्हें याद दिलाया.

‘‘रवि,’’ रमाकांत ने सामने बैठे बेटे को उत्तेजित लहजे में फिर से आवाज दी.

‘‘जी, पिताजी,’’ रवि ने फौरन मदारी के जमूरे वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘क्या तू जिंदगीभर अपनी बहू से फिल्म न दिखाने के ताने सुन कर अपमानित होना चाहेगा?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘तब 4 टिकट फिल्म के भी ले आ, मेरे लाल.’’

‘‘ले आता हूं, पर 4 टिकट क्यों?’’

‘‘हम दोनों भी इन की खुशी की खातिर 3 घंटे की यातना सह लेंगे.’’

‘‘जी,’’ रवि की आवाज कुछ कमजोर पड़ गई.

‘‘अपने घटिया मुकद्दर पर आंसू वहां लेंगे.’’

‘‘जी.’’

‘‘कभीकभी आंसू बहाना आंखों के लिए अच्छा होता है, बेटे.’’

‘‘जी.’’

‘‘जा फिर चाट और टिकट

ले आ.’’

‘‘लाइए, पैसे दीजिए.’’

‘‘अरे, अभी तू खर्च कर दे. मैं बाद में दे दूंगा.’’

‘‘उधार नहीं चलेगा.’’

‘‘मेरे पास सिर्फ 2-2 हजार के नोट हैं.’’

‘‘मैं तुड़ा देता हूं.’’

‘‘मुझ पर विश्वास नहीं तुझे?’’

रवि मुसकराता हुआ खामोश खड़ा रहा. तभी संगीता और आरती ने ‘‘कंजूस… कंजूस,’’ का नारा बारबार लगाना शुरू कर दिया.

रमाकांत ने उन्हें नकली गुस्से से घूरा, पर उन पर कोई असर नहीं हुआ. तब वे अचानक मुसकराए और फिर अपने पर्स से निकाल कर उन्होंने 5 सौ के 2 नोट रवि को पकड़ा दिए.

संगीता और आरती अपनी जीत पर खुश हो कर खूब जोर से हंसीं. उन की हंसी में रवि और रमाकांत भी शामिल हुए.

उस रात संगीता और रवि एकदूसरे की बांहों में कैद हो कर गहरी नींद सोए. उन का वाह रविवार बड़ा अच्छा गुजरा था. एक लंबे समय के बाद रवि ने दिल की गहराइयों से संगीता को प्रेम किया था. प्रेम से मिली तृप्ति के बाद उन्हें गहरी नींद तो आनी ही थी.

अगले दिन सुबह 6 बजे

के करीब रसोई से आ रही खटपट की आवाजें सुन कर संगीता की नींद टूटी. वह देर तक सोने की आदी थी. नींद जल्दी खुल जाए

तो उसे सिरदर्द पूरा दिन परेशान करता था.

सुबह बैड टी उसे रवि ही

7 बजे के बाद पिलाता था. उसे अपनी बगल में लेटा देख संगीता ने अंदाजा लगाया कि उस के सासससुर रसोई में कुछ कर रहे हैं.

संगीता उठे या लेटी रहे की उलझन को सुलझ नहीं पाई थी कि तभी आरती ने शयनकक्ष का दरवाजा खटखटाया.

दरवाजा खोलने पर उस ने अपनी सास को

चाय की ट्रे हाथ में लिए खड़ा पाया.

‘‘रवि को उठा दो बहू और दोनों चाय पी लो. आज की चाय तुम्हारे ससुर ने बनाई है. वे नाश्ता बनाने के मूड में भी हैं,’’ ट्रे संगीता के हाथों में पकड़ा कर आरती उलटे पैर वापस चली गईं.

संगीता मन ही मन कुढ़ गई. रवि को जागा हुआ देख उस ने मुंह फुला कर कहा, ‘‘नींद टूट जाने से सारा दिन मेरा सिरदर्द से फटता रहेगा. अपने मातापिता से कहो मुझे जल्दी न उठाया करें.’’

रवि ने हाथ बढ़ा कर चाय का गिलास उठाया और सोचपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘पापा को तो चाय तब बनानी नहीं आती थी. फिर वे आज नाश्ता बनाएंगे? यह चक्कर कुछ समझ में नहीं आया.’’

संगीता और सोना चाहती थी, पर वैसा कर नहीं सकी. रमाकांत और आरती ने रसोई में खटरपटर मचा कर उसे दबाव में डाल दिया था. बहू होने के नाते रसोई में जाना अब उस की मजबूरी थी.

चाय पीने के बाद जब संगीता रसोई में पहुंची, तब रवि उस के पीछपीछे था.

रसोई में रमाकांत पोहा बनाने की तैयारी में लगे थे. आरती एक तरफ स्टूल पर बैठी अखबार पढ़ रही थीं.

उन दोनों के पैर छूने के बाद संगीता ने जबरन मुसकराते हुए कहा, ‘‘पापा, आप यह क्या कर रहे हैं? पोहा मैं तैयार करती हूं… आप कुछ देर बाहर घूम आइए.’’

रमाकांत ने हंस कर कहा, ‘‘तेरी सास

से मैं ने 2-4 चीजें बनानी

सीखी हैं. ये सब करना मुझे अब बड़ा अच्छा लगता है. बाहर घूमने का काम आज तुम और रवि कर आओ.’’

‘‘मां, पापा ने रसोई के काम कब सीख लिए और उन्हें ऐसा करने की जरूरत क्या आ पड़ी थी?’’ रवि ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘तेरे पिता की जिद के आगे किसी की चलती है क्या? पतिपत्नी को घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां आपस में मिलजुल कर निभानी चाहिए, यह भूत इन के सिर पर अचानक कोविड-19 के लौकडाउन के दौरान चढ़ा और सिर्फ सप्ताहभर में पोहा, आमलेट, उपमा, सूजी की खीर, सादे परांठे और आलू की सूखी सब्जी बनाना सीख कर ही माने,’’ आरती ने रमाकांत को प्यार से निहारते हुए जवाब दिया.

‘‘यह तो कमाल हो गया,’’ रवि की आंखों में प्रशंसा के भाव उभरे.

‘‘जब तक मैं यहां हूं, तुम सब को नाश्ता कराना अब मेरा काम है,’’ रमाकांत ने जोशीले अंदाज में कहा.

‘‘आज पोहा खा कर ही हमें मालूम पड़ेगा कि रोजरोज आप का बनाया नाश्ता हम झेल पाएंगे या नहीं,’’ अपने इस मजाक पर सिर्फ रवि ही खुद हंसा.

‘‘आप रसोई में काम करें, यह ठीक नहीं है,’’ संगीता ने हरीमिर्च काट रहे रमाकांत के हाथ से चाकू लेने की कोशिश करी.

‘‘छोड़ न, बहू,’’ आरती ने उठ कर उस का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘ये रवि करेगा अपने पिता की सहायता. चल तू और मैं कुछ देर सामने वाले पार्क में घूम आएं. बड़ा सुंदर बना हुआ है पार्क.’’

संगीता ‘न… न,’ करती रही, पर आरती उसे घुमाने के लिए घर से बाहर ले ही गईं. इधर रमाकांत ने रवि को जबरदस्ती अपनी बगल में खड़ा कर पोहा बनाने की विधि सिखाई.

दीक्षा: क्या हुआ था प्राची के साथ

प्राची अपने कमरे में बैठी मैथ्यू आरनल्ड की कविता ‘फोरसेकन मरमैन’ पढ़ रही थी. कविता को पढ़ कर प्राची का मन बच्चों के प्रति घोर अशांति से भर उठा. उस के मन में सवाल उठा कि क्या कोई मां इतनी पत्थर दिल भी हो सकती है. वह सोचने लगी कि यदि धर्म का नशा वास्तव में इतना शक्तिशाली है तो उस का तो हंसताखेलता परिवार ही उजड़ जाएगा.

‘नहीं, वह अपने जीतेजी ऐसा कदापि नहीं होने देगी,’ प्राची ने मन ही मन यह फैसला किया कि धर्म के दलदल में फंसे पति को जैसे भी होगा वह वापस निकाल कर लाएगी.

पिछले कुछ महीनों से प्राची को अपने पति साहिल के व्यवहार में बदलाव नजर आने लगा था. कल तक उसे अपनी बांहों में भर कर जो साहिल जीवन के सच को उस की घनी जुल्फों के साए में ढूंढ़ता था आज वह उस से भागाभागा फिरता है.

साहिल अपने दोस्त सुधीर के गुरुजी के प्रवचनों से बेहद प्रभावित था. रहीसही कसर टेलीविजन चैनलों पर दिखाए जाने वाले उपदेशकों के प्रवचनों से पूरी हो गई थी. अब तो साहिल को एक ही धुन सवार थी कि किसी तरह स्वामीजी से दीक्षा ली जाए और इस के लिए साहिल आफिस से निकलते ही सीधा स्वामीजी के पास चला जाता. वहां से आने के बाद वह प्राची सेयह तक नहीं पूछता कि तुम कैसी हो या बेटा अक्षय कैसा है.

रोज की तरह साहिल उस दिन भी रात को 9 बजे घर आया. खाना खाने के बाद सीधे सोने की तैयारी करने लगा. एक सुंदर सी बीवी भी घर में है, इस का उसे कोई एहसास ही नहीं था.

आज प्राची इस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार थी. वह एक झटके से उठी और अपना हाथ साहिल के माथे पर रख दिया. इस पर साहिल हड़बड़ा कर उठा और पूछ बैठा, ‘‘क्या कोई काम है?’’

‘‘क्या सिर्फ काम के लिए ही पति और पत्नी का रिश्ता बना है?’’ प्राची ने दुखी स्वर में पूछा और फिर सुबकते हुए बोली, ‘‘तुम ने तो इस सहज स्वाभाविक व रसीले रिश्ते को नीरस बना डाला है. पिछले 2 महीने से तुम ने मेरी इस कदर उपेक्षा की है जैसे कि तुम्हारे जीवन में मेरा कोई स्थान ही नहीं है.

‘‘देखो प्राची, मैं स्वामीजी से

दीक्षा लेना चाहता हूं और इस के लिए उन्होंने मुझे हर प्रकार से शुद्ध रहने

को कहा है….’’

साहिल की बात को बीच में काटते हुए प्राची बोली, ‘‘इसीलिए तुम अपनी पत्नी की अवहेलना कर रहे हो. तुम ने सोचा भी कैसे कि पत्नी की उपेक्षा कर के तुम्हें मुक्ति मिल जाएगी? मुक्ति की ही चाह थी तो शादी के बंधन में ही क्यों पड़े?’’

प्राची की तल्ख बातें सुन कर साहिल हतप्रभ रह गया. उस ने पत्नी के इस रौद्र रूप की कल्पना भी नहीं की थी. फिर किसी तरह अपने को संभाल कर बोला, ‘‘प्राची, मैं तो बस आत्म अन्वेषण का प्रयास कर रहा था. मैं तुम्हें छोड़ने की बात सोच भी नहीं सकता.’’

‘‘ठीक है, तो तुम्हें बीवी या स्वामीजी में से किसी एक को चुनना होगा.’’ यह कह कर प्राची ने मुंह घुमा लिया.

अगले दिन साहिल दफ्तर न जा कर सीधा अपने दोस्त सुधीर के घर गया जहां स्वामीजी आसन जमा कर बैठे थे और उन के पास भक्तों की भीड़ लगी थी. साहिल को परेशान हाल देख कर स्वामीजी ने पूछा, ‘‘क्या बात है? बड़े परेशान दिख रहे हो, वत्स.’’

‘‘मुझे आप से एकांत में कुछ बात करनी है,’’ साहिल बोला.

स्वामीजी का इशारा होते ही कमरा खाली हो गया तो साहिल ने पिछली रात की सारी घटना ज्यों की त्यों स्वामीजी को सुना दी. इस पर स्वामीजी शांत भाव से बोले, ‘‘वत्स, घबराने की कोई बात नहीं है. साधना के मार्ग में तो इस तरह की विघ्न- बाधाएं आती ही हैं. शास्त्र कहता है कि यदि साधना के मार्ग में पत्नी, मां या सगेसंबंधी बाधक बनें तो उन्हें त्याग देना चाहिए.’’

स्वामीजी की यह बात सुन कर साहिल सोच में पड़ गया कि बिना किसी कुसूर के अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़ देना क्या उचित होगा?

साहिल को च्ंितित देख कर स्वामीजी बोले, ‘‘वत्स, एक उपाय है. अपनी पत्नी को भी यहां ले आओ. यहां आ कर उस का हृदय परिवर्तन भी हो सकता है और तब वह तुम्हें दीक्षा लेने से नहीं रोक सकती.’’

यह उपाय कारगर हो सकता है. ऐसा सोच कर साहिल स्वामीजी के चरणों में 501 रुपए रख कर चला गया.

साहिल के जाने के बाद सुधीर ने कमरे में आ कर स्वामीजी को देखते हुए जोर का ठहाका लगा कर कहा, ‘‘मान गए, स्वामीजी. अब तो यह आप की आंखों से देखता और आप के कानों से सुनता है.’’

साहिल घर जा कर प्राची को मनाने की कोशिश करने लगा. पहले तो प्राची साहिल को मना करती रही. फिर उस ने सोचा कि चल कर देखा जाए कि आखिर वहां का माजरा क्या है? उस ने साहिल से कहा कि हम रविवार की सुबह स्वामीजी के पास चलेंगे. साहिल ने फौरन इस बात की सूचना फोन पर सुधीर को दे दी.

अगले दिन साहिल के दफ्तर जाने के बाद प्राची ने फोन कर के सुधा को बुलाया. सुधा उस की बचपन की सहेली थी और उस के पति अरुण वर्मा शहर के एस.पी. थे. घर आने पर प्राची ने गर्मजोशी से अपनी सहेली सुधा का स्वागत किया.

बातोंबातों में जब सुधा ने कहा कि प्राची, जैसा मैं ने तुम्हें शादी में देखा था वैसी ही तुम आज भी दिखती हो तो प्राची फफकफफक कर रो पड़ी.

‘‘अरे, क्या हुआ, मैं ने कुछ गलत कह दिया क्या?’’ सुधा घबरा कर बोली.

प्राची शुरू  से ले कर अब तक की साहिल की कहानी सुधा के आगे बयान करने के बाद बोली, ‘‘अब तू ही बता सुधा, मैं अपने वैवाहिक जीवन को बचाने के लिए क्या करूं?’’

‘‘तू च्ंिता मत कर. मैं हूं न,’’ सुधा बोली, ‘‘ऐसा करते हैं, पहले चल कर अरुण से बात करते हैं. फिर जैसी वह सलाह देंगे वैसा ही करेंगे.’’

इस के बाद सुधा प्राची को ले कर अपने घर गई और फोन कर अरुण को भी बुला लिया.

प्राची की सारी बात सुन कर अरुण बोले, ‘‘आप च्ंिता न करें. मैं अब उस स्वामी का खेल ज्यादा दिनों तक नहीं चलने दूंगा. इस के बारे में अभी तक जितनी जानकारी मेरे हाथ लगी है, उस से यही लगता है कि ऐसा कोई अपराध नहीं जो उस ने न किया या करवाया हो. पहले वह तुम्हारे पति जैसे अंधविश्वासी लोगों को हाथ की सफाई से दोचार चमत्कार दिखा कर प्रभावित करता है. इस के बाद दान के नाम पर पैसे ऐंठता है, फिर युवा महिलाओं को दीक्षित करने के बहाने उन की इज्जत लूटता है. अभी कुछ दिन पहले इसी स्वामी की काली करतूतों के बारे में एक गुमनाम पत्र मेरे पास भी आया था जिस में इज्जत लूटने के बाद ब्लैकमेल करने की बात लिखी गई थी. प्राची, अगर तुम मेरी मदद करो तो मैं एक बहुत बड़े ढोंगी का परदाफाश कर सकता हूं.’’

‘‘मैं इस अभियान में आप के साथ हूं. बताइए, मुझे क्या करना होगा?’’ प्राची आत्मविश्वास के साथ बोली.

अरुण ने प्राची को अपनी योजना बता दी और उसे च्ंितामुक्त हो कर घर जाने के लिए कहा.

शाम को साहिल ने प्राची को बताया कि स्वामीजी अपने आश्रम में चले गए हैं. अब उन के आश्रम में जा कर आशीर्वाद लेना होगा.

रविवार को जाने से पहले प्राची ने अरुण को फोन किया और बेटे को पड़ोसिन के पास छोड़ कर वह पति के साथ आश्रम के लिए रवाना हो गई.

ठीक 10 बजे दोनों आश्रम पहुंच गए. आश्रम बहुत भव्य था. अंदर जाते ही उन्हें सुधीर मिल गया. वह उन्हें एक वातानुकूलित कमरे में बैठाते हुए बोला, ‘‘स्वामीजी ने कहा है कि 1 घंटे के बाद वह तुम लोगों से मिलेंगे.’’

सुधीर उन्हें स्वागत कक्ष में बैठा कर चला गया. फिर कुछ देर बाद आ कर उन दोनों को स्वामीजी के निजी कमरे में ले गया. साहिल और प्राची ने हाथ जोड़ कर स्वामीजी का अभिवादन किया और उन के आसन के सामने बिछी दरी पर बैठ गए.

प्राची को संबोधित करते हुए स्वामीजी बोले, ‘‘मैं ने सुना है कि तुम साहिल के दीक्षा लेने के खिलाफ हो.’’

प्राची ने विनम्र स्वर में उत्तर दिया, ‘‘महाराज, आजकल के माहौल को देखते हुए ही मैं साहिल की दीक्षा के खिलाफ थी, लेकिन यहां आ कर मेरा हृदय परिवर्तन हो गया है. अब मेरे पति की दीक्षा में मेरी ओर से कोई बाधा नहीं होगी.’’

‘‘क्यों नहीं तुम भी अपने पति के साथ दीक्षा ले लेतीं,’’ स्वामीजी बोले, ‘‘इस से तुम दोनों का जल्दी ही उद्धार होगा.’’

प्राची ने कहा, ‘‘मेरा अहोभाग्य, जो आप ने मुझे इस लायक समझा.’’

अगले रविवार को दीक्षा का दिन निर्धारित कर दिया गया. स्वामीजी ने सुधीर से कहा कि उन्हें ले जा कर दीक्षा की औपचारिकताओं के बारे में बता दो. प्राची को पता चला कि दीक्षा लेने से पहले भक्त को 10 हजार रुपए जमा करवाने पड़ते हैं.

प्राची ने घर आ कर सुधा को फोन पर सारी बात बताई और फिर देखते ही देखते उन के दीक्षा लेने का दिन भी आ गया.

दीक्षा वाले दिन स्वामीजी के निजी कमरे में प्राची और साहिल जब पहुंचे तो 3 पुरुष और 2 महिलाएं वहां पहले ही मौजूद थे.

साहिल भावविभोर हो कर प्रणाम करने के लिए आगे बढ़ा तो स्वामीजी बोले, ‘‘वत्स, जाओ, तुम दोनों पहले स्नान कर के शुद्ध हो जाओ. उस के बाद श्वेत वस्त्र धारण कर के यहां मेरे पास आओ.’’

इस के बाद प्राची को किरण नाम की एक महिला स्नान कराने के लिए ले गई.

उस ने स्नानघर का दरवाजा खोला और किरण को श्वेत वस्त्र देने के लिए कहा. किरण ने बताया कि स्नानघर के कोने में बनी अलमारी में श्वेत वस्त्र रखे हैं.

प्राची बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद कर सतर्कता के साथ वहां का जायजा लेने लगी. अचानक उस की नजर शावर के ऊपर लगी एक छोटी सी वस्तु पर पड़ी. उस के दिमाग में बिजली सी कौंध गई कि कहीं यह कैमरा तो नहीं. फिर हिम्मत से काम लेते हुए प्राची ने अपना दुपट्टा निकाल कर कैमरे को ढंक दिया और कमीज की जेब से मोबाइल निकाल कर अरुण को फोन मिला कर बोली, ‘‘हैलो, जीजाजी, यहां बहुत गड़बड़ लग रही है. आप फौरन आ जाइए.’’

अरुण ने जवाब में कहा, ‘‘घबराओ नहीं, प्राची, मैं आश्रम के पास ही हूं.’’

उसी समय फटाक की आवाज के साथ अलमारी का दरवाजा खुला और सुधीर ने प्राची का हाथ पकड़ कर उसे अलमारी के अंदर खींच लिया.

प्राची ने प्रतिरोध करने की बहुत कोशिश की, पर सब व्यर्थ. सुधीर उसे जबरन खींचता हुआ स्वामी के निजी कमरे में ले गया जहां उस को देखते ही स्वामीजी फट पड़े, ‘‘लड़की, तू ने मुझ से झगड़ा मोल ले कर अच्छा नहीं किया. तेरी इज्जत की अभी मैं च्ंिदीच्ंिदी किए देता हूं.’’

‘‘बदमाश, धोखेबाज, तेरी इज्जत की धज्जियां तो अब उडे़ंगी,’’ प्राची बेखौफ हो कर बोली, ‘‘जरा बाहर निकल कर तो देख. पुलिस तेरे स्वागत में खड़ी है.’’

तभी फायर होने की आवाज के साथ ही स्वामी के कमरे के दरवाजे पर जोर से थपथपाहट होने लगी. इस से पहले कि स्वामी और सुधीर कुछ कर पाते प्राची ने भाग कर दरवाजा खोल दिया.

सामने अरुण पुलिस बल के साथ खड़े थे. स्वामीजी लड़खड़ाते हुए बोले, ‘‘अच्छा हुआ, एस.पी. साहब, आप यहां आ गए अन्यथा यह कुलटा मुझे पथभ्रष्ट करने ही यहां आई थी.’’

अरुण ने खींच कर एक तमाचा स्वामी के मुंह पर मारा और पुलिस वाले लहजे में गाली देते हुए बोला, ‘‘तू क्या चीज है मैं अच्छी तरह जानता हूं. तेरे तमाम अपराधों की सूची मेरे पास है. बता, साहिल कहां है?’’

स्वामी ने एक कमरे की ओर इशारा किया तो पुलिस वाले साहिल को ले आए. वह अर्धबेहोशी की हालत में था.

अरुण ने स्वामी और सुधीर को पुलिस स्टेशन भेजने के बाद साहिल को अस्पताल भिजवाने का इंतजाम किया.

रात को अरुण प्राची और साहिल का हाल जानने आए तो साथ में सुधा भी थी. उन के जाने के बाद साहिल प्यार से प्राची की ओर देख कर बोला, ‘‘भई, दीक्षा तो मुझे अब भी चाहिए, तुम्हारे प्रेम की दीक्षा.’’

‘‘उस के लिए तो मैं सदैव तैयार हूं,’’ कहते हुए प्राची ने साहिल के सीने में अपना सिर छिपा लिया.

बहू-बेटी का फर्क: क्या सपना के बेटे का फैसला सही था

जब से वे सपना की शादी कर के मुक्त हुईं तब से हर समय प्रसन्नचित्त दिखाई देती थीं. उन के चेहरे से हमेशा उल्लास टपकता रहता था. महरी से कोई गलती हो जाए, दूध वाला दूध में पानी अधिक मिला कर लाए अथवा झाड़ ूपोंछे वाली देर से आए, सब माफ था. अब वे पहले की तरह उन पर बरसती नहीं थीं. जो भी घर में आता, उत्साह से उसे सुनाने बैठ जातीं कि उन्होंने कैसे सपना की शादी की, कितने अच्छे लोग मिल गए, लड़का बड़ा अफसर है, देखने में राजकुमार जैसा. फिर भी एक पैसा दहेज का नहीं लिया. ससुर तो कहते थे कि आप की बेटी ही लक्ष्मी है और क्या चाहिए हमें. आप की दया से घर में सब कुछ तो है, किसी बात की कमी नहीं. बस, सुंदर, सुसंस्कृत व सुशील बहू मिल गई, हमारे सारे अरमान पूरे हो गए.

