चिंता की कोई बात नहीं: क्या सुकांता लौटेगी ससुराल

लेखिका प्रतिमा डिके

आज अगर कोई मुझ से पूछे कि दुनिया का सब से सुखी व्यक्ति कौन है? तो सीना तान कर मेरा जवाब होगा, मैं. और यह बात सच है कि मैं सुखी हूं. बहुत सुखी हूं, औसत से कुछ अधिक ही रूप, औसत से कुछ अधिक ही गुण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा, अच्छी नौकरी, अच्छा पैसा, मनपसंद पत्नी, समझदार, स्वस्थ और प्यारे बच्चे, शहर में अपना मकान.

अब बताइए, जिसे सुख कहते हैं वह इस से अधिक या इस से अच्छा क्याक्या हो सकता है? यानी मेरी सुख की या सुखी जीवन की अपेक्षाएं इस से अधिक कभी थीं ही नहीं. लेकिन 6 माह पूर्व मेरे घर का सुखचैन मानो छिन गया.

सुकांता यानी मेरी पत्नी, अपने मायके में क्या पत्र लिखती, मुझे नहीं पता. लेकिन उस के मायके से जो पत्र आने लगे थे उन में उस की बेचारगी पर बारबार चिंता व्यक्त की जाने लगी थी. जैसे :

‘‘घर का काम बेचारी अकेली औरत  करे तो कैसे और कहां तक?’’

‘‘बेचारी सुकांता को इतना तक लिखने की फुरसत नहीं मिल रही है कि राजीखुशी हूं.’’

‘‘इन दिनों क्या तबीयत ठीक नहीं है? चेहरे पर रौनक ही नहीं रही…’’ आदि.

शुरूशुरू में मैं ने उस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया. मायके वाले अपनी बेटी की चिंता करते हैं, एक स्वाभाविक बात है. यह मान कर मैं चुप रहा. लेकिन जब देखो तब सुकांता भी ताने देने लगी, ‘‘प्रवीणजी को देखो, घर की सारी खरीदफरोख्त अकेले ही कर लेते हैं. उन की पत्नी को तो कुछ भी नहीं देखना पड़ता…शशिकांतजी की पसंद कितनी अच्छी है. क्या गजब की चीजें लाते हैं. माल सस्ता भी होता है और अच्छा भी.’’

कई बार तो वह वाक्य पूरा भी नहीं करती. बस, उस के गरदन झटकने के अंदाज से ही सारी बातें स्पष्ट हो जातीं.

सच तो यह है कि उस की इसी अदा पर मैं शुरू में मरता था. नईनई शादी  हुई थी. तब वह कभी पड़ोसिन से कहती, ‘‘क्या बताऊं, बहन, इन्हें तो घर के काम में जरा भी रुचि नहीं है. एक तिनका तक उठा कर नहीं रखते इधर से उधर.’’ तो मैं खुश हो जाता. यह मान कर कि वह मेरी प्रशंसा कर रही है.

लेकिन जब धीरेधीरे यह चित्र बदलता गया. बातबात पर घर में चखचख होने लगी. सुकांता मुझे समझने और मेरी बात मानने को तैयार ही नहीं थी. फिर तो नौबत यहां तक आ गई कि मेरा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ाने लगा.

अब आप ही बताइए, जो काम मेरे बस का ही नहीं है उसे मैं क्यों और कैसे करूं? हमारे घर के आसपास खुली जगह है. वहां बगीचा बना है. बगीचे की देखभाल के लिए बाकायदा माली रखा हुआ है. वह उस की देखभाल अच्छी तरह से करता है. मौसम में उगने वाली सागभाजी और फूल जबतब बगीचे से आते रहते हैं.

लेकिन मैं बालटी में पानी भर कर पौधे नहीं सींचता, यही सुकांता की शिकायत है, वह चाहे बगीचे में काम न करे. लेकिन हमारे पड़ोसी सुधाकरजी बगीचे में पूरे समय खुरपी ले कर काम करते हैं. इसलिए सुकांता चाहती है कि मैं भी बगीचे में काम करूं.

मुझे तो शक है कि सुधाकरजी के दादा और परदादा तक खेतिहर मजदूर रहे होंगे. एक बात और है, सुधाकरजी लगातार कई सिगरेट पीने के आदी हैं. खुरपी के साथसाथ उन के हाथ में सिगरेट भी होती है. मैं तंबाकू तो क्या सुपारी तक नहीं खाता. लेकिन सुकांता इन बातों को अनदेखा कर देती है.

शशिकांत की पसंद अच्छी है, मैं भी मानता हूं. लेकिन उन की और भी कई पसंद हैं, जैसे पत्नी के अलावा उन के और भी कई स्त्रियों से संबंध हैं. यह बात भी तो लोग कहते ही हैं.

लेदे कर सुकांता को बस, यही शिकायत है, ‘‘यह तो बस, घर के काम में जरा भी ध्यान नहीं देते, जब देखो, बैठ जाएंगे पुस्तक ले कर.’’

कई बार मैं ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं. मैं मुक्त मन से घर में पसर कर बैठूं तो उसे अच्छा नहीं लगता. दिन भर दफ्तर में कुरसी पर बैठेबैठे अकड़ जाता हूं. अपने घर में आ कर क्या सुस्ता भी नहीं सकता? मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ने पर, मेरे द्वारा शास्त्रीय संगीत सुनने पर उसे आपत्ति है. इन्हीं बातों से घर में तनाव रहने लगा है.

ऐसे ही एक दिन शाम को सुकांता किसी सहेली के घर गई थी. मैं दफ्तर से लौट कर अपनी कमीज के बटन टांक रहा था. 10 बार मैं ने उस से कहा था लेकिन उस ने नहीं किया तो बस, नहीं किया. मैं बटन टांक रहा था कि सुकांता की खास सहेली अपने पति के साथ हमारे घर आई.

पर शायद आप पूछें कि यह खास सखी कौन होती है? सच बताऊं, यह बात अभी तक मेरी समझ में भी नहीं आई है. हर स्त्री की खास सखी कैसे हो जाती है? और अगर वह खास सखी होती है तो अपनी सखी की बुराई ढूंढ़ने में, और उस की बुराई करने में ही उसे क्यों आनंद आता है? खैर, जो भी हो, इस खास सखी के पति का नाम भी सुकांता की आदर्श पतियों की सूची में बहुत ऊंचे स्थान पर है. वह पत्नी के हर काम में मदद करते हैं. ऐसा सुकांता कहती है.

मुझे बटन टांकते देख कर खास सखी ऊंची आवाज में बोली, ‘‘हाय राम, आप खुद अपने कपड़ों की मरम्मत करते हैं? हमें तो अपने साहब को रोज पहनने के कपड़े तक हाथ में देने पड़ते हैं. वरना यह तो अलमारी के सभी कपड़े फैला देते हैं कि बस.’’

सराहना मिश्रित स्वर में खास सखी का उलाहना था. मतलब यह कि मेरे काम की सराहना और अपने पति को उलाहना था. और बस, यही वह क्षण था जब मुझे अलीबाबा का गुफा खोलने वाला मंत्र, ‘खुल जा सिमसिम’ मिल गया.

मैं ने बड़े ही चाव और आदर से खास सखी और उस के पति को बैठाया. और फिर जैसे हमेशा ही मैं वस्त्र में बटन टांकने का काम करता आया हूं, इस अंदाज से हाथ का काम पूरा किया. कमीज को बाकायदा तह कर रखा और झट से चाय बना लाया.

सच तो यह है कि चाय मैं ने नौकर से बनवाई थी और उसे पिछले दरवाजे से बाहर भेज दिया था. खास सखी और उस के पति ‘अरे, अरे, आप क्यों तकलीफ करते हैं?’ आदि कहते ही रह गए.

चाय बहुत बढि़या बनी थी, केतली पर टिकोजी विराजमान थी. प्लेट में मीठे बिस्कुट और नमकीन थी. इस सारे तामझाम का नतीजा भी तुरंत सामने आया. खास सखी के चेहरे पर मेरे लिए अदा से श्रद्धा के भाव उमड़ते साफ देखे जा सकते थे. खास सखी के पति का चेहरा बुझ गया.

मैं मन ही मन खुश था. इन्हीं साहब की तारीफ सुकांता ने कई बार मेरे सामने की थी. तब मैं जलभुन गया था, आज मुझे बदला लेने का पूरापूरा सुख मिला.

कुछ दिन बाद ही सुकांता महिलाओं की किसी पार्टी से लौटी तो बेहद गुस्से में थी. आते ही बिफर कर बोली, ‘‘क्यों जी? उस दिन मेरी सहेली के सामने तुम्हें अपने कपड़ों की मरम्मत करने की क्या जरूरत थी? मैं करती नहीं हूं तुम्हारे काम?’’

‘‘कौन कहता है, प्रिये? तुम ही तो मेरे सारे काम करती हो. उस दिन तो मैं यों ही जरा बटन टांक रहा था कि तुम्हारी खास सहेली आ धमकी मेरे सामने. मैं ने थोड़े ही उस के सामने…’’

‘‘बस, बस. मुझे कुछ नहीं सुनना…’’

गुस्से में पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में चली गई. बाद में पता चला कि भरी पार्टी में खास सखी ने सुकांता से कहा था कि उसे कितना अच्छा पति मिला है. ढेर सारे कपड़ों की मरम्मत करता है. बढि़या चाय बनाता है. बातचीत में भी कितना शालीन और शिष्ट है. कहां तो सात जनम तक व्रत रख कर भी ऐसे पति नहीं मिलते, और एक सुकांता है कि पूरे समय पति को कोसती रहती है.

अब देखिए, मैं ने तो सिर्फ एक ही कमीज में 2 बटन टांके थे, लेकिन खास सखी ने ढे…र सारे कपड़े कर दिए तो मैं क्या कर सकता हूं? समझाने गया तो सुकांता और भी भड़क गई. चुप रहा तो और बिफर गई. समझ नहीं पाया कि क्या करूं.

सुकांता का गुस्सा सातवें आसमान पर था. वह बच्चों को ले कर सीधी मायके चली गई. मैं ने सोचा कि 15 दिन में तो आ ही जाएगी. चलो, उस का गुस्सा भी ठंडा हो जाएगा. घर में जो तनाव बढ़ रहा था वह भी खत्म हो जाएगा. लेकिन 1 महीना पूरा हो गया. 10 दिन और बीत गए, तब पत्नी की और बच्चों की बहुत याद आने लगी.

सच कहता हूं, मेरी पत्नी बहुत अच्छी है. इतने दिनों तक हमारी गृहस्थी की गाड़ी कितने सुचारु रूप से चल रही थी, लेकिन न जाने यह नया भूत कैसे सुकांता पर सवार हुआ कि बस, एक ही रट लगाए बैठी है कि यह घर में बिलकुल काम नहीं करते. बैठ जाते हैं पुस्तक ले कर, बैठ जाते हैं रेडियो खोल कर.

अब आप ही बताइए, हफ्ते में एक बार सब्जी लाना क्या काफी नहीं है? काफी सब्जी तो बगीचे से ही मिल जाती है. जो घर पर नहीं है वह बाजार से आ जाती है. और रोजरोज अगर सब्जी मंडी में धक्के खाने हों तो घर में फ्रिज किसलिए रखा है?

लेकिन नहीं, वरुणजी झोला ले कर मंडी जाते हैं, तो मैं भी जाऊं. अब वरुणजी का घर 2 कमरों का है. आसपास एक गमला तक रखने की जगह नहीं है. घर में फ्रिज नहीं है, इसलिए मजबूरी में जाते हैं. लेकिन मेरी तुलना वरुणजी से करने की क्या तुक है?

बच्चे हमारे समझदार हैं. पढ़ने में भी अच्छे हैं, लेकिन सुकांता को शिकायत है कि मैं बच्चों को पढ़ाता ही नहीं. सुकांता की जिद पर बच्चों को हम ने कानवेंट स्कूल में डाला. सुकांता खुद अंगरेजी के 4 वाक्य भी नहीं बोल पाती. बच्चों की अंगरेजी तोप के आगे उस की बोलती बंद हो जाती है.

यदाकदा कोई कठिनाई हो तो बच्चे मुझ से पूछ भी लेते हैं. फिर बच्चों को पढ़ाना आसान काम नहीं है. नहीं तो मैं अफसर बनने के बजाय अध्यापक ही बन जाता. अपना अज्ञान बच्चों पर प्रकट न हो इसीलिए मैं उन की पढ़ाई से दूर ही रहता हूं. शायद इसीलिए उन के मन में मेरे लिए आदर भी है. लेकिन शकीलजी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं. रोज पढ़ाते हैं तो बस, सुकांता का कहना है मैं भी बच्चों को पढ़ाऊं.

पूरे डेढ़ महीने बाद सुकांता का पत्र आया. फलां दिन, फलां गाड़ी से आ रही हूं. साथ में छोटी बहन और उस के पति भी 7-8 दिन के लिए आ रहे हैं.

मैं तो जैसे मौका ही देख रहा था. फटाफट मैं ने घर का सारा सामान देखा. किराने की सूची बनाई. सामान लाया. महरी से रसोईघर की सफाई करवाई. डब्बे धुलवाए. सामान बिनवा कर, चुनवा कर डब्बों में भर दिया.

2 दिन का अवकाश ले कर माली और महरी की मदद से घर और बगीचे की, कोनेकोने तक की सफाई करवाई. दीवान की चादरें बदलीं. परदे धुलवा दिए. पलंग पर बिछाने वाली चादरें और तकिए के गिलाफ धुलवा लिए. हाथ पोंछने के छोटे तौलिए तक साफ धुले लगे थे. फ्रिज में इतनी सब्जियां ला कर रख दीं जो 10 दिन तक चलतीं. 2-3 तरह का नाश्ता बाजार से मंगवा कर रखा, दूध जालीदार अलमारी में गरम किया हुआ रखा था. फूलों के गुलदस्ते बैठक में और खाने की मेज पर महक रहे थे.

इतनी तैयारी के बाद मैं समय से स्टेशन पहुंचा. गाड़ी भी समय पर आई. बच्चों का, पत्नी का, साली का, उस के पति का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया. रास्ते में सुकांता ने पूछा, (स्वर में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं था) ‘‘क्यों जी, महरी तो आ रही थी न, काम करने?’’

मैं ने संक्षिप्त में सिर्फ ‘हां’ कहा.

बहन की तरफ देख कर (उसी रूखे स्वर में) वह फिर बोली, ‘‘डेढ़ महीने से मैं घर पर नहीं थी. पता नहीं इतने दिनों में क्या हालत हुई होगी घर की? ठीकठाक करने में ही पूरे 3-4 दिन लग जाएंगे.’’

मैं बिलकुल चुप रहा. रास्ते भर सुकांता वही पुराना राग अलापती रही, ‘‘इन को तो काम आता ही नहीं. फलाने को देखो, ढिकाने को देखो’’ आदि.

लेकिन घर की व्यवस्था देख कर सुकांता की बोलती ही बंद हो गई. आगे के 7-8 दिन मैं अभ्यस्त मुद्रा में काम करता रहा जैसे सुकांता कभी इस घर में रहती ही नहीं थी. छोटी साली और उस के पति इस कदर प्रभावित थे कि जातेजाते सालीजी ने दीदी से कह दिया, ‘‘दीदी, तुम तो बिना वजह जीजाजी को कोसती रहती हो. कितना तो बेचारे काम करते हैं.’’

सालीजी की विदाई के बाद सुकांता चुप तो हो गई थी. लेकिन फिर भी भुनभुनाने के लहजे में उस के कुछ वाक्यांश कानों में आ ही जाते. इसी समय मेरी बूआजी का पत्र आया. वह तीर्थयात्रा पर निकली हैं और रास्ते में मेरे पास 4 दिन रुकेंगी.

मेरी बूआजी देखने और सुनने लायक चीज हैं. उम्र 75 वर्ष. कदकाठी अभी भी मजबूत. मुंह के सारे के सारे दांत अभी भी हैं. आंखों पर ऐनक नहीं लगातीं और कान भी बहुत तीखे हैं. पुराने आचारव्यवहार और विचारों से बेहद प्रेम रखने वाली महिला हैं. मन की तो ममतामयी, लेकिन जबान की बड़ी तेज. क्या छोटा, क्या बड़ा, किसी का मुलाहिजा तो उन्होंने कभी रखा ही नहीं. मेरे पिताजी आज तक उन से डरते हैं.

मेरी शादी इन्हीं बूआजी ने तय की थी. गोरीचिट्टी सुकांता उन्हें बहुत अच्छी लगी थी. इतने बरसों से उन्हें मेरी गृहस्थी देखने का मौका नहीं मिला. आज वह आ रही थीं. सुकांता उन की आवभगत की तैयारी में जुट गई थी.

बूआजी को मैं घर लिवा लाया. बच्चों ने और सुकांता ने उन के पैर छुए. मैं ने अपने उसी मंत्र को दोहराना शुरू किया. यों तो घर में बिस्तर बिछाने का, समेटने का, झाड़ ू  लगाने का काम महरी ही करती है, लेकिन मैं जल्दी उठ कर बूआजी की चाकरी में भिड़ जाता. उन का कमरा और पूजा का सामान साफ कर देता, बगीचे से फूल, दूब, तुलसी ला कर रख देता. चंदन को घिस देता. अपने हाथ से चाय बना कर बूआजी को देता.

और तो और, रोज दफ्तर जातेजाते सुकांता से पूछता, ‘‘बाजार से कुछ मंगाना तो नहीं है?’’ आते समय फल और मिठाई ले आता. दफ्तर जाने से पहले सुकांता को सब्जी आदि साफ करने या काटने में मदद करता. बूआजी को घर के कामों में मर्दों की यह दखल देने की आदत बिलकुल पसंद नहीं थी.

सुकांता बेचारी संकोच से सिमट जाती. बारबार मुझे काम करने को रोकती. बूआजी आसपास नहीं हैं, यह देख कर दबी आवाज में मुझे झिड़की भी देती. और मैं उस के गुस्से को नजरअंदाज करते हुए, बूआजी आसपास हैं, यह देख कर उस से कहता, ‘‘तुम इतना काम मत करो, सुकांता, थक जाओगी, बीमार हो जाओगी…’’

बूआजी खूब नाराज होतीं. अपनी बुलंद आवाज में बहू को खूब फटकारतीं, ताने देतीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को कामकाज की आदत ही नहीं है. एक हम थे. चूल्हा जलाने से ले कर घर लीपने तक के काम अकेले करते थे. यहां गैस जलाओ तो थकान होती है और यह छोकरा तो देखो, क्या आगेपीछे मंडराता है बीवी के? उस के इशारे पर नाचता रहता है. बहू, यह सब मुझे पसंद नहीं है, कहे देती हूं…’’

सुकांता गुस्से से जल कर राख हो जाती, लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी.

ऐसे ही एक दिन जब महरी नहीं आई तो मैं ने कपड़ों के साथ सुकांता की साड़ी भी निचोड़ डाली. बूआजी देख रही हैं, इस का फायदा उठाते हुए ऊंची आवाज में कहा, ‘‘कपड़े मैं ने धो डाले हैं. तुम फैला देना, सुकांता…मुझे दफ्तर को देर हो रही है.’’

‘‘जोरू का गुलाम, मर्द है या हिजड़ा?’’ बूआजी की गाली दनदनाते हुए सीधे सुकांता के कानों में…

मैं अपना बैग उठा कर सीधे दफ्तर को चला.

बूआजी अपनी काशी यात्रा पूरी कर के वापस अपने घर पहुंच गई हैं. मैं शाम को दफ्तर से घर लौटा हूं. मजे से कुरसी पर पसर कर पुस्तक पढ़ रहा हूं. सुकांता बाजार गई है. बच्चे खेलने गए हैं. चाय का खाली कप लुढ़का पड़ा है. पास में रखे ट्रांजिस्टर से शास्त्रीय संगीत की स्वरलहरी फैल रही है.

अब चिंता की कोई बात नहीं है. सुख जिसे कहते हैं, वह इस के अलावा और क्या होता है? और जिसे सुखी इनसान कहते हैं, वह मुझ से बढ़ कर और दूसरा कौन होगा?

लौटते हुए: क्या हुआ सुप्रिया को गलती का एहसास

धनंजयजी का मन जाने का नहीं था, लेकिन सुप्रिया ने आग्रह के साथ कहा कि सुधांशु का नया मकान बना है और उस ने बहुत अनुरोध के साथ गृहप्रवेश के मौके पर हमें बुलाया है तो जाना चाहिए न. आखिर लड़के ने मेहनत कर के यह खुशी हासिल की है, अगर हम नहीं पहुंचे तो दीदी व जीजाजी को भी बुरा लगेगा…

‘‘पर तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी कमर में दर्द है, उस पर गरमी का मौसम है, ऐसे में घर से बाहर जाने का मन नहीं करता है.’’

‘‘हम ए.सी. डब्बे में चलेंगे…टिकट मंगवा लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘ए.सी. में सफर करने से मेरी कमर का दर्द और बढ़ जाएगा.’’

‘‘तो तुम सेकंड स्लीपर में चलो, …मैं अपने लिए ए.सी. का टिकट मंगवा लेती हूं,’’ सुप्रिया हंसते हुए बोली.

सुप्रिया की बहन का लड़का सुधांशु पहले सरकारी नौकरी में था, पर बहुत महत्त्वाकांक्षी होने के चलते वहां उस का मन नहीं लगा. जब सुधांशु ने नौकरी छोड़ी तो सब को बुरा लगा. उस के पिता तो इतने नाराज हुए कि उन्होंने बोलना ही बंद कर दिया. तब वह अपने मौसामौसी के पास आ कर बोला था, ‘मौसाजी, पापा को आप ही समझाएं…आज जमाना तेजी से आगे बढ़ रहा है, ठीक है मैं उद्योग विभाग में हूं…पर हूं तो निरीक्षक ही, रिटायर होने तक अधिक से अधिक मैं अफसर हो जाऊंगा…पर मैं यह जानता हूं कि जिन की लोन फाइल बना रहा हूं वे तो मुझ से अधिक काबिल नहीं हैं. यहां तक कि उन्हें यह भी नहीं पता होता कि क्या काम करना है और उन की बैंक की तमाम औपचारिकताएं भी मैं ही जा कर पूरी करवाता हूं. जब मैं उन के लिए इतना काम करता हूं, तब मुझे क्या मिलता है, कुछ रुपए, क्या यही मेरा मेहनताना है, दुनिया इसे ऊपरी कमाई मानती है. मेरा इस से जी भर गया है, मैं अपने लिए क्या नहीं कर सकता?’

‘हां, क्यों नहीं, पर तुम पूंजी कहां से लाओगे?’ उस के मौसाजी ने पूछा था.

‘कुछ रुपए मेरे पास हैं, कुछ बाजार से लूंगा. लोगों का मुझ में विश्वास है, बाकी बैंक से ऋण लूंगा.’

‘पर बेटा, बैंक तो अमानत के लिए संपत्ति मांगेगा.’

‘हां, मेरे जो दोस्त साथ काम करना चाहते हैं वे मेरी जमानत देंगे,’ सुधांशु बोला था, ‘पर मौसीजी, मैं पापा से कुछ नहीं लूंगा. हां, अभी मैं जो पैसे घर में दे रहा था, वह नहीं दे पाऊंगा.’

धनंजयजी ने उस के चेहरे पर आई दृढ़ता को देखा था. उस का इरादा मजबूत था. वह दिनभर उन के पास रहा, फिर भोपाल चला गया था. रात को उन्होंने उस के पिता से बात की थी. वह आश्वस्त नहीं थे. वह भी सरकारी नौकरी में रह चुके थे, कहा था, ‘व्यवसाय या उद्योग में सुरक्षा नहीं है या तो बहुत मिल जाएगा या डूब जाएगा.’

खैर, समय कब ठहरा है…सुधांशु ने अपना व्यवसाय शुरू किया तो उस में उस की तरक्की होती ही गई. उस के उद्योग विभाग के संबंध सब जगह उस के काम आए थे. 2-3 साल में ही उस का व्यवसाय जम गया था. पहले वह धागे के काम में लगा था. फैक्टरियों से धागा खरीदता था और उसे कपड़ा बनाने वाली फैक्टरियों को भेजता था. इस में उसे अच्छा मुनाफा मिला. फिर उस ने रेडीमेड गारमेंट में हाथ डाल लिया. यहां भी उस का बाजार का अनुभव उस के काम आया. अब उस ने एक बड़ा सा मकान भोपाल के टी.टी. नगर में बनवा लिया है और उस का गृहप्रवेश का कार्यक्रम था… बारबार सुधांशु का फोन आ रहा था कि मौसीजी, आप को आना ही होगा और धनंजयजी ना नहीं कर पा रहे थे.

‘‘सुनो, भोपाल जा रहे हैं तो इंदौर भी हो आते हैं,’’ सुप्रिया बोली.

‘‘क्यों?’’

‘‘अपनी बेटी रंजना के लिए वहां से भी तो एक प्रस्ताव आया हुआ है. शारदा की मां बता रही थीं…लड़का नगर निगम में सिविल इंजीनियर है, देख भी आएंगे.’’

‘‘रंजना से पूछ तो लिया है न?’’ धनंजय ने पूछा.

‘‘उस से क्या पूछना, हमारी जिम्मेदारी है, बेटी हमारी है. हम जानबूझ कर उसे गड्ढे में नहीं धकेल सकते.’’

‘‘इस में बेटी को गड्ढे में धकेलने की बात कहां से आ गई,’’ धनंजयजी बोले.

‘‘तुम बात को भूल जाते हो…याद है, हम विमल के घर गए थे तो क्या हुआ था. सब के लिए चाय आई. विमल के चाय के प्याले में चम्मच रखी हुई थी. मैं चौंक गई और पूछा, ‘चम्मच क्यों?’ तो विमल बोला, ‘आंटी, मैं शुगर फ्री की चाय लेता हूं…मुझे शुगर तो नहीं है, पर पापा को और बाबा को यह बीमारी थी इसलिए एहतियात के तौर पर…शुगर फ्री लेता हूं, व्यायाम भी करता हूं, आप को रंजना ने नहीं बताया,’ ऐसा उस ने कहा था.’’

‘‘लड़की को बीमार लड़के को दे दो. अरे, अभी तो जवानी है, बाद में क्या होगा? यह बीमारी तो मौत के साथ ही जाती है. मैं ने रंजना को कह दिया था…भले ही विमल बहुत अच्छा है,    तेरे साथ पढ़ालिखा है पर मैं जानबूझ कर यह जिंदा मक्खी नहीं निगल सकती.’’

पत्नी की बात को ‘हूं’ के साथ खत्म कर के धनंजयजी सोचने लगे, तभी यह भोपाल जाने को उत्सुक है, ताकि वहां से इंदौर जा कर रिश्ता पक्का कर सके. अचानक उन्हें अपनी बेटी रंजना के कहे शब्द याद आए, ‘पापा, चलो यह तो विमल ने पहले ही बता दिया…वह ईमानदार है, और वास्तव में उसे कोई बीमारी भी नहीं है, पर मान लें, आप ने कहीं और मेरी शादी कर दी और उस का एक्सीडेंट हो गया, उस का हाथ कट गया…तो आप मुझे तलाक दिलवाएंगे?’

तब वह बेटी का चेहरा देखते ही रह गए थे. उन्हें लगा सवाल वही है, जिस से सब बचना चाहते हैं. हम आने वाले समय को सदा ही रमणीय व अच्छाअच्छा ही देखना चाहते हैं, पर क्या सदा समय ऐसा ही होता है.

‘पापा…फिर तो जो मोर्चे पर जाते हैं, उन का तो विवाह ही नहीं होना चाहिए…उन के जीवन में तो सुरक्षा है ही नहीं,’ उस ने पूछा था.

‘पापा, मान लें, अभी तो कोई बीमारी नहीं है, लेकिन शादी के बाद पता लगता है कि कोई गंभीर बीमारी हो गई है, तो फिर आप क्या करेंगे?’

धनंजयजी ने तब बेटी के सवालों को बड़ी मुश्किल से रोका था. अंतिम सवाल बंदूक की गोली की तरह छूता उन के मन और मस्तिष्क को झकझोर गया था.

पर, सुप्रिया के पास तो एक ही उत्तर था. उसे नहीं करनी, नहीं करनी…वह अपनी जिद पर अडिग थी.

रंजना ने भोपाल जाने में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई. वह जानती थी, मां वहां से इंदौर जाएंगी…वहां शारदा की मां का कोई दूर का भतीजा है, उस से बात चल रही है.

स्टेशन पर ही सुधांशु उन्हें लेने आ गया था.

‘‘अरे, बेटा तुम, हम तो टैक्सी में ही आ जाते,’’ धनंजयजी ने कहा.

‘‘नहीं, मौसाजी, मेरे होते आप टैक्सी से क्यों आएंगे और यह सबकुछ आप का ही है…आप नहीं आते तो कार्यक्रम का सारा मजा किरकिरा हो जाता,’’ सुधांशु बोला.

‘‘और मेहमान सब आ गए?’’ सुप्रिया ने पूछा.

‘‘हां, मौसी, मामा भी कल रात को आ गए. उदयपुर से ताऊजी, ताईजी भी आ गए हैं. घर में बहुत रौनक है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं, तुम सभी के लाड़ले हो और इतना बड़ा काम तुम ने शुरू किया है, सभी को तुम्हारी कामयाबी पर खुशी है, इसीलिए सभी आए हैं,’’ सुप्रिया ने चहकते हुए कहा.

‘‘हां, मौसी, बस आप का ही इंतजार था, आप भी आ गईं.’’

सुधांशु का मकान बहुत बड़ा था. उस ने 4 बेडरूम का बड़ा मकान बनवाया था. उस की पत्नी माधवी सजीधजी सब की खातिर कर रही थी. चारों ओर नौकर लगे हुए थे. बाहर जाने के लिए गाडि़यां थीं. शाम को उस की फैक्टरी पर जाने का कार्यक्रम था.

गृहप्रवेश का कार्यक्रम पूरा हुआ, मकान के लौन में तरहतरह की मिठाइयां, नमकीन, शीतल पेय सामने मेज पर रखे हुए थे पर सुधांशु के हाथ में बस, पानी का गिलास था.

‘‘अरे, सुधांशु, मुंह तो मीठा करो,’’ सुप्रिया बर्फी का एक टुकड़ा लेते हुए उस की तरफ बढ़ी.

‘‘नहीं, मौसी नहीं,’’ उस की पत्नी माधवी पीछे से बोली, ‘‘इन की शुगर फ्री की मिठाई मैं ला रही हूं.’’

‘‘क्या इसे भी…’’

‘‘हां,’’ सुधांशु बोला, ‘‘मौसी रातदिन की भागदौड़ में पता ही नहीं लगा कब बीमारी आ गई. एक दिन कुछ थकान सी लगी. तब जांच करवाई तो पता लगा शुगर की शुरुआत है, तभी से परहेज कर लिया है…दवा भी चलती है, पर मौसी, काम नहीं रुकता, जैसे मशीन चलती है, उस में टूटफूट होती रहती है, तेल, पानी देना पड़ता है, कभी पार्ट्स भी बदलते हैं, वही शरीर का हाल है, पर काम करते रहो तो बीमारी की याद भी नहीं आती है.’’

इतना कह कर सुधांशु खिलखिला कर हंस रहा था और तो और माधवी भी उस के साथ हंस रही थी. उस ने खाना खातेखाते पल्लवी से पूछा, ‘‘जीजी, सुधांशु को डायबिटीज हो गई, आप ने बताया ही नहीं.’’

‘‘सुप्रिया, इस को क्या बताना, क्या छिपाना…बच्चे दिनरात काम करते हैं. शरीर का ध्यान नहीं रखते…बीमारी हो जाती है. हां, दवा लो, परहेज करो. सब यथावत चलता रहता है. तुम तो मिठाई खाओ…खाना तो अच्छा बना है?’’

‘‘हां, जीजी.’’

‘‘हलवाई सुधांशु ने ही बुलवाया है. रतलाम से आया है. बहुत काम करता है. सुप्रिया, हम धनंजयजी के आभारी हैं. सुना है कि उन्होंने ही सुधांशु की सहायता की थी. आज इस ने पूरे घर को इज्जत दिलाई है. पचासों आदमी इस के यहां काम करते हैं…सरकारी नौकरी में तो यह एक साधारण इंस्पेक्टर रह जाता.’’

‘‘नहीं जीजी,…हमारा सुधांशु तो बहुत मेहनती है,’’ सुप्रिया ने टोका.

‘‘हां, पर…हिम्मत बढ़ाने वाला भी साथ होना चाहिए. तुम्हारे जीजा तो इस के नौकरी छोड़ने के पूरे विरोध में थे,’’ पल्लवी बोली.

‘‘अब…’’ सुप्रिया ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘वह सामने देखो, कैसे सेठ की तरह सजेधजे बैठे हैं. सुबह होते ही तैयार हो कर सब से पहले फैक्टरी चले जाते हैं. सुधांशु तो यही कहता है कि अब काम करने से पापा की उम्र भी 10 साल कम हो गई है. दिन में 3 चक्कर लगाते हैं, वरना पहले कमरे से भी बाहर नहीं जाते थे.’’

रात का भोजन भी फैक्टरी के मैदान में बहुत जोरशोर से हुआ था. पूरी फैक्टरी को सजाया गया था. बहुत तेज रोशनी थी. शहर से म्यूजिक पार्टी भी आई थी.

धनंजयजी को बारबार अपनी बेटी रंजना की याद आ जाती कि वह भी साथ आ जाती तो कितना अच्छा रहता, पर सुप्रिया की जिद ने उसे भीतर से तोड़ दिया था.

सुबह इंदौर जाने का कार्यक्रम पूर्व में ही निर्धारित हुआ था. पर सुबह होते ही, धनंजयजी ने देखा कि सुप्रिया में इंदौर जाने की कोई उत्सुकता ही नहीं है, वह तो बस, अधिक से अधिक सुधांशु और माधवी के साथ रहना चाह रही थी.

आखिर जब उन से रहा नहीं गया तो शाम को पूछ ही लिया, ‘‘क्यों, इंदौर नहीं चलना क्या? वहां से फोन आया था और कार्यक्रम पूछ रहे थे.’’

सुप्रिया ने उन की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, वह यथावत अपने रिश्तेदारों से बातचीत में लगी रही.

सुबह ही सुप्रिया ने कहा था, ‘‘इंदौर फोन कर के उन्हें बता दो कि हम अभी नहीं आ पाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ धनंजयजी ने पूछा.

सुप्रिया ने सवाल को टालते हुए कहा, ‘‘शाम को सुधांशु की कार जबलपुर जा रही है. वहां से उस की फैक्टरी में जो नई मशीनें आई हैं, उस के इंजीनियर आएंगे. वह कह रहा था, आप उस से निकल जाएं, मौसाजी को आराम मिल जाएगा. पर कार में ए.सी. है.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो तुम्हारी कमर में दर्द हो जाएगा,’’ उस ने हंसते हुए कहा.

धनंजयजी, पत्नी के इस बदले हुए मिजाज को समझ नहीं पा रहे थे.

रास्ते में उन्होंने पूछा, ‘‘इंदौर वालों को क्या कहना है, फिर फोन आया था.’’

‘‘सुनो, सुधांशु को पहले तो डायबिटीज नहीं थी.’’

‘‘हां.’’

‘‘अब देखो, शादी के बाद हो गई है, पर माधवी बिलकुल निश्चिंत है. उसे तो इस की तनिक भी चिंता नहीं है. बस, सुधांशु के खाने और दवा का ध्यान दिन भर रखती है और रहती भी कितनी खुश है…उस ने सभी का इतना ध्यान रखा कि हम सोच भी नहीं सकते थे.’’

धनंजयजी मूकदर्शक की तरह पत्नी का चेहरा देखते रहे, तो वह फिर बोली, ‘‘सुनो, अपना विमल कौन सा बुरा है?’’

‘‘अपना विमल?’’ धनंजयजी ने टोका.

‘‘हां, रंजना ने जिस को शादी के लिए देखा है, गलती हमारी है जो हमारे सामने ईमानदारी से अपने परिवार का परिचय दे रहा है, बीमारी के खतरे से सचेत है, पूरा ध्यान रख रहा है. अरे, बीमारी बाद में हो जाती तो हम क्या कर पाते, वह तो…’’

‘‘यह तुम कह रही हो,’’ धनंजयजी ने बात काटते हुए कहा.

‘‘हां, गलती सब से होती है, मुझ से भी हुई है. यहां आ कर मुझे लगा, बच्चे हम से अधिक सही सोचते हैं,’’…पत्नी की इस सही सोच पर खुशी से उन्होंने पत्नी का हाथ अपने हाथ में ले कर धीरे से दबा दिया.

प्यार का विसर्जन : क्यों दीपक से रिश्ता तोड़ना चाहती थी स्वाति

अलसाई आंखों से मोबाइल चैक किया तो देखा 17 मिस्ड कौल्स हैं. सुबह की लाली आंगन में छाई हुई थी. सूरज नारंगी बला पहने खिड़की के अधखुले परदे के बीच से झंक रहा था. मैं ने जल्दी से खिड़कियों के परदे हटा दिए. मेरे पूरे कमरे में नारंगी छटा बिखर गई थी. सामने शीशे पर सूरज की किरण पड़ने से मेरी आंखें चौंधिया सी गई थीं. मिचमिचाई आंखों से मोबाइल दोबारा चैक किया. फिर व्हाट्सऐप मैसेज देखे पर अनरीड ही छोड़ कर बाथरूम में चली गई. फिर फै्रश हो कर किचन में जा कर गरमागरम अदरक वाली चाय बनाई और मोबाइल ले कर चाय पीने बैठ गई.

ओह, ये 17 मिस्ड कौल्स. किस की हैं? कौंटैक्ट लिस्ट में मेरे पास इस का नाम भी नहीं. सोचा कि कोई जानने वाला होगा वरना थोड़े ही इतनी बार फोन करता. मैं ने उस नंबर पर कौलबैक किया और उत्सुकतावश सोचने लगी कि शायद मेरी किसी फ्रैंड का होगा.

तभी वहां से बड़ी तेज डांटने की आवाज आई, ‘‘क्या लगा रखा है साक्षी, सारी रात मैं ने तुम को कितना फोन किया, तुम ने फोन क्यों नहीं उठाया? हम सब कितना परेशान थे. मम्मीपापा तुम्हारी चिंता में रातभर सोए भी नहीं. तुम इतनी बेपरवाह कैसे हो सकती हो?’’

‘‘हैलो, हैलो, आप कौन, मैं साक्षी नहीं, स्वाति हूं. शायद रौंग नंबर है,’’ कह कर मैं ने फोन काट दिया और कालेज जाने के लिए तैयार होने चली गई.

आज कालेज जल्दी जाना था. कुछ प्रोजैक्ट भी सब्मिट करने थे, सो, मैं ने फोन का ज्यादा सिरदर्द लेना ठीक नहीं समझ. बहरहाल, उस दिन से अजीब सी बातें होने लगीं. उस नंबर की मिस्ड कौल अकसर मेरे मोबाइल पर आ जाती. शायद लास्ट डिजिट में एकदो नंबर चेंज होने से यह फोन मुझे लग जाता था. कभीकभी गुस्सा भी आता, मगर दूसरी तरफ जो भी था, बड़ी शिष्टता से बात करता, तो मैं नौर्मल हो जाती. अब हम लोगों के बीच हाय और हैलो भी शुरू हो गई. कभीकभी हम लोग उत्सुकतावश एकदूसरे के बारे में जानकारी भी बटोरने लगते.