शादी के बाद पहली बार जब बेटी ससुराल से आई तो कैसे हवा में उड़ी जा रही थी. वहां के सब हालचाल अपने घर वालों को सुनाती, कैसे उस की सास ने इतने दिनों पलंग से नीचे पांव ही नहीं धरने दिया. वह तो रानियों सी रही वहां. घर के कामों में हाथ लगाना तो दूर, वहां तो कभी मेहमान अधिक आ जाते तो सास दुलार से उसे भीतर भेजती हुई कहती, ‘‘बेचारी सुबह से पांव लगतेलगते थक गई, नातेरिश्तेदार क्या भागे जा रहे हैं कहीं. जा, बैठ कर आराम कर ले थोड़ी देर.’’

और उस की ननद अपनी भाभी को सहारा दे कर पलंग पर बैठा आती.

यह सब जब उन्होंने सुना तो फूली नहीं समाईं. कलेजा गज भर का हो गया. दिन भर चाव से रस लेले कर वे बेटी की ससुराल की बातें पड़ोसिनों को सुनाने से भी नहीं चूकतीं. उन की बातें सुन कर पड़ोसिन को ईर्ष्या होती. वे सपना की ससुराल वालों को लक्ष्य कर कहतीं, ‘‘कैसे लोग फंस गए इन के चक्कर में. एक पैसा भी दहेज नहीं देना पड़ा बेटी के विवाह में और ऐसा शानदार रोबीला वर मिल गया. ऊपर से ससुराल में इतना लाड़प्यार.’’

उस दिन अरुणा मिलने आईं तो वे उसी उत्साह से सब सुना रही थीं, ‘‘लो, जी, सपना को तो एम.ए. बीच में छोड़ने तक का अफसोस नहीं रहा. बहुत पढ़ालिखा खानदान है. कहते हैं, एम.ए. क्या, बाद में यहीं की यूनिवर्सिटी में पीएच.डी. भी करवा देंगे. पढ़नेलिखने में तो सपना हमेशा ही आगे रही है. अब ससुराल भी कद्र करने वाला मिल गया.’’

‘‘फिर क्या, सपना नौकरी करेगी, जो इतना पढ़ा रहे हैं?’’ अरुणा ने उन के उत्साह को थोड़ा कसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जी, भला उन्हें क्या कमी है जो नौकरी करवाएंगे. घर की कोठी है.  हजारों रुपए कमाते हैं हमारे दामादजी,’’ उन्होंने सफाई दी.

‘‘तो सपना इतना पढ़लिख कर क्या करेगी?’’

‘‘बस, शौक. वे लोग आधुनिक विचारों के हैं न, इसलिए पता है आप को, सपना बताती है कि सासससुर और बहू एक टेबल पर बैठ कर खाना खाते हैं. रसोई में खटने के लिए तो नौकरचाकर हैं. और खानेपहनाने के ऐसे शौकीन हैं कि परदा तो दूर की बात है, मेरी सपना तो सिर भी नहीं ढकती ससुराल में.’’

‘‘अच्छा,’’ अरुणा ने आश्चर्य से कहा.

मगर शादी के महीने भर बाद लड़की ससुराल में सिर तक न ढके, यह बात उन के गले नहीं उतरी.

‘‘शादी के समय सपना तो कहती थी कि मेरे पास इतने ढेर सारे कपड़े हैं, तरहतरह के सलवार सूट, मैक्सी और गाउन, सब धरे रह जाएंगे. शादी के बाद तो साड़ी में गठरी बन कर रहना होगा. पर संयोग से ऐसे घर में गई है कि शादी से पहले बने सारे कपड़े काम में आ रहे हैं. उस के सासससुर को तो यह भी एतराज नहीं कि बाहर घूमने जाते समय भी चाहे…’’

‘‘लेकिन बहनजी, ये बातें क्या सासससुर कहेंगे. यह तो पढ़ीलिखी लड़की खुद सोचे कि आखिर कुंआरी और विवाहिता में कुछ तो फर्क है ही,’’ श्रीमती अरुणा से नहीं रहा गया.

उन्होंने सोचा कि शायद श्रीमती अरुणा को उन की पुत्री के सुख से जलन हो रही है, इसीलिए उन्होंने और रस ले कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो डरती थी. मेरी सपना को शुरू से ही सुबह देर से उठने की आदत है, पराए घर में कैसे निभेगी. पर वहां तो वह सुबह बिस्तर पर ही चाय ले कर आराम से उठती है. फिर उठे भी किस लिए. स्वयं को कुछ काम तो करना नहीं पड़ता.’’

‘‘अब चलूंगी, बहनजी,’’ श्रीमती अरुणा उठतेउठते बोलीं, ‘‘अब तो आप अनुराग की भी शादी कर डालिए. डाक्टर हो ही गया है. फिर आप ने बेटी विदा कर दी. अब आप की सेवाटहल के लिए बहू आनी चाहिए. इस घर में भी तो कुछ रौनक होनी ही चाहिए,’’ कहतेकहते श्रीमती अरुणा के होंठों की मुसकान कुछ ज्यादा ही तीखी हो गई.

कुछ दिनों बाद सपना के पिता ने अपनी पत्नी को एक फोटो दिखाते हुए कहा, ‘‘देखोजी, कैसी है यह लड़की अपने अनुराग के लिए? एम.ए. पास है, रंग भी साफ है.’’

‘‘घरबार कैसा है?’’ उन्होंने लपक कर फोटो हाथ में लेते हुए पूछा.

‘‘घरबार से क्या करना है? खानदानी लोग हैं. और दहेज वगैरा हमें एक पैसे का नहीं चाहिए, यह मैं ने लिख दिया है उन्हें.’’

‘‘यह क्या बात हुई जी. आप ने अपनी तरफ से क्यों लिख दिया? हम ने क्या उसे डाक्टर बनाने में कुछ खर्च नहीं किया? और फिर वे जो देंगे, उन्हीं की बेटी की गृहस्थी के काम आएगा.’’

अनुराग भी आ कर बैठ गया था और अपने विवाह की बातों को मजे ले कर सुन रहा था. बोला, ‘‘मां, मुझे तो लड़की ऐसी चाहिए जो सोसाइटी में मेरे साथ इधरउधर जा सके. ससुराल की दौलत का क्या करना है?’’

‘‘बेशर्म, मांबाप के सामने ऐसी बातें करते तुझे शर्म नहीं आती. तुझे अपनी ही पड़ी है, हमारा क्या कुछ रिश्ता नहीं होगा उस से? हमें भी तो बहू चाहिए.’’

‘‘ठीक है, तो मैं लिख दूं उन्हें कि सगाई के लिए कोई दिन तय कर लें. लड़की दिल्ली में भैयाभाभी ने देख ही ली है और सब को बहुत पसंद आई है. फिर शक्लसूरत से ज्यादा तो पढ़ाई- लिखाई माने रखती है. वह अर्थशास्त्र में एम.ए. है.’’

उधर लड़की वालों को स्वीकृति भेजी गई. इधर वे शादी की तैयारी में जुट गईं. सामान की लिस्टें बनने लगीं.

अनुराग जो सपना के ससुराल की तारीफ के पुल बांधती अपनी मां की बातों से खीज जाता था, आज उन्हें सुनाने के लिए कहता, ‘‘देखो, मां, बेकार में इतनी सारी साडि़यां लाने की कोई जरूरत नहीं है, आखिर लड़की के पास शादी के पहले के कपड़े होंगे ही, वे बेकार में पड़े बक्सों में सड़ते रहें तो इस से क्या फायदा.’’

‘‘तो तू क्या अपनी बहू को कुंआरी छोकरियों के से कपड़े यहां पहनाएगा?’’ वह चिल्ला सी पड़ीं.

‘‘क्यों, जब जीजाजी सपना को पहना सकते हैं तो मैं नहीं पहना सकता?’’

वे मन मसोस कर रह गईं. इतने चाव से साडि़यां खरीद कर लाई थीं. सोचा था, सगाई पर ही लड़की वालों पर अच्छा प्रभाव पड़ गया तो वे बाद में अपनेआप थोड़ा ध्यान रखेंगे और हमारी हैसियत व मानसम्मान ऊंचा समझ कर ही सबकुछ करेंगे. मगर यहां तो बेटे ने सारी उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया.

रात को सोने के लिए बिस्तर पर लेटीं तो कुछ उदास थीं. उन्हें करवटें बदलते देख कर पति बोले, ‘‘सुनोजी, अब घर के काम के लिए एक नौकर रख लो.’’

‘‘क्यों?’’ वह एकाएक चौंकीं.

‘‘हां, क्या पता, तुम्हारी बहू को भी सुबह 8 बजे बिस्तर पर चाय पी कर उठने की आदत हो तो घर का काम कौन करेगा?’’

वे सकपका गईं.

सुबह उठीं तो बेहद शांत और संतुष्ट थीं. पति से बोलीं, ‘‘तुम ने अच्छी तरह लिख दिया है न, जी, जैसी उन की बेटी वैसी ही हमारी. दानदहेज में एक पैसा भी देने की जरूरत नहीं है, यहां किस बात की कमी है, मैं तो आते ही घर की चाबियां उसे सौंप कर अब आराम करूंगी.’’

‘‘पर मां, जरा यह तो सोचो, वह अच्छी श्रेणी में एम.ए. पास है, क्या पता आगे शोधकार्य आदि करना चाहे. फिर ऐसे में तुम घर की जिम्मेदारी उस पर छोड़ दोगी तो वह आगे पढ़ कैसे सकेगी?’’ यह अनुराग का स्वर था.

उन की समझ में नहीं आया कि एकाएक क्या जवाब दें.

कुछ दिन बाद जब सपना ससुराल से आई तो वे उसे बातबात पर टोक देतीं, ‘‘क्यों री, तू ससुराल में भी ऐसे ही सिर उघाड़े डोलती रहती है क्या? वहां तो ठीक से रहा कर बहुओं की तरह और अपने पुराने कपड़ों का बक्सा यहीं छोड़ कर जाना. शादीशुदा लड़कियों को ऐसे ढंग नहीं सुहाते.’’

सपना ने जब बताया कि वह यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रही है तो वे बरस ही पड़ीं, ‘‘अब क्या उम्र भर पढ़ती ही रहेगी? थोड़े दिन सासससुर की सेवा कर. कौन बेचारे सारी उम्र बैठे रहेंगे तेरे पास.’’

आश्चर्यचकित सपना देख रही थी कि मां को हो क्या गया है?

स्वर्ण मृग : झूठ और फरेब के रास्ते पर चल पड़ी दीपा

लेखक-  आदर्श मलगूरिया

स्मिता और दीपा मौल में बने सिनेमाहौल से निकलीं तो अंधेरा छा चुका था. दोनों को पिक्चर खूब पसंद आई थी. साइंस फिक्शन की पिक्चर थी. हीरो के साथ दूरदराज के किसी ग्रह पर भटकते, स्पोर्स पर बने तिलिस्मी महल में खलनायक के मशीनी दैत्यों से जूझते और मौत के चंगुल से निकलते हीरो को 3डी में देख कर स्मिता जैसे अपने को हीरो की प्रेमिका मान बैठी थी. बत्तियां जलीं तो उस के पांव यथार्थ के ठोस धरातल पर आ टिके. स्वप्न संसार जैसे कपूर सा उड़ गया.

स्मिता और दीपा सोच रही थीं कि अब टैक्सी के लिए देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी या फिर डलहौजी स्क्वेयर या मैट्रो तक पैदल चलना पड़ेगा. वह भी दूर ही था. ऊपर से काले बादल गहराते जा रहे थे. यदि कहीं तेज बारिश हो गई तो ट्रैफिक जाम हो जाएगा और फिर सड़कों पर जमे पानी के दर्पण में कितनी

देर तक भवनों, बत्तियों के प्रतिबिंब झिलमिलाते रहेंगे.

रात को देर से घर पहुंचने पर मौमडैड को ही नहीं बल्कि बिल्डिंग के गार्ड्स की तेज आंखों को भी कैफियत देनी पड़ेगी. स्मिता के मन में यही विचार घुमड़ रहे थे. उस की बिल्डिंग क्या थी, एक अंगरेजों के जमाने का खंडहर था जिस में 20 परिवार रहते थे. एक गार्ड जरूर रखा गया था ताकि चंदा मांगने वाले या पार्टी के लोगों को आने से रोका जा सके.

दीपा निश्चिंत हो कर 2 पैकेट मिक्स खरीद चुकी थी. एक पैकेट स्मिता की ओर बढ़ाती हुई वह हंस दी, ‘‘लो, यही चबा जब तक कार नहीं आती.’’

‘‘तुझे तो कोई चिंता नहीं है न. यहां मेरे घर पर पहुंचने पर ही कितनी पूछताछ शुरू हो जाएगी. यह शो देखना जरूरी था क्या? कितनी बार कहा था कि इतवार को दिन के शो में चलेंगे पर तु?ा पर तो इस साइंस फिक्शन का भूत चढ़ा था,’’ स्मिता चिल्लाई.

‘‘अरे भई, शुक्रवार को यह पिक्चर बदल न जाती?’’ दीपा ने अपना तर्क पेश किया.

‘‘पर अब घर पहुंचना मुश्किल हो जाएगा. तुझे तो कोई चिंता नहीं है पर मुझे कितनी जगह कैफियत देनी पड़ती है,’’ स्मिता चिंतित हो उठी थी.

किंतु दीपा इस तरह की चिंताओं से दूर थी. वह अपने परिवार से अलग रहती थी इसलिए पूरी तरह स्वतंत्र थी. दीपा के मांबाप अपने परिवार के साथ उत्तर प्रदेश के एक कसबे में रहते थे. दीपा यहां कोलकाता में पहले एक महिला होस्टल में कई वर्षों तक  रहती रही. फिर एक पुरुष मित्र के साथ दोस्ती होने पर दोनों ने आपस में एक लिव इन में रहना तय कर लिया था. वे स्वेच्छा से इस संबंध को समाप्त भी कर सकते थे परंतु दीपा को विश्वास था कि उस का पार्टनर कभी उस के मोहपाश से नहीं निकल पाएगा.

दीपा अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट थी. वह नौकरी करते हुए अपने परिवार व छोटे भाईबहनों की पढ़ाई के लिए अपने वेतन का बड़ा भाग भेज देती थी. स्वयं भी मजे से रह रही थी. उस के पार्टनर ने उसे एक कमरे का सुंदर फ्लैट किराए पर ले कर दे रखा था. सप्ताह में लगभग 3 बार वह उस के साथ रहता था.

स्मिता ने इसी बात की ओर संकेत किया था. कभीकभी दीपा के उन्मुक्त तथा अंकुश रहित जीवन पर उसे बड़ी ईर्ष्या होती थी. दोनों की स्थितियों में कितना अंतर था. दीपा की स्थितियों में कितना अंतर था. दीपा को आर्थिक दृष्टि से कोई चिंता नहीं थी और वह एक समर्थ पुरुष की प्रेमिका और एक तरह से उस की पत्नी थी. इस तरह वह स्वतंत्र अस्तित्व की स्वामिनी थी. रोकटोक रहित जीवन व्यतीत करती हुई वह हर तरह से सुखी थी. दूसरी ओर स्मिता जैसे कुंआरी भावनाओं की उमंगों की लाश मात्र रह गई थी.

कारखाने की एक दुर्घटना में हाथ कटने पर स्मिता के पिताजी जैसे जीतेजी मृत से हो गए थे. अधूरी पढ़ाई छोड़ कर टाइपिंग तथा शौर्टहैंड सीख कर उस ने परिवार का जो जुआ कंधे पर उठाया था, वह छोटी बहन व भाई की शादी के बाद भी नहीं उतरा था. अब वह हांफते और मुंह से लार गिराते थके टूटे बैल की तरह हो रही थी, जिस पर रोज छोटे भाई गैरी के तानों, मां की ग्रौसरी की चिंता, छोटी भाभी की नए कपड़ों की मांगों व निरीह पिता को दवाइयों के लिए कांपते बढ़ते हाथों के कोड़े बरसते थे.

स्मिता इसी में संतुष्ट रहना चाहती थी परंतु कभीकभी दीपा व अन्य सहेलियों को देख कर सांसारित सुख के सागर से कुछ पीने के लिए ललचा उठती थी पर उसी शहर में अपने परिवार वालों की आंखों के आगे रहते यह संभव नहीं था.

अचानक किसी कार के हौर्न की तीखी आवाज से उस के खयालों को झटका लगा. परिचित नंबर वाली एक एसयूवी सामने आ कर रुकी. रमेश स्टियरिंग पर बैठा उन्हें कार में आने का इशारा कर रहा था. स्मिता पहले तो सकुचाई, फिर घिरते हुए अंधेरे, वर्षा की रिमझिम और दीपा की कड़ी दृष्टि के संकेत ने उसे लिफ्ट स्वीकार करने पर विवश कर दिया. वैसे भी डर क्या था? वह तो है ही घोंचू सी. दीपा की खिलखिलाहट ने  उसे इस बात का एहसास करवा दिया.

रमेश उसी की फैक्टरी का असिस्टैंट मैनेजर था. सुना जाता था कि गांव की जमीनजायदाद से भी उसे काफी आमदमी होती थी. हंसमुख, सहृदय व लोकप्रिय होना शायद उच्च पद व धनी होने से संबंध रखता है. तभी तो रमेश इतने खुले दिल का और खुशमिजाज था, नहीं तो स्मिता के तबके के लोग कैसे डरेडरे, दयनीय लगते थे.

दीपा का घर पहले पड़ता था. उसे उतार कर रमेश स्मिता से उस के घरपरिवार तथा इधरउधर की बातें करता रहा. उस के अपनत्व के कारण उस के संकोच की गांठें धीरेधीरे खुलती गईं. अपना घर करीब आने से पहले ही उस ने कार रुकवा ली.

रमेश हाथ हिलाता चला गया. घुटनेघुटने तक पानी में वह घर पहुंची. मां ने चायनाश्ता बन कर सामने रखा. भाभी दांतों तले होंठ दबा कर यह कहने से बाज नहीं आई. ‘‘बड़ी देर कर दी, स्मिता दी.’’

‘‘हां, बारिश में फंस गई थी.’’

स्मिता भला और क्या कहती? मगर आधे घंटे बाद जैरी, जिस का असली नाम जैमिनी रौय था ने आ कर पूछा, ‘‘गाड़ी मोड़ पर ही क्यों रुकवा दी, दीदी? घर तक क्यों नहीं ले आईं. पैदल आने की क्या जरूरत थी?’’

स्मिता के तनबदन में आगे लग गई. उसे क्या हर छोटेबड़े के आगे सफाइ देनी पड़ेगी? क्या यही सिला है इस घर के लोगों के लिए मरनेखटने का?

चाय छोड़ कर वह अपने कमरे में चली गई. पीछे से मां की आवाज आती रही. मां जैरी को डांट रही थी, ‘‘क्यों आते ही उस के पीछे पड़ गया? बड़ेछोटे का भी लिहाज नहीं है?’’

‘‘वह भी तो मुझे टोकती रहती है,’’ जैरी इस तरह उस से बदला ले रहा था.

‘‘मुझे क्या, जो मरजी हो करे,’’ स्मिता ने जैरी की बात सुन कर मन ही मन सोचा. उस का हृदय कड़वाहट से भर गया था. उस ने तय कर लिया कि वह आज के जमाने के साथ चलेगी.

धीरेधीरे स्मिता के व्यवहार में अंतर आने लगा, जिसे दफ्तर के लोगों ने भी लक्ष्य किया. अब वह पहले वाली संकोची स्मिता नहीं रह गई थी. अपने सहकर्मियों से वह खुल कर गपशप लगाती थी. बातबात पर हंसतीखिलखिलाती थी. सब को पता था कि वह परिवर्तन रमेश की बदौलत है.

अब स्मिता की शामें अकसर रमेश के साथ गुजरतीं. कभी रात का भोजन, कभी चाय, कभी पार्क स्ट्रीट के एक से एक महंगे रेस्तरां में प्रोग्राम रहता. उस ने घर वालों की परवाह करना ही छोड़ दिया था.

धीरेधीरे रमेश उसे अपने दुखी पारिवारिक जीवन की कहानियां सुनाने लगा, उस ने बताया कि उस की पत्नी बिलकुल अनपढ़, झगड़ालू तथा गंवार औरत है. घर में पैर रखते ही उस का सिर भन्ना जाता है क्योंकि वह दिनरात चखचख लगाए रखती है. फिर रमेश धीरे से उस का हाथ दवा कर कहता, ‘‘तुम से वर्षों पहले मुलाकात क्यों नहीं हो गई?’’

‘‘मुलाकात होने से भी क्या होगा? मैं तो तब भी अपनी सलीब ढो रही थी,’’ स्मिता फीकी हंसी हंस देती. वह बीते वर्षों के बारे में सोचती तो उसे सबकुछ गलत लगता. अब शायद भागते समय से मुट्ठीभर प्रसन्नता छीन कर जी सके.

आखिर एक दिन रमेश ने चाय पीते समय उस के सामने लिव इन करने का प्रस्ताव रख दिया. रमेश उसे शहर के आधुनिक इलाके में एक छोटा सा फ्लैट ले देगा. स्मिता की आंखों के सामने सुखी गृहस्थी, बच्चे और अपने घर के इंद्रधनुषी रंग छितराने लगे. वह अपनी पत्नी को छोड़ देगा पर थोड़े दिन बाद क्योंकि तलाक में टाइम लगता है.

उस के अपने परिवार वालों को उस की आवश्यकता नहीं रह गई थी. पीछा छूट जाने पर वे भी प्रसन्न ही होंगे. और वह अब कहीं जा कर स्वयं अपने ढंग से जीवन जी सकेगी. जीवन के इस मोड़ पर आ कर कौन उस की मांग भर कर विधिविधान से 7 फेरे ले कर उसे दुलहन बनाएगा? जो मिल रहा है, वही सही. उस की जानपहचान की कितनी ही लड़कियां इस तरह लिव इन में रह कर प्रसन्न थीं. अगर वह भी ऐस कर ले तो क्या हरज है?

रमेश जैसा भला आदमी उसे फिर कहां मिलेगा और फिर वह अपने परिवार के दुखों से भी छुटकारा पा लेगी. एक पल में स्मिता यह सब सोच गई.

रमेश ने उस की आंखों में आंखें डाल दीं, ‘‘देख लो, तुम्हारा गुलाम बन कर रहूंगा. बच्चों के कारण पत्नी से पीछा नहीं छुड़ा सकता, नहीं तो किसी तरह उसे तलाक दे कर आज ही तुम्हारे साथ विवाह कर लेता. उस गंवार से मुझे अशांति के सिवा और मिलता ही क्या है? सुख के लिए सिर्फ तुम्हारे आगे ही हाथ फैला सकता हूं.’’

सुख से उस का आशय मानसिक था या शारीरिक, स्मिता समझ नहीं पाई. उस समय वह उसे सम?ाना भी नहीं चाहती थी.

‘‘न्यू अलीपुर में मेरे एक दोस्त का फ्लैट खाली है. 1 वर्ष के लिए वह विदेश गया हुआ है. उस की चाबी मेरे पास ही है. फिलहाल तुम उसी में रह लेना. बाद में तुम्हारे लिए कोई अच्छा फ्लैट ले लूंगा.’’