एक दिन मैं क्लास से बाहर आ रही थी. तभी वही मिस्ड कौल वाले का फोन आया. साथ में मेरी फ्रैंड थी, तो मैं ने फोन उठाना उचित न समझ. जल्दी से गार्डन में जा कर बैठ कर फोन देखने लगी कि कहीं फिर दोबारा कौल न आ जाए. मगर अनायास उंगलियां कीबोर्ड पर नंबर डायल करने लगीं. जैसे ही रिंग गई, दिल को अजीब सा सुकून मिला. पता नहीं क्यों हम दोनों के बीच एक रिश्ता सा कायम होता जा रहा था. शायद वह भी इसलिए बारबार यह गलती दोहरा रहा था. तभी गार्डन में सामने बैठे एक लड़के का भी मोबाइल बजने लगा.

जैसे मैं ने हैलो कहा तो उस ने भी हैलो कहा. मैं ने उस से कहा, ‘‘क्या कर रहे हो?’’ तो उस ने जवाब दिया, ‘‘गार्डन में खड़ा हूं और तुम से बात कर रहा हूं और मेरे सामने एक लड़की भी किसी से बात कर रही है.’’ दोनों एकसाथ खुशी से चीख पड़े, ‘‘स्वाति, तुम?’’ ‘‘दीपक, तुम?’’

‘‘अरे, हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ते हैं. क्या बात है, हमारा मिलना एकदम फिल्मी स्टाइल में हुआ. मैं ने तुम को बहुत बार देखा है.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम्हें फर्स्ट टाइम देखा है. क्या रोज कालेज नहीं आती हो?’’

‘‘अरे, ऐसा नहीं. मैं तो रोज कालेज आती हूं. मैं बीए फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट हूं.’’

‘‘और मैं यहां फाइन आर्ट्स में एमए फाइनल ईयर का स्टूडैंट हूं.’’

‘‘ओह, तब तो मुझे आप को सर कहना होगा,’’ और दोनों हंसने लगे.

‘‘अरे यार, सर नहीं, दीपक ही बोलो.’’

‘‘तो आप को पेंटिंग का शौक है.’’

‘‘हां, एक दिन तुम मेरे घर आना, मैं तुम्हें अपनी सारी पेंटिंग्स दिखाऊंगा. कई बार मेरी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी लग चुकी है.’’

‘‘कोई पेंटिंग बिकी या लोग देख कर ही भाग गए.’’

‘‘अभी बताता हूं.’’ और दीपक मेरी तरफ बढ़ा तो मैं उधर से भाग गई.

कुछ ही दिनों में हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए. कभीकभी दीपक मुझे पेंटिंग दिखाने घर भी ले जाया करता. मेरे मांबाप तो गांव में थे और मेरा दीपक से यों दोस्ती करना अच्छा भी न लगता. कभी हम दोनों साथ फिल्म देखने जाते तो कभी गार्डन में पेड़ों के झरमुट के बीच बैठ कर घंटों बतियाते रहते और जब अंधेरा घिरने लगता तो अपनेअपने घोंसलों में लौट जाते.

एक जमाना था कि प्रेम की अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल हुआ करती थी. ज्यादातर बातें इशारों या मौन संवादों से ही समझ जाती थीं. तब प्रेम में लज्जा और शालीनता एक मूल्य माना जाता था. बदलते वक्त के साथ प्रेम की परिभाषा मुखर हुई. और अब तो रिश्तों में भी कई रंग निखरने लगे हैं. अब तो प्रेम व्यक्त करना सरल, सहज और सुगम भी हो गया है. यहां तक कि फरवरी का महीना प्रेम के नाम हो गया है.

इस मौसम में प्रकृति भी सौंदर्य बिखेरने लगती है. आम की मजरिया, अशोक के फल, लाल कमल, नव मल्लिका और नीलकमल खिल उठते हैं. प्रेम का उत्सव चरम पर होता है. कुछ ही दिनों में वैलेंटाइन डे आने वाला था और मैं ने सोच लिया था कि दीपक को इस दिन सब से अच्छा तोहफा दूंगी. इस दोस्ती को प्यार में बदलने के लिए इस से अच्छा कोई और दिन नहीं हो सकता.

आखिर वह दिन भी आ गया जब प्रकृति की फिजाओं के रोमरोम से प्यार बरस रहा था और हम दोनों ने भी प्यार का इजहार कर दिया. उस दिन दीपक ने मुझसे कहा कि आज ही के दिन मैं तुम से सगाई भी करना चाहता था. मेरे प्यार को इतनी जल्दी यह मुकाम भी मिल जाएगा, सोचा न था.

दीपक ने मेरे मांबाप को भी राजी कर लिया. न जैसा कहने को कुछ भी न था. दीपक एक अमीर, सुंदर और नौजवान था जो दिनरात तरक्की कर रहा था. आखिर अगले ही महीने हम दोनों की शादी भी हो गई. अपनी शादीशुदा जिंदगी से मैं बहुत खुश थी.

तभी 4 वर्षों के लिए आर्ट में पीएचडी के लिए लंदन से दीपक को स्कौलरशिप मिल गई. परिवार में सभी इस का विरोध कर रहे थे, मगर मैं ने किसी तरह सब को राजी कर लिया. दिल में एक डर भी था कि कहीं दीपक अपनी शोहरत और पैसे में मुझे भूल न जाए. पर वहां जाने में दीपक का भला था.

पूरे इंडिया में केवल 4 लड़के ही सलैक्ट हुए थे. सो, अपने दिल पर पत्थर रख कर दीपक  को भी राजी कर लिया. बेचारा बहुत दुखी था. मुझे छोड़ कर जाने का उस का बिलकुल ही मन नहीं था. पर ऐसा मौका भी तो बहुत कम लोगों को मिलता है. भीगी आंखों से उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने गई. दीपक की आंखों में भी आंसू दिख रहे थे, वह बारबार कहता, ‘स्वाति, प्लीज एक बार मना कर दो, मैं खुशीखुशी मान जाऊंगा. पता नहीं तुम्हारे बिना कैसे कटेंगे ये 4 साल. मैं ने अगले वैलेंटाइन डे पर कितना कुछ सोच रखा था. अब तो फरवरी में आ भी नहीं सकूंगा.’मैं उसे बारबार समझती कि पता नहीं हम लोग कितने वैलेंटाइन डे साथसाथ मनाएंगे. अगर एक बार नहीं मिल सके तो क्या हुआ. खैर, जब तक दीपक आंखों से ओझल नहीं हो गया, मैं वहीं खड़ी रही.

अब असली परीक्षा की घड़ी थी. दीपक के बिना न रात कटती न दिन. दिन में उस से 4-5 बार फोन पर बात हो जाती. पर जैसे महीने बीतते गए, फोन में कमी आने लगी. जब भी फोन करो, हमेशा बिजी ही मिलता. अब तो बात करने तक की फुरसत नहीं थी उस के पास.

कभी भूलेभटके फोन आ भी जाता तो कहता कि तुम लोग क्यों परेशान करते हो. यहां बहुत काम है. सिर उठाने तक की फुरसत नहीं है. घर में सभी समझते कि उस के पास काम का बोझ ज्यादा है. पर मेरा दिल कहीं न कहीं आशंकाओं से घिर जाता.

बहरहाल, महीने बीतते गए. अगले महीने वैलेंटाइन डे था. मैं ने सोचा, लंदन पहुंच कर दीपक को सरप्राइज दूं. पापा ने मेरे जाने का इंतजाम भी कर दिया. मैं ने पापा से कहा कि कोईर् भी दीपक को कुछ न बताए. जब मैं लंदन पहुंची तो दीपक को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. मैं पापा (ससुर) के दोस्त के घर पर रुकी थी. वहां मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए अंकलआंटी मेरा बहुत ही ध्यान रखते थे.

वैसे भी उन की कोई संतान नहीं थी. शायद इसलिए भी उन्हें मेरा रुकना अच्छा लगा. उन का मकान लंदन में एक सामान्य इलाके में था. ऊपर एक कमरे में बैठी मैं सोच रही थी कि अभी मैं दीपक को दूर से ही देख कर आ जाऊंगी और वैलेंटाइन डे पर सजधज कर उस के सामने अचानक खड़ी हो जाऊंगी. उस समय दीपक कैसे रिऐक्ट करेगा, यह सोच कर शर्म से गाल गुलाबी हो गए और सामने लगे शीशे में अपना चेहरा देख कर मैं मन ही मन मुसकरा दी.

किसी तरह रात काटी और सुबहसुबह तैयार हो कर दीपक को देखने पहुंची. दीपक का घर यहां से पास में ही था. सो, मुझे ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ी.

सामने से दीपक को मैं ने देखा कि वह बड़ी सी बिल्ंडिंग से बाहर निकला और अपनी छोटी सी गाड़ी में बैठ कर चला गया. उस समय मेरा मन कितना व्याकुल था, एक बार तो जी में आया कि दौड़ कर गले लग जाऊं और पूछूं कि दीपक, तुम इतना क्यों बदल गए. आते समय किए बड़ेबड़े वादे चंद महीनों में भुला दिए. पर बड़ी मुश्किल से अपने को रोका.

तब से मुझ पर मानो नशा सा छा गया. पूरा दिन बेचैनी से कटा. शाम को मैं फिर दीपक के लौटने के समय, उसी जगह पहुंच गई. मेरी आंखें हर रुकने वाली गाड़ी में दीपक को ढूं़ढ़तीं. सहसा दीपक की कार पार्किंग में आ कर रुकी तो मैं भौचक्की सी दीपक को देखने लगी. तभी दूसरी तरफ से एक लड़की उतरी. वे दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़े मंदमंद मुसकराते, एकदूसरे से बातें करते चले जा रहे थे. मैं तेजी से दीपक की तरफ भागी कि आखिर यह लड़की कौन है. देखने में तो इंडियन ही है. पांव इतनी तेजी से उठ रहे थे कि लगा मैं दौड़ रही हूं. मगर जब तक वहां पहुंची, वे दोनों आंखों से ओल हो गए थे.

मैं पागलों सी सड़क पर जा पहुंची. चारों तरफ जगमगाते ढेर सारे मौल्स और दुकानें थीं. आते समय ये सब कितने अच्छे लग रहे थे, लेकिन अब लग रहा था कि ये सब जहरीले सांपबिच्छू बन कर काटने को दौड़ रहे हों. पागलों की तरह भागती हुई घर वापस आ गई और दरवाजा बंद कर के बहुत देर तक रोती रही. तो यह था फोन न आने का कारण.

मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि दीपक ने इतना बड़ा धोखा दिया. मैं भी एक होनहार स्टूडैंट थी. मगर दीपक के लिए अपना कैरियर अधूरा ही छोड़ दिया. मैं ने अपनेआप को संभाला. दूसरे दिन दीपक के जाने के बाद मैं ने उस बिल्ंिडग और कालेज में खोजबीन शुरू की. इतना तो मैं तुरंत समझ गई कि ये दोनों साथ में रहते हैं. इन की शादी हो गई या रिलेशनशिप में हैं, यह पता लगाना था. कालेज में जा कर पता चला कि यह लड़की दीपक की पेंटिंग्स में काफी हैल्प करती है और इसी की वजह से दीपक की पेंटिंग्स इंटरनैशनल लैवल में सलैक्ट हुई हैं. दीपक की प्रदर्शनी अगले महीने फ्रांस में है. उस के पहले ये दोनों शादी कर लेंगे क्योंकि बिना शादी के यह लड़की उस के साथ फ्रांस नहीं जा सकती.

तभी एक प्यारी सी आवाज आई, लगा जैसे हजारों सितार एकसाथ बज उठे हों. मेरी तंद्रा भंग हुई तो देखा, एक लड़की सामने खड़ी थी.

‘‘आप को कई दिनों से यहां भटकते हुए देख रही हूं. क्या मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूं.’’  मैं ने सिर उठा कर देखा तो उस की मीठी आवाज के सामने मेरी सुंदरता फीकी थी. मैं ने देखा सांवली, मोटी और सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी. पता नहीं दीपक को इस में क्या अच्छा लगा. जरूर दीपक इस से अपना काम ही निकलवा रहा होगा.

‘‘नो थैंक्स,’’ मैं ने बड़ी शालीनता से कहा.

मगर वह तो पीछे ही पड़ गई, ‘‘चलो, चाय पीते हैं. सामने ही कैंटीन है.’’ उस ने प्यार से कहा तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं चुपचाप उस के पीछेपीछे चल दी. उस ने अपना नाम नीलम बताया. मु?ो बड़ी भली लगी. इस थोड़ी देर की मुलाकात में उस ने अपने बारे में सबकुछ बता दिया और अपने होने वाले पति का फोटो भी दिखाया. पर उस समय मेरे दिल का क्या हाल था, कोई नहीं समझ सकता था. मानो जिस्म में खून की एक बूंद भी न बची हो. पासपास घर होने की वजह से हम अकसर मिल जाते. वह पता नहीं क्यों मुझ से दोस्ती करने पर तुली हुई थी. शायद, यहां विदेश में मुझ जैसे इंडियंस में अपनापन पा कर वह सारी खुशियां समेटना चाहती थी.

एक दिन मैं दोपहर को अपने कमरे में आराम कर रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला. सामने वह लड़की दीपक के साथ खड़ी थी. ‘‘स्वाति, मैं अपने होने वाले पति से आप को मिलाने लाई हूं. मैं ने आप की इतनी बातें और तारीफ की तो इन्होंने कहा कि अब तो मु?ो तुम्हारी इस फ्रैंड से मिलना ही पड़ेगा. हम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन शादी करने जा रहे हैं. आप को इनवाइट करने भी आए हैं. आप को हमारी शादी में जरूर आना है.’’

दीपक ने जैसे ही मुझे देखा, छिटक कर पीछे हट गया. मानो पांव जल से गए हों. मगर मैं वैसे ही शांत और निश्च्छल खड़ी रही. फिर हाथ का इशारा कर बोली, ‘‘अच्छा, ये मिस्टर दीपक हैं.’’ जैसे वह मेरे लिए अपरिचित हो. मैं ने दीपक को इतनी इंटैलिजैंट और सुंदर बीवी पाने की बधाई दी.

दीपक के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. लज्जा और ग्लानि से उस के चेहरे पर कईर् रंग आजा रहे थे. यह बात वह जानता था कि एक दिन सारी बातें स्वाति को बतानी पड़ेंगी. मगर वह इस तरह अचानक मिल जाएगी, उस का उसे सपने में भी गुमान न था. उस ने सब सोच रखा था कि स्वाति से कैसेकैसे बात करनी है. आरोपों का उत्तर भी सोच रखा था. पर सारी तैयारी धरी की धरी रह गईर्.

नीलम ने बड़ी शालीनता से मेरा परिचय दीपक से कराया, बोली, ‘‘दीपक, ये हैं स्वाति. इन का पति इन्हें छोड़ कर कहीं चला गया है. बेचारी उसी को ढूंढ़ती हुई यहां आ पहुंची. दीपक, मैं तुम्हें इसलिए भी यहां लाई हूं ताकि तुम इन की कुछ मदद कर सको.’’ दीपक तो वहां ज्यादा देर रुक न पाया और वापस घर चला गया. मगर नींद तो उस से कोसों दूर थी. उधर, नीलम कपड़े चेंज कर के सोने चली गई. दीपक को बहुत बेचैनी हो रही थी. उसे लगा था कि स्वाति अपने प्यार की दुहाई देगी, उसे मनाएगी, अपने बिगड़ते हुए रिश्ते को बनाने की कोशिश करेगी. मगर उस ने ऐसा कुछ नहीं किया. मगर क्यों…?

स्वाति इतनी समझदार कब से हो गई. उसे बारबार उस का शांत चेहरा याद आ रहा था. जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. आज उसे स्वाति पर बहुत प्यार आ रहा था. और अपने किए पर पछता रहा था. उस ने पास सो रही नीलम को देखा, फिर सोचने लगा कि क्यों मैं बेकार प्यारमोहब्बत के जज्बातों में बह रहा हूं. जिस मुकाम पर मु?ो नीलम पहुंचा सकती है वहां स्वाति कहां. फिर तेजी से उठा और एक चादर ले कर ड्राइंगरूम में जा कर लेट गया.

दिन में 12 बजे के आसपास नीलम ने उसे जगाया. ‘‘क्या बात है दीपक, तबीयत तो ठीक है? तुम कभी इतनी देर तक सोते नहीं हो.’’ दीपक ने उठते ही घड़ी की तरफ देखा. घड़ी 12 बजा रही थी. वह तुरंत उठा और जूते पहन कर बाहर निकल पड़ा. नीलम बोली, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो?’’

‘‘प्रोफैसर साहब का रात में फोन आया था. उन्हीं से मिलने जा रहा हूं.’’

दीपक सारे दिन बेचैन रहा. स्वाति उस की आंखों के आगे घूमती रही. उस की बातें कानों में गूंजती रहीं. उसी के प्यार में वह यहां आई थी. स्वाति ने यहां पर कितनी तकलीफें ?ोली होंगी. मु?ो कोई परेशानी न हो, इसलिए उस ने अपने आने तक का मैसेज भी नहीं दिया. क्या वह मु?ो कभी माफ कर पाएगी.

मन में उठते सवालों के साथ दीपक स्वाति के घर पहुंचा. मगर दरवाजा आंटी ने खोला. दीपक ने डरते हुए पूछा, ‘‘स्वाति कहां है?’’

आंटी बोलीं, ‘‘वह तो कल रात 8 बजे की फ्लाइट से इंडिया वापस चली गई. तुम कौन हो?’’

‘‘मैं दीपक हूं, नीलम का होने वाला पति.’’

‘‘स्वाति नीलम के लिए एक पैकेट छोड़ गई है. कह रही थी कि जब भी नीलम आए, उसे दे देना.’’

दीपक ने कहा, ‘‘वह पैकेट मुझे दे दीजिए, मैं नीलम को जरूर दे दूंगा.’’

दीपक ने वह पैकेट लिया और सामने बने पार्क में बैठ कर कांपते हाथों से पैकेट खोला. उस में उस के और स्वाति के प्यार की निशानियां थीं. उन दोनों की शादी की तसवीरें. वह फोन जिस ने उन दोनों को मिलाया था. सिंदूर की डब्बी और एक पीली साड़ी थी. उस में एक छोटा सा पत्र भी था, जिस में लिखा था कि 2 दिनों बाद वैलेंटाइन डे है. ये मेरे प्यार की निशानियां हैं जिन के अब मेरे लिए कोई माने नहीं हैं. तुम दोनों वैलेंटाइन डे के दिन ही थेम्स नदी में जा कर मेरे प्यार का विसर्जन कर देना…स्वाति.

मेरा घर: बेटे आरव को लेकर रंगोली क्यों भटक रही थी

रंगोली अपने दफ़्तर से जब घर पहुंची तो आरव ने रोरो कर पूरा घर सिर पर उठा रखा था. रंगोली को देखते ही उस की मम्मी ने राहत की सांस ली और आरव को उस की गोदी में पकड़ाते हुए बोली, “नाक में दम कर रखा है इस लड़के ने, पलक एक मिनट के लिए भी चैन से पढ़ नहीं पाई है.”

रंगोली बिना कुछ बोले आरव को गोद मे लिए लिए वाशरूम चली गई. बाहर आ कर रंगोली ने चाय का पानी चढ़ाया और खड़ेखड़े सब्जी भी काट दी.

चाय की चुस्कियों के साथ रंगोली आरव को सुलाने की कोशिश करने लगी. आरव के नींद में आते ही रंगोली की भी आंखें झपकने लगी थीं कि तभी मम्मी कमरे में तूफान की तरह घुसी, बोली, “रंगोली, थोड़ीबहुत मेरी भी मदद कर दिया करो, मेरे जीवन में तो सुख है ही नहीं. पहले बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाओ, फिर उन के बच्चों की.”

रंगोली झेंपती सी बोली, “मम्मी, आरव को सुलातेसुलाते नींद लग गई थी.”

आरव को सुला कर रंगोली बाल लपेट कर रसोई में घुस गई थी. पापा व मम्मी के लिए परहेजी खाना, पलक के लिए हाई प्रोटीन डाइट और खुद के लिए, बस, जो भी दोनों में से बच जाए.

जब रंगोली रात की रसोई समेट रही थी तब तक आरव उठ गया था. रंगोली की रोज़ की यह ही दिनचर्या बन गई थी. मुश्किल से 4 घंटे की नींद पूरी हो पाती है.

रंगोली ने आरव लिए दूध तैयार किया और फिर धीरे से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था. अगर आरव की जरा भी आवाज़ बाहर आती थी तो सुबह मम्मी के सिर में दर्द आरंभ हो जाता था.

रंगोली की ज़िंदगी कुछ समय पहले तक बिलकुल अलग थी. रंगोली थी एकदम बिंदास और अलमस्त, दुनिया से एकदम बेपरवाह. लंबा कद, गेंहू जैसा रंग, आम के फांक जैसी आंख, मदमस्त मुसकान और घुंघराले बाल. हर कोई कालेज और दफ़्तर में रंगोली का दीवना था. पर रंगोली थी दीवानी अभय की. अभय उस के साथ ही इंजीनियरिंग कालेज में था. दोनों की मित्रता गहरी होतेहोते प्यार में परिवर्तित हो गई थी.

रंगोली के मम्मीपापा अभय के घर गए थे और अभय के मम्मीपापा के तेवर देख कर उन्होंने रंगोली को आगाह कर दिया था, ‘बेटा, ऐसा प्यार बहुत दिनों तक नहीं टिकता है. हमारे यहां प्यार 2 लोगो के बीच नहीं, बल्कि 2 परिवारों के बीच होता है. हमारा और उन का परिवार काफी भिन्न हैं.’

पर उस समय तो रंगोली को कुछ समझ नहीं आ रहा था. लड़झगड़ कर और मिन्नतें करकर के आखिरकार रंगोली ने अपने परिवार को मना ही लिया था.

अभय का परिवार भी बड़ी बेदिली से तैयार हो गया था.

जब रंगोली और अभय हनीमून पर गए तो रंगोली को अभय का व्यवहार अजीब सा लगा. रंगोली पुरुषस्त्री के रिश्तों से अब तक अनभिज्ञ ही थी. अभय न जाने क्यों प्रेमक्रीड़ा के दौरान हिंसक हो उठता था. रंगोली पूरी तरह संतुष्ट भी नहीं हो पाती थी पर अभय मुंह फेर कर सो जाता था.

हनीमून से वापस आ कर भी अभय के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था. रंगोली को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और किस से बात करे.

अभय का परिवार जबतब रंगोली को नीचा दिखाता रहता था और अभय चुपचाप सब सुनता रहता था.

अगर रंगोली अभय से बात करने की कोशिश करती तो अभय कहता, ‘मम्मीपापा ने हमारे फैसले का सम्मान किया है. अब एक बहू के रूप में तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि तुम उन का दिल जीत लो.’

रंगोली एक चक्रव्यूह में फंस कर रह गई थी. दफ़्तर के 8 घंटे होते थे जब वह खुल कर सांस ले पाती थी.

रात में अभय रंगोली के शरीर को रौंदता और तड़पता हुआ छोड़ देता और दिन में अभय का परिवार रंगोली के स्वमान को रौंदता था.

रंगोली को एक बात तो समझ आ गई थी कि चाहे लव मैरिज हो या अरेंज्ड, समझौता हमेशा लड़की को ही करना होता है. इस बीच, रंगोली गर्भवती हो गई थी. रंगोली को लगा, शायद अब उस के विवाह की जड़ें मजबूत हो जाएंगी.

लेकिन आरव के जन्म के बाद भी समस्या ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब रंगोली की ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ गई थी. रात में आरव और घर की ज़िम्मेदारी और दिन में दफ़्तर. देखते ही देखते रंगोली एक कंकाल जैसी हो गई थी.

विवाह के डेढ़ वर्ष में ही अभय रंगोली के लिए एक पहेली बन कर रह गया था. धीरेधीरे रंगोली को समझ आ गया था कि अपनी मर्दाना कमज़ोरी को छिपाने के लिए अभय उस पर हर समय हावी रहता है. रंगोली भरसक प्रयास करती थी कि उस की किसी बात से अभय की मर्दानगी को ठेस न पहुंचे पर जब एक दिन अति हो गई थी तो रंगोली अपना सामान और आरव को गोद में ले कर अपने घर आ गई थी.

रंगोली के मम्मीपापा हक्केबक्के रह गए थे. पापा तो गुस्से में बोले, ‘पहले अपनी मरजी से विवाह किया और अब यहां आ गई हो. तुम्हारी इन हरकतों का पलक पर क्या प्रभाव पड़ेगा?’

मम्मी नरमी से बोली, ‘थोड़े दिन रहने दो न. देखो न, कितनी कमजोर हो गई है.’

पर जब मम्मीपापा के घर में रहते हुए रंगोली को 2 माह हो गए तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के कान खड़े हो उठे थे. दिन में पासपड़ोसी मम्मीपापा को कोंचते और रात में मम्मीपापा रंगोली को, ‘कब तक इस घर में पड़ी रहोगी, अपने घर जाओ न.’

रंगोली सबकुछ सुन कर भी अनसुना कर देती थी. उस का घर कहां हैं? कई बार रंगोली को लगता, उस की स्थिति अभी भी जस की तस ही बनी हुई है. बस, मम्मीपापा के घर में कोई रंगोली के शरीर को रौंदता नहीं था. पर मानसिक शांति तो यहां भी एक पल के लिए न थी.

रंगोली अपने वेतन का 75 प्रतिशत भाग मम्मी को दे देती थी. मम्मी बड़ी बेदिली से ले कर कहती थी, ‘आजकल महंगाई इतनी है, दूध और सब्जी के भाव आसमान छू रहे हैं. पूरा एक लिटर दूध तो आरव ही पी जाता है.’ मम्मी के मुंह से यह बात सुन कर रंगोली का मन खट्टा हो जाता था.

पापा जबतब सुनाया करते, ‘यहां पर रह रही हो, इस कारण तुम्हारा निर्वाह हो भी रहा है. 50 हज़ार रुपए में तो आजकल कुछ नहीं होता.’

रंगोली यह बात सुन कर मम्मीपापा के एहसान तले दबी जाती थी.

कभी मम्मी कहती, ‘रंगोली, पलक के बारे में सोच कर मुझे रातरातभर नींद नहीं आती है. जिस की बड़ी बहन घर छोड़ कर बैठी हो, उस लड़की से कौन रिश्ता करेगा?

रंगोली को ऐसा लगने लगा था मानो उस ने मम्मीपापा के घर आ कर उन के साथ बहुत ज़्यादती कर दी है.

पलक बिना बात ही रंगोली से खिंचीखिंची रहती थी. पलक के दिमाग में यह बात बैठ गई थी कि जब तक रंगोली उन के साथ रहेगी तब तक उस का रिश्ता नहीं हो पाएगा.

आज भी पलक को लड़के वाले देखने आ रहे थे. रंगोली जब दफ़्तर जाने के लिए तैयार हो रही थी तो मम्मी बोली, ‘आज जल्दी आ जाना, घर के काम में थोड़ी मेरी मदद कर देना.’

रंगोली झिझकते हुए बोली, ‘मम्मी, आज तो दफ़्तर में औडिट है.’

मम्मी गुस्से में बोली, ‘मैं क्याक्या करूंगी अकेले? आरव को संभालू या मेहमानों को.’

रंगोली बोली, ‘मम्मी, मैं आरव को किसी सहेली के घर पर छोड़ दूंगी.’

पापा तुनकते हुए बोले, ‘आरव के लिए किसी क्रेच का इंतज़ाम कर देना, मेरी और तुम्हारी मम्मी की उम्र नहीं है छोटे बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाने की.’

पलक बोली, ‘रंगोली दीदी, आप अच्छाखासा कमाती हो, कम से कम आरव के लिए एक मेड तो रख सकती हो.’

दफ़्तर जा कर रंगोली ने जल्दीजल्दी काम निबटाया और फिर हाफडे लेने के लिए जब बौस के पास गई तो बौस बोले, ‘रंगोली, यह तुम्हारा इस माह तीसरा हाफडे है.’

घर आ कर रंगोली ने फ़टाफ़ट पकौड़े तले, हलवा भुना और फिर जल्दी से आरव को ले कर अपने कमरे में बंद हो गई थी. रंगोली मेहमानों के सामने पड़ना नहीं चाहती थी. इस बार पलक की बात बन गई थी. जैसे ही मम्मी यह बात बताने रंगोली के कमरे में गई तो आरव एकदम से कमरे से बाहर आ गया.

मजबूरी में मम्मीपापा को रंगोली का परिचय मेहमानों से करवाना पड़ गया था. मेहमानों ने जब रंगोली से उस के घर और पति के बारे में पूछताछ की तो पापा बात संभालते हुए बोले, ‘अरे, रंगोली तो अभी आ पके आने से पहले ही आई है. हमें आरव से बहुत प्यार है, इसलिए आतीजाती रहती है.’

लड़के वालों की तरफ से लगभग बात फाइनल थी. पूरा परिवार बेहद खुश नजर आ रहा था. मम्मी रंगोली से बोली, ‘अब तुम अपने घर जाने के बारे में सोचो, रंगोली तुम्हारी गलतियों की सजा पलक को नहीं मिलनी चाहिए.’

रंगोली सोच रही थी कि उस के मम्मीपापा इतने पत्थरदिल कैसे हो सकते हैं? सबकुछ तो बता चुकी है वह उन्हें.

रंगोली रोज़ सोचती कि वह कहां जाए. उसे अपने ऊपर विश्वास नहीं था कि वह अकेली रह पाएगी.

रंगोली ने यह तय कर लिया था कि वह वापस अभय के घर चली जाएगी.

वह सुखी नहीं तो न सही, कम से कम उस के कारण पलक की जिंदगी में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.

ऐसे ही एक दिन जब रंगोली दफ़्तर में मायूस सी बैठी हुई थी तो उस की सहकर्मी अतिका उस के पास आ कर बैठ गई और बोली, ‘रंगोली, आज पार्टी करने चलोगी क्या?’

रंगोली की अतिका से कोई दोस्ती न थी, पर न जाने क्यों रंगोली फफकफफक कर रो उठी और अपनी पूरी कहानी सुना दी.

अतिका बोली, ‘अरे, तो तुम क्यों एक बैल की तरह इधरउधर सहारे की तलाश में घूम रही हो?

तुम एक स्वतंत्र महिला हो, अपना और अपने बेटे का ख़याल खुद से रख सकती हो.’

रंगोली बोली, ‘अतिका, मेरे पास अपना घर कहां है? वह घर मेरे पति का था और यह मेरे मम्मीपापा का. मैं कैसे आरव को ले कर अकेली रह सकती हूं? गलती मेरी है, तो फिर सज़ा भी तो मुझे ही भुगतनी होगी.’

अतिका हंसते हुए बोली, ‘बेवकूफ लड़की, अपनी मरजी से विवाह करना एक गलत फ़ैसला हो सकता है पर यह कोई ऐसी गलती नहीं कि तुम्हें इस की सजा मिले. इन सामाजिक बेड़ियों से बाहर निकालो अपनेआप को और अपना घर खुद बनाओ.’

अतिका दफ़्तर में एक चालू महिला के रूप में जानी जाती थी क्योंकि वह अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जीती थी. लेकिन जिंदगी के इस मुश्किल दौर में अतिका ही थी जो रंगोली को समझती थी और उस की ढाल बन कर खड़ी रही थी. रंगोली को अतिका से दोस्ती करने के बाद यह बात समझ आ गई थी कि हर स्वतंत्र महिला को समाज में चालू की संज्ञा दी जाती है.

अतिका की हिम्मत देने पर ही रंगोली अपने बेटे को ले कर मम्मीपापा का घर छोड़ने का फैसला कर लिया था.

अतिका ने ही आगे बढ़ कर रंगोली को एक वक़ील से मिलवाया और रंगोली ने अभय से लीगली अलग होने का भी फ़ैसला कर लिया था. आतिका ने जब रंगोली को उस के किराए के फ्लैट की चाबी पकड़ाई, तो रंगोली की आंखों में आंसू आ गए थे.

अतिका मुसकराते हुए बोली, ‘रंगोली, फ़्लैट भले ही किराए का है पर इसे अपना घर बनाना अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी है. अपने नाम के अनुकूल ही अपनी ज़िंदगी में रंग भर लो.’

जब रंगोली ने अपना और आरव का सामान बांध लिया तो मम्मी खुशी से बोली, ‘शुक्र है तुम ने अपने घर जाने का फ़ैसला कर लिया है.’

रंगोली मम्मी की बात सुन कर मुसकराते हुए बोली, ‘मम्मी, आप सच कह रही हैं, मैं ने अपने घर जाने का फ़ैसला ले लिया है. कब तक मैं आप के या किसी और के सहारे अपनी ज़िंदगी गुज़ारूंगी. अब आप लोगों को मेरे कारण कोई मुश्किल नहीं होगी. आरव मेरी ज़िम्मेदारी है, इस ज़िम्मेदारी को खुद पूरा करूंगी.’

पापा गुस्से में बोले, ‘क्या मतलब?’

रंगोली बोली, ‘मतलब यह है कि पापा, आज से मैं अपनी ज़िंदगी की बागड़ोर खुद अपने हाथों में लेती हूं. जो भी अच्छाबुरा होगा, सब मेरी ज़िम्मेदारी होगी. आप को मैं आरव और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त कर रही हूं.’

मम्मी बोली, ‘पलक की ससुराल वालों से क्या कहेंगे तुम्हारे बारे में?’

रंगोली बोली, ‘बोल देना कि वह खुद की जिंदगी जी रही है.’

उस के बाद रंगोली अपने नए घर का पता लिख कर पापा के हाथ में थमा गई.

रंगोली का घर छोटा ही सही, पर अपना था जहां उस के वजूद की जड़ें मजबूती से जमी हुई थीं.

स्वयंसिद्धा : घर की लड़ाईझगड़े को खत्म करने के लिए प्रेरणा ने क्या किया

‘‘मैम,मुझे बहुत अच्छी इंग्लिश बोलनी है, बिलकुल आप की तरह,’’ उस पतलीदुबली प्यारी सी लड़की ने जब यह बात मुझ से कही तो मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘क्यों नहीं तुम मुझ से भी अच्छा बोलोगी, बस थोड़ा प्रैक्टिस की जरूरत है.’’

मैं एक शिक्षिका हूं और मेरी छोटी सी क्लास है जिस में मैं इंग्लिस सिखाती हूं. 28 साल का यह सफर बहुत ही रंगबिरंगा रहा है. इस में मु?ो कितना कुछ सीखने को मिला है, खासतौर पर आजकल के युवाओं से. इन का जीवट, आगे बढ़ने के लिए लगन, हमेशा नया सीखने और

कुछ कर गुजरने की जो चाह है वह बहुत ही प्रशंसनीय है.

यह कहानी है मेरी ही कक्षा की एक लड़की की. एक ऐसी लड़की जो विपरीत परिस्थितियों में भी कीचड़ में कमल की तरह खिली और जिस ने विषम परिस्थितियों पर जीत हासिल करी. लड़की का असली नाम तो कुछ और है पर पाठकों के लिए हम उस का नाम प्रेरणा रखते हैं. आखिर उस का जीवन भी इतना प्रेरणादायी जो है.

प्रेरणा का बचपन बहुत ही कठिनाइयों से भरा था. वे 6 भाईबहन थे. मां दूसरों के घर में काम करती थीं तथा उस के पिता फलों व सब्जियों की दुकान लगाते थे. घर में दादादादी भी थे. प्रेरणा की 2 बहनें थीं और 3 भाई. उस के पिता और मां में बहुत ?ागड़ा होता था क्योंकि पिता किसी भी लड़की को पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे और मां अपने सभी बच्चों को पढ़ाना चाहती थीं. पिता के अनुसार उन की मेहनत की कमाई लड़कियों की पढ़ाई पर जाया हो रही है. लड़के पढ़ना नहीं चाहते थे तो भी उन्हें मजबूरन पढ़ाई करनी पड़ रही थी. तीनों बहनें पढ़ाई में बहुत होशियार थीं. जो एक बात उन के पक्ष में थी, वह थी उन के दादाजी का समर्थन. दादाजी को बहुत चाव था कि उन के सभी पोतेपोतियां खूब पढ़ेंलिखें. लड़कों से तो उन्हें कुछ खास उम्मीद नहीं थी पर लड़कियों की शिक्षा बंद करने के पक्ष में वे बिलकुल नहीं थे. इसी वजह से प्रेरणा के पिता ज्यादा कुछ नहीं कर पाते थे. सिर्फ लड़ाई?ागड़ा कर के ही अपना असंतोष जाहिर करते थे. दादाजी का बनवाया हुआ छोटा सा घर था जिस में ये सब रहते थे इसलिए उन का कहना प्रेरणा के पिता मजबूरी में मान लेते थे.

जब प्रेरणा का 10वीं का परिणाम आया तो वह भागती हुई रिजल्ट दिखाने को पिता के पास गई, ‘‘पापा, देखिए मैं फर्स्ट क्लास पास हो गई हूं, मेरे 70त्न नंबर आए हैं.’’

बेटी को शाबाशी देना तो दूर, पिता ने रिजल्ट को आंख उठा कर भी नहीं देखा और वहां से उठ गए. पर प्रेरणा के दादाजी और मां बहुत खुश हुए. दादाजी ने उसी समय सौ रुपए का एक नोट उस के हाथ में रखा.

‘‘प्रेरणा की पढ़ाई हो गई, वह अब आगे नहीं पढ़ेगी. मैं लड़के देख रहा हूं, यह अब शादी कर के जाए तो एक बला टले,’’ इतने अच्छे रिजल्ट के बाद पिता की यह प्रतिक्रिया सुन कर प्रेरणा तो हक्कीबक्की रह गई.

उस की दादी ने भी उस की मां से कहा, ‘‘इसे घर के कामकाज सिखाओ. हम लोग इतने अमीर नहीं हैं कि लड़की को आगे पढ़ा सकें. बहनों की भी पढ़ाई छुड़वाओ और घर के कामों में लगाओ.’’

मगर प्रेरणा के दादाजी अड़ गए कि सभी बच्चे पढ़ेंगे. दादी और पिता उस दिन दादाजी से खूब ?ागड़े. बाकी भाई तो मौका मिलते ही घर से निकल कर यह जा और वह जा हो गए. लड़कियां बेचारी सुबकती, सहमती मां के साथ दूसरे कमरे और रसोईघर में खड़ी रहीं.

प्रेरणा अब तक मु?ा से काफी खुल चुकी थी. पता नहीं उसे मु?ा में क्या दिखता था पर यह सब उस ने ही एक दिन बताया. शायद उसे मु?ा में एक हमदर्द दिखाई देने लगा था.

मैं ने एक दिन कहा, ‘‘मेरी तुम्हारी मां से मिलने की बड़ी इच्छा है. बहुत ही जीवट वाली होंगी जो सबकुछ सह कर भी तुम्हारे साथ खड़ी हैं.’’

अगले ही दिन वह अपनी मां को ले कर क्लास आ गई. एकदम सीधीसरल घरेलू महिला थीं वे. मु?ो हाथ जोड़ कर बस इतना ही बोलीं, ‘‘मैडम, इसे आप का बहुत सहारा है. आप बस इस की इंग्लिश इतनी अच्छी कर दो कि यह बैंक की परीक्षा दे सके.’’

मैं ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, यह तो खुद ही

बहुत होशियार बच्ची है. बैंक परीक्षा जरूर क्लीयर करेगी.’’

इस पर मांबेटी दोनों मुसकराने लगे. इस के बाद तो प्रेरणा मुझ से पूरी तरह खुल गई. अब हर छोटी बात पर वह मुझ से सलाह अवश्य लेती.