रमेश ने बिल चुकाया और दोनों बाहर आ गए. उसे उस की गली के मोड़ पर छोड़ कर वह चला गया. लेकिन उस दिन घर पहुंचने पर जैरी के कटाक्ष करने पर भी उसे क्रोध नहीं आया. सोचा, बस थोड़े दिन और कह ले जो भी मन में आए, अब उसे क्या परवाह है?

शनिवार को छोटी बहन इमामी मौल में चल रही एक नई फिल्म के 2 टिकट ले आई. दोनों दोपहर का शो देखने चली गईं. शो शुरू होने में अभी कुछ देर थी. दोनों पास की दुकानों में कुछ खरीदारी करने निकल गईं.

‘‘क्यों दीदी, जो कुछ मैं ने सुना है वह ठीक है?’’ छोटी बहन पूछ बैठी.

स्मिता कुछ नहीं बोली. मुसकरा भर दी. उस ने सोचा कि अब धीरेधीरे इन लोगों को बता ही दे कि वह बेचारी स्मिता नहीं रह गई. तभी उस की दृष्टि सामने के कार पार्क पर जा पड़ी.

रमेश कार का शीशा बंद कर रहा था. पास ही आधुनिक वेशभूषा में सुसज्जित कोई महिला खड़ी थी. रमेश के साथ ही शायद उस के कोई मित्र दंपती थे. स्मिता ओट में हो गई. रमेश के मित्र हंस कर कह रहे थे, ‘‘आज आप कैसे पकड़ में आ गए?’’

‘‘भई, आशा ने टिकट बुक कर रखे थे

सो आना ही पड़ा. मुझ से अगर बुक कराने को कहती तो…’’

‘‘तो यह रमेश की पत्नी है? आधुनिकता के अभिमान से भरीपूरी. वह पति को उलाहना दे रही थी और मानसिक अशांति की दुहाई देने वाला स्मिता का अधेड़ प्रेमी खीसें निपोर रहा था.

‘उफ, इतना झूठ,’ सोच स्मिता ने माथा थाम लिया.

‘‘क्या हुआ, दी?’’  छोटी बहन घबरा गई.

‘‘कुछ नहीं, यों ही चक्कर सा आ गया था,’’ स्मिता ने अपनेआप को संभाला. फिर पिक्चर में क्या दिखाया गया है, उसे कुछ याद नहीं रहा. वह तो किसी और ही उधेड़बुन में पड़ी थी.

सोमवार को दफ्तर पहुंचने पर पता चला कि रमेश दौरे पर चला गया है. स्मिता को राहत मिली. वह अभी उस का सामना नहीं करना चाहती थी. साथ ही समाचार मिला कि दीपा नर्सिंगहोम में भरती है. दीपा पास के ही एक दफ्तर में काम करती थी. शाम को स्मिता रजनीगंधा के फूल खरीद कर उसे देखने पहुंची. दीपा का मुख एकदम पीला पड़ चुका था.

‘‘क्या हो गया अचानक?’’ स्मिता उसे देख कर घबरा गई.

‘‘कुछ नहीं, अपनी भूल का दंड भुगत रही हूं.’’

स्मिता का दिल जोरों से धड़कने लगा. दीपा के ‘मैत्री करार’ का क्या यही परिणाम था?

‘‘पहेलियां मत बुझा, साफसाफ बता?’’

कमरे में अब कोई और नहीं था. नर्स दवा दे कर चली गई थी. दीपा धीरेधीरे बताने लगी कि लिव इन की ओट में उस के साथ कितना भयानक खिलवाड़ किया गया. वह अपने पुरुष मित्र की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर अपना सर्वनाश कर बैठी. प्रारंभ में तो सब ठीकठाक चलता रहा. बचपन में खेले घरघर का सपना साकार हो गया. परंतु धीरेधीरे मन भर जाने पर उस के मित्र की उकताहट साफ जाहिर होने लगी. वह तो पैसों के बल पर महज एक खेल चल रहा था जो जल्द ही खत्म हो गया.

‘‘मुझे 3-4 महीने पुरुष संसर्ग का सुख मिला परंतु इस के लिए कितना भारी मूल्य चुकानी पड़ी. जब मैं प्रैगनैंट हो गई तो वह पल्ला झाड़ कर अलग हो गया.’’

‘‘परंतु यह लिव इन भी हो तो कानूनी हो जाता है. वह इस की जिम्मेदारी से कैसे इनकार कर सकता है?’’ स्मिता गुस्से में उबल पड़ी.

‘‘अब मैं कहां कचहरी के चक्कर लगाती फिरूं? इस में मेरी ही बदनामी होगी. वैसे ये कहने की बातें हैं. कानून की दृष्टि में हमारा लिव इन अरेंजमैंट टैंपरेरी है जिस की कोई अहमियत नहीं है. कोई कोर्ट रलीफ दे देता है, कोई खड़ूस जज भगा देता है. जब मुझे गर्भ ठहर गया तो वह मुझे इस से जान छुड़ाने को कहने लगा. माना हम कानूनी तौर पर पतिपत्नी नहीं थे, केवल मित्र थे पर मेरी तो यह पहली संतान थी. मैं कैसे राजी हो जाती परंतु वह कहने लगा कि अभी बच्चों का झंझट क्यों पालती हो? एक बार मैं अपने ?ामेले से निकल लूं, फिर तुम्हारे साथ बच्चे होंगे तो उन का जन्मदिन मनाएंगे.

‘‘ऐसे में तो तुम काम पर भी नहीं जा पाओगी और वेबी बीमार पड़ जाए तो डाक्टरों के यहां चक्कर कैसे काटेगी? फिर आजकल बच्चे को स्कूल में दाखिल कराना कितना उठिन है, सिंगल मदर के लिए तो और मुश्किल होता है. जानती हो न? नहीं, भई, मैं ये सब मुसीबतें फिर अपने सिर पर लेने को तैयार नहीं. तुम्हारे साथ खुशियां बटोरने के लिए हम ने तय किया था कि इस सब झमेले में नहीं पड़ेंगे.’’

‘‘उफ,’’ स्मिता दीपा की बात सुन कर इतना ही कह सकी.

‘‘अब मैं क्या करती? अपने मातृत्व का

मुझे गला घोंटना पड़ा. सिंगल पेंरैंट कैसे बन जाती? बच्चे को बाप का नाम कौन देता? दीपा तकिए में मुंह गड़ा कर सुबकने लगी थी. स्मिता उस के सिर पर हाथ फेरने लगी. अचानक उसे लगा कि दीपा के स्थान पर वह स्वयं सुबक रही है. वह भी तो उसी की तरह बिना आगापीछा सोचे क्षणिक सुख के पीछे अंधी खाई में कूदने जा रही थी. 4 दिन की चांदनी रातें ढलने के बाद वह भी इसी तरह किसी नर्सिंगहोम में सिसकेगी, अधूरे मातृत्व के कारण तड़पेगी.

‘नहीं… नहीं, उसे मांगा या छीना हुआ

या भीख में मिला गृहस्थ सुख नहीं चाहिए.

यह तो कुएं से निकल कर खाई में कूदने वाली बात होगी. उस के घर और परिवार के लोग

जैसे भी हों, उस के अपने तो हैं,’ उस ने मन ही मन कहा.

जाने कैसे अपने पैरों को घसीट कर वह घर तक पहुंची. गली में बहुत भीड़ जमा थी. घर पहुंच कर उस ने देखा कि जैरी घबराया सा अंदर के कमरे में बैठा था. पता चला कि उस के दोस्तों ने मामूली गहने छीनने के लिए किसी भद्र महिला के घर में घुस कर आक्रमण कर दिया था. वह स्त्री शोर मचा कर लोगों को जमा करने में सफल हो गई थी नहीं तो शायद वह अपनी जान से भी हाथ धो बैठती.

वे लड़के जैरी को भी साथ ले जाना चाहते थे परंतु उस ने साफ इनकार कर दिया था. अब पुलिस उस के दोस्तों से पूछताछ कर रही थी. जैरी डर रहा था कि कहीं शक में वह भी न पकड़ लिया जाए. अब वह पहले वाला झगड़ालू और बातबात पर बड़ों का अपमान करने वाला जैरी नहीं रह गया था. वह डरा, सहमा सा एक छोटा बच्चा लग रहा था.

स्मिता ने धैर्य बंधाया, ‘‘तू क्यों बेकार डर रहा है? कह देना कि मुझे कुछ नहीं पता. बस.’’

दीदी की इस बात से जैरी कुछ संभला. आखिर वह था तो अभी किशोर ही. उस ने जैसे रोते हुए कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, दी. अब बुरी संगत में कभी नहीं बैठूंगा. रोज स्कूल जाऊंगा और मन लगा कर पढ़ूंगा.’’

स्मिता उसे प्यार से एक चपत लगा कर कपड़े बदलने चली गई. यही उस का अपना घर था, अपना संसार था. यहां जिम्मेदारियां थीं तो अपनत्व का सुख भी. स्वर्ण मृग के पीछे वह कहां पगली सी भाग रही थी. अच्छा हुआ जो जल्दी होश आ गया.

रिश्ते की धूल : आखिर खुले मिजाज की सीमा के साथ क्या हुआ ?

लेखक- डा. के.  रानी

प्रियांक  औफिस के लिए घर से बाहर निकल रहा था कि पीछे से सीमा ने आवाज लगाई, ‘‘प्रियांक, 1 मिनट रुक जाओ मैं भी तुम्हारे साथ चल रही हूं.’’

‘‘मुझे देर हो रही है सीमा.’’

‘‘प्लीज 1 मिनट की तो बात है.’’

‘‘तुम्हारे पास अपनी गाड़ी है तुम उस से चली जाना.’’

‘‘मैं तुम्हें बताना भूल गई. मेरी गाड़ी सर्विसिंग के लिए वर्कशौप गई है और मुझे 10 बजे किट्टी पार्टी में पहुंचना है. प्लीज, मुझे रिच होटल में ड्रौप कर देना. वहीं से तुम औफिस चले जाना. होटल तुम्हारे औफिस के रास्ते में ही तो पड़ता है.’’

सीमा की बात पर प्रियांक झुंझला गए और बड़बड़ाया, ‘‘जब देखो इसे किट्टी पार्टी की ही पड़ी रहती है. इधर मैं औफिस निकला और उधर यह यह भी अपनी किट्टी पार्टी में गई.’’

प्रियांक बारबार घड़ी देख रहा था. तभी सीमा तैयार हो कर आ गई और बोली, ‘‘थैंक्यू प्रियांक मैं तो भूल गई थी कि मेरी गाड़ी वर्कशौप गई है.’’

प्रियांक ने सीमा की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया. उसे औफिस पहुंचने की जल्दी थी. आज उस की एक जरूरी मीटिंग थी. वह तेज गाड़ी चला रहा था ताकि समय से औफिस पहुंच जाए. उस ने जल्दी से सीमा को होटल के बाहर छोड़ा और औफिस के लिए आगे बढ़ गया.

सीमा समय से होटल पहुंच कर पार्टी में अपनी सहेलियों के साथ मग्न हो गई थी. 12 बजे उसे याद आया कि उस के पास गाड़ी नहीं है. उस ने वर्कशौप फोन कर के अपनी गाड़ी होटल ही मंगवा ली. उस के बाद अपनी सहेलियों के साथ लंच कर के वह घर चली आई. यही उस की लगभग रोज की दिनचर्या थी.

सीमा एक पढ़ीलिखी, आधुनिक विचारों वाली महिला थी. उसे सजनेसंवरने और पार्टी वगैरह में शामिल होने का बहुत शौक था. उस ने कभी नौकरी करने के बारे में सोचा तक नहीं. वह एक बंधीबंधाई, घिसीपिटी जिंदगी नहीं जीना चाहती थी. वह तो खुल कर जीना चाहती थी. उस के 2 बच्चे होस्टल में पढ़ते थे. सीमा ने अपनेआप को इतने अच्छे तरीके से रखा हुआ था कि उसे देख कर कोई भी उस की उम्र का पता नहीं लगा सकता था.

प्रियांक और सीमा अपनी गृहस्थी में बहुत खुश थे. शाम को प्रियांक के औफिस से घर आने पर वे अकसर क्लब या किसी कपल पार्टी में चले जाते. आज भी वे दोनों शाम को क्लब के लिए निकले थे. उन की अपने अधिकांश दोस्तों से यहीं पर मुलाकात हो जाती.

आज बहुत दिनों बाद उन की मुलाकात सौरभ से हो गई सौरभ ने हाथ उठा कर

अभिवादन किया तो प्रियांक बोला, ‘‘हैलो सौरभ, यहां कब आए?’’

‘‘1 हफ्ता पहले आया था. मेरा ट्रांसफर इसी शहर में हो गया है.’’

‘‘सीमा यह है सौरभ. पहले यह और मैं

एक ही कंपनी में काम करते थे. मैं तो प्रमोट हो कर पहले यहां आ गया था. अब यह भी इसी शहर में आ गया है और हां सौरभ यह है मेरी पत्नी सीमा.’’

दोनों ने औपचारिकतावश हाथ जोड़ दिए. उस के बाद प्रियांक और सौरभ आपस में बातें कर लगे.

तभी अचानक सौरभ ने पूछा, ‘‘आप बोर तो नहीं हो रहीं?’’

‘‘नहीं आप दोनों की बातें सुन रही हूं.’’

‘‘आप के सामने तारीफ कर रहा हूं कि आप बहुत स्मार्ट लग रही हैं.’’

सौरभ ने उस की तारीफ की तो सीमा ने मुस्करा कहा, ‘‘थैंक्यू.’’

‘‘कब तक खड़ेखड़े बातें करेंगे? बैठो आज हमारे साथ डिनर कर लो. खाने के साथ बातें करने का अच्छा मौका मिल जाएगा,’’ प्रियांक बोला तो सौरभ उन के साथ ही बैठ गया. वे खाते हुए बड़ी देर तक आपस में बातें करते रहे. बारबार सौरभ की नजर सीमा के आकर्षक व्यक्तित्व की ओर उठ रही थी. उसे यकीन नहीं हो पा रहा था इतनी सुंदर, स्मार्ट औरत के 10 और 8 साल के 2 बच्चे भी हो सकते हैं.

काफी रात बीत गई थी. वे जल्दी मिलने की बात कह कर अपनेअपने घर चले गए. लेकिन सौरभ के दिमाग में सीमा का सुंदर रूप और दिलकश अदाएं ही घूम रही थीं. उस दिन के बाद से वह प्रियांक से मिलने के बहाने तलाशने लगा. कभी उन के घर आ कर तो कभी उन के साथ क्लब में बैठ कर.

प्रियांक कम बोलने वाला सौम्य स्वभाव का व्यक्ति था. उस के मुकाबले सीमा खूब बोलनेचालने वाली थी. अकसर सौरभ उस के साथ बातें करता और प्रियांक उन की बातें सुनता रहता. सौरभ के मन में क्या चल रहा है सीमा इस से बिलकुल अनजान थी.

एक दिन दोपहर के समय सौरभ उन के घर पहुंच गया. सीमा तभी किट्टी पार्टी से घर लौटी थी. इस समय सौरभ को वहां देख कर सीमा चौंक गई, ‘‘आप इस समय यहां?’’

‘‘मैं पास के मौल में गया था. वहां काउंटर पर मेरा क्रैडिट कार्ड काम नहीं कर रहा था. मैं ने सोचा आप से मदद ले लूं. क्या मुझे 5 हजार रुपए उधार मिल सकते हैं?’’

‘‘क्यों नहीं मैं अभी लाती हूं.’’

‘‘कोई जल्दबाजी नहीं है. आप के रुपए देने से पहले मैं आप के साथ 1 कप चाय तो पी ही सकता हूं,’’ सौरभ बोला तो सीमा झेंप गई.

‘‘सौरी मैं तो आप से पूछना भूल गई. मैं अभी ले कर आती हूं,’’ इतना कह कर सीमा

2 कप चाय बना कर ले आई. दोनों साथ बैठकर बातें करने लगे.

‘‘आप को देख कर कोई नहीं कह सकता आप 2 बच्चों की मां हैं.’’

‘‘हरकोई मुझे देख कर ऐसा ही कहता है.’’

‘‘आप इतनी स्मार्ट हैं. आप को किसी अच्छी कंपनी में जौब करनी चाहिए.’’

‘‘जौब मेरे बस का नहीं है. मैं तो जीवन को खुल कर जीने में विश्वास रखती हूं. प्रियांक हैं न कमाने के लिए. इस से ज्यादा क्या चाहिए? हमारी सारी जरूरतें उस से पूरी हो जाती हैं,’’ सीमा हंस कर बोली.

‘‘आप का जिंदगी जीने का नजरिया औरों से एकदम हट कर है.’’

‘‘घिसीपिटी जिंदगी जीने से क्या फायदा? मुझे तो लोगों से मिलनाजुलना, बातें करना, सैरसपाटा करना बहुत अच्छा लगता है,’’ कह कर सीमा रुपए ले कर आ गई और बोली, ‘‘ये लीजिए. आप को औफिस को भी देर हो रही होगी.’’

‘‘आप ने ठीक कहा. मुझे औफिस जल्दी पहुंचना था. मैं चलता हूं,’’ सौरभ बोला. उस का मन अभी बातें कर के भरा नहीं था. वह वहां से जाना नहीं चाहता था लेकिन सीमा की बात को भी काट कर इस समय अपनी कद्र कम नहीं कर सकता था. वहां से उठ कर वह बाहर आ गया और सीधे औफिस की ओर बढ़ गया. उस ने सीमा के साथ कुछ वक्त बिताने के लिए उस से झूठ बोला था कि वह मौल में खरीदारी करने आया था.

अगले दिन शाम को फिर सौरभ की मुलाकात प्रियांक और सीमा से क्लब में हो गई. हमेशा की तरह प्रियांक ने उसे अपने साथ डिनर करने के लिए कहा तो वह बोला, ‘‘मेरी भी एक शर्त है कि आज के डिनर की पेमैंट मैं करूंगा.’’

‘‘हम दोनों ने भी तो डिनर करना है.’’

‘‘तो क्या हुआ आज का डिनर मेरी ओर

से रहेगा.’’

‘‘जैसे तुम्हारी मरजी,’’ प्रियांक बोला.

सीमा ने डिनर पहले ही और्डर कर दिया था. थोड़ी देर तक वे तीनों साथ बैठ कर डिनर के साथ बातें भी करते रहे. सौरभ महसूस कर रहा था कि सीमा को सभी विषयों की बड़ी अच्छी जानकारी थीं. वह हर विषय पर अपनी बेबाक राय दे रही थी. सौरभ को यह सब अच्छा लग रहा था. घर पहुंच कर भी उस के ऊपर सीमा का ही जादू छाया रहा. बहुत कोशिश कर के भी वह उस से अपने विचारों को हटा न सका. उस का मन हमेशा उस से बातें करने का करता. उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि वह अपनी भावनाएं सीमा के सामने कैसे व्यक्त करे? उसे इस के लिए एक उचित अवसर की तलाश थी.

एक दिन उस ने बातों ही बातों में सीमा से उस का हफ्ते भर का कार्यक्रम पूछ लिया. सौरभ को पता चल गया था कि वह हर बुधवार को खरीदारी के लिए स्टार मौल जाती है. वह उस दिन सुबह से सीमा की गतिविधियों पर नजर रखे हुए था.

सीमा दोपहर में मौल पहुंची तो सौरभ

उस के पीछेपीछे वहां आ गया. उसे देखते ही अनजान बनते हुए बोला, ‘‘हाय सीमा इस समय तुम यहां?’’

‘‘यह बात तो मुझे पूछनी थी. इस समय आप औफिस के बजाय यहां क्या कर रहे हैं?’’

‘‘आप से मिलना था इसीलिए कुदरत ने मुझे इस समय यहां भेज दिया.’’

‘‘आप बातें बहुत अच्छी बनाते हैं.’’

‘‘मैं इंसान भी बहुत अच्छा हूं. एक बार मौका तो दीजिए.’’

उस की बात सुन कर सीमा झेंप गई.

सौरभ ने घड़ी पर नजर डाली और बोला, ‘‘दोपहर का समय है क्यों न हम साथ लंच करें?’’

‘‘लेकिन…’’

‘‘कोई बहाना नहीं चलेगा. आप खरीदारी कर लीजिए. मैं भी अपना काम निबटा लेता हूं. उस के बाद इत्मीनान से सामने होटल में साथ बैठ कर लंच करेंगे,’’ सौरभ ने बहुत आग्रह किया तो सीमा इनकार न कर सकी.

सौरभ को यहां कोई खास काम तो था नहीं. वह लगातार सीमा को ही देख रहा था. कुछ देर में सीमा खरीदारी कर के आ गई. सौरभ ने उस के हाथ से पैकेट ले लिए और वे दोनों होटल में आ गए.

सौरभ बहुत खुश था. उसे अपने दिल की बात कहने का आखिरकार मौका मिल गया. वह बोला, ‘‘प्लीज आप अपनी पसंद का खाना और्डर कर लीजिए.’’

सीमा ने हलका खाना और्डर किया. उस के सर्व होने में अभी थोड़ा समय था. सौरभ ने बात शुरू की, ‘‘आप बहुत स्मार्ट और बहुत खुले विचारों की हैं. मुझे ऐसी लेडीज बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘यह बात आप कई बार कह चुके हैं.’’

‘‘इस से आप को अंदाजा लगा लेना चाहिए कि मैं आप का कितना बड़ा फैन हूं.’’

‘‘थैंक्यू. सौरभ आप ने कभी अपने परिवार के बारे में कुछ नहीं बताया?’’ सीमा बात बदल कर बोली.

‘‘आप ने कभी पूछा ही नहीं. खैर, बता देता हूं. परिवार के नाम पर बस मम्मी और एक बहन है. उस की शादी हो गई है और वह अमेरिका में रहती है. मम्मी लखनऊ में हैं. कभीकभी उन से मिलने चला जाता हूं.’’

बातें चल ही रही थीं कि टेबल पर खाना आ गया और वे बातें करते हुए लंच करने लगे.

सौरभ अपने दिल की बात कहने के लिए उचित मौके की तलाश में था. लंच खत्म हुआ और सीमा ने आइसक्रीम और्डर कर दी. उस के सर्व होने से पहले सौरभ उस के हाथ पर बड़े प्यार से हाथ रख कर बोला, ‘‘आप मु?ो बहुत अच्छी लगती हैं. क्या आप भी मुझे उतना ही पसंद करती हैं जितना मैं आप को चाहता हूं?’’

मौके की नजाकत को देखते हुए सीमा ने धीमे से अपना हाथ खींच कर अलग किया और बोली, ‘‘यह कैसी बात पूछ रहे हैं? आप प्रियांक के दोस्त और सहकर्मी हैं इसी वजह से मैं आप की इज्जत करती हूं, आप से खुल कर बात करती हूं. इस का मतलब आप ने कुछ और समझ लिया.’’

‘‘मैं तो आप को पहले दिन से जब से आप को देखा तभी से पसंद करने लगा हूं. मैं दिल के हाथों मजबूर हो कर आज आप से यह सब कहने की हिम्मत कर रहा हूं. मुझे लगता है आप भी मुझे पसंद करती हैं.’’

‘‘अपनी भावनाओं को काबू में रखिए अन्यथा आगे चल कर यह आप के लिए भी और मेरे परिवार के लिए भी मुसीबत खड़ी कर सकती हैं.’’

‘‘मैं आप से कुछ नहीं चाहता बस कुछ समय आप के साथ बिताना चाहता हूं,’’ सौरभ बोला.