उन दोनों के कहने पर मैं 2-3 बार प्रेरणा के घर भी हो आई थी. हां, पर मैं शाम को ही उस के घर गई थी क्योंकि प्रेरणा ने कहा था उस टाइम पर उस के पापा घर पर नहीं होते. उन्हें नहीं पता था कि उस ने इंग्लिश की क्लास जौइन की हुई है. कुछ दिन बाद उस ने 10वीं के बाद के संघर्ष और अपने वर्तमान की जो कहानी सुनाई, वह कुछ इस तरह थी…

2 कमरों के छोटे से घर में सभी लड़ते?ागड़ते अपने को कोसते, तो कुछ ऊपर उठने का प्रयास करते, एकसाथ रह रहे थे. पर चूंकि यह किसी फिल्म की कहानी नहीं थी तो प्रेरणा के घर या घर वालों के स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया. पिता गरजतेबरसते रहते, दादी लड़कियों व उन की मां को कोसती रहतीं. भाई सब आवारा हो गए थे और कोई टोकने वाला नहीं था. दादाजी का कहा वे एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देते थे पर प्रेरणा के पिता उन्हें ले कर निश्चिंत थे. पिता के अनुसार वे मर्द बनना सीख रहे थे. सिगरेट फूंकना, घर के बाहर घूमना, दोस्तों की टोली के साथ जुआ खेलना और पिता व दादाजी से छिपा कर स्कूल न जाना उन के काम थे. बहनों और मां को सब पता होते हुए भी कोई कुछ नहीं कर पा रहा था. तीनों भाई घर में शेर थे और पिता के साथ उन के सुर में बोलने लगे थे, हालांकि तीनों बहनों से छोटे थे.

बस, यही प्रेरणा का जीवन था. उस के पास न टेलीविजन था और न कोई और मनोरंजन का साधन. दुकान से बस किसी तरह घर का खर्च चल रहा था. प्रेरणा दादाजी की पैंशन की मदद के सहारे ग्रैजुएशन कर चुकी थी. उस की व अन्य बहनों की शादी भी वे अब तक टलवाने में सक्षम रहे थे. फिर एक दिन वे चल बसे. अब तो पिता और दादी को खुली छूट मिल गई, लड़कियों को बेमतलब तंग करने व ताने मारने की. पत्नी के साथ मारपीट का सिलसिला भी दादाजी के जाने के बाद शुरू हो गया था. लड़कियां अभी तक मारपीट से बची हुई थीं.

एक दिन अचानक प्रेरणा पिता ने कहा कि उन्होंने एक बहुत अच्छा लड़का उस के लिए देखा है. इस समय तक प्रेरणा बराबर क्लास आ रही थी व काफी अच्छी इंग्लिश बोलने लगी थी. उसी ने अगले दिन मु?ो कहा कि उस के पिता ने फिर उस की शादी की बात छेड़ी है. उस के घर में जब उस की मां ने पूछा कि वह लड़का क्या करता है, तो उस के पिता ने कहा कि वह प्रेरणा के कालेज के बिलकुल सामने काम करता है. सब बड़े हैरान हुए क्योंकि लड़कियों और उन की मां को प्रेरणा के पिता पर बिलकुल भरोसा नहीं था.

जब प्रेरणा ने ही जोर दे कर पूछा कि पापा, मगर लड़का करता क्या है? तो प्रेरणा के पिता बोले, ‘‘उस का खुद का सैंडविच स्टौल है, तू चाहे तो उसे मिल सकती है.’’

जब प्रेरणा ने लड़के की शिक्षा के बारे में पूछा तो पता चला कि वह तो 10वीं फेल है. इधर प्रेरणा एमकौम में एडमिशन ले कर बैंक परीक्षा की तैयारी कर रही थी. मां उस की फीस के पैसे भर देती थीं. इंग्लिश क्लास के लिए तो उस की मां ने छिपा कर रखे हुए पैसे दे दिए थे.

मेरी क्लास के एक लड़के अनुभव ने ही उस से क्लास में बोला, ‘‘अरे, अगर पापा शादी सैंडविच वाले से करना चाहते हैं तो मिल क्यों नहीं लेती? क्या बुराई है? तेरे पिताजी भी तो अपने स्टैंडर्ड का ही लड़का ढूंढ़ेंगे न? हर बार उन को गलत ठहराना उचित है क्या?’’

इस पर प्रेरणा की बड़ीबड़ी आंखों में आंसू भर आए. बोली, ‘‘सैंडविच स्टौल में कोई बुराई नहीं है, मगर मैं एमकौम के साथसाथ बैंक परीक्षा दूंगी और लड़का 2 बार 10वीं फेल. ऐसे में मन का मेल कैसे होगा?’’

अनुभव फिर बोला, ‘‘शादी करनी है तो अभी क्यों नहीं?’’

इस पर प्रेरणा बोली, ‘‘अभी मेरे कैरियर का सवाल है. मेरे दादाजी पिछले साल गुजर गए इसलिए पिताजी अपनी मनमानी कर रहे हैं. लेकिन उन की सब्जी की दुकान भी उस स्टौल से बड़ी है. उन्हें न लड़के में कोई गुण दिखाई देता है न ही मु?ा में. बस किसी तरह से मेरी शादी कर के मु?ो घर से बाहर निकालना है.’’

हम लोग उस की बातें सुन कर चौंक गए थे. अनुभव से मैं ने चुप रहने को कहा और पूछा, ‘‘अब तुम क्या करोगी प्रेरणा?’’

‘‘कुछ नहीं मैम. जैसे अब तक लड़ती आई हूं वैसे ही आगे भी अपना रास्ता खुद ही बनाऊंगी.’’

मैं ने पूछा, ‘‘मगर कैसे? अब तो दादाजी भी नहीं हैं.’’

‘‘दादाजी नहीं हैं तो क्या हुआ? मेरी मां तो अभी भी मेरे साथ हैं. मु?ो आप की क्लास में जितने कोर्स हैं, सब करने हैं ताकि मैं अपनी मंजिल को पा सकूं.’’

मैं ने फिर भी कहा कि मैं उस के पिता को सम?ा सकती हूं, तो वह बोली, ‘‘मैम, मैं आप की बहुत इज्जत करती हूं. अगर मेरे पापा ने या भाइयों ने आप के साथ कुछ बदतमीजी की या कोई भी उलटीसीधी हरकत की तो मैं सहन नहीं कर पाऊंगी. आप बस मु?ो हमेशा इसी तरह संबल और हिम्मत देती रहें.’’

उस की बातें सुन कर मैं मुसकरा उठी. इस घटना के 2-3 दिन बाद मैं ने ध्यान दिया कि अनुभव चुपचाप प्रेरणा को देखता रहता था. जब मैं कुछ सम?ाती तो उस की नजरें सिर्फ प्रेरणा पर टिकी होती थीं. मेरे द्वारा उसे 1-2 बार ऐसा करते हुए पकड़े जाने पर वह सकपका गया. अब वह प्रेरणा की क्लास में मदद कर देता था व उस को नोट्स भी सम?ा देता था. वे लोग आपस में हंसनेबोलने भी लगे थे और उन की काफी दोस्ती भी हो गई थी क्योंकि इस तरह की बातें इस उम्र में आम होती हैं.

मैंने अनुभव को तो कुछ नहीं कहा मगर प्रेरणा से बात करने की जरूर ठान ली. हालांकि अगले दिन प्रेरणा ने खुद ही अनुभव का जिक्र कर के मु?ो हैरान कर दिया. वह बोली, ‘‘मैम, कल अनुभव ने मुझसे कहा है कि वह अपनी जिंदगी मेरे साथ बिताना चाहता है.’’

मैं यह सुन कर अचरज में पड़ गई. आजकल की जैनरेशन समय बरबाद करने में बिलकुल विश्वास नहीं करती है. इसलिए इसे फास्ट ट्रैक जैनरेशन कहते हैं. मैं ने पूछा, ‘‘और तुम ने उसे क्या कहा?’’

वह बोली, ‘‘मैम, मेरा तो एक ही लक्ष्य है कि मु?ो बैंक परीक्षा पास कर के एक अच्छी सी नौकरी करनी है बस.’’

मैं ने प्यार से उस का गाल सहला दिया. मगर दोनों की इस इस कहानी को न यहां थमना था और न ही खत्म होना. अनुभव ने प्रेरणा से कहा कि वह भी उस के साथ बैंक की परीक्षा देगा और भविष्य में कुछ बन जाने पर ही वे अपने कल के बारे में कुछ सोचेंगे. हां, उस ने प्रेरणा के साथ पढ़ाई करने की इच्छा जताई तो प्रेरणा ने सहर्ष हामी भर दी.

प्रेरणा ने 1 महीने बाद मां के दिए हुए पैसों से बैंक परीक्षा की कोचिंग शुरू की और मेरी क्लास में भी एडवांस्ड इंग्लिश कोर्स करने लगी. अनुभव ने भी एडवांस्ड कोर्स में एडमिशन ले कर उसी की कोचिंग क्लास जौइन कर ली. उन दोनों का उत्साह देखते ही बनता था पर दोनों की एक खूबी यह भी थी कि पढ़ाई के अलावा मेरी क्लास में वे लोग कोई बेसिरपैर की बात नहीं करते थे. अब तक अनुभव को पता चल चुका था कि प्रेरणा अपनी सभी बातें सिर्फ मुझ से और अपनी मां से शेयर करती है. यह सब सुन कर वह भी मुझ से खुलने लगा था. उस ने अपने बारे में बताया कि वह बहुत ही लाड़प्यार से पला हुआ, अपने मातापिता का इकलौता लड़का था, इसलिए प्रेरणा का नजरिया नहीं सम?ा पाया था. पर अब उस के संघर्ष में वह हर कदम पर उस का साथ देना चाहता है.

दोनों का क्या गजब का जज्बा था. उधर कुछ दिन बाद घर में प्रेरणा ने उस सैंडविच स्टौल वाले से शादी के लिए मना कर दिया. नौबत हाथापाई तक आ पहुंची तो प्रेरणा ने फोन कर के मु?ो भी बुला लिया. उस से पूछ कर मैं ने पुलिस को भी सूचित कर दिया. पुलिस तुरंत उस के घर पर आ पहुंची. मैं ने व उस के पड़ोसियों ने मिल कर उस के पिता को सम?ाने की कोशिश की पर उन्होंने मु?ा से कहा, ‘‘मैडम, मेरी और भी लड़कियां हैं और मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं इन सब को पढ़ा सकूं. इन की शादी हो जाए तो मेरा सिरदर्द खत्म हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘तो उस के लिए क्या आप इन सब को मारेंगे पीटेंगे?’’

डोमैस्टिक वायलैंस के केस में वहां खड़े पुलिस औफिसर ने जब प्रेरणा के पिता को जेल में डालने की बात की तो मां ने भी अपनी बेटी का ही साथ दिया. यह देख कर प्रेरणा के पिता पुलिस के आगे घिघियाने लगे. तब प्रेरणा ने अपनी शिकायत वापस ले ली और पिता को जेल जाने से बचा लिया. उस के बाद उन की मारपीट का सिलसिला थोड़े दिनों के लिए रुक गया.

फिर एक दिन वह भी आया जब प्रेरणा मुसकराती हुई मेरे सामने मिठाई का डब्बा लिए खड़ी थी, ‘‘मैं ने परीक्षा क्लीयर कर के एक बैंक में अप्लाई किया था मैम. मुझे जौब औफर मिल गया है.’’

मैं हैरान हो कर उसे देखती रह गई. एक मामूली सी दिखने वाली दुबलीपतली लड़की और इतनी मुश्किल लड़ाई. लेकिन आज वह जीत कर स्वाभिमान और गर्व से दपदपाता मुखमंडल लिए, आत्मविश्वास से परिपूर्ण मेरे सामने खड़ी थी. प्रेरणा आज सचमुच कइयों के लिए एक उदाहरण बन, अपनी पहली उड़ान भरने को तैयार थी.

‘‘और अनुभव का क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा तो वह बोली, ‘‘उस ने भी परीक्षा क्लीयर कर के एक इंटरनैशनल बैंक में अप्लाई किया था जहां उसे भी जौब मिल गई है,’’ कहतेकहते वह शरमा गई. उस की आंखों में अपने नए जीवन के सपनों ने जन्म लेना शुरू कर दिया था.

‘‘अब कोई फिक्र नहीं है. अगर पापा ने ?ागड़ा किया या कुछ भलाबुरा कहा तो मैं कुछ दिनों में अलग घर किराए पर ले कर अपनी मां व बहनों के साथ चली जाऊंगी. तब देखते हैं इन का क्या होगा,’’  प्रेरणा बोली.

मेरा उस के घर अब जाना नहीं हो पाता था क्योंकि वह अपनी जौब में बिजी हो गई थी. अनुभव भी दूसरे शहर में जौब कर रहा था पर इस दौरान पूरे समय प्रेरणा की हिम्मत बंधाने के लिए बीचबीच में छुट्टी ले कर उस से मिलने आता रहता था. मैं फोन पर ही दोनों के साथ बात कर के उन के हालचाल ले लेती थी. प्रेरणा ने ही फोन पर एक दिन मु?ो बताया कि अनुभव बाकायदा उस के लिए रिश्ता लेकर उस के घर पहुंचा था और उस के मांपापा से उस का हाथ मांगा था. हालांकि दोनों ने ही अपने घर वालों से यह बात छिपा रखी थी. अनुभव ने परिवार वालों को जौब लगने के बाद ही उस के बारे में बताया था. प्रेरणा के घर वालों को लगा कि उस का रिश्ता उस की अच्छी जौब की वजह से आया है. घर में सब की हां हो जाने पर प्रेरणा ने अपनी मां को सचाई बता दी. उस की मां ने भी प्यार से उस की पीठ थपथपा कर अपनी सहमति दे दी.

फिर एक दिन ठीक 6 महीने बाद प्रेरणा और अनुभव दोनों मेरे सामने अपनी शादी के

कार्ड ले कर खड़े थे. प्रेरणा तो एक किलोग्राम का कलाकंद का डब्बा भी लाई थी, ‘‘मैम, आप न होतीं तो इस जु?ारू लड़की से मैं कभी न मिल पाता,’’ अनुभव बोला.

फिर दोनों इकट्ठे बोले, ‘‘आप को आशीर्वाद देने के लिए हर फंक्शन में आना होगा मैम.’’

मेरी आंखें इतना प्यार देख कर डबडबा उठीं. दोनों को कलाकंद का 1-1 पीस खिलाते हुए मैं ने दोनों की खुशी की ढेरों मंगल कामनाएं कीं.

अब आप यह भी जरूर जानना चाहेंगे कि प्रेरणा के घर में आगे क्या हुआ? प्रेरणा शादी से पहले ही तीनों भाइयों को छोटीमोटी नौकरी पर लगवा चुकी थी. उन का जीवन भी एक ढर्रे पर आ गया था. आखिरकार उस के पिता ने हार स्वीकार कर उस की बहनों को आगे पढ़ाई की अनुमति दे दी. बेटी को कमाता देख शायद उन्हें भी अक्ल आ गई थी.

जो भी हो, प्रेरणा के अनुसार, अब उन के घर से लड़ाईझगड़े की आवाजें आनी बिलकुल बंद हो गई थीं. दुख भी अपने घुटने टेक कर हार मान चुका था. वह और अनुभव अपने नए जीवन में बहुत सुखी थे. यही सब बताने के लिए उस ने हनीमून से लौटते ही मुझे फोन किया था.

मैं ने यह सुन कर मुसकराते हुए एक राहत की सास ली और एक नई ऊर्जा से भर क्लास को सिखाने में लग गई.

कद्दू फूला मेरे अंगना: मीनाक्षी और गौतम का अनोखा हनीमून

कद्दूजैसी बेडौल और बेस्वाद चीज भी क्या चीज है यह तो सोचने वाला ही जाने, पर हमारी छोटी सी बालकनी की बाटिका में भी कद्दू कभी फलेगा, यह मैं ने कभी नहीं सोचा था. पर ऐसा होना था, हुआ.

बागबानी का शौक मेरे पूरे परिवार को है. मेरी 12वीं माले की बालकनी में 15-20 पौट्स हमेशा लगे रहते हैं. इस छोटी सी बगिया में फूलफल और सब्जी की खूब भीड़ है. इसी

भीड़ में एक सुबह देखा कि सेम की बेल के पास ही एक और बेल फूट आई है, गोलगोल पत्तों की. थोड़ा और बढ़ने पर हमें संदेह हुआ कि हो न हो पंपकिन यानी कद्दू महाराज तशरीफ ला रहे हैं.

अपने व्हाट्सऐप गु्रप में आप किसी से कद्दू पसंद है पूछो तो यही जवाब मिलेगा कि अजी, कद्दू भी कोई पसंद करने वाली चीज है…

एक ने हतोत्साहित किया कि उन्होंने बड़े चाव से कद्दू का बीज बोया था, बेल भी बहुत फली. सारी छत पर पैर पसारे पड़ी है, पर कद्दू का अब तक कहीं नाम नहीं है. वैसे भी सुन रखा था कि कद्दू की बेल फैल तो जाती है, पर फल बड़ी मुश्किल से आता है. सो उन की भी यही राय थी कि अपनेआप उगे बीज में फल किसी भी हालत में नहीं आएगा.

मगर मैं ने बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख कहावत की सचाई परखने का निश्चय कर ही लिया. अब मेरी हर सुबहशाम उस बेल की खातिरदारी में लग जाती. सेम की बेल के पास ही एक रस्सी के सहारे उस को दीवार पर चढ़ा दिया गया. शाम को एक फ्रैंड आई. देखा तो बोली, ‘‘कद्दू कोई सेम थोड़े ही है जो बेल में लटके रहेंगे. एक कद्दू का बो झा भी नहीं सह पाएगी तुम्हारी यह बेल.’’

मगर हमारी छोटी सी बगिया में बेल को फैलने की जगह कहां मिलती, सो हम ने उस को ऐसे ही छोड़ दिया. हमारे कौंप्लैक्स में बालकनियां एकदूसरे से सटी हैं और प्राइवेसी के लिए बीच में ऊंची दीवार है. मैं ने दीवार के ऊपर बेल को चढ़ाने का फैसला किया.

बेल अभी दीवार के ऊपर पहुंची ही थी कि एक सुबह उस में हाथ के बराबर गहरे पीले रंग का फूल खिला दिखा. सच सुंदरता में वह फूल मु झे कमल के फूल से कम नहीं लगा. वैसे तो वह नर फूल था, पर मादा फूल की कलियां भी अब उस में आ रही थीं. अब रोज 2-4 फूल बेल में खिलने लगे. कद्दू निकलें न निकलें, फूल तो खा लें यह सोच कर रैसिपी ढूंढ़ कर 2-4 पकौडि़यां भी बनाईं.

धीरेधीरे बेल में मादा फूल भी खिलने लगे. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा कि लोग यों ही निरुत्साह कर रहे थे. पर बेल में तो अब कद्दू नहीं दिख रहे थे. बेल दीवार के ऊपर चली गई थी हरीभरी थी. मैं उस में खादपानी डाल रही थी पर कद्दू का पता नहीं था. बेल न जाने वहां से कहां चली गई थी. ग्रुप में एक ने कहा, ‘‘मैं ने पहले ही कहा था कि आप की बेल में कद्दू हरगिज नहीं आएगा.’’

मैं भी हिम्मत हार चुकी थी. सोचा अब बेल की परवरिश करने से कोई फायदा नहीं. सोचा 2-4 दिन साहस बटोर कर मैं बेल उखाड़ दूंगी. उस दिन रविवार था. सिर्फ टौप और बेहद पोर्ट शौर्ट पहने बालगानी कर रही थी. इस कौप्लैक्स में कोई किसी के घर आताजाता नहीं था. लिफ्ट में सिर्फ हायहैलो होती थी. यह जरूर लगा था कि बराबर वाले फ्लैट में कोई नया शिफ्ट हुआ है.

मैं अपने दूसरे पौधों को पानी दे रही थी कि घंटी बजी. न जाने कब से यह घटी नहीं बजी थी. इसलिए लपक कर जैसी थी, वैसे ही खोल दिया. सामने एक बांका 5 फुट 8 इंच का सांवला, जिम जाने वाला 35 साल का लाल टीशर्ट और काले शौर्ट में एक बेहद आकर्षक युवक था. हाथ में बास्केट.