तभी आइसक्रीम आ गई. सीमा बड़ी तलखी से बोली, ‘‘अब मुझे चलना चाहिए.’’

‘‘प्लीज पहले इसे खत्म कर लो.’’

सीमा ने उस के आग्रह पर धीरेधीरे आइसक्रीम खानी शुरू की लेकिन अब उस की इस में कोई रुचि नहीं रह गई थी. किसी तरह से सौरभ से विदा ले कर वह घर चली आई. सौरभ की बातों से वह आज बहुत आहत हो गई थी. वह समझ गई  कि सौरभ ने उस के मौडर्न होने का गलत अर्थ समझ लिया .वह उसे एक रंगीन तितली समझने की भूल कर रहा जो सुंदर पंखों के साथ उड़ कर इधरउधर फूलों पर मंडराती रहती है.

सीमा इस समस्या का तोड़ ढूंढ़ रही थी जो अचानक उस के सामने आ खड़ी हुई थी और कभी भी उस के जीवन में तूफान खड़ा कर सकती है. वह जानती थी  इस बारे में प्रियांक से कुछ कहना बेकार है. अगर वह उसे कुछ बताएगी तो वह उलटा उसे ही दोष देने लगेगा, ‘‘जरूर तुम ने उसे बढ़ावा दिया होगा. तभी उस की इतना सब कहने की हिम्मत हुई है.’’

1-2 बार पहले भी जब किसी ने उस से कोई बेहूदा मजाक किया तो प्रियांक की यही प्रतिक्रिया रही थी. उसे सम?ा नहीं आ रहा था वह सौरभ की इन हरकतों को कैसे रोके? बहुत सोचसम?ा कर उस ने अपनी छोटी बहन रीमा को फोन मिलाया. वह भी सीमा की तरह पढ़ीलिखी और मौडर्न लड़की थी. उस ने अभी तक शादी नहीं की थी क्योंकि उसे अपनी पसंद का लड़का नहीं मिल पाया था. मम्मीपापा उस के लिए परेशान जरूर थे लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी हुई थी कि वह शादी उसी से करेगी जो उसे पसंद होगा.

दोपहर में सीमा का फोन देख कर उसने पूछा, ‘‘दी, आज जल्दी फोन करने की फुरसत कैसे लग गई? कोई पार्टी नहीं थी

इस समय?’’

‘‘नहीं आज कोई पार्टी नहीं थी. मैं अभी मौल से आ रही हूं. तू बता तेरे कैसे हाल हैं कोई मिस्टर परफेक्ट मिला या नहीं?’’

‘‘अभी तक तो नहीं मिला.’’

‘‘मेरी नजर में ऐसा एक इंसान है.’’

‘‘कौन है?’’

‘‘प्रियांक के साथ कंपनी में काम करता है. तुम चाहो तो उसे परख सकती हो.’’

‘‘तुम्हें ठीक लगा तो हो सकता है मु?ो भी पसंद आ जाए.’’ रीमा हंस कर बोली.

‘‘ठीक है तुम 1-2 दिन में यहां आ जाओ. पहले अपने दिल में उस के लिए जगह तो बनाओ. बाकी बातें तो बाद में होती रहेंगी.’’

‘‘सही कहा दी. परखने में क्या जाता है. कुछ ही दिन में उस का मिजाज सम?ा में आ जाएगा कि वह मेरे लायक है कि नहीं.’’

सीमा अपनी बहन रीमा से काफी देर तक बातें करती रही. उस से बात कर के उस का मन बड़ा हलका हो गया था और काफी हद तक उस की समस्या भी कम हो गई थी. दूसरे दिन रीमा वहां पहुंच गई. प्रियांक ने उसे देखा तो चौंक गया, ‘‘रीमा, तुम अचानक यहां?’’

‘‘दी की याद आ रही थी. बस उस से मिलने चली आई. आप को बुरा तो नहीं लगा?’’ रीमा बोली.

‘‘कैसी बात करती हो? तुम्हारे आने से तो घर में रौनक आ जाती है.’’

सौरभ सीमा की प्रतिक्रिया की परवाह किए बगैर अपने मन की बात कह कर आज अपने को बहुत हलका महसूस कर रहा था. उसे सीमा के उत्तर का इंतजार था. 2 दिन हो गए थे. सीमा ने उस से फिर इस बारे में कोई बात नहीं की.

सौरभ से न रहा गया तो शाम के समय वह सीमा के घर पहुंच गया. ड्राइंगरूम में रीमा बैठी थी. उसी ने दरवाजा खोला. सामने सौरभ को देख कर वह सम?ा गई कि दी ने इसी के बारे में उस से बात की थी.

‘‘नमस्ते,’’ रीमा बोली तो सौरभ ने भी औपचारिकतावश हाथ उठा दिए. उसे इस घर में देख कर वह चौंक गया.

रीमा ने अजनबी नजरों से उस की ओर देखा. बोली, ‘‘अगर मेरा अनुमान सही है तो आप सौरभजी हैं.’’

‘‘आप को कैसा पता चला?’’

‘‘दी आप की बहुत तारीफ करती हैं. उन के बताए अनुसार मुझे लगा आप सौरभजी ही होंगे.’’

उस के मुंह से सीमा की कही बात सुन कर सौरभ को बड़ा अच्छा लगा.

‘‘बैठिए न आप खड़े क्यों हैं?’’

रीमा के आग्रह पर सौरभ वहीं सोफे पर

बैठ गया.

‘‘मैं प्रियांक से  मिलने आया था. इसी बहाने आप से भी मुलाकात हो गई.’’

‘‘मेरा नाम रीमा है. मैं सीमा दी की छोटी बहन हूं.’’

‘‘मेरा परिचय तो आप जान ही  गई हैं.’’

‘‘दी ने जितना बताया था आप तो उस से भी कहीं अधिक स्मार्ट हैं.’’

लगातार रीमा के मुंह से सीमा की उस के बारे में राय जान कर सौरभ का मनोबल ऊंचा हो गया. उस लगा कि सीमा भी उसे पसंद करती है लेकिन लोक लाज के कारण कुछ कह नहीं पा रही है.

‘‘आप की दी कहीं दिखाई नहीं दे रहीं.’’

‘‘वे काम में व्यस्त हैं. उन्हें शायद आप के आने का पता नहीं चला. अभी बुलाती हूं,’’ कह कर रीमा दी को बुलाने चली गई.

कुछ देर में सीमा आ गई. उस ने मुसकरा कर हैलो कहा तो सौरभ का दिल अंदर ही अंदर खुशी से उछल गया. उसे पक्का विश्वास हो गया था कि सीमा को भी वह पसंद है. उसे उस की बात का जवाब मिल गया था. उस ने पूछा, ‘‘प्रियांक अभी तक नहीं आया?’’

‘‘आते होंगे. आप दोनों बात कीजिए मैं चाय का इंतजाम करवा कर आती हूं,’’ कह कर सीमा वहां से हट गई.

‘‘कुछ समय पहले कभी दी से आप का जिक्र नहीं सुना. शायद आप को यहां आए ज्यादा समय नहीं हुआ है?’’

‘‘ मैं अभी कुछ दिन पहले ट्रांसफर हो कर यहां आया हूं.’’

‘‘आप की फैमिली?’’

‘‘मैं सिंगल हूं. मेरी अभी शादी नहीं हुई.’’

‘‘लगता है आप को भी अभी अपना मनपसंद साथी नहीं मिला.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं. कुछ को ही अच्छे साथी मिलते हैं.’’

‘‘आप अच्छेखासे हैंडसम और स्मार्ट हैं. आप को लड़कियों की क्या कमी है?’’

बातों का सिलसिला चल पड़ा और वे आपस में बातें करने लगे. रीमा सौरभ को

बहुत ध्यान से देख रही थी. सौरभ की आंखें लगातार सीमा को खोज रही थीं लेकिन वह

बहुत देर तक बाहर उन के बीच नहीं आई. रीमा भी शक्लसूरत व कदकाठी में अपनी बहन की तरह थी. बस उन के स्वभाव में थोड़ा अंतर लग रहा था.

कुछ देर बाद प्रियांक भी आ गया. सौरभ को देख कर चौंक गया और फिर उस के साथ बातों में शामिल हो गया. प्रियांक बोली, ‘‘आप हमारी सालीजी से मिल लिए होंगे. अभी तक इन को अपनी पसंद का कोई साथी नहीं मिला है.’’

‘‘मैं ने सोचा ये भी अपनी बहन की तरह होंगी जिन्हें देख कर कोई नहीं कह सकता कि वे शादीशुदा हैं.’’

‘‘अभी मेरी शादी नहीं हुई है. अभी खोज जारी है.’’

प्रियंका के आने पर सीमा थोड़ी देर के लिए सौरभ के सामने आई और फिर प्रियांक के पीछे कमरे में चली आई. वह रीमा और सौरभ को बात करने का अधिक से अधिक मौका देना चाहती थी. बातोंबातों में रीमा ने सौरभ से उस का फोन नंबर भी ले लिया था.सौरभ को लगा सीमा आज उस के सामने आने में ?ि?ाक रही है और उस के सामने अपने दिल का हाल बयां नहीं कर पा रही है. कुछ देर वहां पर रहने के बाद सौरभ अपने घर लौट आया.

प्रियांक ने आग्रह किया था कि खाना खा कर जाए लेकिन आज सीमा की स्थिति को देखते हुए उस ने वहां पर रुकना ठीक नहीं सम?ा और वापस चला आया.

रीमा ने अगले दिन दोपहर में सौरभ को फोन किया, ‘‘आज आप शाम को क्या कर रहे हैं?’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

‘‘शाम को घर आ जाइएगा. हम सब को अच्छा लगेगा.’’

‘‘क्या इस तरह किसी के घर रोज आना ठीक रहेगा?’’

‘‘दी चाहती थीं कि मैं आप को शाम को घर बुला लूं.’’

‘‘कहते हैं रोजरोज किसी के घर बिना बुलाए नहीं जाना चाहिए. जब आप लोग चाहते हैं तो मैं जरूर आऊंगा,’’ सौरभ बोला. उसे लगा जैसे उस के अरमानों ने मूर्त रूप ले लिया है और उसे मन की मुराद मिल गई. वह औफिस के बाद सीधे सीमा के घर चला आया.

रीमा उस का इंतजार कर रही थी. उसे देखते ही बोली, ‘‘थैंक्यू आप ने हमारी बात मान ली.’’

‘‘आप हमें बुलाएं और हम न आएं ऐसा कभी हो सकता है?’’

आज भी उस की आशा के विपरीत

उसे सीमा कहीं दिखाई नहीं दे रही थी. थोड़ी देर बाद वह 3 कप चाय और नाश्ता ले कर

आ गई.

‘‘आप को पता चल गया कि मैं आ रहा हूं?’’

‘‘रीमा ने बताया था इसलिए मैं ने चाय और स्नैक्स की तैयारी पहले ही कर ली थी,’’ सीमा मुसकरा कर बोली.

सौरभ सीमा के बदले हुए रूप से अंचभित था. कल तक उस के सामने मौडर्न दिखने और बेझिझक बोलने वाली सीमा उस की रोमांटिक बातें सुनने के बाद से एकदम छुईमुई सी हो गई थी. वह अब उस की हर बात में नजर का लेती थी. उस का इस तरह शरमाना सौरभ को बहुत अच्छा लग रहा था. वह समझ गया कि वह भी उसे उतना ही पसंद करती है लेकिन खुल कर स्वीकार करने में झिझक उन के बीच आ रही है.

अब सौरभ के सामने एक ही समस्या थी वह कि वह सीमा की झिझक को कैसे दूर करे? उसे तो वही खूब बोलने वाली मौडर्न सीमा पसंद थी. मुश्किल यह थी कि रीमा की उपस्थिति में उसे सीमा से मिल कर उस की झिझक दूर करने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था. वह चाहता था कि वह सीमा से ढेर सारी बातें करे पर वह उस के सामने ही बहुत कम आ रही थी.

सौरभ रीमा के साथ बहुत देर तक बातें करता रहा. तभी प्रियांक आ गया. उन दोनों को बातें करते देख कर वह बड़ा आश्वस्त लगा.

रात हो गई थी.सौरभ जैसे ही जाने लगे रीमा बोली, ‘‘डिनर तैयार हो रहा है. आज खाना खा कर ही जाइएगा.’’

‘‘आप बनाएंगी तो जरूर खाऊंगा.’’

‘‘ऐसी बात है तो मैं किसी दिन बना दूंगी. वैसे भी दी ने पहले से ही खाने की तैयारी कर ली होगी.’’

‘‘अगर आप दोनों बहनों का इरादा मुझे खाना खिलाने का है तो मैं मना कैसे कर सकता हूं?’’

रीमा वहां से उठ कर किचन में आ गई. प्रियांक सौरभ से बातें करने लगा. सीमा की मदद के लिए रीमा उस का हाथ बंटाने लगी. अब सौरभ को जाने की कोई जल्दी न थी. यहां पर सीमा की उपस्थिति का एहसास ही उस के लिए बहुत था. वैसे उसे अब रीमा की बातें भी अच्छी लगने लगी थीं. एकजैसे संस्कारों में पलीबढ़ी दोनों बहनों में काफी समानताएं थीं.

रीमा ने डाइनिंगटेबल पर खाना बड़े करीने से लगा दिया. सब खाना खाने लगे. सौरभ बीचबीच में चोर नजरों से सीमा को देख रहा था. वह  सिर झुकाए चुपचाप

खाना खा रही थी. गलती से कभी नजरें

टकरा जातीं तो सौरभ से निगाहें मिलते ही

वह झट से अपनी नजरें नीची कर लेती.

सौरभ को उस का यह अंदाज अंदर तक रोमांचित कर जाता.

रीमा को यहां आए हफ्ताभर हो गया

था. वह अब सौरभ से खुल कर बात करने लगी थी.

‘‘आज सुबहसुबह रीमा ने सौरभ को फोन किया, ‘‘आज शाम आप फ्री हो?’’

‘‘कोई खास काम था?’’

‘‘हम सब आज पिक्चर देखने का प्रोगाम बन रहे हैं. आप भी चलिए हमारे साथ.’’

‘‘नेकी और पूछपूछ मैं जरूर आऊंगा.’’

‘‘तो ठीक है आप सीधे सिटी मौल में ठीक 5 बजे पहुंच जाइए. हम आप को वहीं मिल जाएंगे.’’

सौरभ की मानो मन की मुराद पूरी हो गई थी. वह समय से पहले ही मौल पहुंच

गया. तभी उस ने देखा कि रीमा अकेली ही

आ रही है.

‘‘ प्रियांक और सीमा कहां रह गए?’’

‘‘अचानक जीजू की तबीयत कुछ खराब हो गई. इसी वजह से वे दोनों नहीं आ रहे और मैं अकेले चली आई. मु?ो लगा प्रोग्राम कैंसिल करना ठीक नहीं.आप वहां पर हमारा इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘इस में क्या था? बता देतीं तो प्रोग्राम कैंसिल कर किसी दूसरे दिन पिक्चर देख लेते.’’

‘‘हम दोनों तो हैं. आज हम ही पिक्चर का मजा ले लेते हैं,’’ रीमा बोली.

सौरभ का मन थोड़ा उदास सा हो गया लेकिन वह रीमा को यह सब नहीं जताना चाहता था. वह ऊपर से खुशी दिखाते हुए बोला, ‘‘इस से अच्छा मौका हमें और कहां मिलेगा साथ वक्त बिताने का.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ कह कर वे सिनेमाहौल में आ गए. वहां सौरभ को सीमा की कमी खल रही थी लेकिन वह यह भी जानता था कि सीमा प्रियांक की पत्नी है. उस का फर्ज बनता है वह अपने पति की परेशानी में उस के साथ रहे. यही सोच कर उस से सब्र कर लिया और रीमा के साथ आराम से पिक्चर देखने लगा.

समय कैसे बीत गय पता ही नहीं चला. पिक्चर खत्म हो गई थी. सौरभ रीमा को

छोड़ने सीमा के घर आ गया. सामने प्रियांक दिखाई दे गया.

‘‘क्या बात है आप दोनों पिक्चर देखने

नहीं आए?’’

‘‘अचानक मेरे सिर मे बहुत दर्द हो गया था. अच्छा महसूस नहीं हो रहा था. इसीलिए नहीं आ सके. फिर कभी चलेंगे. तुम बताओ कैसी रही मूवी?’’

‘‘बहुत अच्छी. आप लोग साथ में होते तो और अच्छा लगता,’’ सौरभ बोला. उस ने चारों और अपनी नजरें दौड़ाईं पर उसे सीमा कहीं दिखाई नहीं दी. वह रीमा को छोड़ कर वहीं से वापस हो गया.

अब तो यह रोज की बात हो गई थी. रीमा सौरभ के साथ देर तक फोन पर बातें करती रहती और जबतब उसे घर बुला लेती. वे कभीकभी घूमने का प्रोग्राम भी बना लेते.

इतने दिनों में रीमा की सौरभ से अच्छी दोस्ती हो गई थी और सौरभ के सिर से भी सीमा का भूत उतरने लगा था.

एक दिन सीमा ने रीमा को कुरेदा, ‘‘तुम्हें सौरभ कैसा लगा रीमा?’’

‘‘इंसान तो अच्छा है.’’

‘‘तुम उस के बारे में सीरियस हो तो बात आगे बढ़ाई जाए?’’

‘‘दी अभी कुछ कह नहीं सकती. मुझे कुछ और समय चाहिए. मर्दों का कोई भरोसा नहीं होता. ऊपर से कुछ दिखते हैं और अंदर से कुछ और होते हैं.’’

‘‘कह तो तुम ठीक रही है. तुम उसे अच्छे से जांचपरख लेना तब कोई कदम आगे बढ़ाना. जहां तुम ने इतने साल इंतजार कर लिया है वहां कुछ महीने और सही,’’ सीमा हंस कर बोली.

रीमा को दी की सलाह अच्छी लगी.

1 महीना बीत गया था. सौरभ और रीमा एकदूसरे के काफी करीब आ गए थे. अब सीमा उस के दिमाग और दिल दोनों से उतरती चली जा रही थी और उस की जगह रीमा लेने लगी थी.

सीमा ने भी इस बीच सौरभ से कोई बात नहीं की और न ही वह उस के आसपास ज्यादा देर तक नजर आती. सौरभ को भी रीमा अच्छी लगने लगी. उस की बातें में बड़ी परिपक्वता थी और अदाओं में शोखी.

एक दिन उस ने रीमा के सामने अपने दिल की बात कह दी, ‘‘रीमा तुम मुझे अच्छी लगती हो मेरे बारे में तुम्हारी क्या राय है?’’

‘‘इंसान तो तुम भी भले हो लेकिन मर्दों पर इतनी जल्दी यकीन नहीं करना चाहिए?’’

रीमा बोली तो सौरभ थोड़ा घबरा गया. उसे लगा कहीं सीमा ने तो उस के बारे में कुछ नहीं कह दिया.

‘‘ऐसा क्यों कह रही हो? मुझसे कोई गलती हो गई है क्या?’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. इतने लंबे समय तक तुम ने भी शादी नहीं की हैं. तुम भी आज तक अपनी होने वाली जीवनसाथी में कुछ खास बात ढूंढ़ रहे होंगे.’’

‘‘पता नहीं क्यों आज से पहले कभी कोई जंची ही नहीं. तुम्हारे साथ वक्त बिताने का मौका मिला तो लगा तुम ही वह औरत हो जिस के साथ मैं अपना जीवन खुशी से बिता सकता हूं. इसीलिए मैंने अपने दिल की बात कह दी.’’

सौरभ की बात सुन कर रीमा चुप हो गई. फिर बोली, ‘‘इस के बारे में मुझे अपने दी और जीजू से बात करनी पड़ेगी.’’

‘‘मुझे कोई जल्दबाजी नहीं है. तुम चाहो जितना समय ले सकती हो,’’ सौरभ बोला.

थोड़ी देर बाद रीमा घर लौट आई. उस के चेहरे से खुशी साफ ?ालक रही थी. उसे देखते ही सीमा ने पूछा, ‘‘क्या बात है आज बहुत खुश दिख रही हो?’’

‘‘बात ही कुछ ऐसी है. आज मुझे सौरभ ने प्रपोज किया.’’

‘‘तुम ने क्या कहा?’’

‘‘मैं ने कहा मुझे अभी थोड़ा समय दो. मैं मम्मीपापा, दीदीजीजू से बात कर के बताऊंगी.’’

उस की बात सुन कर सीमा को बहुत तसल्ली हुई. आज सौरभ ने एक नहीं 2 घर बरबाद होने से बचा लिए थे. उसे लगा भावनाओं में बह कर कभी इंसान से भूल हो जाती है तो इस का मतलब यह नहीं कि उस की सजा वह जीवन भर भुगतता रहे.

रीमा जैसे ही अपने कमरे में आराम करने के लिए गयी सीमा ने पहली बार सौरभ को फोन मिलाया.

सीमा का फोन देख कर सौरभ चौंक गया. उस ने किसी तरह अपने को संयत

किया और बोला, ‘‘हैलो सीमा कैसी हो?’’

‘‘मैं बहुत खुश हूं. तुम ने आज रीमा को प्रपोज कर के मेरे दिल का बो?ा हलका कर दिया. सौरभ कभीकभी हम से अनजाने में कोई भूल हो जाती है तो उस का समय रहते सुधार कर लेना चाहिए.’’

‘‘सच में मेरे दिल में भी डर था कि मैं ने रीमा को प्रपोज कर तो दिया लेकिन इस पर आप की प्रतिक्रिया क्या होगी?

‘‘मैं एक आधुनिक महिला हूं. मेरे विचार संकीर्ण नहीं हैं. मेरे व्यवहार के खुलेपन का आप ने गलत मतलब निकाल लिया था. आज तुम ने अपनी गलती सुधार कर 2 परिवारों की इज्जत रख ली.’’

‘‘आप ने भी मेरे दिल से बड़ा बोझ उतार दिया. यह सब आप की समझदारी के कारण ही संभव हो सका है. मैं तो पता नहीं भावनाओं में बह कर आप से क्या कुछ कह गया? मैं ने आप की चुप्पी के भी गलत माने निकाल लिए थे.’’

‘‘सौरभ इस बात का जिक्र कभी भी रीमा से न करना और इस मजाक को यहीं खत्म कर देना.’’

‘‘मजाक,’’ सौरभ ने चौंक कर पूछा.

‘‘हां मजाक, अब आप मेरे बहनोई बनने वाले हो. इतने से मजाक का हक तो आप का भी बनता है,’’ सीमा बोली तो सौरभ जोर से हंस पड़ा. उस की हंसी में उन के बीच के रिश्ते पर पड़ी धूल भी छंट गई.

तेरे शहर में : बिंदास और हंसमुख कोमल क्यों उदास रहने लगी ?

बाबतपुर एअरपोर्ट से निकल कर मैं ने कैब बुक की. ‘विजय होटल’ में मैं ने अपना रूम बुक किया हुआ था. जब होटल बुक करने का समय आया था, मुझे नहीं पता क्यों मेरे हाथों ने ‘विजय होटल’ ही टाइप किया. मुझे नहीं पता क्यों ऐसा हुआ. ऐसा भी नहीं है कि मैं जानती नहीं कि मैं विजय होटल ही क्यों रुकी हूं. मैं ने यहां पिछली बार क्याक्या खाया था, मुझे तो यह भी याद है. किस के साथ खाया था, यह भी याद है. उस ने ब्लैक टीशर्ट पहनी हुई थी, यह भी याद है. मैं ने पिंक सूट पहना था, यह भी याद है. अरे, नहीं अभी आंखें नम नहीं होनी चाहिए, सालों हो गए. रोने की कोई बात नहीं है. मैं सब भूल चुकी हूं. मैं ने हमेशा की तरह दिल को समझया तो दिल हंस पड़ा कि चल, झूठी. रातदिन परेशान करती है, झूठ बोलती है कि सब भूल गई.

बनारस की 1-1 गली, महल्ला, दुकान, होटल सब तो देख रखा है. यहीं पैदा हुई हूं, पलीबढ़ी हूं, जीवन के 25 साल यहां बिता कर मुंबई पहुंची हूं. कैब से बाहर देखते हुए किसी मूवी की तरह यहां बीते पिछले साल नजरों के आगे किसी रील से भागे चले जा रहे हैं. 10 साल बाद बनारस आई हूं. मम्मीपापा रहे नहीं, अकेली संतान थी. उन के जाने के बाद क्या करने आती. उन का घर किराए पर एक अच्छे परिवार को दिया हुआ है. मेरे अकाउंट में टाइम से किराया आ जाता है. मैं ने अपनी जौब मुंबई जौइन की तो वहीं घर ले लिया. यह मुझे अब अपना शहर नहीं लग रहा है, यह उस का शहर है. मन हो रहा है कि यतिन को फोन करूं और उसे तंग करूं कि बताओ, तुम्हारे शहर में कौन आया है?

दुनिया में एक अकेली लड़की के लिए मातापिता के बिना जीना, खुद को संभालना, उस पर यह कम्बख्त इश्क. उफ… बहुत ही डैडली कौंबिनेशन है. वजूद की धज्जियां बिखर जाती हैं. पीछे बैठेबैठे भी पता रहता है कि कैब ड्राइवर बीचबीच में आप पर नजर डाल रहा है. मैं ने बड़ी होशियारी से अपनी आंखें साफ कीं. हम लड़कियां इस हुनर में कमाल हैं, हम न चाहें तो कोई भी हमारे दुख का अंदाजा नहीं लगा सकता. हर नारी में एक अभिनेत्री छिपी होती है. मैं अपने मन में आए इस विचार पर खुश हुई.

यतिन क्या कर रहा होगा? क्या शाम को शुभी की शादी में आएगा? आज शुभी की शादी है. सुनील की बहन शुभी जो हम सब से छोटी थी. सुनील के पेरैंट्स नहीं हैं. शुभी हम सब को अपने बच्चों जैसी प्रिय थी. सुनील के बुलावे पर सब दोस्त आज शुभी की शादी में आ रहे हैं. सब अपने परिवार के साथ होंगे, मैं ही अकेली आई हूं. मैं ने शादी नहीं की, अब तो 35 की हो रही हूं, कर नहीं पाई.

यतिन के बाद मन को कोई भाया ही नहीं. धोखेबाज यतिन, मतलबी यतिन, कायर यतिन. मैं ब्राह्मण, वह कायस्थ. पेरैंट्स ने घुड़की दी तो मेरे साथ किए इश्कमुहब्बत के सब वादे भूल गया. शादी कर के बच्चे पैदा कर के ऐश कर रहा है. कायर कहीं का. अड़ नहीं सकता था? डरपोक. मैं ने उसे हमेशा की तरह जीभर कर कोसा. फिर दिल से कहा अच्छा ही है, मुंबई में अकेली मस्त जी रही हूं पर दिल ने फिर तुरंत कहा कि चल ?ाठी.

पौन घंटे में मैं होटल पहुंच गई. काफी अच्छी सड़कें बन गई हैं. होटल पहुंच कर मैं ने सुनील को फोन किया. उस ने अपनेपन वाले गुस्से से कहा, ‘‘घर होते हुए होटल में रुकने की तेरी हिम्मत कैसे हुई कोमल? तू होटल से अभी निकल और सीधे घर आ.’’

‘‘सुनील, अब तो मैं थक गई हूं फ्रेश हो कर आराम करने भी लेट गई, शाम को मिलते हैं. थोड़ा सो लूं. असल में मैं कल भी औफिस से घर बहुत लेट आई थी. सौरी, शाम को आती हूं.’’

सुनील अब इतना ही बोला, ‘‘अच्छा, ठीक है, आराम कर ले. शाम को आ जाना विपिन और सुधा भी परिवार के साथ आए हैं. मैं ने तुम लोगों के रुकने का इंतजाम एकसाथ कर दिया था. सामने वाला फ्लैट खाली था, वहीं रुक रहे हैं खास दोस्त.’’

सुनील मेरा बहुत ही खास दोस्त रहा है. इतने सालों में मैं सब से ज्यादा उसी के संपर्क में हूं. वह अपनी पत्नी नीला और बेटे पार्थ के साथ मेरे पास मुंबई भी घूम गया है. न पूछूं तो भी यतिन के हालचाल दे ही देता है. उसे पता है मैं जीवन में कहां अटकी रह गई हूं.

फिर बोला, ‘‘ठीक है, अब आराम कर ले.’’

फोन रख कर मैं ने रूम का जायजा लिया, ठीक है, रूम का करना क्या है, कल वापस चली जाऊंगी. मैं ने कपड़े बदले, कोरोना टाइम ने आदत डाल दी है कि अब भी कहीं से आओ तो कपड़े बदल कर ही बैड पर लेटना है. मैं ने सुनील से झूठ बोला था कि मुझे सोना है. इस शहर में भला इश्क के मारों को नींद आ सकती है?

2 बज रहे थे. मैं ने अपना शोल्डर बैग उठाया, होटल से बाहर निकली और सीधे संजय नगर की तरफ चल पड़ी पैदल. मुंबई में इतने साल बिताने के बाद अब इतनी दूरी दूरी नहीं लगती. पैदल चलने की जगह मिले तो चलना अच्छा लगता है. पर दुनिया में इतनी भीड़ क्यों बढ़ती जा रही है. कौटन मिल एरिया में पहुंच कर मेरे कदम सुस्त हो गए, उदासी वाली सुस्ती थी. वह रहा पहली फ्लोर पर मेरा घर. सामने ही. अंदर नहीं जाऊंगी. मम्मीपापा याद आते हैं. दिल और उदास होगा. मैं थोड़ी देर आसपास देखती रही. सब नए चेहरे ही आतेजाते दिख रहे थे. चौराहे का गुलमोहर का पेड़ नहीं बदला था. मैं ने उस के पास जा कर उसे छुआ. एक दिन यतिन और मैं तेज बारिश में यहीं खड़े हुए थे. मैं ने फिर दूर की बिल्डिंग पर नजर डाली. हां, यहीं रहता है वह. इसी पेड़ के नीचे खड़े हो कर वह मेरे कालेज जाने का इंतजार करता था.

दिल अजीब सा घबराया, तो मैं तेज कदमों से वहां से निकल गई. पैदल चलतेचलते मैदागिन आई. काफी भीड़ थी. अक्तूबर का महीना था. मैं ने इधरउधर चलते हुए चारों तरफ नजर दौड़ाई. हां, यही है. राधा मिष्टान्न भंडार. हमारा हर तीसरे दिन खानेपीने का यही अड्डा था. अब तो बैठने की जगह साफसुथरी लग रही है. मैं चुपचाप एक चेयर पर बैठ गई. एक लड़का और्डर लेने आया कि क्या चाहिए, मैडम? मैं ने कहा कि 1 लस्सी.

1 कचौरी जलेबा. वह चला गया. मेरे अंदर जैसे आंसुओं का एक सैलाब सा उमड़ने को आया जिसे मैं ने रोक लिया. मैं कितनी अकेली हूं. यह मेरा शहर था. यतिन के कारण मेरा सबकुछ छूट गया. प्रेम कितना कष्ट, कितना अकेलापन दे देता है.

जल्द ही लड़का मेरा और्डर ले आया. कचौरी जलेबा यतिन की पसंद है. मैं लस्सी पीती थी. मु?ो भूख लगी थी. मैं धीरेधीरे खातीपीती रही. आसपास के लोगों की नजरों में वही शाश्वत भाव थे, अकेली लड़की. कैसे आराम से खा रही है. मुंबई की एक बात अच्छी है कि वहां लोग किसी भी अकेली लड़की को ऐसे बैठे देख कर हैरान नहीं होते. अब 3 बज रहे थे. मैं फिर चल पड़ी. गोदौलिया तक चलती रही, फिर काशी विश्वनाथ की गलियों में घूमती रही.

बनारस काफी बदल गया है, कुछ विकास तो दिख रहा है. सड़कें अच्छी बन गई हैं, शहर कुछ सुंदर तो लग रहा है. अपना भी लगता अगर मम्मीपापा होते या यतिन ही. यतिन, मैं तुम्हें माफ नहीं करूंगी. तुम ने मु?ो इस दुनिया में तनहा कर दिया है. मैं कैरियर में इतनी सफल. देशविदेश घूमती हूं पर तुम्हें भुला नहीं पाई और तुम यहां अपना संसार सजा कर बैठे हो. बेवफा इंसान.

मैं हर उस गली में घूमी जहां मैं यतिन के साथ घूमा करती थी. 6 बजे मैं दशाश्वमेध घाट जा कर नीचे जाने वाली सीढि़यों के एक कोने में बैठ गई. यतिन और मेरा कोना. मैं और यतिन कई बार यहां सुबह ही कालेज जाने से पहले आते थे, यहां बैठते थे. यतिन के मुंह से अख्तर शीरानी का यह शेर जरूर निकलता था:

‘‘हर एक को भाती है दिल से फिजा बनारस की,

वो घाट और वो ठंडी हवा बनारस की,

तमाम हिंद में मशहूर है यहां की सहर

कुछ इस कदर है सहर खुशनुमा बनारस की.’’

अपना बैग अपनी गोद में रख कर मैं ने दीवार से सिर लगाया और बस अब मेरा धैर्य चुक गया, हिम्मत टूट गई. मेरी आंखों से आंसू बह निकले, मेरी हिचकियां बंध गईं. इस समय मेरे औफिस का कोई भी कलीग मु?ो देखता तो यकीन न कर पाता कि यह मैं हूं.

औफिस में हरदम खिलखिलाती, कर्मठ, जोशीली, ऐक्टिव, एडवैंचरस लड़की घाट पर यों बैठ कर लुटीपिटी रो रही है. हां, अंदर से मैं ऐसी ही हूं, अकेली, दुखी, निराश. मन करता है पति हो, बच्चे हों, एक दुनिया हो पर यतिन का क्या करूं जो दूर रह कर भी मेरे साथ हरदम

रहता है. उस का प्रेम दिल में ऐसी धूनी रमा कर बैठा है कि हिलने को तैयार नहीं. कितना जिद्दी होता है प्रेम.

शादी में जाना है, टाइम हो रहा है, तैयार होना है, सोच कर मैं वहां से होटल आ गई.

दोस्तों के फोन पर फोन आने शुरू हो गए थे. मैं ने आ कर शौवर लिया. अब थकान थी, मन हुआ सब छोड़ कर थोड़ी देर सो जाऊं. शुभी की शादी न होती तो आती भी न. दिल भारी था पर तैयार होना ही था. यतिन की पसंद की गुलाबी रंग की प्लेन शिफौन साड़ी खरीद कर लाई थी. साथ में नाखुक सा डायमंड सैट पहना, खुद को शीशे में देखा तो अच्छा लगा, कुछ देर देखती रही, आंखें बंद कीं, कल्पना की जैसे यतिन ने पीछे से आ कर गरदन चूम ली हो. होंठों पर एक मुसकान आ गई तो आंखें खोलीं. कहीं कोई न था. हम सब दोस्त सोशल मीडिया पर भी एकदूसरे से जुड़े हैं,. बस मैं और यतिन नहीं जुड़े. सुना है वह सोशल मीडिया पर है ही नहीं. इसलिए मुझे नहीं पता कि अब वह कैसा दिखता होगा. मैं तैयार हो गई तो सुनील ने मेरे लिए अपनी कार भेज दी. थोड़ी दूर के एक होटल में ही शादी थी. दोस्तों को देख कर दिल भर आया. सब बहुत प्यार से मिले. सब बहुत अच्छे लग रहे थे. उम्र थोड़ा असर दिखा रही थी पर सभी अच्छे लग रहे थे. शुभी को तो मैं ने देर तक गले से लगाए रखा. हंसीमजाक का दौर शुरू हुआ तो माहौल खिल उठा. हम सब पासपास के सोफों पर बैठ गए. सुनील और नीला काफी व्यस्त थे.

मैं ने कहा, ‘‘तुम हम लोगों की चिंता मत करो. हम घर के ही लोग हैं, दूसरे मेहमानों को देखो.’’

दिल जिसे ढूंढ़ रहा था. उस का कहीं अतापता ही नहीं था. किसी से पूछा भी नहीं गया. दोस्त तो दोस्त हैं, समझ गए.

मीना ने पूछा, ‘‘किसी का इंतजार कर रही हो क्या?’’

मैं हंस पड़ी पर चुप रही. उस ने मुझे एक तरफ देखने का इशारा किया. देखा, यतिन मेरी पसंद की ब्लैक शर्ट, क्रीम ट्राउजर में चला आ रहा था. उस के साथ उस की पत्नी थी जिस ने साथ चल रहे बेटे का हाथ पकड़ रखा था. यतिन की गोद में एक छोटी गोलमटोल प्यारी सी बच्ची थी. परफैक्ट फैमिली पिक्चर चली आ रही थी. यतिन मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया. उस की गहरी आंखों में बेचैनी का एक समुंदर जैसे उमड़ा चला आ रहा था.

कहने लगा, ‘‘कैसी हो, कोमल? इन से मिलो, यह मीता, बेटा यश और बेटी समृद्धि.’’

मैं बुरी तरह चौंकी. मैं उस से हंसहंस कर कहा करती थी कि जब हमारी शादी हो जाएगी. हम अपने बच्चों का नाम यश और समृद्धि रखेंगें. भरापूरा घर लगा करेगा.

मीता ने मुसकराते हुए हायहेलो किया. मीता भी मुझे अच्छी लगी. फिर वह सब से मिला. वह सब से हंसबोल रहा था पर उस की नजरें मुझ पर टिकी थीं. मीता को भी यहां कई लोग जानते थे. मैं उस के बच्चों के नाम पर अटक गई थी. मैं ने उस की पसंद का, उस ने मेरी पसंद का रंग पहना था. वह कोशिश कर रहा था कि उस की बेटी उस की गोद से थोड़ी देर उतर जाए. मीता भी कोशिश कर रही थी कि उसे गोद में ले ले. फिर सब इस बात पर हंसने लगे.

यतिन बताने लगा, ‘‘यह मुझे छोड़ती ही नहीं है. जितनी देर घर पर रहता हूं मुझसे पूरी ड्यूटी करवाती है.’’

यतिन जितनी भी बातें कर रहा था, मुझे लग रहा था कि वह मुझे बताना चाहता है, मुझसे अपनी बातें करना चाहता है पर सीधे कर नहीं पा रहा है. फिर वह बच्ची को वहां घूम रहे वेटर्स से एक गिलास जूस ले कर पिलाने लगा. यश और बच्चों के साथ मस्त हो गया. मीता मुझसे 3 सोफे दूर ही बैठी हुई थी. स्नैक्स चलते रहे. अचानक यतिन उठ कर खानेपीने के स्टाल्स का एक चक्कर लगा कर आया और मु?ा से आ कर कहने लगा, ‘‘टमाटर चाट भी है, जाओ, खा लो.’’

मेरा दिल जैसे थमने को हुआ. उफ, यह आज भी नहीं भूला कि टमाटर चाट मुझे इतनी पसंद थी कि मैं रोज खा सकती थी. मैं ने उस की आंखों में देखा, जबां चुप भी रहे तो भी आंखें कितनी बातें कर सकती हैं, यह मैं ने इस पल जाना. और जो उस की नजरों ने कहा, मेरा बेचैन  दिल शांत होता चला गया. हां, वह भी मुझे भूल नहीं पाया था. उसे भी मैं याद आती हूं, मेरी 1-1 बात उसे आज भी याद है.

फिर बोला, ‘‘कल शाम को कितने बजे की फ्लाइट है?’’ मैंने कुछ नहीं कहा. थोड़ी हैरान थी कि उसे पता है कि मैं कल ही जा रही हूं. मेरी खबर रखता है.

‘‘आज दिनभर क्या किया?’’

‘‘सब पुरानी जगहों पर अकेले घूमी?’’

‘‘मुझे भी बुला लिया होता.’’

‘‘आदत है मुझे.’’

‘‘इसी बात का तो दुख है.’’

आज मैं उसे नए रूप में देख रही थी, अपनी पत्नी और बच्चों का ध्यान रखते हुए एक पुरुष के रूप में. अपनी प्रेमिका से बरसों बाद मिलने पर एक बेचैन से प्रेमी के रूप में. शादी के प्रोग्राम चलते रहे थे. पर हम दोनों लगातार एकदूसरे को जीभर कर देख रहे थे. चलते हुए मीता ने कहा, ‘‘आप अभी हैं तो घर हो कर जाना.’’

‘‘नहीं, मैं तो कल ही जा रही हूं,’’ कह मैं यतिन को परिवार के साथ जाते देख रही थी.

अचानक वह पत्नी को वहीं छोड़ कर जल्दीजल्दी चल कर वापस आया, पूछा, ‘‘अब कब आओगी?’’

मेरा मन हुआ मैं उस से लिपट कर रो पड़ूं सब भूल जाऊं. मगर मैं ने बस ‘न’ में गरदन हिला दी. वह सुस्त कदमों से लौट गया. कैसे कहूं यतिन तुम्हारे शहर में आना इतना आसान नहीं है. कदमकदम पर यादें बिखरी हैं जिन्हें समेटने में मेरा दिल लहूलुहान हुआ चला जा रहा है. इस बार मेरे दिल ने मुझे ‘चल झूठी’ नहीं कहा.

लियो: क्या जोया से दूर हुआ यश

राधा यश पर खूब बरसीं, धर्म, जाति, समाज की बड़ीबड़ी बातें कीं लेकिन जब यश भी उखड़ गया, तो रोने लगीं. ये कैसी मां हैं, क्या इन्हें अपने इकलौते व योग्य बेटे की खुशी पसंद नहीं? इंसानों ने अपनी खुशियों के बीच इतनी दीवारें क्यों खड़ी कर ली हैं? अपनों की खुशी इन दीवारों के आगे माने नहीं रखती क्या? राधा जोया को इतने अपशब्द क्यों कह रही हैं? आखिर, ऐसा क्या किया है उस ने?

अहा, जोया आ रही है. उस के परफ्यूम की खुशबू को मैं पहचानता हूं और वह मेरे लिए मटन ला रही है, मुझे यह भी पता चल गया है. अब आई, अब आई और यह बजी डोरबैल. यश लैपटौप पर कुछ काम कर रहा था, जिस फुरती से उस ने दरवाजा खोला, हंसी आई मुझे. प्यार करता है जोया से वह और जोया भी तो जान देती है उस पर. दोनों साथ में कितने अच्छे लगते हैं जैसे एकदूसरे के लिए ही बने हैं.

जैसे ही यश ने दरवाजा खोला, जोया अंदर आई. आते ही यश ने उस के गाल पर किस कर दिया. वह शरमा गई. मैं ने लपक कर अपनी पूंछ जोरजोर से हिला कर अपनी तरह से जोया का स्वागत किया. वह मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए नीचे ही बैठ गई. पूछा, ‘‘कैसे हो, लिओ? देखो, तुम्हारे लिए क्या लाई हूं.’’

मैं ने और तेजी से अपनी पूंछ हिलाई. फिर जोया ने आंगन की तरफ मेरे बरतनों के पास जाते हुए कहा, ‘‘आओ, लिओ.’’ मैं मटन पर टूट पड़ा, कितना अच्छा बनाती है जोया. उस के हाथ में कितना स्वाद है. राधारानी तो अपने मन का कुछ भी बनाखा कर अपनी खाली सहेलियों के साथ सत्संग, भजनों में मस्त रहती हैं. यश बेचारा सीधा है, मां जो भी बना देती है, चुपचाप खा लेता है. कभी कोई शिकायत नहीं करता. अच्छे बड़े पद पर काम करता है, पर घमंड नाम का भी नहीं. और जोया भी कितनी सलीकेदार, पढ़ीलिखी नरम दिल लड़की है. मैं तो इंतजार कर रहा हूं कि कब वह यश की पत्नी बन कर इस घर में आए.

यश के पापा शेखर भी बहुत अच्छे स्वभाव के हैं. घर में क्लेश न हो, यह सोच कर ज्यादातर चुप रहते हैं. राधा की जिदों पर उन्हें गुस्सा तो खूब आता है पर शांत रह जाते हैं. शायद इसी कारण से राधारानी जिद्दी और गुस्सैल होती चली गई हैं. यश का स्वभाव बिलकुल अपने पापा पर ही तो है. घर में मुझे प्यार तो सब करते हैं, राधारानी भी, पर मुझे उन का अपनी जाति पर घमंड करना अच्छा नहीं लगता. उन की बातें सुनता हूं तो बुरा लगता है. बोल नहीं पाता तो क्या हुआ, सुनतासमझता तो सब हूं.

मैं यश और जोया को बताना चाहता हूं कि राधारानी यश के लिए लड़कियां देख रही हैं, यह अभी यश को पता ही नहीं है. वह तो सुबह निकल कर रात तक ही आता है. वह घर आने से पहले जब भी जोया से मिल कर आता है, मैं समझ जाता हूं क्योंकि यश के पास से जोया के परफ्यूम की खुशबू आ जाती है मुझे. एक दिन जोया यश को बता रही थी कि उस का भाई समीर फ्रांस से यह परफ्यूम ‘जा दोर’ लाया था. जब घर में शेखर और राधा नहीं होते, यश जोया को घर में ही बुला लेता है. मैं खुश हो जाता हूं कि अब जोया आएगी, यश की फोन पर बात सुन लेता हूं न. जोया मुझे बहुत प्यार करती है, इसलिए हमेशा मेरे लिए कुछ जरूर लाती है.

यश जोया को अपने बैडरूम में ले गया तो मैं चुपचाप आंगन में आ कर बैठ गया. इतनी समझ है मुझ में. दोनों को बड़ी मुश्किल से यह तनहाई मिलती है. शेखर और राधा को, बस, इतना ही पता है कि दोनों अच्छे दोस्त हैं. दोनों एकदूसरे को बेइंतहा प्यार करते हैं, इस की भनक भी नहीं है उन्हें. मैं जानता हूं, जिस दिन राधारानी को इस बात का अंदाजा भी हो गया, जोया का इस घर में आना बंद हो जाएगा. एक विजातीय लड़की से बेटे की बाहर की दोस्ती तो ठीक है पर इस के आगे राधारानी कुछ सह न पाएंगी. धर्मजाति से बढ़ कर उन के जीवन में कुछ भी नहीं है, पति और बेटे की खुशी भी नहीं.

थोड़ी देर बाद जोया ने अपने और यश के लिए कौफी बनाई. फिर दोनों ड्राइंगरूम में ही बैठ कर बातें करने लगे. अब मैं उन दोनों के पास ही बैठा था.  कौफी पीतेपीते अपने पास बिठा कर मेरे  सिर पर हाथ फेरते रहने की यश की आदत है. मैं भी खुद ही कौफी का कप देख कर उस के पास आ कर बैठ जाता हूं. मुझे भी यही अच्छा लगता है. उस के स्पर्श में इतना स्नेह है कि मेरी आंखें बंद होने लगती हैं, ऊंघने भी लगता हूं. पर अचानक जोया के स्वर में उदासी महसूस हुई तो मेरे कान खड़े हुए.