मैं ने आश्चर्य से देखा तो वह बोला, ‘‘जी मैं आप का नैक्स्ट डोर. परसों ही शिफ्ट हुआ हूं. आज सुबह बालकनी में बैठा तो कुछ ऐसा देखा कि आप से शेयर करने का मन हुआ. बेटे को गौतम नागदेव कहते हैं,’’ यह कहते हुए उस ने एक बास्केट आगे बढ़ाई.

अब यह तो बनता ही है. मैं ने दरवाजा पूरा खोला, उसे अंदर आने का न्योता देते हुए बोली, ‘‘मैं मीनाक्षी, वैलकम…’’ तब तक मैं ने यह सोचा नहीं था कि मैं क्या पहने हूं. पर जैसे ही उस की आंखें मेरे चेहरे से नीचे पहुंचीं, मु झे एहसास हुआ कि मैं तो स्लीवलैस टौप और शौर्ट में हूं. मैं ने कहा कि ऐक्स्यूज मी मैं अभी चेंज कर आती हूं.

वह आगे बढ़ा. फिर उस ने मेरा हाथ पकड़ा और बोला, ‘‘अजी छोडि़ए ऐसे ही अच्छी हैं. कद्दू लेना है तो काफी पिलाइए.’’ ऐसे ही मैं कौन से थ्री पीस सूट में हूं. अब दोनों के पास हंसने के अलावा कोई चारा नहीं था.

अब तो हमारे दोनों घरों का वातावरण ही कद्दूमय हो गया था. आलम यह है कि दोनों को जब मिलने की इच्छा हुई, घंटी बजाई. कभी मैं कद्दू तोड़ने के बहाने उस के फ्लैट में घुसती तो कभी वह कद्दू तोड़ कर मेरी किचन में खड़ा होता. दोनों दफ्तर से आते ही कद्दू के हालचाल फोन पर.

एक दिन वह कद्दू को ऐसे सहला रहा था जैसे मु झे सहला रहा हो… यह तो अति होने लगी थी. मेरा पूरा बदन सुन सा करने लगा था. बड़ी मुश्किल से दोनों ने अपनेआप को रोका.

हम ने इस बीच पत्रिकाओं में से कद्दू के व्यंजनों की विधि खोजनी शुरू कर दीं. कद्दू का हलवा, कद्दू के कोफ्ते, कद्दू का अचार. यहां तक कि कद्दू के परांठे तक बनाने की विधि हम ने सीख ली.

इकलौते लाड़ले बिचौलिए की तरह कद्दू की सार संभाली होने लगी और बेल दिनदूना रात चौगुना बढ़ने लगी. हमारी आंखों में कुछ और ही सपने तैरने लगे. मां का फोन आता तो कद्दू की ज्यादा बात करती, बजाय अपना हाल बताने के या उन का पूछने के. उन्हें शक होने लगा कि कद्दू के पीछे कुछ राज है. मां अकसर सुनाती थी कि बचपन में उन के घर में इतने कद्दू फले थे कि पड़ोस में बांटने के बाद भी छत की कडि़यों में कद्दू लटकते रहते थे.

दोनों हर नए कद्दू का इंतजार करने लगे. कद्दू के बहाने हमारे दिल और तन दोनों मिलने लगे थे. बराबर खड़े हो कर जब कद्दू काट कर सब्जी बनती और साथ टेबल पर खाई जाती तो पूरा मन  झन झना उठता.

मां को लगता कि जो लड़की कद्दू की सब्जी के नाम से नाक भी चढ़ाती थी, उस का ध्यान अब उस के गुणों की तरफ कैसे जाने लगा. जैसे कद्दू में विटामिन ‘ए’ और ‘डी’ होता है, यह पेट साफ करता है आदि.

इस बीच वे कद्दू बड़े खरबूजे का आकार लेने लगे और उन के बो झे से बेल गौतम की पूरी बालकनी में छा गई थी. एक रात तेज आंधी आई. आवाज सुन कर आंख खुली तो डर लगा कि कहीं कद्दू की बेल टूट न जाए. नाइटी में ही गौतम ने प्लैट की घंटी बजा दी. वह भी जागा हुआ था. दोनों ने मिल कर आंधी से कद्दुओं को बचाया पर इस चक्कर में हमारा कौमार्य फूट गया. दोनों रातभर गौतम के बिस्तर पर ही सोए.

पता नहीं क्यों उस सुबह उठ कर कुछ डर सा लगा. हमारा दिल दहल उठा. 2 दिन में हम दोनों के मातापिता हमारे फ्लैटों में थे. दोनों के मातापिताओं ने कद्दू की बेलों की जड़ें और कद्दू देख लिए. अब जब बेल इधर से उधर हो चुकी थी और कद्दुओं की सब्जियां बन चुकी हैं तो शादी के अलावा क्या बचा था.

सारे दोस्तों को कद्दू प्रकरण पता चल गया. एक बड़ी पार्टी की गई. कद्दू की शक्ल का केक बना और हमारी सगाई की रस्म पूरी हो गई. न जाति बीच में आई और न कोई रीतिरिवाज. कददुनुमा केक पर चाकू चलाते समय हमारे हाथ खुशी से भरे थे.

शादी के बाद हम ने फैसला किया कि हम हनीमून वहीं मनाएंगे जहां कद्दुओं की खेती होती है. आप भी शुभकामना करें कि हमारी बेल फूलेफले और हमारे घर का आंगन हमेशा कद्दुओं से भरा रहे. फिर हम कद्दुओं से तैयार विविध व्यंजन आप को भी खिलाना नहीं भूलेंगे. हमारे दोस्तों ने हमारा नया नामकरण कर दिया है कद्दूकद्दू.

मुखौटा: उर्मिला की बेटियों का असली चेहरा क्या था?

‘‘मम्मी, जल्दी यहां आओ,’’ अपनी बहू शिखा की ऊंची आवाज सुन कर आरती तेजी से चलती रसोई में पहुंचीं.

‘‘क्या हुआ है?’’ यह सवाल पूछते हुए उन का दिल तेजी से धड़क रहा था.

‘‘बेसन में नमकमिर्च और दूसरे मसाले कितनेकितने डालूं?’’

‘‘बस यही जानने के लिए तुम ने इतनी जोर से चिल्ला कर मुझे बुलाया है?’’

‘‘क्या मैं बहुत जोर से चिल्लाई थी?’’ शिखा शर्मिंदा सी नजर आने लगी.

‘‘मुझे तो ऐसा ही लगा था जैसे तुम किसी बड़ी मुसीबत में फंस गई होगी,’’ आरती नाराज हो उठीं.

‘‘आई एम सौरी, मम्मी,’’ शिखा फौरन उन के गले लग गई.

‘‘छोटीछोटी बातों से घबरा कर अपना आत्मविश्वास क्यों खो देती हो, बहू? अरे, अगले सप्ताह तुम्हारी शादी को पूरा 1 साल हो जाएगा. घर के बहुत से काम तुम ने सीख लिए हैं. उन्हें बिना किसी की सहायता के अपनेआप करने की आदत डालो,’’ आरती ने नाराजगी भुला कर उसे प्यार से समझाया.

‘‘आप या सौम्या दीदी साथ में खड़ी रहती हो, तो मेरा आत्मविश्वास बना रहता है. आप दोनों से तो मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है.’’

‘‘मैं साथ में खड़ी हूं, पर सारे मसाले अपने हाथ से बेसन में तुम ही डालो. आज तारीफ करवाने लायक पकौड़े सब को खिलाओ.’’

‘‘जी,’’ शिखा छोटी बच्ची जैसे अंदाज में बोली. फिर काम में जुट गई. शिखा के ससुर उमाकांत, ननद सौम्या और पति समीर को आरती ने ड्राइंगरूम में 10 मिनट बाद जब अपनी बहू के चिल्ला कर उन्हें बुलाने का कारण बताया, तो तीनों हंस पड़े.

‘‘घर के कामों में तो बहू ढीली है, पर जोश की कोई कमी नहीं है उस में. हम में से कोई अभी तक नहाया भी नहीं है और वह नहाधो कर पकौड़े बना रही है,’’ उमाकांत ने अपनी बहू की एक तरह से तारीफ ही की.

‘‘शिखा टैंशन में जल्दी आ जाती है, पापा. मैं तो कभीकभी सोचता हूं कि औफिस में उस का काम कैसे चलता होगा,’’ समीर ने हैरानी प्रकट की.

‘‘भाभी की गजब की सुंदरता उन्हें हर तरह की परेशानी में फंसने से बचा लेती होगी, भैया. उन की हैल्प करने को तो पूरा औफिस सदा तैयार रहता होगा,’’ सौम्या के इस मजाक पर उन सभी के ठहाके कमरे में गूंज उठे. ‘‘पापा, उसे टीवी का रिमोट तक तो ढंग से चलाना आता नहीं. पता नहीं कंप्यूटर के सामने बैठ कर वह कैसीकैसी बेढंगी गलतियां करती होगी,’’ समीर बोला.

‘‘ये हैरानी की बात नहीं है कि हम भाभी के औफिस के किसी भी सहयोगी को नहीं जानते हैं. आज तक इस के औफिस के किसी भी व्यक्ति ने हमारे घर में कदम नहीं रखा है,’’ सौम्या की इस बात को सुनने के बाद वे सभी हैरान नजर आने लगे थे. ‘‘मैं भी आज तक 1 या 2 बार ही इस के औफिस गया हूं. वैसे हम उन लोगों से नहीं मिलते हैं, यह अच्छी ही बात है,’’ समीर की आंखों में शरारती चमक उभरी.

‘‘यह अच्छी बात क्यों है?’’ सौम्या ने उत्सुकता दिखाई.

‘‘वे जब शिखा के काम की कमियों और उस की नासमझी दर्शाने वाले किस्से सुनासुना कर हमारे कान पका देंगे तब क्या होगा?’’ समीर के इस मजाक पर वे सब खुल कर हंस नहीं पाए, क्योंकि गरमगरम पकौड़े ले कर शिखा वहां पहुंच गई थी.

‘‘मेरे औफिस के बारे में बात चल रही थी क्या?’’ पकौड़ों की प्लेट मेज पर रख कर शिखा ने मुसकराते हुए सवाल पूछा.

‘‘हां, बात तो हम तुम्हारे औफिस वालों के बारे में ही कर रहे थे,’’ समीर ने गंभीर होते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या बातें कर रहे थे?’’

‘‘यही कि वे लोग कितने खुश होंगे कि तुम उन सब के साथ काम करती हो. तुम्हारी मौजूदगी के कारण हर सहयोगी को कितना अलर्ट रहना पड़ता होगा.’’

‘‘अलर्ट तो वाकई रहना पड़ता होगा, भैया. वह कहावत नहीं सुनी है क्या आप ने?’’ सौम्या के लिए अपनी हंसी रोकना कठिन हो रहा था.

‘‘कौन सी कहावत?’’

‘‘वही कि सावधानी हटी और दुर्घटना घटी.’’ उन सब की हंसी का बुरा न मानते हुए शिखा ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मेरी टांग खींचने के साथसाथ पकौड़ों का आनंद भी लेते रहें, प्लीज.’’

‘‘वैसे एक बात बताओ बहू, तुम ने आज तक अपने सहयोगियों को यहां घर बुला कर हम से क्यों नहीं मिलवाया है?’’ उमाकांत ने बातचीत का विषय बदलने की समझदारी दिखाई.

‘‘पापा, कभी ऐसा कोई मौका ही नहीं आया.’’

‘‘तो अब आ रहा है मौका. समीर, अपनी शादी की पहली ऐनिवर्सरी के मौके पर तुम इस के विभाग के सभी सहयोगियों को यहां दावत दो.’’ ‘‘ठीक है पापा, हमारी ये जीनियस जिन लोगों के साथ काम करती है, उन से मिलने का वक्त अब आ ही गया है,’’ समीर के इस मजाक पर अन्य लोगों के साथ शिखा भी हंसी, पर उस की आंखों में हलकी सी चिंता के भाव भी उभरे जिन्हें कोई समझ नहीं पाया. ऐनिवर्सरी वाले दिन रसोई में शिखा ने अपनी सास और ननद के हाथपैर अपनी चिंता के कारण फुला दिए.

‘‘वे सब लोग 1 बजे लंच करने आ जाएंगे. सब काम वक्त से पूरा हो जाएगा न, मम्मी?’’ ऐसे सवाल पूछपूछ कर शिखा ने उन दोनों का दिमाग खा लिया. उस पर न किसी के समझाने का असर हो रहा था, न डांटनेडपटने का. ड्राइंगरूम की सजावट को ले कर वह समीर से कई बार उलझ पड़ी थी. उस की सास ने उसे जबरदस्ती तैयार होने के लिए रसोई से बाहर भेज दिया. सजधज कर शिखा जब सही वक्त पर ड्राइंगरूम में पहुंची, तो उस के औफिस के सहयोगी और घर वाले उसे देखते ही रह गए. उस का रूप लावण्य इस वक्त किसी फिल्म अभिनेत्री को भी मात कर रहा था. उस के बौस संजीव ने उसे फूलों का सुंदर गुलदस्ता भेंट किया. उन के साथ आए नवीन, मीनू, अंजू और अमित ने मिल कर समीर और शिखा के साथ फोटो खिंचवाया. वे लोग अपने साथ केक लाए थे. केक को मेज पर सजाने के बाद सारे लोग समीर और शिखा के इर्दगिर्द इकट्ठे हो गए.

‘‘भाभी पल्ला संभालो, प्लीज. बहू, चाकू संभाल कर पकड़ो. देखो, हाथ न काट लेना. और बहू, मेज से जरा दूर रहो. ठोकर लग गई तो सब प्लेटें फर्श पर गिर जाएंगी.’’ शिखा के घर वाले उस को लगातार हिदायतें दे कर कभी हंस पड़ते, तो कभी फिक्रमंद नजर आने लगते.

केक खाते हुए उमाकांत ने संजीव को सहज भाव से मुसकराते हुए बताया, ‘‘हमारी बहू हम सब की बड़ी लाडली है, पर कभीकभी यह जोश में होश खो बैठती है.’’ कुछ दूरी पर आरती मीनू और अंजू को सफाई दे रही थीं, ‘‘हमारे घर में आ कर बहुत कुछ सीख लिया है शिखा ने. जब ये नईनवेली दुलहन बन कर आई थी, तब इसे ढंग से चपाती बनानी भी नहीं आती थी. हम सब न संभालें, तो अभी भी ये गड़बड़ कर देती है.’’ समीर ने नवीन और अमित से झेंपते हुए कहा, ‘‘दोस्तो, औफिस में अगर शिखा से कोई गलती हो जाती है, तो प्लीज, संभाल लिया करो. किसी भी नई चीज को सीखने में उसे वक्त जरूर लगता है, लेकिन इस में कोई शक नहीं कि वह बहुत मेहनती है.’’

उस वक्त शिखा रसोई में गई हुई थी. समीर की बात सुन कर अमित पहले हैरान हुआ फिर संजीव की तरफ मुड़ कर उस ने ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘सर, क्या आप ने यह नोट किया है कि अपनी शिखा की छवि घर में ज्यादा अच्छी नहीं है?’’ ‘‘बिलकुल किया है,’’ संजीव बोले. फिर उमाकांतजी की तरफ मुड़ कर गंभीर लहजे में पूछा, ‘‘सर, क्या आप सब लोगों की नजरों में शिखा कमअक्ल या कुछकुछ फूहड़ लड़की है?’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं, संजीवजी. अभी उस की उम्र ज्यादा नहीं है. धीरेधीरे वह सब सीख जाएगी,’’ उमाकांतजी ने फौरन सफाई दी.

‘‘आप लोगों की बातों से तो हमें ऐसा ही अंदाजा हुआ है.’’

‘‘क्या ये औफिस में कुछ गड़बड़ नहीं करती है?’’ आरती ने माथे पर बल डाल कर सवाल पूछा.

‘‘शिखा और गड़बड़, मैडम यह तो मेरी टीम की बैस्ट वर्कर है.’’

‘‘लेकिन…लेकिन घर में तो यह छोटेछोटे कामों में भी गड़बड़ कर जाती है.’’

‘‘यह बात तो विश्वास करने लायक नहीं है, मैडम. देखिए, मैं आप सब को अपने इन लोगों से पुछवाता हूं. अमित, सब से ज्यादा प्रभावशाली प्रैजेटेंशन कौन देता है?’’

‘‘शिखा, सर.’’

‘‘अंजू, हमारी महत्त्वपूर्ण क्लायंट्स के साथ होने वाली मीटिंग्स में मेरे साथ कौन जाता है?’’ ‘‘शिखा, सर. लोगों को अपनी बात प्रभावशाली ढंग से समझाने की कला उसे ही सब से अच्छी तरह से आती है.’’

‘‘मीनू, कंप्यूटर से नई जानकारियां कौन ढूंढ़ कर रखता है?’’

‘‘सर, शिखा ही इस काम में सब से कुशल है. कंप्यूटर सौफ्टवेयर की जितनी जानकारी इसे है, उतनी तो सौफ्टवेयर इंजीनियर को ही होती है.’’

‘‘नवीन, कुछ दिन पहले दवा बनाने वाली कंपनी के साथ जो घटना घटी थी, उसे सब को बताओ, प्लीज.’’

‘‘उस कंपनी ने अपनी एक दर्दनिवारक गोली को मार्केट में बेचने की जिम्मेदारी हमारी शिखा को देने के लिए एक प्रैजैंटेशन का आयोजन किया था. उस का दावा यह था कि उस गोली में दर्द कम करने के साथसाथ दर्द के कारण मरीज के अंदर पैदा हुई टैंशन को कम करने की दवा भी मिली हुई है. ‘‘उस कंपनी का प्रतिनिधि उस गोली की बड़ाई बड़े उत्साह से कर रहा था कि तभी शिखा ने ऊंची आवाज में कहा कि ये गोली जिस मरीज ने खाई, उसे दर्द से पक्का छुटकारा यकीनन मिल जाएगा, क्योंकि दर्द महसूस करने के लिए वह जिंदा ही नहीं बचेगा.’’

‘‘आप किस आधार पर ये आरोप लगा रही हैं, मैडम? उस अचंभित प्रतिनिधि द्वारा पूछे गए इस सवाल के जवाब में शिखा ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा कि क्योंकि टैंशन कम करने वाली दवा की मान्य खुराक 0.5 मि.ग्रा. है और आप की टैबलेट में उस दवा की मात्रा 5 मि.ग्रा. है जो कि 10 गुना ज्यादा होने के कारण मरीज को गहरी बेहोशी में ले जा कर उस की जान को खतरे में डाल देगी. ‘‘उस प्रतिनिधि ने शिखा से बहस करनी चाही, पर उस की एक न चली क्योंकि हमारी शिखा को उस दवा के सारे दुष्प्रभाव जबानी याद थे. तब मजबूरन उस कंपनी के चीफ कैमिस्ट को सारी बात बताई गई. खोजबीन से यह तो साबित हो गया कि गोली में तो दवा की सही मात्रा ही है, पर टाइपिंग की गलती के कारण दवा की मात्रा 10 गुना ज्यादा छप गई थी. ‘‘चीफ कैमिस्ट ने शिखा को फोन कर के माफी मांगी और उस की समझदारी व सतर्कता की खूब प्रशंसा भी की. हमारे एम.डी. ने हमारे विभाग में आ कर जब शिखा की पीठ थपथपाई, तो हम सब का सीना गर्व से तन गया था,’’ उस घटना का ब्योरा सुनातेसुनाते नवीन बहुत भावुक हो गया था.