जोया कह रही थी, ‘‘यश, अगर मैं ने अपने मम्मीपापा को मना भी लिया तो तुम्हारी मम्मी तो कभी राजी नहीं होंगी, सोचो न यश, कैसे होगा?’’

‘‘तुम चिंता मत करो जो, अभी टाइम है, सब ठीक हो जाएगा.’’

जो, यश भी न. जोया के पहले से ही छोटे नाम को उस ने ‘जो’ में बदल दिया है, हंसी आती है मुझे. खैर, मैं यश को कैसे बताऊं कि अब टाइम नहीं है, राधारानी लड़कियां देख रही हैं. मैं ने अपने मुंह से कूंकूं तो किया पर समझाऊं कैसे. मुझे जोया के उतरे चेहरे को देख कर तरस आया तो मैं जोया की गोद में मुंह रख कर बैठ गया.

जोया की आंखें भर आई थीं, बोली, ‘‘यश, मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना नहीं कर सकती.’’

‘‘ठीक है जो, मैं मम्मी से जल्दी ही बात करूंगा. तुम दुखी मत हो.’’

फिर यश अपने हंसीमजाक से जोया को हंसाने लगा. दोनों हंसते हुए कितने प्यारे लगते हैं. जोया की लंबी सी चोटी पकड़ कर यश ने उसे अपने पास खींच लिया था. वह हंस दी. मैं भी हंस रहा था. फिर जोया ने अपने फोन से हम तीनों की एक सैल्फी ली. वाह, ‘हैप्पी फैमिली’ जैसा फील हुआ मुझे. फिर जोया टाइम देखती हुई उठ खड़ी हुई, ‘‘अब आंटीअंकल के आने का टाइम हो रहा है, मैं चलती हूं.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कहते हुए यश ने खड़े हो कर उसे बांहों में भर लिया, फिर उस के होंठों पर किस कर दिया. मैं जानबूझ कर इधरउधर देखने लगा था.

जोया के जाने के 20 मिनट बाद शेखर और राधा आ गए. मैं ने सोचा, अच्छा हुआ, जोया टाइम से चली गई. जोया के परफ्यूम की जो खुशबू पूरे घर में आती रहती है, उसे शेखर और राधा महसूस नहीं करते. घंटों तक रहती है यह खुशबू घर में. कितनी अच्छी खुशबू है यह. पर आज शायद घर में मटन और परफ्यूम की अलग ही खुशबू राधारानी को महसूस हो ही गई, पूछा, ‘‘यश, कैसी महक है?’’

‘‘क्या हुआ, मम्मी?’’

‘‘कोई आया था क्या?’’

‘‘हां मम्मी, मेरे कुछ फ्रैंड्स आए थे.’’

शक्की तो हैं ही राधारानी, ‘‘अच्छा? कौनकौन?’’

‘‘अमित, महेश, अंजलि और जोया. जोया ही लिओ के लिए मटन ले आई थी.’’

शेखर ने जोया के नाम पर जिस तरह यश को देखा, मजा आ गया मुझे. बापबेटे की नजरें मिलीं तो यश मुसकरा दिया, वाह. बापबेटे की आंखोंआंखों में जो बातें हुईं, उन से मुझे मजा आया. दोनों का बढि़या दोस्ताना रिश्ता है. शेखर गरदन हिला कर मुसकराए, यश मुंह छिपा कर हंसने लगा. अचानक राधा ने कहा, ‘‘यश, अगले वीकैंड का कुछ प्रोग्राम मत रखना. फ्री रहना.’’

‘‘क्यों, मम्मी?’’

‘‘मैं ने तुम्हारे लिए एक लड़की पसंद की है, ज्योति, उसे देखने चलेंगे.’’

‘‘नहीं मम्मी, मुझे नहीं देखना है किसी को.’’

‘‘क्यों?’’ राधारानी के माथे पर त्योरियां उभर आईं.

‘‘बस, नहीं जाना मुझे.’’

‘‘कारण बताओ.’’

यश ने पिता को देखा, शेखर ने सस्नेह पूछा, ‘‘तुम्हारी कोईर् पसंद है?’’

यश साफ बात करने वाला सच्चा इंसान है. उसे लागलपेट नहीं आती, बोला, ‘‘मम्मी, मुझे जोया पसंद है, मैं उसी से मैरिज करूंगा.’’

जोया के नाम पर जो तूफान आया, पूरा घर हिल गया. राधा यश पर खूब बरसीं, धर्म, जाति, समाज की बड़ीबड़ी बातें कीं. जब यश भी उखड़ गया, तो रोने पर आ गईं. वैसा ही दृश्य हो गया जैसा फिल्मों में होता है. यश जब घर में कोई मूवी देखता है, मैं भी देखता हूं उस के साथ बैठ कर, ऐसा दृश्य तो खूब घिसापिटा है पर अब तो मेरे यश से इस का संबंध था तो मैं बहुत दुखी हो रहा था. मुझे बारबार जोया की आज की ही आंसुओं से भरी आंखें याद आ रही थीं.

मैं चुपचाप शेखर के पास बैठ कर सारा तमाशा देख रहा था और सोच रहा था, ये कैसी मां हैं, क्या इन्हें अपने इकलौते व योग्य बेटे की खुशी अजीज नहीं?

इंसानों ने अपनी खुशियों के बीच इतनी दीवारें क्यों खड़ी कर ली हैं? अपनों की खुशी इन दीवारों के आगे माने नहीं रखती? राधा जोया को इतने अपशब्द क्यों कह रही हैं? ऐसा क्या किया उस ने?

यश अपने बैडरूम की तरफ बढ़ गया तो मैं झट उठ कर उस के पीछे चल दिया. वह बैड पर औंधेमुंह पड़ गया. मैं ने उस के पैर चाटे. अपना मुंह उस के पैरों पर रख कर उसे तसल्ली दी. वह मुझे अपनी गोद में उठा कर वापस अपने पास लिटा कर एक हाथ अपनी आंखों पर रख कर सिसक उठा तो मुझे भी रोना आ गया. यश को तो मैं ने आज तक रोते देखा ही नहीं था. ये कैसी मां हैं? इतने में शेखर यश के पास आ कर बैठ गए.

यश के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,  ‘‘बेटा, तुम्हारी मां जोया को किसी सूरत में स्वीकार नहीं करेंगी.’’

‘‘और मैं उस के सिवा किसी और से विवाह नहीं करूंगा, पापा.’’

घर का माहौल अजीब हो गया था. अगले कई दिन घर का माहौल बेहद तनावपूर्ण रहा. राधा और यश दोनों अपनी बात पर अड़े थे. शेखर कभी राधा को समझा रहे थे, कभी यश को. यश कभी घर में खाता, कभी बाहर से खा कर आता और चुपचाप अपने कमरे में बंद हो जाता. वह जोया से तो बाहर मिलता ही था, मुझे तो जोया के परफ्यूम की खुशबू अकसर यश के पास से आ ही जाती थी.

मैं ने जोया को बहुत दिनों से नहीं देखा था. मुझे जोया की याद आती थी. यश का उदास चेहरा देख कर भी राधा का हठ कम नहीं हो रहा था और मेरा यश तो मुझे आजकल बिलकुल रूठारूठा फिल्मी हीरो लगता था.

एक दिन राधा यश के पास आईं, टेबल पर एक लिफाफा रखती हुई बोलीं, ‘‘यह रही ज्योति की फोटो. एक बार देख लो, खूब धनी व समृद्ध परिवार है.  ज्योति परिवार की इकलौती वारिस है. तुम्हारा जीवन बन जाएगा और एक बात कान खोल कर सुन लो, यह इश्क का भूत जल्दी उतार लो, वरना मैं अन्नजल त्याग दूंगी.’’

मैं ने मन ही मन कहा, झूठी. आप तो भूखी रह ही नहीं सकतीं. व्रत में भी आप का मुंह पूरा दिन चलता है. मेरे यश को झूठी धमकियां दे रही हैं राधारानी. झूठी बातें कर के यश को परेशान कर रही हैं, बेचारा फंस न जाए. अन्नजल त्यागने की धमकी से सचमुच यश का मुंह उतर गया.

अब मैं कैसे बताऊं कि यश, इस धमकी से डरना मत, तुम्हारी मां कभी भूखी नहीं रह सकतीं. जोया को न छोड़ना, तुम दोनों साथ बहुत खुश रहोगे. पिछली बार जो मेरे फेवरेट पौपकौर्न तुम मेरे लिए लाए थे, आधे तो राधारानी ने ही खा लिए थे. 4 अपने मुंह में डाल रही थीं तो एक मेरे लिए जमीन पर रख रही थीं. एक बार भी नहीं सोचा कि मेरे फेवरेट पौपकौर्न हैं और तुम मेरे लिए लाए थे. तुम ने जोया के साथ मूवी देखते हुए खरीदे थे और आ कर झूठ बोला था कि एक दोस्त के साथ मूवी देख कर आए हो. हां, ठीक है, ऐसी मां से झूठ बोलना ही पड़ जाता है. गपड़गपड़ सारे पौपकौर्न खा गई थीं राधारानी. ये कभी भूखी नहीं रहतीं, तुम डरना मत, यश.

फोटो पटक कर राधा शेखर के साथ कहीं बाहर चली गई थीं. यश सिर पकड़ कर बैठ गया था. मैं तुरंत उस के पैरों के पास जा कर बैठ गया. इतने दिनों से घर में तूफान आया हुआ था. यश के साथ मैं भी थक चुका था. मैं ने उसे कभी अपने मातापिता से ऊंची आवाज में बात करते हुए भी नहीं सुना था. उसे अपनी पसंद की जीवनसंगिनी की इच्छा का अधिकार क्यों नहीं है? इंसानों में यह भेदभाव करता कौन है और क्यों? क्यों एक इंसान दूसरे इंसान से इतनी नफरत करता है? मेरा मन हुआ, काश, मैं बोल सकता तो यश से कहता, ‘दोस्त, यह तुम्हारा जीवन है, बेकार की बहस छोड़ कर अपनी पसंद का विवाह तुम्हारा अधिकार है. राधारानी ज्यादा दिनों तक बेटे से नाराज थोड़े ही रहेंगी. तुम ले आओ जोया को अपनी दुलहन बना कर. जोया को जाननेसमझने के बाद वे तुम्हारी पसंद की प्रशंसा ही करेंगी.’ यश मुझे प्यार करने लगा तो मैं  भी उस से चिपट गया.

मैं बेचैन सा हुआ तो यश ने कहा, ‘‘लिओ, क्या करूं? प्लीज हैल्प मी. बताओ, दोस्त. मां की पसंद देखनी है? मुझे भी पता है तुम्हें भी जोया पसंद है, है न?’’

मैं ने खूब जोरजोर से अपनी पूंछ हिला कर ‘हां’ में जवाब दिया. वह भी समझ गया. हम दोनों तो पक्के दोस्त हैं न. एकदूसरे की सारी बातें समझते हैं, फिर उसे पता नहीं क्या सूझा, बोला, ‘‘आओ, तुम्हें मां की पसंद दिखाता हूं.’’

यश ने मेरे आगे उस लड़की की फोटो की. मुझे धक्का लगा, मेरे हीरो जैसे हैंडसम दोस्त के लिए यह भीमकाय लड़की. पैसे व जाति के लिए राधारानी इसे बहू बना लेंगी. छिछि, लालची हैं ये. यश को भी झटका लगा था. वह चुपचाप अपनी हथेलियों में सिर रख कर बैठ गया. उस की आंखों की कोरों से नमी सी बह गई. मैं ने उस के घुटनों पर अपना सिर रख कर उसे प्यार किया. मुंह से कुछ आवाज भी निकाली. वह थके से स्वर में बोला.

‘‘लिओ, देखा? मां कितनी गलत जिद कर रही हैं. बताओ दोस्त, क्या करना चाहिए अब?’’

मेरा दोस्त, मेरा यार मुझ से पूछ रहा था तो मुझे बताना ही था. राधारानी को पता नहीं आजकल के घर के दमघोंटू माहौल में चैन आ रहा था, यह तो वही जानें. यश की उदासी मुझे जरा भी सहन नहीं हो रही थी. मेरा दोस्त अब मुझ से पूछ रहा था तो मुझे तो अपनी राय देनी ही थी. क्या करूं, क्या करूं, ऐसे समय न बोल पाना बहुत अखरता है. मैं ने झट न आव देखा न ताव, उस फोटो को मुंह में डाला और चबा कर जमीन पर रख दिया. यश को तो यह दृश्य देख हंसी का दौरा पड़ गया. मैं भी हंस दिया, खूब पूंछ हिलाई. दोनों पैरों पर खड़ा भी हो गया. यश तो हंसतेहंसते जमीन पर लेट गया था. मैं भी उस से चिपट गया. हम दोनों जमीन पर लेटेलेटे खूब मस्ती करने लगे थे.

अब यश की हंसी नहीं रूक रही थी. मैं भांप गया था, अब यश जोया से दूर नहीं होगा. वह फैसला ले चुका था और मैं इस फैसले से बहुत खुश था. मुझ पर अपना हाथ रखते हुए यश कह रहा था, ‘‘ओह लिओ, आई लव यू.’’

‘मी टू,’ मैं ने भी उस का हाथ चाट कर जवाब सा दिया था.

लाइफ एंज्वायमेंट: जब रिसेप्शनिस्ट मोनिका की आवाज में फंसे मिस्टर गंभीर

टेलीफोन की घंटी घनघनाई. मैं ने जैसे ही फोन उठाया, उधर से आई मधुर आवाज ने कानों में मिठास घोल दी.

‘‘क्या मिस्टर गंभीर लाइन पर हैं? क्या मैं उन से बात कर सकती हूं?’’

प्रत्युत्तर में मैं ने कहा, ‘‘बोल रहा हूं.’’ इस से पहले कि मैं कुछ कहूं, उधर से पुन: बातों का सिलसिला जारी हो गया, ‘‘सर, मैं पांचसितारा होटल से रिसेप्स्निष्ट बोल रही हूं. हम ने हाल ही में एक स्कीम लांच की है. हम चाहते हैं कि आप को उस का मेंबर बनाएं. सर, इस के कई बेनीफिट हैं. शहर के प्रतिष्ठित लोगों से कांटेक्ट कर के आप हाइसोसायटी में उठबैठ सकेंगे. क्रीम सोसायटी में उठनेबैठने से आप का स्टेटस बढ़ेगा और आप ऐश से लाइफ एंज्वाय करेंगे. इतने सारे लाभों के बावजूद सर, आप के कुल बिल पर हम 10 परसेंट डिस्काउंट भी देंगे. आप समझ सकते हैं सर कि यह स्कीम कितनी यूजफुल है, आप के लिए. सर, बताइए, मैं कब आ कर मेंबरशिप ले लूं?’’

मैं एकाग्रता से उस की बातें सुन रहा था क्योंकि उस के लगातार बोलने के कारण मुझे कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिल सका. वह जब कुछ क्षण के लिए रुकी तो मैं ने तुरंत पूछ  लिया, ‘‘मैडम, आप पहले अपना नाम और परिचय दीजिए ताकि मैं आप की स्कीम के संबंध में कुछ सोच सकूं. बिना सोचेसमझे कैसे मेंबर बन पाऊंगा?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, मैं पहले ही बता चुकी हूं कि मैं रिसेप्शनिस्ट हूं. क्या परिचय के लिए इतना काफी नहीं है? आप तो सर मेंबरशिप में इंटरेस्ट लीजिए. जो आप के लिए बहुत यूजफुल है.’’

‘‘मैडम, आप का कहना सही है पर उस से पहले आप के बारे में जानना भी तो जरूरी है. बिना कुछ जानेपहचाने मेंबर बनना कैसे संभव है.’’ वह अपनी बात पर कायम रहते हुए फिर बोली, ‘‘सर, आप मेंबर बनने के लिए यस कीजिए. जब मैं पर्सनली आ कर आप से कांटेक्ट करूंगी तब आप मुझ से रूबरू भी हो लीजिएगा. बस, आप के यस कहने की ही देर है. आप जो चाहते हैं, वह सब डिटेल में जान जाएंगे. हमारे आनरेबल कस्टमर के रूप में, आप जब यहां आएंगे तो मुलाकातें होती रहेंगी. लोगों को आपस में मिला कर, लाइफ एंज्वाय कराने का चांस देना ही हमारी स्कीम का मेन मोटो है. सर, प्लीज हमें सेवा करने का एक चांस तो अवश्य दीजिए. मेरा नाम और परिचय जानने में आप क्यों टाइम वेस्ट कर रहे हैं?’’

यह तर्क सुनने के बाद भी मैं अपनी बात पर अटल रहा. मैं ने कहा, ‘‘मैडम, जब तक आप नाम और परिचय नहीं बताएंगी, तब तक आप के प्रस्ताव पर कैसे विचार करूं?’’

जब उस ने देखा कि मैं अपनी बात पर कायम हूं, तो हार कर उस ने कहा, ‘‘सर, जब आप को इसी में सैटिस्फैक्शन है कि पहले मैं अपना इंट्रोडक्शन दूं, तो मैं दिए देती हूं. पर सर, मेरी भी एक शर्त है. इस के बाद आप मेंबर अवश्य बनेंगे. आप इस का भी वादा कीजिए.’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ बताइए तो सही.’’

उस ने कहा, ‘‘सर, मेरा नाम मोनिका है,’’ और यह बताने के साथ ही उस ने फिर अपनी बात दोहराई और बोली, ‘‘अब तो प्लीज मान जाइए, मैं कब आ जाऊं?’’

उस के बारबार के मनुहार पर कोई ध्यान न देते हुए मैं ने उस की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘मैडम, कितना सुंदर नाम है, मोनिका? जिसे बताने में आप ने इतनी देर लगा दी. जब नाम इतना शार्ट और स्वीट है, आप की आवाज इतनी मधुर है, आप बात इतने सलीके से कर रही हैं तो स्वाभाविक है, आप सुंदर भी बहुत होंगी? सच कहूं तो आप के दर्शन करने की अब इच्छा होने लगी है.’’

अपनी तारीफ सुन कर उस ने हंस कर कहा, ‘‘सर, अब आप मेन इश्यू को अवाइड कर रहे हैं. यह फेयर नहीं है. जो आप ने नाम पूछा वह मैं ने बता दिया. फिर आप मेरी तारीफ करने लगे और अब दर्शन की बात. आखिर इरादा क्या है आप का, सर? हम ने बहुत बातें कर लीं. अब आप काम की बात पर आइए. सर, बताइए कब आ कर दर्शन दे दूं.’’

वह बराबर सदस्यता लेने के लिए अनुनयविनय करती जा रही थी लेकिन मेरे मन में एक जिज्ञासा थी जिस का समाधान करना उपयुक्त समझा. मैं ने पूछा, ‘‘मोनिकाजी, इतने बड़े शहर में आप ने मुझे ही क्यों इस के लिए चुना? शहर में और लोग भी तो हैं?’’

उस ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘सर, वास्तव में स्कीम लांच होने पर हम शहर के स्टेटस वाले लोगों से फोन पर कांटेक्ट कर रहे हैं, जो हमारी मेंबरशिप अफोर्ड करने योग्य हैं. वैसे आप के नाम का प्रपोजल आप के मित्र सुदर्शनजी ने किया था. उन्होंने कहा था कि यदि मिस्टर गंभीर तैयार हो जाते हैं तो मैं भी मेंबर बन जाऊंगा. इसीलिए आप से इतनी रिक्वेस्ट कर रही हूं क्योंकि आप के यस कह देने पर हमें आप दोनों की मेंबरशिप मिल जाएगी. सर, अब तो सारी बातें क्लीयर हो गई हैं. इसलिए अब कोई और बहाना मत बनाइए. बताइए, मैं कब आऊं?’’

यह सुन कर मैं पसोपेश में पड़ गया क्योंकि कुछ कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी. मुझे चुप देख कर उस ने घबराई आवाज में पूछा, ‘‘सर, अब क्या हो गया? किस गंभीर सोच में पड़ गए हैं? आप का नाम तो गंभीर है ही, क्या नेचर से भी गंभीर हैं? लाइफ में एंज्वाय करने का चांस, आप का वेट कर रहा है और आप इतनी देर से सोचने में टाइम वेस्ट कर रहे हैं. मैं ने कहा न, कम से कम मेरी बात मान कर आप एक चांस तो लीजिए, नो रिस्क नो गेन.’’

मैं ने कहा, ‘‘मोनिकाजी, मैं बहुत कनफ्यूज्ड हो गया हूं. आप को जान कर दुख होगा कि मैं अब 68 का हो गया हूं. जीवन के इस पड़ाव में आप के द्वारा दर्शित जिंदगी का उपभोग कैसे कर सकूंगा? एंज्वाय करने के दिन तो लद गए.’’

उस ने तुरंत मेरी बात को काटते हुए कहा, ‘‘गंभीरजी, यही उम्र तो होती है मौजमस्ती करने की. जब आदमी सभी रिस्पोंसिबिलिटीज से फ्री हो जाता है. फ्री माइंड हो एंज्वाय करने का मजा ही कुछ और होता है. आप मिसेज को साथ ले कर आइए और दोनों मिल कर लुफ्त उठाइए. आप अभी तक जो मजा नहीं उठा पाए  हैं, उसे कम से कम लेटर एज गु्रप में तो उठा लीजिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘यही तो परेशानी है. श्रीमतीजी एक घरेलू और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं. होटलों में आनाजाना उन्हें पसंद नहीं है. आज तक तो कभी गईं ही नहीं फिर अब कैसे जा पाएंगी? हमारे दौर में आज जैसा होटलों में जाने का चलन और संस्कृति नहीं थी. फिर इस उम्र में लोग क्या कहेंगे? आप ही बताइए, इन हालात में आप का प्रस्ताव कैसे स्वीकार करूं?’’

उस ने तपाक से कहा, ‘‘गंभीरजी, आप जैसे एज गु्रप वालों के साथ यही तो समस्या है कि सेल्फ डिसीजन लेने में हिचकिचाते हैं. लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर अपना इंटरेस्ट और फ्यूचर क्यों किल कर रहे हैं आप? यदि आप की मिसेज को होटल आने में दिक्कत है तो क्या हुआ? उस का समाधान भी मेरे पास है. मैं आप के लिए पार्टनर का प्रबंध कर दूंगी. हाइसोसायटी में तो यह कामन बात है.

‘‘हमारे यहां कई सिंगल फीमेल मेंबर्स हैं. वे भी यही सोच कर मेंबर बनी हैं कि यदि अदर सेक्स का कोई सिंगल मेंबर होगा तो वे उस के साथ पार्टनरशिप शेयर कर लेंगी. गंभीरजी, जरा सोचिए, अब उन्हें आप के साथ एडजेस्ट होने में कोई आब्जेक्शन नहीं है तो आप को क्या डिफीकल्टी है? बस, आप को करेज दिखाने की जरूरत है. बाकी बातें आप मुझ पर छोड़ दीजिए. आप कोई टेंशन न लें अपने ऊपर. मैं हूं न, सब मैनेज कर दूंगी. आप तो अपनी च्वाइस भर बता दीजिए. बस, अब कोई और बहाना मत बनाइए और हमारा आफर फाइनल करने भर का सोचिए.’’

मोनिका की खुली और बेबाक दलीलें सुन कर मैं सकते में आ गया. मन में अकुलाहट होने लगी. सोचने लगा कि कहीं मैं उस के शब्दजालों में घिरता तो नहीं जा रहा हूं? यद्यपि उस से चर्चा करते हुए मन को आनंद की अनुभूति हो रही थी. टेलीफोन के मीटर घूमते रहने की भी चिंता नहीं थी. इसलिए बात को आगे बढ़ाते हुए, मैं ने पूछ लिया, ‘‘मोनिकाजी, इस प्रकार की पार्टनरशिप में पैसे काफी खर्च हो सकते हैं. मैं एक रिटायर आदमी हूं. इस का खर्च सब कैसे और कहां से बरदाश्त कर सकूंगा?’’

उस ने कहा, ‘‘आप का यह सोचना सही है. हमारी एनुअल मेंबरशिप ही 5 हजार रुपए है. होटल विजिट की सिंगल सिटिंग में 700-800 का बिल आना साधारण बात है पर आप चिंता क्यों कर रहे हैं? इस बिल पर 10 परसेंट का डिस्काउंट भी तो मिल रहा है आप को. वैसे कभीकभी पार्टनर के बिल का पेमेंट भी आप को करना पड़ सकता है. कभी वह भी पेमेंट कर दिया करेंगी. मैं उन्हें समझा दूंगी. वह मुझ पर छोडि़ए.’’

वह एक पल रुक कर फिर बोली, गंभीरजी, एक बात कहूं, जब लाइफ एंज्वाय करना ही है तो फिर पैसों का क्या मुंह देखना? आखिर आदमी पैसा इसीलिए तो कमाता है. फिर बिना पार्टनरशिप के जिंदगी में एंज्वायमेंट कैसे होगा? सिर्फ रूखीसूखी दालरोटी खाना ही तो जिंदगी का नाम नहीं है. ‘‘गंभीरजी, एक बार इस लाइफ स्टाइल का टेस्ट कर के देखिए, सबकुछ भूल जाएंगे. शुरू में आप को कुछ अजीबअजीब जरूर लगेगा लेकिन एक बार के बाद आप का मन आप को बारबार यहां विजिट करने को मजबूर करेगा. इस का नशा सिर चढ़ कर बोलता है. यही तो रियल लाइफ का एंज्वायमेंट है.’’

‘‘मोनिकाजी, मैं 68 का हूं. क्या ऐसा करना मुझे अच्छा लगेगा?’’ मैं ने यह कहा तो वह तुनक कर बोली, ‘‘गंभीरजी, आप एज का आलाप क्यों कर रहे हैं? अरे, हमारे यहां तो 80 तक के  मेंबर हैं. उन्होंने तो कभी लाइफ एंज्वायमेंट में एज फेक्टर को काउंट नहीं किया. जिंदादिली इसी को कहते हैं कि आदमी हर एज गु्रप में स्वयं को फुल आफ यूथ समझे. बस, जोश और होश से जीने की मन में तमन्ना होनी चाहिए. ‘साठा सो पाठा’ वाली कहावत तो आप ने सुनी ही होगी. आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता, जरूरत है सिर्फ आत्मशक्ति की.’’

मोनिकाजी द्वारा आधुनिक जीवन दर्शन का तर्क सुन कर मैं अचंभित हुए बिना नहीं रहा. मुझे ऐसा लगा कि मेरी प्रत्येक बात का, एक अकाट्य तथ्यात्मक उत्तर उस के पास है. वह मुझे प्रत्येक प्रश्न पर निरुत्तर करती जा रही है. अंदर ही अंदर भय भी व्याप्त होने लगा था. एकाएक मन में एक नवीन विचार प्रस्फुटित हुआ. उन से तुरंत पूछ बैठा कि आप की एज क्या है? यह सुन कर वह चौंक गई और कहने लगी, ‘‘अब मेरी एज बीच में कहां से आ गई?’’ पर जब इस के लिए मैं ने मजबूर किया तो उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप स्वयं समझ सकते हैं कि फाइव स्टार रिसेप्सनिस्ट की एज क्या हो सकती है? इतना तो श्योर है कि मैं आप के एज ग्रुप की नहीं हूं.’’

‘‘फिर भी बताइए तो सही, मैं विशेष कारण से पूछ रहा हूं.’’

‘‘25.’’

इस के बाद मैं ने फिर प्रश्न किया कि आप के मातापिता भी होंगे? उस ने सहजता से हां में उत्तर दिया. मैं ने फिर पूछा, ‘‘मोनिकाजी, क्या आप ने उन्हें भी सदस्य बना कर जीवन का आनंद उठाने का अवसर दिलाया है? वे तो शायद मुझ से भी कम उम्र के होंगे. जब आप अन्य लोगों को लाइफ एंज्वाय करने के लिए प्रोत्साहित और अवसर प्रदान कर रही हैं, तो उन्हें क्यों और कैसे भूल गईं? वे भी तो अन्य लोगों की तरह इनसान हैं. उन्हें भी जीवन में आनंद उठाने का अधिकार है. उन्हें भी मौका मिलना चाहिए. पूर्व में आप ही ने कहा कि यही उम्र तो एंज्वाय करने की होती है, इसलिए आप को स्मरण दिलाना मैं ने उचित समझा. ‘चैरिटी बिगिंस फ्राम होम’ वाली बात आप शायद भूल रही हैं.’’

मेरी बात सुन कर शायद उसे अच्छा नहीं लगा. खिन्न हो कर बोली, ‘‘आप मेरे मातापिता में कैसे इंटरेस्ट लेने लगे? मैं तो आप के बारे में चर्चा कर रही हूं.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं,’’ मैं ने कहा, ‘‘आप के मातापिता से मेरा इनसानियत का रिश्ता है. मुझे यही लगा कि जब आप सभी लोगों को जीवन में इतना सुनहरा अवसर प्रदान करने के लिए आमादा हो कर जोर दे रही हैं तो फिर इस में मेरा भी स्वार्थ है.’’

उस ने तुरंत पूछा, ‘‘मेरे मातापिता से आप का क्या स्वार्थ सिद्ध हो रहा है?’’

तब मैं ने कहा, ‘‘कुछ खास नहीं, मुझे उन की कंपनी मिल जाएगी. आप मुझे पार्टनर दिलाने का जो टेंशन ले रही हैं, उस से मैं आप को मुक्त करना चाहता हूं. इसलिए मैं उन्हें भी मेंबर बनाने की नेक सलाह दे रहा हूं,’’ बिना अवरोध के अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं ने कहा, ‘‘मोनिकाजी, आप उन दोनों के मेंबर बन जाने का शुभ समाचार मुझे कब दे रही हैं, ताकि मैं खुद आप के पास आ कर सदस्यता ग्रहण कर सकूं?’’

मेरी इस बात का उत्तर शायद उस के पास नहीं था. अब उस की बारी थी निरुत्तर होने की. एकाएक खट की आवाज आई और फोन कट गया. मैं ने एक लंबी सास ली और फोन रख दिया.

विगत 15 मिनट से चल रही बातचीत के क्रम का इस प्रकार एकाएक पटाक्षेप हो गया. मेरी एकाग्रता भंग हो गई. मैं गंभीरता से बीते क्षणों मेें हुई बातचीत के बारे में सोचने लगा कि आज के इस आधुनिक युग में विज्ञापनों के माध्यम से उपभोक्ताओं को जीवन में आनंद और सुखशांति की परिभाषा जिस प्रकार युवाओं द्वारा परोसी तथा पेश की जा रही है, वह कितनी घिनौनी है. जिस का एकमात्र उद्देश्य उपभोक्ता को किसी भी प्रकार आकर्षित कर, उन्हें सिर्फ ‘ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी’ के आधुनिक मायाजाल में लिप्त और डुबो दिया जाए. क्या यह सब बातें हमारी भारतीय संस्कृति, संस्कारों, आदर्शों और परंपराओं के अनुरूप और उपयुक्त हैं? क्या यह उन के साथ छल और कपट नहीं है? सोच कर मन कंपित हो उठता है.

आज के आधुनिक युग की दुहाई दे कर जिस प्रकार का घृणित प्रचारप्रसार, वह भी देश की युवा पीढ़ी के माध्यम से करवाया जा रहा है, क्या वह हमारी संस्कृति पर अतिक्रमण और कुठाराघात नहीं है? हम कब तक मूकदर्शक बने, इन सब क्रियाकलापों तथा आपदाओं के साक्षी हो कर, इन्हें सहन करते जाएंगे?

दूसरे दिन फिर उसी होटल से फोन आया. इस बार आवाज किसी पुरुष की थी. उस ने कहा, ‘‘सर, मैं पांचसितारा होटल से बोल रहा हूं. हम ने एक स्कीम लांच की है. हम उस का आप को मेंबर…’’ इतना सुनते ही मैं ने बात काटते हुए उस से प्रश्न किया, ‘‘आप के यहां मोनिकाजी रिसेप्शनिस्ट हैं क्या?’’

उस ने सकारात्मक उत्तर देते हुए प्रत्युत्तर में हां कहा. इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया कि कल इस बारे में उन से विस्तृत चर्चा हो चुकी है. मेंबरशिप के बारे में आप उन से बात कर लीजिए.

तब से मैं उन के फोन की प्रतीक्षा कर रहा हूं. पर खेद है कि उन का फोन नहीं आया. इस प्रकार तब से मैं रियल माडर्न लाइफ एंज्वायमेंट करने के लिए प्रतीक्षारत हूं.

नया सफर: ससुराल के पाखंड और अंधविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू

“पापा, मैं यह शादी नहीं करना चाहती. प्लीज, आप मेरी बात मान लो…”

“क्या कह रही हो तुम? आखिर क्या कमी है मुनेंद्र में? भरापूरा परिवार है. खेतखलिहान हैं उस के पास. दोमंजिले मकान का मालिक है. घर में कोई कमी नहीं. हमारी टक्कर के लोग हैं,” उस के पिता ने गुस्से में कहा.

“पर पापा, आप भी जानते हैं, मुनेंद्र 5वीं फेल है जबकि मैं ग्रैजुएट हूं. हमारा क्या मेल?” मंजू ने अपनी बात रखी.

“मंजू, याद रख पढ़नेलिखने का यह मतलब नहीं कि तू अपने बाप से जबान लड़ाए और फिर पढ़ाई में क्या रखा है? जब लड़का इतना कमाखा रहा है, वह दानधर्म करने वाले इतने ऊंचे खानदान से है फिर तुझे बीच में बोलने का हक किस ने दिया? देख बेटा, हम तेरे भले की ही बात करेंगे. हम तेरे मांबाप हैं कोई दुश्मन तो हैं नहीं,” मां ने सख्त आवाज में उसे समझाने की कोशिश की.

“पर मां आप जानते हो न मुझे पढ़नेलिखने का कितना शौक है. मैं आगे बीएड कर टीचर बनना चाहती हूं. बाहर निकल कर काम करना है, रूपए कमाने हैं मुझे,” मंजू गिड़गिड़ाई.

“बहुत हो गई पढ़ाई. जब से पैदा हुई है यह लड़की पढ़ाई के पीछे पड़ी है. देख, अब तू चेत जा. लड़की का जन्म घर संभालने के लिए होता है, रुपए कमाने के लिए नहीं. तेरे ससुराल में इतना पैसा है कि बिना कमाई किए आराम से जी सकती है. चल, ज्यादा नखरे मत कर और शादी के लिए तैयार हो जा. हम तेरे नखरे और नहीं सह सकते. अपने घर जा और हमें चैन से रहने दे,” उस के पिता ने अपना फैसला सुना दिया था.

हार कर मंजू को शादी की सहमति देनी पड़ी. मुनेंद्र के साथ सात फेरे ले कर वह उस के घर आ गई. मंजू का मायका बहुत पूजापाठ करने वाला था. उस के पिता गांव के बड़े किसान थे. अब उसे ससुराल भी वैसा ही मिला था. पूजापाठ और अंधविश्वास में ये लोग दो कदम आगे ही थे.

किस दिन कौन से रंग के कपड़े पहनने हैं, किस दिन बाल धोना है, किस दिन नाखून काटने हैं और किस दिन बहू के हाथ दानपुण्य कराना है यह सब पहले से निश्चित रहता था.

सप्ताह के 7 में से 4 दिन उस से अपेक्षा रखी जाती थी कि वह किसी न किसी देवता के नाम पर व्रत रखे. व्रत नहीं तो कम से कम नियम से चले. रीतिरिवाजों का पालन करे. मंजू को अपनी डिगरी के कागज उठा कर अलमारी में रख देने पड़े. इस डिगरी की इस घर में कोई अहमियत नहीं थी.

उस का काम केवल सासससुर की सेवा करना, पति को सैक्स सुख देना और घर भर को स्वादिष्ठ खाना बनाबना कर खिलाना मात्र था. उस की खुशी, उस की संतुष्टि और उस के सपनों की कोई अहमियत नहीं थी.

समय इसी तरह गुजरता जा रहा था. बहुत बुझे मन से मंजू अपनी शादीशुदा जिंदगी गुजार रही थी. शादी के 1 साल बीत जाने के बाद भी जब मंजू ने सास को कोई खुशखबरी नहीं सुनाई तो घर में नए शगूफे शुरू हो गए.

सास कभी उसे बाबा के पास ले जाती तो कभी टोटके करवाती, कभी भस्म खिलाती तो कभी पूजापाठ रखवाती. लंबे समय तक इसी तरह बच्चे के जन्म की आस में परिवार वाले उसे टौर्चर करते रहे. मंजू समझ नहीं पाती थी कि आखिर इस अनपढ़, जाहिल और अंधविश्वासी परिवार के साथ कैसे निभाए?

इस बीच खाली समय में बैठेबैठे उस ने फेसबुक पर एक लड़के अंकित से दोस्ती कर ली. अंकित पढ़ालिखा था और उसी की उम्र का भी था. दोनों बैचमेट थे. उस के साथ मंजू हर तरह की बातें करने लगी. अंकित मंजू की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता. उसे नईनई बातें बताता. दोनों के बीच थोड़ा बहुत अट्रैक्शन भी था मगर अंकित जानता था कि मंजू विवाहित है सो वह कभी अपनी सीमारेखा नहीं भूलता था.

एक दिन उस ने मंजू को बताया कि वह सिंगापुर अपनी आंटी के पास रहने जा रहा है. उसे वहां जौब भी मिल जाएगी. इस पर मंजू के मन में भी उम्मीद की एक किरण जागी. उसे लगा जैसे वह इन सारे झमेलों से दूर किसी और दुनिया में अपनी जिंदगी की शुरुआत कर सकती है.

उस ने अंकित से सवाल किया,” क्या मैं तुम्हारे साथ सिंगापुर चल सकती हूं?”

“पर तुम्हारे ससुराल वाले तुम्हें जाने की अनुमति दे देंगे?” अंकित ने पूछा.

“मैं उन से अनुमति मांगने जाऊंगी भी नहीं. मुझे तो बस यहां से बहुत दूर निकल जाना है, ” मंजू ने बिंदास हो कर कहा.

“इतनी हिम्मत है तुम्हारे अंदर?” अंकित को विश्वास नहीं हो रहा था.

“हां, बहुत हिम्मत है. अपने सपनों को पूरा करने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं.”

“तो ठीक है मगर सिंगापुर जाना इतना आसान नहीं है. पहले तुम्हें पासपोर्ट, वीजा वगैरह तैयार करवाना पड़ेगा. उस में काफी समय लग जाता है. वैसे मेरा एक फ्रैंड है जो यह काम जल्दी कराने में मेरी मदद कर सकता है. लेकिन तुम्हें इस के लिए सारे कागजात और पैसे ले कर आना पड़ेगा. कुछ औपचारिकता हैं उन्हें पूरी करनी होगी,” अंकित ने समझाया.

“ठीक है, मैं कोई बहाना बना कर वहां पहुंच जाऊंगी. मेरे पास कुछ गहने पड़े हैं उन्हें ले आऊंगी. तुम मुझे बता दो कब और कहां आना है.”

अगले ही दिन मंजू कालेज में सर्टिफिकेट जमा करने और सहेली के घर जाने के बहाने घर से निकली और अंकित के पास पहुंच गई. दोनों ने फटाफट सारे काम किए और मंजू वापस लौट आई. घर में किसी को कानोंकान खबर भी नहीं हुई कि वह क्या कदम उठाने जा रही है.

इस बीच मंजू चुपकेचुपके अपनी पैकिंग करती रही और फिर वह दिन भी आ गया जब उसे सब को अलविदा कह कर बहुत दूर निकल जाना था. अंकित ने उसे व्हाट्सऐप पर सारे डिटेल्स भेज दिए थे.

शाम के 7 बजे की फ्लाइट थी. उसे 2-3 घंटे पहले ही निकलना था. उस ने अंकित को फोन कर दिया था. अंकित ठीक 3 बजे गाड़ी ले कर उस के घर के पीछे की तरफ खड़ा हो गया. इस वक्त घर में सब सो रहे थे. मौका देख कर मंजू बैग और सूटकेस ले कर चुपके से निकली और अंकित के साथ गाड़ी में बैठ कर एअरपोर्ट की ओर चल पड़ी.

फ्लाइट में बैठ कर उसे एहसास हुआ जैसे आज उस के सपनों को पंख लग गए हैं. आज से उस की जिंदगी पर किसी और का नहीं बल्कि खुद उस का हक होगा. वह छूट रही इस दुनिया में कभी भी वापस लौटना नहीं चाहती थी.

रास्ते में अंकित जानबूझ कर माहौल को हलका बनाने की कोशिश कर रहा था. वह जानता था कि मंजू अंदर से काफी डरी हुई थी. अंकित ने अपनी जेब से कई सारे चुइंगम निकाल कर उसे देते हुए पूछा,”तुम्हें चुइंगम पसंद हैं?”

मंजू ने हंसते हुए कहा,”हां, बहुत पसंद हैं. बचपन में पिताजी से छिप कर ढेर सारी चुइंगम खरीद लाती थी.”

“पर अब भूल जाओ. सिंगापुर में चुइंगम नहीं खा पाओगी.”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि वहां चुइंगम खाना बैन है. सफाई को ध्यान में रखते हुए सिंगापुर सरकार ने साल 1992 में चुइंगम बैन कर दिया था.”

अंकित के मुंह से यह बात सुन कर मंजू को हंसी आ गई. चेहरा बनाते हुए बोली,” हाय, यह वियोग मैं कैसे सहूंगी?”

“जैसे मैं सहता हूं,” कहते हुए अंकित भी हंस पड़ा.

“वैसे वहां की और क्या खासियतें हैं? मंजू ने उत्सुकता से पूछा.

“वहां की नाईटलाइफ बहुत खूबसूरत होती है. वहां की रातें लाखों टिमटिमाती डिगाइनर लेजर लाइटों से लैस होती हैं जैसे रौशनी में नहा रही हों.

“तुम्हें पता है, सिंगापुर हमारे देश के एक छोटे से शहर जितना ही बड़ा होगा. लेकिन वहां की साफसुथरी सड़कें, शांत, हराभरा वातावरण किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी है. वहां संस्कृति के अनोखे और विभिन्न रंग देखने को मिलते हैं. वहां की शानदार सड़कों और गगनचुंबी इमारतों में एक अलग ही आकर्षण है. सिंगापुर में सड़कों और अन्य स्थलों पर लगे पेड़ों की खास देखभाल की जाती है और उन्हें एक विशेष आकार दिया जाता है. यह बात इस जगह की खूबसूरती को और भी बढ़ा देते हैं. ”

“ग्रेट, पर तुम्हें इतना सब कैसे पता? पहले आ चुके हो लगता है?”

“हां, आंटी के यहां कई बार आ चुका हूं।”

सिंगापुर पहुंच कर अंकित ने उसे अपनी आंटी से मिलवाया. 2-3 दिन दोनों आंटी के पास ही रुके.

आंटी ने मंजू को सिंगापुर की लाइफ और वर्क कल्चर के बारे में विस्तार से समझाते हुए कहा,” वैसे तो तेरी जितनी शिक्षा है वह कहीं भी गुजरबसर करने के लिए काफी है. पर याद रख, तू फिलहाल सिंगापुर में है और वह डिगरी भारत की है जिस का यहां ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला.

“तेरे पास जो सब से अच्छा विकल्प है वह है हाउसहोल्ड वर्क का. सिंगापुर में घर संभालने के लिए काफी अच्छी सैलरी मिलती है. वैसे कपल्स जो दिन भर औफिस में रहते हैं उन्हें पीछे से बच्चों और बुजुर्गों को संभालने के लिए किसी की जरूरत पड़ती है. यह काम तू आसानी से कर सकेगी. बाद में काम करतेकरते कोई और अच्छी जौब भी ढूंढ़ सकती है.”

मंजू को यह आइडिया पसंद आया. उस ने आंटी की ही एक जानपहचान वाली के यहां बच्चे को संभालने का काम शुरू किया. दिनभर पतिपत्नी औफिस चले जाते थे. पीछे से वह बेबी को संभालने के साथ घर के काम करती. इस के लिए उसे भारतीय रुपयों में ₹20 हजार मिल रहे थे. खानापीना भी घर में ही था. ऐसे में वह सैलरी का ज्यादातर हिस्सा जमा करने लगी.

धीरेधीरे उस के पास काफी रुपए जमा हो गए. घर में सब उसे प्यार भी बहुत करते थे. बच्चों का खयाल रखतेरखते वह उन से गहराई से जुड़ती चली गई थी. अब उसे अपनी पुरानी जिंदगी और उस जिंदगी से जुड़े लोग बिलकुल भी याद नहीं आते थे. वह अपनी नई दुनिया में बहुत खुश थी. अंकित जैसे सच्चे दोस्त के साथसाथ उसे एक पूरा परिवार मिल गया था.

अपनी मालकिन सीमा की सलाह पर मंजू ने ऐडवांस कंप्यूटर कोर्स भी जौइन कर लिया ताकि उसे समय आने पर कोई अच्छी जौब का मौका भी मिल जाए. वह अब सिंगापुर और यहां के लोगों से भी काफी हद तक परिचित हो चुकी थी. यहां के लोगों की सोच और रहनसहन उसे पसंद आने लगी थी. यहां का साफसुथरा माहौल उसे बहुत अच्छा लगता. अंकित से भी उस की दोस्ती काफी खूबसूरत मोड़ पर थी. अंकित को जौब मिल चुकी थी और वह एक अलग कमरा ले कर रहता था.

हर रविवार जिद कर के वह मंजू को आसपास घुमाने भी ले जाता. वह मंजू की हर तरह से मदद करने को हमेशा तैयार रहता. कभीकभी मंजू को लगता जैसे वह अंकित से प्यार करने लगी है. अंकित की आंखों में भी उसे अपने लिए वही भाव नजर आते. मगर सामने से दोनों ने ही एकदूसरे से कुछ नहीं कहा था.

एक दिन शाम में अंकित उस से मिलने आया. उस ने घबराए हुए स्वर में मंजू को बताया,”मंजू, तुम्हारे पति को कहीं से खबर लग गई कि तुम मेरे साथ कहीं दूर आ गई हो. दरअसल, किसी ने तुम्हें मेरे साथ एअरपोर्ट के पास देख लिया था. यह सुन कर तुम्हारा पति मेरे भाई के घर पहुंचा और डराधमका कर सच उस से उगलवा लिया कि हम सिंगापुर में हैं.

“दोनों को यह लग रहा है कि तुम मेरे साथ भाग आई हो. हो सकता है कि तुम्हारा पीछा करतेकरते वे यहां भी पहुंच जाएं.”

“लेकिन उन के लिए सिंगापुर आना इतना आसान तो नहीं और यदि वे यहां आ भी जाते हैं तो उस से पहले ही मुझे यहां से निकलना पड़ेगा.”

“हां पर तुम जाओगी कहां?” चिंतित स्वर में अंकित ने पूछा.