‘‘मेरे विभाग का सब से ज्यादा चमकता सितारा घर में बुद्धू और फूहड़ समझा जाता है, यह बात हमें बिलकुल हजम नहीं हो रही है,’’ संजीव सब से ज्यादा हैरान नजर आ रहे थे. घर का कोई सदस्य आगे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाता, उस से पहले ही शिखा की आवाज सब तक पहुंची, ‘‘सर, आप सब मेरी इतनी ज्यादा बड़ाई कर के क्यों मेरी टांग खींच रहे हैं? मैं कहां कुशल हूं अपने औफिस के कामों में? और घर के कामों में तो मेरी समझ और भी कम है. मम्मी और दीदी की हैल्प न हो, तो खाना बनाने की बात तो दूर रही, मैं अकेली आज बना खाना सब को ढंग से खिला भी नहीं पाऊंगी.’’ फिर यह कहते हुए आप दोनों मेरे साथ आओ न,’’ कहते हुए शिखा ने अपनी सास और ननद के हाथ पकड़े और उन्हें खींचती हुई रसोई की तरफ ले गई. वहां उपस्थित हर व्यक्ति की आंखों में इस वक्त हैरानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. क्या शिखा सचमुच औफिस के काम में बहुत कुशल है? तो उस की वह कार्यकुशलता घर के काम करते हुए कहां और क्यों खो जाती है? यह सवाल शिखा के पति, सासससुर और ननद के लिए अचरज का कारण बना हुआ था. औफिस के हर काम में होशियार और काबिल शिखा की घर में छवि इतनी खराब कैसे हो सकती है? इस सवाल ने उस के बौस और सहयोगियों को हैरानपरेशान किया हुआ था. शिखा उन को चाह कर भी घर में नाकाबिलीयत मुखौटा पहन कर जीने का कारण नहीं बता सकती थी. वह कैसे उन्हें समझती कि शादी के बाद शुरूशुरू में उस की सुंदरता व हर काम को बड़ी कुशलता से करने का ढंग उस के पति, सासससुर और ननद के अंदर अजीब सी हीनभावना पैदा कर देता था. तब वे सब उस से खिंचेखिंचे से रहते थे और उस के अवगुण ढूंढ़ कर उसे नीचा दिखाने का मौका कभी नहीं चूकते थे.

इस समस्या का समाधान तब उसे यही नजर आया था कि वह अपने गुणों को छिपाना शुरू कर दे. इसलिए बिना जरूरत वह अपने ससुराल में असहाय, बेबस और अकुशल सी बनी रहने लगी थी. उस की कार्यकुशलता की तारीफ कर उस के बौस और सहयोगियों ने उस दिन शिखा द्वारा ओढ़े जाने वाले मुखौटे के पीछे छिपी असलियत उस के घर वालों को दिखाई थी. उस ने बात को संभालने की कोशिश जरूर की पर मामला बिगड़ गया लगने लगा था. अपने मुखौटे को और ज्यादा मजबूत बनाने के लिए शिखा ने गरम कड़ाही को छुआ और चिल्ला पड़ी, ‘‘हाय राम, हाथ जल गया मेरा.’’ ‘‘बहू, तुम जरा गैस से दूर रहो. पता नहीं औफिस में तुम कंप्यूटर पर करंट खाए बिना कैसे काम कर लेती हो,’’ अपनी सास के मुंह से इस डांट को सुन कर शिखा मन ही मन खुश हो उठी, क्योंकि ससुराल में सुखशांति से जीने की उस की तरकीब के आगे भी सफल बने रहने की उम्मीद फिर से लौट आई थी.

कभी नीमनीम कभी शहदशहद : शिव से क्यों प्यार करने लगी अपर्णा

इतनी गरमी में अपर्णा को किचन में खाना पकाते देख शिव को अपनी पत्नी पर प्यार हो आया. वह पास पड़ा तौलिया उठा कर उस के चेहरे का पसीना पोंछने लगा तो अपर्णा मुसकरा उठी.

‘‘मुसकरा क्यों रही हो? देखो, गरमी कितनी है? मैं ने कहा था बाहर से ही खाना और्डर कर मंगवा लेंगे. लेकिन तुम सुनती कहां हो.

चलो, अब लाओ, सब्जी मैं काट देता हूं, तुम जा कर थोड़ी देर ऐसी में बैठो,’’ उस के हाथ से चाकू लेते हुए शिव बोला.

‘‘अरे नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है पति देव. मैं कर लूंगी,’’ शिव के हाथ से चाकू लेते हुए अपर्णा बोली, ‘‘आप दीदी को फोन लगा कर पूछिए वे लोग कब तक आएंगे. अच्छा, रहने दीजिए. मैं ही पूछ लेती हूं. आप एक काम करिए, वह हमारे घर के पास जो ‘राधे स्वीट्स’ की दुकान है न वहां से

1 किलोग्राम अंगूर रबड़ी ले आओ. ‘राधे स्वीट्स’ की मिठाई ताजा होती है. और हां बच्चों के लिए चौकलेट आइसक्रीम भी लेते आइएगा.’’

‘‘राधे स्वीट्स से मिठाई पर उस की दुकान की मिठाई तो उतनी अच्छी नहीं होती. एक काम करता हूं बाजार चला जाता हूं वहीं से मिठाई लेता आऊंगा मैं,’’ शिव ने कहा. लेकिन अपर्णा कहने लगी कि क्यों बेकार में उतनी दूर जा कर टाइम बेस्ट करना, जब यहीं घर के पास ही अच्छी मिठाई की दुकान है.

‘‘कोई अच्छी दुकान नहीं है उस की. पिछली बार याद नहीं, कितनी खराब मिठाई दी थी उस ने? फेंकनी पड़ी थी.’’

‘‘अब एक ही बात को कितनी बार रटते रहोगे तुम? मैं कह रही हूं न अच्छी मिठाई मिलती वहां,’’ अपर्णा थोड़ी इरिटेट हो गई.

‘‘अच्छा भई ठीक है. मैं वहीं से मिठाई ले आता हूं,’’ अपर्णा का मूड भांपते हुए शिव बोला. लेकिन उस का मन बाजार से जा कर मिठाई लाने का था, ‘‘और भी कुछ सामान मंगवाना है तो बोल दो वरना बाद में कहोगी यह रह गया वह

रह गया.’’

‘‘नहीं और कुछ नहीं मंगवाना. बस जो कहा है वह ले आओ,’’ बोल कर अपर्णा अपनी दीदी को फोन लगाने लगी. पता चला कि उन्हें आने में अभी घंटा भर तो लग जाएगा. ‘ठीक ही है चलो’ फोन रख बड़बड़ाते हुए वह किचन में चली गई. तब तक शिव मिठाई और आइसक्रीम ले कर आ गया तो अपर्णा ने उसे फ्रिज में रख दिया ताकि गरमी की वजह से वह खराब न हो जाए.

दरअसल, आज अपर्णा के घर खाने पर

उस की दीदी और जीजाजी आने वाले हैं.

इसलिए वह सुबह से ही किचन में बिजी है. अपर्णा की दीदी बैंगलुरु में रहती है. बच्चों की छुट्टियों में वह यहां अपने मायके आई हुई है. इसलिए शिव और अपर्णा ने आज उन्हें अपने घर खाने पर इन्वाइट किया और उन के लिए ही ये सारी तैयारियां हो रही हैं. अपर्णा का मायका यहीं दिल्ली में ही है. 75 साल के उस के पापा और 70 साल की उस की मां दिल्ली के आनंद विहार में 2 कमरों के घर में रहते हैं. अपर्णा का एक भाई भी है जो अपने परिवार के साथ कोलकाता में रहता है और साल में एक बार यहां अपने मांपापा से मिलने आता है लेकिन अकेले. अपर्णा का भाई रेलवे में गार्ड है. वहां ही उस ने एक बंगाली लड़की से शादी कर ली और फिर वहीं का हो कर रह गया.

अपर्णा का पति शिव सरकारी विभाग में ऊंची पोस्ट पर कार्यरत है. उसे औफिस की तरफ से ही रहने के लिए घर और गाड़ी सब मिला हुआ है. इन के 2 बच्चे हैं.

13 साल की बेटी रिनी और 8 साल का बेटा रुद्र. दोनों बच्चे दिल्ली में पढ़ते हैं. अभी अपर्णा के बच्चों का भी वेकेशन चल रहा है इसलिए दोनों बच्चे इस बात को ले कर खुश हैं कि उन के मौसीमौसा आने वाले हैं और उन के लिए ढेर सारे गिफ्ट्स भी ले कर आएंगे. अब बच्चे तो बच्चे ही हैं. लालहरी पन्नी में बंधा गिफ्ट्स देख कर खुशी से उछल पड़ते हैं.

मेहमानों के आने का टाइम हो चुका था. वैसे खाना भी तैयार ही था. अपर्णा ने सारा खाना अच्छे से डाइनिंगटेबल पर सजा दिया और सलाद काट कर फ्रिज में रख दिया. पूरा घर खाने की खुशबू से महक रहा था. घर में खाने की बहुत सारी प्लेटें हैं, पर शिव ने जिद पकड़ ली कि आज नए डिनर सैट में मेहमानों को खाना खिलाया जाए. आखिर उस ने इतना महंगा डिनर सैट खरीदा किसलिए है? सजा कर रखने के लिए तो नहीं?

शिव कहीं गुस्सा न हो जाए इसलिए अपर्णा ने वह नया डिनर सैट निकाल लिया. अपर्णा के मायके वालों के आने से शिव बहुत खुश था.

वैसे भी शिव को मेहमाननवाजी करना बहुत पसंद है. अपर्णा तो इस बात को ले कर बहुत खुश थी कि इतने दिनों बाद उस की दीदी से उस का मिलना होगा.

अपर्णा सुबह उठ कर पहले पूरे घर की डस्टिंग कर अच्छे से सब व्यवस्थित कर खाना पकाने में लग गई थी. मगर हाल में अभी भी इधर अखबार, उधर किताबें फैली हुई थीं. सोफा और कुशन भी अस्तव्यस्त थे. उस ने रिनी से कहा भी कि वह जरा सोफा, कुशन सही कर दे. किताबें, अखबार समेट कर उन्हें अलमारी में रख दे. मेहमान आएंगे तो क्या सोचेंगे. मगर उसे तो अपने मोबाइल से ही फुरसत नहीं है.

आज के बच्चों में मोबाइल फोन की ऐसी लत लग गई है कि पूछो मत. आलतूफालतू रील देख कर ‘हाहा’ करते रहते हैं. लेकिन यह नहीं सम  झते कि ये सब उन की शारीरिक और मानसिक सेहत पर कितना बुरा प्रभाव डाल रहा है. अब रुद्र को ही देख लो. कैसे छोटीछोटी

बातों पर चिड़ जाता है और रिनी मैडम को तो कुछ याद ही नहीं रहता. कुछ भी पूछो, जबाव आता है मु  झे नहीं पता. ये सब मोबाइल फोन का ही तो असर है.

खैर, अपर्णा   झटपट खुद ही हाल समेटने लगी. मन तो किया उस का रिनी को कस कर डांट लगाए और कहे कि जब देखो मोबाइल से चिपकी रहती हो. जरा मदद नहीं कर सकती मेरी? लेकिन यह सोच कर चुप रह गई कि

बेकार में शिव का पारा गरम हो जाएगा. शिव की आदत है छोटीछोटी बातों को ले कर चिल्लाने लगते हैं. पूरा घर सिर पर उठा लेते हैं जैसे न जाने क्या हो गया.

‘‘अरे, अब ये क्या करने लग गई तुम. रिनी कहां है? कहो उस से कर देगी,’’ अपर्णा को सोफा ठीक करते देख शिव बोला, ‘‘रुको, मैं बुलाता हूं उसे. रिनी… इधर आओ,’’ शिव ने जोर की दहाड़ लगाई, तो रिनी भागीभागी आई.

‘‘चलो, हौल अच्छे से ठीक कर दो और देखो फ्रिज में पानी की सारी बोतलें भरी हुई हैं या नहीं? और अपर्णा तुम जा कर जल्दी से तैयार हो जाओ. मेरा मतलब है कपड़े चेंज कर लो न. अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘अब इन कपड़ों में क्या खराबी है,’’ शिव की बातों से अपर्णा को चिड़ हो आई कि यह

पति है या उस की सास? जब देखो पीछे ही पड़ा रहता है.

‘‘अब सोचने क्या लग गई. जाओ न. आते ही होंगे वे लोग,’’ शिव ने फिर टोका.

‘‘अच्छा ठीक है,’’ कह कर अपर्णा कमरे में चली गई और शिव खाने की व्यवस्था देखने लगा कि सबकुछ ठीक तो है न. कभीकभी शिव का औरताना व्यवहार अपर्णा के मन में चिड़चिड़ाहट पैदा कर देता.

छुट्टी के दिन शिव पूरी किचन की तलाशी लेगा कि फ्रिज में बासी खाना तो नहीं पड़ा है? किचन में कोई चीज बरबाद तो नहीं हो रही है? आटा, दाल, तेल, मसाला वगैरह का डब्बा खोलखोल कर देखेगा कि कोई चीज कम तो नहीं हो गई है? मन करता है अपर्णा का कि कह दे कि जो काम तुम्हारा नहीं है उस में क्यों घुस रहे हो लेकिन वही लड़ाई  झगड़े के डर से कुछ बोलती नहीं है.

दरवाजे की घंटी बजी तो शिव ने ही दरवाजा खोला और आदर के साथ मेहमानों को घर के अंदर ले आया. तब तक अपर्णा सब के लिए गिलासों में ठंडा ले आई और सब के हाथ में गिलास पकड़ाते हुए वह भी अपना गिलास ले कर अपनी दीदी की बगल में बैठ गई. दोनों बहनें कितने दिनों बाद मिली थीं तो बातों का सिलसिला चल पड़ा.

उधर शिव और अपर्णा के जीजाजी भी यहांवहां की बातें करने लगें. बच्चे एक कमरे में बैठ कर टीवी का मजा ले रहे थे और बीच में आआ कर फ्रिज से कभी आइसक्रीम तो कभी ठंडा और आलू चिप्स ले कर चले जाते. बातों में लगी अपर्णा रिनी और रुद्र को इशारे से मना करती कि बस अब ज्यादा नहीं. खाना भी तो खाना है न? उस की दीदी उसे टोकती कि जाने दो न बच्चे हैं. ऐंजौय करने दो उन्हें. खूब हाहाहीही चल रही थी. घर का माहौल काफी खुशनुमा बना हुआ था. शिव ने इशारे से अपर्णा से कहा कि अब खाना लगा दो. भूख लगी होगी सब को.

सब लोगों ने खाना खाया. खाने के बाद अपर्णा सब के लिए अंगूर रबड़ी ले आई.

सब से पहले अंगूर रबड़ी का कटोरा शिव ने उठाया. लेकिन पहला चम्मच मुंह में डालते हुए उस का मूड खराब हो गया. उस ने अंगूर रबड़ी का कटोरा इतनी जोर से टेबल पर पटका कि छलक कर मिठाई टेबल पर फैल गई. अपर्णा ने सहमते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पूछ रही हो क्या हुआ? तुम से कहा था

न जा कर बाजार से मिठाई ले आता हूं लेकिन नहीं, तुम्हें तो बस अपनी ही चलानी होती है. किसी की सुनती हो? लो अब तुम्हीं खाओ यह घटिया मिठाई,’’ मिठाई का पूरा डोंगा अपर्णा की तरफ बढ़ाते हुए शिव जोर से चीखते हुए कहने लगा कि यह औरत कभी मेरी बात नहीं सुनती. अनपढ़गंवार की तरह किसी की भी बातों में आ जाती है.

अपर्णा को जिस बात का डर था वही हुआ. उस ने मेहमानों के सामने ही अपना रंग दिखा दिया. शिव के अचानक से ऐसे व्यवहार से अपर्णा की दीदी और जीजाजी दोनों अवाक रह गए. बच्चे भी डर कर कमरे में भाग गए और अपर्णा को सम  झ नहीं आ रहा था अब वह क्या करे? कैसे संभाले बात को?

‘‘वह दीदी गलती मेरी ही है. शिव ने कहा था कि बाजार से मिठाई ले आते हैं लेकिन मैं ने ही…’’  दांत निपोरते हुए अपर्णा को सम  झ नहीं आ रहा था कि क्या बोले. किस तरह शिव को शांत कराए.

अपर्णा ने इशारे से शिव को कई बार सम  झाना चाहा कि मेहमान क्या सोचेंगे. चुप हो जाओ. मगर शिव कहां कुछ सुनने वाला था. उसे तो जब गुस्सा आता है, पूरा घर सिर पर उठा लेता है. यह भी नहीं सोचता कि सामने बैठे लोग क्या सोचेंगे. गुस्से पर तो उस का कंट्रोल ही नहीं रहता. लेकिन हां गरजते बादल की तरह वर्षा कर वह शांत भी हो जाता है. लेकिन ऐसी शांति किस काम की जो सब तहसनहस कर जाए. मेहमान सारे चले गए लेकिन अब अपर्णा का खून खौल रहा था.

गुस्सा शांत होते ही शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ और उस के लिए उस ने अपर्णा से माफी भी मांगी लेकिन अपर्णा ने उस की बातों का कोई जवाब दिए बिना कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा लगा लिया. अब गुस्सा तो आएगा ही न? इतनी गरमी में बेचारी सुबह से कितनी मेहनत कर रही थी और इस शिव ने उस की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया. उस के मायके वालो के सामने उसे जलील कर दिया. क्या अच्छा किया उस ने?

शिव की आदत है राई का पहाड़ बनाने की. छोटीछोटी बातों पर वह चीखनेचिल्लाने लगता है कि ऐसा क्यों हुआ. वैसा क्यों नहीं हुआ. अब तो बच्चे भी सम  झने लगे हैं अपनी पापा की आदत को कि पता नहीं कब वे किस बात पर, कहां, किस के सामने चिल्ला पड़ेंगे. माना अपर्णा से गलती हुई लेकिन शिव को इतना बोलने की क्या जरूरत थी? बाद में भी तो वह अपर्णा पर गुस्सा निकाल सकता था?

अपर्णा ने क्याक्या नहीं सोच रखा था कि खाना खाने के बाद शाम को सब मिल कर पास ही जो वाटरफौल है, वहां जाएंगे. फिर ईको पार्क चलेंगे. अभी नया जो आइसक्रीम पार्लर खुला है, वहां जा कर आइसक्रीम खाएंगे. खूब मस्ती करेंगे लेकिन इस शिव ने सब गुड़गोबर कर के रख दिया. ऐसा उस ने कोई पहली बार नहीं किया है. पहले भी कई बार वह ऐसा कर चुका है जब लोगों के सामने अपर्णा को शर्मिंदा होना पड़ा है.

कुछ दिन की ही बात है जब अपर्णा शिव के साथ मौल में अपने लिए कपड़े खरीदने गई थी. वह भी शिव के जिद्द करने पर वरना तो वह औनलाइन ही सूटसाड़ी वगैरह खरीद कर पहनना पसंद करती है. इस से समय तो बचता ही है,

दाम भी रीजनेबल होता है. सब से अच्छी बात यह कि अगर आप को चीजें पसंद न आएं तो आप लौटा भी सकते हैं. पैसा तुरंत आप के अकाउंट में आ जाता है. लेकिन मौल में

10 चक्कर लगवाएंगे अगर कोई चीज लौटानी हो तो. लेकिन यह बात शिव को सम  झासम  झा कर वह थक चुकी थी.

मौल में उस ने अपने लिए एक कुरती पसंद कर जब उसे पहन कर वह शिव को दिखाने आई तो सब के सामने ही उस ने उसे   झाड़ दिया यह कह कर कि अपर्णा में कलर सैंस जरा भी नहीं है. गंवारों की तरह लालपीलाहरा रंग ही पसंद आता है इसे.

शिव की बात पर वहां खड़े सारे लोग अपर्णा को देखने लगे जैसे वह सच में गंवार महिला हो. उफ, कितना बुरा लगा था. उसे उस वक्त रोना आ रहा था जब चेंजिंग रूम के बाहर खड़ी दोनों लड़कियां उसे देख कर हंसने लगीं. शर्म के मारे अपर्णा कुछ बोल नहीं पाई पर उसी वक्त वह गुस्से में मौल से बाहर निकल आई और जा कर गाड़ी में बैठ गई.

वह भी तो पलट कर जवाब दे सकती थी कि शिव के काले रंग पर कोई कलर सूट नहीं करता पर वह उस की जैसी नहीं है. ‘दिमाग से पैदल इंसान’ अपर्णा ने दांत भींच लिए. गुस्से के मारे उस के तनबदन में आग लग रही थी. मन कर रहा था पैदल ही घर चली जाए. लेकिन बाहर वह कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी इसलिए पूरे रास्ते खिड़की से बाहर देखती रही और अपने आंसू पोंछती हुई सोचती रही कि आखिर शिव अपनेआप को सम  झता क्या है. पति है तो कुछ भी बोलेगा? क्या उस की कोई इज्जत नहीं है?