“ऐसा करो मंजू तुम मलयेशिया निकल जाओ. वहां मेरी बहन रहती है. उस के घर में बूढ़े सासससुर और एक छोटा बेबी है. जीजू और दीदी जौब पर जाते हैं. पीछे से सास बेबी को संभालती हैं. मगर अब उन की भी उम्र काफी हो चुकी है. तुम कुछ दिनों के लिए उन के घर में फैमिली मैंबर की तरह रहो. मैं तुम्हारे बारे में उन्हें सब कुछ बता दूंगी. तुम बेबी संभालने का काम कर लेना. बाद में जब तुम्हारे पति और भाई यहां से चले जाएं तो वापस आ जाना. अंकित तुम्हें वहां भेजने का प्रबंध कर देगा,” सीमा ने समाधान सुझाया.

मंजू ने अंकित की तरफ देखा. अंकित ने हामी भरते हुए कहा,” डोंट वरी मंजू मैं तुम्हें सुरक्षित मलेशिया तक पहुंचाऊंगा मगर वीजा बनने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम्हें यहां छिप कर रहना होगा.”

“हां, अंकित मुझे अपनी पढ़ाई भी छोड़नी होगी. मैं नहीं चाहती कि मेरा पति या भाई मुझे पकड़ लें और फिर से उसी नरक में ले जाएं जहां से बच कर मैं आई हूं. आई विल बी ग्रेटफुल टू यू अंकित.”

“ओके, तुम डरो नहीं मैं इंतजाम करता हूं,” कह कर अंकित चला गया और मंजू उसे जाता देखती रही. फिर वह सीमा के गले लग गई. सीमा बड़ी बहन की तरह प्यार से उस का माथा सहलाने लगी.

इस बात को कई दिन बीत गए. एक दिन मंजू कंप्यूटर क्लास से निकलने वाली थी कि उसे अपने भाई की शक्ल वाला लड़का नजर आया. वह इस बात को मन का भ्रम मान कर आगे बढ़ने को हुई कि तभी उसे भाई के साथ अपना पति मुनेंद्र भी नजर आ गया. मंजू वहीं ठहर गई. वह नहीं चाहती थी कि उन दोनों को उस की झलक भी मिले. उस का पति और भाई इधरउधर देखते दूसरी सड़क पर आगे बढ़ गए तो वह दुपट्टे से चेहरा ढंक कर बाहर निकली और तेजी से अपने घर की तरफ चल दी. उसे बहुत डर लग रहा था. वह समझ गई थी कि उस का भाई और पति उस की तलाश में सिंगापुर पहुंच चुके हैं और अब यहां उस का बचना मुश्किल है.

घर आ कर उस ने सारी बात सीमा और अंकित को बताई. जाहिर था कि अब मंजू का सिंगापुर में रहना खतरे से खाली नहीं था. अब तक अंकित ने मंजू की वीजा का इंतजाम कर दिया था. अगले दिन ही उस के जाने का प्रबंध कर दिया गया. अपना सामान पैक करते समय मंजू सीमा के गले लग कर देर तक रोती रही. बच्चे भी मंजू को छोड़ने को तैयार नहीं थे.

छोटी परी ने तो उसे कस कर पकड़ लिया और कहने लगी,” नहीं दीदी, आप कहीं नहीं जाओगे हमें छोड़ कर.”

मंजू का दिल भर आया था. उस की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. अंकित के साथ एअरपोर्ट की तरफ जाते हुए भी वही सोच रही थी कि एक अनजान देश में अनजानों के बीच उसे अपने परिवार से कहीं ज्यादा प्यार मिला. यही नहीं, अंकित जैसा दोस्त मिला जो रिश्ते में कुछ न होते हुए भी उस के लिए इतनी भागदौड़ करता रहता है, उसे सुरक्षा देता है, उस की परवाह करता है. काश अंकित हमेशा के लिए उस का बन जाता. इसी तरह हमेशा उस के बढ़ते कदमों को हौंसला और संबल देता.

मंजू ने इन्हीं भावों के साथ अंकित की तरफ देखा. अंकित की नजरों में भी शायद यही भाव थे. एक अनकहा सा प्यार दोनों की आंखों में झलक रहा था पर दोनों ही कुछ कह नहीं पा रहे थे. अंकित ने उदास स्वर में कहा,”अपना ध्यान रखना मंजू।”

“देखो, तुम भी बच के रहना. कहीं वे तुम्हें देख न लें,” मंजू ने भी चिंतित हो कर कहा.

“नहींनहीं आजकल मेरी नाईटशिफ्ट चल रही है. मैं दिन में वैसे भी घर में ही रहता हूं सो पकड़ में नहीं आने वाला. अगर वे मुझे खोजते हुए घर तक आ भी गए तो मैं यही कहूंगा कि तुम मेरे साथ आई जरूर थी मगर अब कहां हो यह खबर नहीं है. तुम घबराओ नहीं आराम से रहना और अपना ध्यान रखना.”

मलयेशिया की फ्लाइट में बैठी हुई मंजू का दिल अभी भी अंकित को याद कर रहा था. शायद वह अंकित से दूर जाना नहीं चाहती थी. वह एक नए सफर की तरफ निकल तो चुकी थी पर इस बार पीछे जो छूट रहा था वह सब फिर से पा लेने की चाहत थी.

हिल स्टेशन पर तबादला

भगत राम का तबादला एक सुंदर से हिल स्टेशन पर हुआ तो वे खुश हो गए, वे प्रकृति और शांत वातावरण के प्रेमी थे, सो, सोचने लगे, जीवन में कम से कम 4-5 साल तो शहरी भागमभाग, धुएं, घुटन से दूर सुखचैन से बीतेंगे. पहाड़ों की सुंदरता उन्हें इतनी पसंद थी कि हर साल गरमी में 1-2 हफ्ते की छुट्टी ले कर परिवार सहित घूमने के लिए किसी न किसी हिल स्टेशन पर अवश्य ही जाते थे और फिर वर्षभर उस की ताजगी मन में बसाए रखते थे.

तबादला 4-5 वर्षों के लिए होता था. सो, लौटने के बाद ताजगी की जीवनभर ही मन में बसे रहने की उम्मीद थी. दूसरी खुशी यह थी कि उन्हें पदोन्नति दे कर हिल स्टेशन पर भेजा जा रहा था. साहब ने तबादले का आदेश देते हुए बधाई दे कर कहा था, ‘‘अब तो 4 वर्षों तक आनंद ही आनंद लूटोगे. हर साल छुट्टियां और रुपए बरबाद करने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. कभी हमारी भी घूमनेफिरने की इच्छा हुई तो कम से कम एक ठिकाना तो वहां पर रहेगा.’’

‘‘जी हां, आप की जब इच्छा हो, तब चले आइएगा,’’ भगत राम ने आदर के साथ कहा और बाहर आ गए. बाहर साथी भी उन्हें बधाई देने लगे. एक सहकर्मी ने कहा, ‘‘ऐसा सुअवसर तो विरलों को ही मिलता है. लोग तो ऐसी जगह पर एक घंटा बिताने के लिए तरसते हैं, हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं. तुम्हें तो यह सुअवसर एक तरह से सरकारी खर्चे पर मिल रहा है, वह भी पूरे 4 वर्षों के लिए.’’

‘‘वहां जा कर हम लोगों को भूल मत जाना. जब सीजन अच्छा हो तो पत्र लिख देना. तुम्हारी कृपा से 1-2 दिनों के लिए हिल स्टेशन का आनंद हम भी लूट लेंगे,’’ दूसरे मित्र ने कहा. ‘‘जरूरजरूर, भला यह भी कोई कहने की बात है,’’ वे सब से यही कहते रहे.

घर लौट कर तबादले की खबर सुनाई तो दोनों बच्चे खुश हो गए. ‘‘बड़ा मजा आएगा. हम ने बर्फ गिरते हुए कभी भी नहीं देखी. आप तो घुमाने केवल गरमी में ले जाते थे. जाड़ों में तो हम कभी गए ही नहीं,’’ बड़ा बेटा खुश होता हुआ बोला.

‘‘जब फिल्मों में बर्फीले पहाड़ दिखाते हैं तो कितना मजा आता है. अब हम वह सब सचमुच में देख सकेंगे,’’ छोटे ने भी ताली बजाई. मगर पत्नी सुजाता कुछ गंभीर सी हो गई. भगत राम को लगा कि उसे शायद तबादले वाली बात रास नहीं आई है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, गुमसुम क्यों हो गई हो?’’

‘‘तबादला ही कराना था तो आसपास के किसी शहर में करा लेते. सुबह जा कर शाम को आराम से घर लौट आते, जैसे दूसरे कई लोग करते हैं. अब पूरा सामान समेट कर दोबारा से वहां गृहस्थी जमानी पड़ेगी. पता नहीं, वहां का वातावरण हमें रास आएगा भी या नहीं,’’ सुजाता ने अपनी शंका जताई. ‘‘सब ठीक हो जाएगा. मकान तो सरकारी मिलेगा, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी. और फिर, पहाड़ों में भी लोग रहते हैं. जैसे वे सब रहते हैं वैसे ही हम भी रह लेंगे.’’

‘‘लेकिन सुना है, पहाड़ी शहरों में बहुत सारी परेशानियां होती हैं-स्कूल की, अस्पताल की, यातायात की और बाजारों में शहरों की तरह हर चीज नहीं मिल पाती,’’ सुजाता बोली.

भगत राम हंस पड़े, ‘‘किस युग की बातें कर रही हो. आज के पहाड़ी शहर मैदानी शहरों से किसी भी तरह से कम नहीं हैं. दूरदराज के इलाकों में वह बात हो सकती है, लेकिन मेरा तबादला एक अच्छे शहर में हुआ है. वहां स्कूल, अस्पताल जैसी सारी सुविधाएं हैं. आजकल तो बड़ेबड़े करोड़पति लाखों रुपए खर्च कर के अपनी संतानों को मसूरी और शिमला के स्कूलों में पढ़ाते हैं. कारण, वहां का वातावरण बड़ा ही शांत है. हमें तो यह मौका एक तरह से मुफ्त ही मिल रहा है.’’ ‘‘उन्नति होने पर तबादला तो होता ही है. अगर तबादला रुकवाने की कोशिश करूंगा तो कई पापड़ बेलने पड़ेंगे. हो सकता है 10-20 हजार रुपए की भेंटपूजा भी करनी पड़ जाए और उस पर भी आसपास की कोई सड़ीगली जगह ही मिल पाए. इस से तो अच्छा है, हिल स्टेशन का ही आनंद उठाया जाए.’’

यह सुन कर सुजाता ने फिर कुछ न कहा. दफ्तर से विदाई ले कर भगत राम पहले एक चक्कर अकेले ही अपने नियुक्तिस्थल का लगा आए और

15 दिनों बाद उन का पूरा परिवार वहां पहुंच गया. बच्चे काफी खुश थे. शुरूशुरू की छोटीमोटी परेशानी के बाद जीवन पटरी पर आ ही गया. अगस्त के महीने में ही वहां पर अच्छीखासी ठंड हो गई थी. अभी से धूप में गरमी न रही थी. जाड़ों की ठंड कैसी होगी, इसी प्रतीक्षा में दिन बीतने लगे थे.

फरवरी तक के दिन रजाई और अंगीठी के सहारे ही बीते, फिर भी सबकुछ अच्छा था. सब के गालों पर लाली आ गई थी. बच्चों का स्नोफौल देखने का सपना भी पूरा हो गया. मार्च में मौसम सुहावना हो गया था. अगले 4 महीने के मनभावन मौसम की कल्पना से भगत राम का मन असीम उत्साह से भर गया था. उसी उत्साह में वे एक सुबह दफ्तर पहुंचे तो प्रधान कार्यालय का ‘अत्यंत आवश्यक’ मुहर वाला पत्र मेज पर पड़ा था.

उन्होंने पत्र पढ़ा, जिस में पूछा गया था कि ‘सीजन कब आरंभ हो रहा है, लौटती डाक से सूचित करें. विभाग के निदेशक महोदय सपरिवार आप के पास घूमने आना चाहते हैं.’ सीजन की घोषणा प्रशासन द्वारा अप्रैल मध्य में की जाती थी, सो, भगत राम ने वही सूचना भिजवा दी, जिस के उत्तर में एक सप्ताह में ही तार आ गया कि निदेशक महोदय 15 तारीख को पहुंच रहे हैं. उन के रहने आदि की व्यवस्था हो जानी चाहिए.

निदेशक के आने की बात सुन कर सारे दफ्तर में हड़कंप सा मच गया. ‘‘यही तो मुसीबत है इस हिल स्टेशन की, सीजन शुरू हुआ नहीं, कि अधिकारियों का तांता लग जाता है. अब पूरे 4 महीने इसी तरह से नाक में दम बना रहेगा,’’ एक पुराना चपरासी बोल पड़ा.

भगत राम वहां के प्रभारी थे. सारा प्रबंध करने का उत्तरदायित्व एक प्रकार से उन्हीं का था. उन का पहला अनुभव था, इसलिए समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे और क्या किया जाए.

सारे स्टाफ की एक बैठक बुला कर उन्होंने विचारविमर्श किया. जो पुराने थे, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर राय भी दे डालीं. ‘‘सब से पहले तो गैस्टहाउस बुक करा लीजिए. यहां केवल 2 गैस्टहाउस हैं. अगर किसी और ने बुक करवा लिए तो होटल की शरण लेनी पड़ेगी. बाद में निदेशक साहब जहांजहां भी घूमना चाहेंगे, आप बारीबारी से हमारी ड्यूटी लगा दीजिएगा. आप को तो सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक उन के साथ ही रहना पड़ेगा,’’ एक कर्मचारी ने कहा तो भगत राम ने तुरंत गैस्टहाउस की ओर दौड़ लगा दी.

जो गैस्टहाउस नगर के बीचोंबीच था, वहां काम बन नहीं पाया. दूसरा गैस्टहाउस नगर से बाहर 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगल में बना हुआ था. वहां के प्रबंधक ने कहा, ‘‘बुक तो हो जाएगा साहब, लेकिन अगर इस बीच कोई मंत्रीवंत्री आ गया तो खाली करना पड़ सकता है. वैसे तो मंत्री लोग यहां जंगल में आ कर रहना पसंद नहीं करते, लेकिन किसी के मूड का क्या भरोसा. यहां अभी सिर्फ 4 कमरे हैं, आप को कितने चाहिए?’’ भगत राम समझ नहीं पाए कि कितने कमरे लेने चाहिए. साथ गए चपरासी ने उन्हें चुप देख कर तुरंत राय दी, ‘‘कमरे तो चारों लेने पड़ेंगे, क्या पता साहब के साथ कितने लोग आ जाएं, सपरिवार आने के लिए लिखा है न?’’

भगत राम को भी यही ठीक लगा. सो, उन्होंने पूरा गैस्टहाउस बुक कर दिया. ठीक 15 अप्रैल को निदेशक महोदय का काफिला वहां पहुंच गया. परिवार के नाम पर अच्छीखासी फौज उन के साथ थी. बेटा, बेटी, दामाद और साले साहब भी अपने बच्चों सहित पधारे थे. साथ में 2 छोटे अधिकारी और एक अरदली भी था.

सुबह 11 बजे उन की रेल 60 किलोमीटर की दूरी वाले शहर में पहुंची थी. भगत राम उन का स्वागत करने टैक्सी ले कर वहीं पहुंच गए थे. मेहमानों की संख्या ज्यादा देखी तो वहीं खड़ेखड़े एक मैटाडोर और बुक करवा ली. शाम 4 बजे वे सब गैस्टहाउस पहुंचे. निदेशक साहब की इच्छा आराम करने की थी, लेकिन भगत राम का आराम उसी क्षण से हराम हो गया था.

‘‘रहने के लिए बाजार में कोई ढंग की जगह नहीं थी क्या? लेकिन चलो, हमें कौन सा यहां स्थायी रूप से रहना है. खाने का प्रबंध ठीक हो जाना चाहिए,’’ निदेशक महोदय की पत्नी ने गैस्टहाउस पहुंचते ही मुंह बना कर कहा. उन की यह बात कुछ ही क्षणों में आदेश बन कर भगत राम के कानों में पहुंच गई थी. खाने की सूची में सभी की पसंद और नापंसद का ध्यान रखा गया था. भगत राम अपनी देखरेख में सारा प्रबंध करवाने में जुट गए थे. रहीसही कसर अरदली ने पूरी कर दी थी. वह बिना किसी संकोच के भगत राम के पास आ कर बोला, ‘‘व्हिस्की अगर अच्छी हो तो खाना कैसा भी हो, चल जाता है. साहब अपने साले के साथ और उन का बेटा अपने बहनोई के साथ 2-2 पेग तो लेंगे ही. बहती गंगा में साथ आए साहब लोग भी हाथ धो लेंगे. रही बात मेरी, तो मैं तो देसी से भी काम चला लूंगा.’’

भगत राम कभी शराब के आसपास भी नहीं फटके थे, लेकिन उस दिन उन्हें अच्छी और खराब व्हिस्कियों के नाम व भाव, दोनों पता चल गए थे.

गैस्टहाउस से घर जाने की फुरसत भगत राम को रात 10 बजे ही मिल पाई, वह भी सुबह 7 बजे फिर से हाजिर हो जाने की शर्त पर. निदेशक साहब ने 10 दिनों तक सैरसपाटा किया और हर दिन यही सिलसिला चलता रहा. भगत राम की हैसियत निदेशक साहब के अरदली के अरदली जैसी हो कर रह गई.

निदेशक साहब गए तो उन्होंने राहत की सांस ली. मगर जो खर्च हुआ था, उस की भरपाई कहां से होगी, यह समझ नहीं पा रहे थे. दफ्तर में दूसरे कर्मचारियों से बात की तो तुरंत ही परंपरा का पता चल गया.

‘‘खर्च तो दफ्तर ही देगा, साहब, मरम्मत और पुताईरंगाई जैसे खर्चों के बिल बनाने पड़ेंगे. हर साल यही होता है,’’ एक कर्मचारी ने बताया. दफ्तर की हालत तो ऐसी थी जैसी किसी कबाड़ी की दुकान की होती है, लेकिन साफसफाई के बिलों का भुगतान वास्तव में ही नियमितरूप से हो रहा था. भगत राम ने भी वही किया, फिर भी अनुभव की कमी के कारण 2 हजार रुपए का गच्चा खा ही गए.

निदेशक का दौरा सकुशल निबट जाने का संतोष लिए वे घर लौटे तो पाया कि साले साहब सपरिवार पधारे हुए हैं. ‘‘जिस दिन आप के ट्रांसफर की बात सुनी, उसी दिन सोच लिया था कि इस बार गरमी में इधर ही आएंगे. एक हफ्ते की छुट्टी मिल ही गई है,’’ साले साहब खुशी के साथ बोले.

भगत राम की इच्छा आराम करने की थी, मगर कह नहीं सके. जीजा, साले का रिश्ता वैसे भी बड़ा नाजुक होता है. ‘‘अच्छा किया, साले साहब आप ने. मिलनेजुलने तो वैसे भी कभीकभी आते रहना चाहिए,’’ भगत राम ने केवल इतना ही कहा.

साले साहब के अनुरोध पर उन्हें दफ्तर से 3 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी और गाइड बन कर उन्हें घुमाना भी पड़ा. छुट्टियां तो शायद और भी लेनी पड़ जातीं, मगर बीच में ही बदहवासी की हालत में दौड़ता हुआ दफ्तर का चपरासी आ गया. उस ने बताया कि दफ्तर में औडिट पार्टी आ गई है, अब उन के लिए सारा प्रबंध करना है.

सुनते ही भगत राम तुरंत दफ्तर पहुंच गए और औडिट पार्टी की सेवाटहल में जुट गए. साले साहब 3 दिनों बाद ‘सारी खुदाई एक तरफ…’ वाली कहावत को चरितार्थ कर के चले गए, मगर औडिट पार्टी के सदस्यों का व्यवहार भी सगे सालों से कुछ कम न था. दफ्तर का औडिट तो एक दिनों में ही खत्म हो गया था लेकिन पूरे हिल स्टेशन का औडिट करने में एक सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया.

औडिट चल ही रहा था कि दूर की मौसी का लड़का अपनी गर्लफ्रैंड सहित घर पर आ धमका. जब तक भगत राम मैदानी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्त थे, उस के दर्शन नहीं होते थे, लेकिन अचानक ही वह सब से सगा लगने लगा था. एक हफ्ते तक वह भी बड़े अधिकारपूर्वक घर में डेरा जमाए रहा. औडिट पार्टी भगत राम को निचोड़ कर गई तो किसी दूसरे वरिष्ठ अधिकारी के पधारने की सूचना आ गई.

‘‘समझ में नहीं आता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?’’ भगत राम बड़बड़ाए. ‘‘जब तक सीजन चलेगा,’’ एक कर्मचारी ने बता दिया.

भगत राम ने अपना सिर दोनों हाथों से थाम लिया. घर पर जा कर भी सिर हाथों से हट न पाया क्योंकि वहां फूफाजी आए हुए थे. बाद में दूसरे अवसर पर तो बेचारे चाह कर भी ठीक से मुसकरा तक नहीं पाए थे, जब घर में दूर के एक रिश्तेदार का बेटा हनीमून मनाने चला आया था.

उसी समय सुजाता की एक रिश्तेदार महिला भी पति व बच्चों सहित आ गई थी. और अचानक उन के दफ्तर के एक पुराने साथी को भी प्रकृतिप्रेम उमड़ आया था. भगत राम को रजाईगद्दे किराए पर मंगाने पड़ गए थे. वे खुद तो गाइड की नौकरी कर ही रहे थे, पत्नी को भी आया की नौकरी करनी पड़ गई थी. सुजाता की रिश्तेदार अपने पति के साथ प्रकृति का नजारा लेने के लिए अपने छोटेछोटे बच्चों को घर पर ही छोड़ जाया करती थी.

उधर, दफ्तर में भी यही हाल था. एक अधिकारी से निबटते ही दूसरे अधिकारी के दौरे की सूचना आ जाती थी. शांति की तलाश में भगत राम दफ्तर में आ जाते थे और फिर दफ्तर से घर में. लेकिन मानसिक शांति के साथसाथ आर्थिक शांति भी छिन्नभिन्न हो गई थी. 4 महीने कब गुजर गए, कुछ पता ही न चला. हां, 2 बातों का ज्ञान भगत राम को अवश्य हो गया था. एक तो यह कि दफ्तर के कुल कितने बड़ेबड़े अधिकारी हैं और दूसरी यह कि दुनिया में उन के रिश्तेदार और अभिन्न मित्रों की कोई कमी नहीं है.

‘‘सच पूछिए तो यहां रहने का मजा ही आ गया…जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है, लेकिन छुट्टियां इतनी ही थीं, इसलिए जाना ही पड़ेगा. अगले साल जरूर फुरसत से आएंगे.’’ रिश्तेदार और मित्र यही कह कर विदा ले रहे थे. उन की फिर आने की धमकी से भगत राम बुरी तरह से विचलित होते जा रहे थे. ‘‘क्योंजी, अगले साल भी यही सब होगा क्या?’’ सुजाता ने पूछा. शायद वह भी विचलित थी.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ भगत राम निर्णायक स्वर में चीख से पड़े, ‘‘मैं आज ही तबादले का आवदेन भिजवाए देता हूं. यहां से तबादला करवा कर ही रहूंगा, चाहे 10-20 हजार रुपए खर्च ही क्यों न करने पड़ें.’’ ?सुजाता ने कुछ न कहा. भगत राम तबादले का आवेदनपत्र भेजने के लिए दफ्तर की ओर चल पड़े.

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