इधर शिव को अपनी बात पर बहुत पछतावा हो रहा था कि सब के सामने उसे अपर्णा से ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी, ‘‘अपर्णा, सुनो न, मेरे कहने का वह मतलब नहीं था. मैं तो बस यह कह रहा था कि तुम पर…’’ शिव ने सफाई देनी चाही पर अपर्णा उस की बात सुने बिना बालकनी में चली गई. शिव उस के पीछेपीछे गया पर उस ने जोर से दरवाजा लगा लिया यह कहते हुए कि अगर उस ने ज्यादा परेशान किया तो वह यह घर छोड़ कर कहीं चली जाएगी.

उस दिन के बाद आज फिर उस ने मेहमानों के सामने अपनी मूर्खता का प्रदर्शन दे दिया. अरे, क्या सोच रहे होंगे वे लोग उस के बारे में यह भी नहीं सोचा शिव ने. ऐसे तो घर में वह बहुत केयरिंग और लविंग पति बन कर घूमता है. घर के कामों में भी वह अपर्णा की मदद कर दिया करता है, पत्नी व बच्चों को बाहर घुमाने और होटल में खिलाने का भी वह शौकीन है, मगर कभीकभी पता नहीं उसे क्या हो जाता है. अपनेआप को बहुत महान, ज्ञानवान सम  झने लगता और अपर्णा को मूर्खगंवार. लोगों के सामने डांट कर कहीं वह यह तो साबित नहीं करना चाहता कि वह मर्द है और अपर्णा औरत.

अपर्णा की दीदी का फोन आया लेकिन उस ने उस का फोन नहीं उठाया क्योंकि उस का मूड पूरी तरह से खराब हो चुका था, सो वह कमरे की लाइट औफ कर के सो गई.

खाना तो सुबह का ही कितना सारा बचा हुआ था तो बनाना तो कुछ था नहीं और अपर्णा की भूख वैसे भी मर चुकी थी. दोनों बच्चे भी अपने कमरे में एकदम शांत, चुपचाप बैठे थे. डर के मारे दोनों मोबाइल भी नहीं चला रहे थे कि पापा डांटेंगे.

इधर शिव अकेले हौल में सोफे पर अधलेटा न जाने क्या सोच रहा था. यही सोच रहा होगा कि बेकार में ही उस ने अपर्णा का मूड खराब कर दिया. बेचारी सुबह से कितनी मेहनत कर रही थी और जरा सी बात के लिए उस ने सब के सामने उसे क्या कुछ नहीं सुना दिया. शिव के मन ने उसे धिक्कारा.

अब अपर्णा के सामने जाने की तो शिव की हिम्मत नहीं थी इसलिए उस ने बच्चों के कमरे में   झांक कर देखा. रिनी लेटी हुई थी और रुद्र कुरसी पर बैठा खिड़की से बाहर   झांक रहा था. अपर्णा के कमरे में जब   झांक कर देखा तो वह उधर मुंह किए सोई हुई थी. शिव को पता

है वह सोई नहीं है. शायद रो रही होगी या कुछ सोच रही होगी. यही कि शिव कितना बुरा इंसान है. ‘हां, बहुत बुरा हूं मैं. बेकार में मैं ने अपनी बीवी का मूड खराब कर दिया,’ अपने मन में सोच शिव अपर्णा का मूड ठीक करने का उपाय सोचने लगा.

‘‘रिनी, बेटा, जरा 1 कप चाय बनाओ तो,’’ अपर्णा के कमरे की तरफ मुंह कर के शिव बोला ताकि वह सुन सके कि शिव को चाय पीनी है. लेकिन डाइरैक्ट अपर्णा से बोलने की उस की हिम्मत नहीं पड़ रही थी इसलिए बेटी को आवाज लगाई, ‘‘बेटा, चाय में जरा चीनी डाल देना, लगता है शुगर कम हो गई. सिर में दर्द हो रहा है मेरे,’’ यह बात भी उस ने अपर्णा को सुना कर कही ताकि वह दौड़ी चली आए और पूछे कि क्या हुआ. सिरदर्द क्यों कर रहा है तुम्हारा? तबीयत तो ठीक है तुम्हारी? लेकिना ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि अपर्णा को सब पता था कि शिव सिर्फ नाटक कर रहा है.

इधर शिव मन ही मन छटपटा रहा था अपर्णा से बात करने के लिए. वह उस से माफी मांगने के लिए भी तैयार था. आज अपर्णा का गुस्सा 7वें आसमान पर था.

अपर्णा ने फोन कर रिनी को चुपके से सम  झा दिया कि वह और रुद्र खाना खा लें. उसे उठाने न आएं. इधर शिव इस बात से परेशान हो रहा था कि अपर्णा अब तक भूखी है. वैसे भूख तो उसे भी लगी थी. मगर अकेले खाने की उस की आदत नहीं है. शिव खुद को ही कोसे जा रहा था कि उस ने ऐसा क्यों किया. रिनी से कहा कि वह जा कर मम्मी को खाने के लिए उठाए पर रिनी कहने लगी कि मम्मी बहुत गुस्से में हैं इसलिए वह उठाने नहीं जाएगी.

अब शिव क्या करे सम  झ नहीं आ रहा था उसे. उसे पता है अपर्णा को जल्दी गुस्सा नहीं आता. लेकिन जब आता है, फिर वह किसी के बाप की नहीं सुनती. लेकिन शिव इस के एकदम उलट है. जितनी जल्दी उसे गुस्सा आता है उतनी जल्दी भाग भी जाता है. उस की एक खूबी यह भी है कि भले ही वह अपर्णा से कितना भी लड़  झगड़ ले पर कभी उस से बात बंद नहीं करता. लेकिन अपर्णा कईकई दिनों तक शिव से बात नहीं करती. शिव का कहना होता है कि भले ही उस की गलती के लिए अपर्णा और कुछ भी करे पर बात बंद न करे. उसे जिंदगी वीरान लगने लगती है अपर्णा के बिना.

बहुत प्यार करता है वह अपनी पत्नी से. मगर उस का अपने गुस्से पर ही कंट्रोल नहीं रहता तो क्या करे बेचारा. खैर, अब जो है सो है. गलती हुई शिव से. मगर अब वह उस बात को पकड़े बैठा तो नहीं रह सकता न और कई बार माफी तो मांगी न उसने अपर्णा से? अब क्या करे जान दे दे अपनी? अपने मन में सोच शिव ने अपना माथा   झटका और अपने रोज की दिनचर्या में लग गया.

मगर अपर्णा के दिमाग में अब भी वही सब बातें चल रही थीं कि शिव ने ऐसा क्यों किया? उस की दीदी, जीजाजी क्या सोचा रहे होंगे उन के बारे में वगैरहवगैरह.

यह बात बिलकुल सही है कि पुरुषों के मुकाबले औरतें ज्यादा टैंशन लेती हैं. ऐसा क्यों हुआ? वैसा क्यों नहीं हुआ, जैसी बातें उन के दिलोदिमाग से जल्दी गायब नहीं होतीं. बारबार उन्हीं बातों में उल  झी रहती हैं, जबकि पुरुष फाइट या फ्लाइट यानी लड़ो या फिर भाग जाओ पर यकीन रखते हैं. अब शिव में इतनी हिम्मत तो थी नहीं कि अपर्णा से लड़ पाता. इसलिए वह दूसरे कमरे में जा कर सो गया ताकि उसे देख कर अपर्णा का गुस्सा और न भड़क जाए. मगर अपर्णा बारबार कभी किचन में बरतन पटक कर, कभी फोन पर किसी से गुस्से में बात कर के या कभी बच्चों को डांट कर यह दर्शाने की कोशिश कर रही थी कि वह उस बात के लिए शिव को माफ नहीं  करेगी.

अर्पणा की मां का फोन आया तो मन तो किया उस का शिव की खूब बुराई

करे और कहे कि कैसे इंसान के साथ उन्होंने उसे बांध दिया लेकिन क्या फायदा क्योंकि उस की मां तो अपने दामाद का ही पक्ष लेंगी. घड़ी में देखा तो रात के 11 बच रहे थे. गुस्सा आया अपर्णा को कि ऐसे तो तुरंत 11-12 बज जाता है और आज घड़ी भी जैसी ठहर गई है. नींद भी नहीं आ रही थी उसे, सो उठ कर उस ने बच्चों के कमरे में   झांक कर देखा. दोनों गहरी नींद में सो रहे थे. जब शिव के कमरे में   झांक कर देखा तो फोन देखतेदेखते चश्मा पहने ही वह सो गया. मन किया अपर्णा का उस का चश्मा उतार कर टेबल पर रख दे, मगर उस का गुस्सा अभी भी उस के सिर पर सवार था.

भूख के मारे पेट में वैसे ही जलन हो रही थी. किचन में गई भी, मगर उस का गुस्सा उस की भूख से ज्यादा तेज था. सो एक गिलास पानी पी कर वह कमरे में आ कर सोने की कोशिश करने लगी. मगर नींद भी नहीं आ रही थी उसे. ‘देखो, कैसे आराम से खापी कर सो गया. कोई चिंता है मेरी? एक बार पूछने तक नहीं आया खाने के लिए’ बैड पर लेटीलेटी अपर्णा बड़बड़ाए जा रही थी. गुस्से में तो थी ही, भूख के मारे और तिलमिला रही थी.

अब शिव ने माफी तो मांगी न तुम से?

फिर इतना क्या गुस्सा दिखा रही हो? हां, माना कि उसे मेहमानों के सामने तुम से इस तरह से बात नहीं करनी चाहिए थी और उस की छोटीछोटी बातों पर एकदम से चीखनेचिल्लाने लगना तुम्हें जरा भी पसंद नहीं. लेकिन उस की कुछ अच्छी आदतें भी तो हैं न? उन्हें भूल गई तुम? अभी पिछले महीने ही जब तुम्हारे पापा को हार्ट अटैक आया था, तब कैसे अपना सारा कामकाज छोड़ कर शिव उन की सेवा में लग गया था.

पैसे से ले कर क्या कुछ नहीं किया उस ने तुम्हारे पापा के लिए? रातरातभर जाग कर उस ने तुम्हारे पापा की सेवा की थी, तब जा कर वे अस्पताल से ठीक हो कर घर आ पाए थे और आज भी जब भी उन्हें कोई जरूरत पड़ती है शिव एक पैर पर खड़ा रहता है उन की सेवा में.

हर 3 महीने पर वह तुम्हारे मांपापा को शुगरबीपी चैक कराने ले कर जाता है. डाक्टर

को दिखाता है. कितना भी बिजी क्यों न हो लेकिन उन से यह पूछना नहीं भूलता कि उन्होंने समय पर दवाई ली या नहीं वे रोज सुबह वाक

पर जाते हैं या नहीं? कौन करता है इतना.

बोलो न? दामाद हो कर वह बेटे जैसा कर रहा है, कम है क्या? अरे, किसीकिसी इंसान की आदत होती है छोटीछोटी बातों पर गुस्सा करने की. इस का मतलब वह बुरा इंसान नहीं हो गया.

शिव थोड़ा सख्त और गुस्सैल मिजाज

का है, मानता हूं मैं पर इंसान वह कितना अच्छा है, यह भूल गईं तुम? और यह भूल गईं कि

कैसे तुम्हारे मांपापा के जन्मदिन पर सब से

पहले बधाई शिव ही देता है उन्हें? उन के जन्मदिन पर हंगामेदार पार्टी रखता है. और यह

भी भूल गई जब तुम औफिस से थकीहारी घर आती हो कैसे वह तुम्हें प्यार से निहारता है?

तुम्हें तो अपने पति पर निछावर होना चाहिए? अपर्णा के दिल से आवाज आई तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी.

‘हां, यह बात कैसे भूल गई मैं कि शिव

ने मेरे पापा के लिए क्या कुछ नहीं किया?

अगर उस दिन शिव न होते तो जाने क्या अनर्थ

हो जाता. उस ने रातदिन एक कर के मेरे पापा

की जान बचाई. यहां तक कि अस्पताल में उस

ने पापा के पैर भी दबाए. नर्स ने उसे पापा के

पर दबाते देख कर कहा भी था कि कैसा श्रवण बेटा पाया है पापा ने. लेकिन जब उस नर्स को पता चला कि शिव उन के बेटे नहीं दामाद है, तो वह हैरत से शिव को देखने लगी थी.

मैं भले भूल जाऊं पर शिव रोज एक बार मांपापा का हालचाल लेना नहीं भूलता है. कभी शिव ने मु  झ पर किसी बात की बंदिशें नहीं लगाईं. मु  झे जो मन किया करने दिया और मैं उस की एक छोटी सी बात पर इतना नाराज हो गई कि उस से बात करना छोड़ दिया. ‘ओह, मैं भी न. बहुत बुरी हूं’ अपने मन में सोच अपर्णा खुद को ही कोसने लगी.

खिड़की से   झांक कर देखा तो बाहर जोर की बारिश हो रही थी. चिंता हो आई उसे कि कल शिव को औफिस के काम से 2 दिन के लिए दूसरे शहर जाना है. ‘बेचारा, कितनी मेहनत करता है अपने बीवीबच्चों के लिए. हमारी हर सुखसुविधा का ध्यान रखता है और मैं उस की एक छोटी सी बात का तिल का ताड़ बना देती हूं’ अपर्णा अपने मन गिलटी महसूस करने लगी.

‘कभी नीमनीम कभी शहदशहद पिया मोरे पिया मोरे पिया…’ मन में गुनगुनाती हुई अपर्णा मुसकरा उठी. उस का सारा गुस्साकाफूर हो चुका था. देखा तो शिव उधर मुंह कर सोए हुए था. वह भी जा कर उस के बगल में

लेट गई. शिव ने चेहरा घुमा कर देखा और मुसकराते हुए अपर्णा को अपनी बांहों में कैद कर लिया. अपर्णा भी मुसकरा कर सुकून से अपनी आंखें बंद कर लीं.

यह सफर बहुत है कठिन मगर…

पति के आने की प्रतीक्षा करती हुई युवती जितनी व्यग्र होती है उतनी ही सुंदर भी दिखती है. माहिरा का हाल भी कुछ ऐसा ही था.

आज माहिरा के चेहरे पर चमक दोगुनी हो चली थी. वह बारबार दर्पण निहारती अपनी पलकों को बारबार ?ापकाते हुए थोड़ा शरमाती और अपनी साड़ी के पल्लू को संवारने का उपक्रम करती. माहिरा की सुडौल और गोरी बांहें सुनहरे रंग के स्लीवलैस ब्लाउज में उसे और भी निखार प्रदान कर रही थीं. आज तो मानो उस का रूप ही सुनहरा हो चला था.

माहिरा ने अपने माथे पर एक लंबी सी तिलक के आकार वाली बिंदी लगा रखी थी जो कबीर की पसंदीदा बिंदी थी.

माहिरा बारबार अपनेआप को दर्पण में निहारते हुए गुनगुना रही थी, ‘सजना है मुझे सजना के लिए… मैं तो सज गई रे सजना के लिए.’

हां, माहिरा की खुशी का कारण था कि आज उस के पति मेजर कबीर पूरे 1 महीने के बाद घर वापस आ रहे थे और अब कबीर कुछ दिन माहिरा के साथ ही बिताएंगे.

कबीर और माहिरा की शादी 2 साल पहले हुई थी. कबीर भारतीय सेना में मेजर थे और माहिरा शादी से पहले एक आईटी कंपनी में काम करती थी पर शादी के बाद माहिरा जौब छोड़ कर हाउसवाइफ बन गई. उस का कहना था कि पति के एक अच्छी नौकरी में होते हुए उसे किसी प्राइवेट जौब को करने की आवश्यकता नहीं है. उस के इस निर्णय में कबीर ने कोई दखलंदाजी नहीं करी. माहिरा के घर में उस के साथ ससुर थे पर कबीर और माहिरा उन के साथ कम ही रह पा रहे थे क्योंकि कबीर की पोस्टिंग अलगअलग जगहों पर होती थी.

कबीर की पोस्टिंग जब शहरी इलाकों में होती थी तब माहिरा कबीर के साथ ही रहती थी पर कभीकभी कबीर को फ्रंट पर अर्थात आतंकियों से निबटने के लिए या पड़ोसी देश की सेना से टक्कर लेने के लिए जाना होता था, तब माहिरा को निकटवर्ती शहर के किराए के मकान में रहना पड़ता था.

जब से माहिरा को कबीर का साथ मिला है तब से उस ने काफी भारत घूम लिया है और हर जगह उस ने ढेर सारे पुरुष और महिला मित्र बनाए है, आजकल सोशल मीडिया का एक फायदा यह भी है कि कोई अजनबी एक बार दोस्त बन जाए तो वह जीवनभर सोशल मीडिया पर आप से किसी न किसी रूप में जुड़ा रह सकता है.

माहिरा के तमाम दोस्त भी उस से चैटिंग और वीडियो कौल करते रहते थे. कबीर को माहिरा के दूसरों के प्रति इस बहुत ही दोस्ताना व्यवहार से शिकायत नहीं हुई बल्कि वे माहिरा के इतने सारे दोस्त होने पर खुशी भी दिखाते थे.

‘‘मेरे पीछे तुम्हें टाइम पास करने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती होगी. तुम्हारे इतने सारे दोस्त जो हैं,’’ कबीर चुटकी लेते हुए कहते तो माहिरा बस मुसकरा देती. माहिरा कबीर की घनी और चौड़ी मूंछों को थोड़ा छोटा करने को कहती तो कबीर बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहते कि भला वे अपनी मूंछ छोटी कैसे कर सकते हैं क्योंकि ये मूंछें ही तो एक फौजी की आनबान और शान होती हैं.

माहिरा भी रोमांटिक होते हुए कबीर को बताती कि ये मूंछें उसे इसलिए नहीं पसंद हैं क्योंकि ये माहिरा के चेहरे पर गुदगुदी करती हैं. माहिरा की यह बात सुनते ही कबीर माहिरा को गोद में उठा लेते और उस के चेहरे पर अपनी घनी मूंछों को स्पर्श कराने लगते जिस से माहिरा रोमांचित हो कर अपनी आंखें बंद कर लेती.

माहिरा के आंखें बंद करने के अंदाज पर कबीर तंज कसते हुए कहते, ‘‘तुम औरतों में यही बुराई है कि कभी भी बिस्तर पर ऐक्टिव रोल नहीं प्ले करतीं. अरे भई हम पतिपत्नी हैं

और हमारे बीच सहजता से संबंध बनने चाहिए. कभी तो तुम भी अपना पहलू बदलो या हमेशा बेचारा मर्द ही ऊपर आ कर सारी जिम्मेदारी निबटाता रहे.’’

कबीर की यह बात सुन कर माहिरा शरमा जाती और कहती कि अपने पति की छाती पर सवार हो कर काम सुख लेना उसे अच्छा नहीं लगता और वैसे भी इस तरह प्रेम संबंध बनाने की उस की आदत भी नहीं है.

‘‘प्रैक्टिस मेक्स ए वूमन परफैक्ट मेरी जान… थोड़ा जिमविम जाओ अपने को लचीला बनाओ फिर देखो तुम भी बिस्तर पर कमाल करने लगोगी,’’ कह कर बड़ी चतुराई से कबीर ने अपने शरीर को माहिरा के शरीर के नीचे कर लिया और माहिरा को अपने सीने पर लिटा लिया. माहिरा इस तरह प्रेम संबंध बनाने के प्रयास में धीरेधीरे गति पकड़ने लगी.

इस बार तो कबीर के पीछे माहिरा ने एक जिम जौइन कर लिया था जहां उस ने अपने शरीर को लचीला बनाने के लिए ढेर सारी ऐक्सरसाइज करी और अब उस का बदन पहले से अधिक लचीला और सुडौल हो गया है. इस बार वह कबीर को बिस्तर पर उन के ही स्टाइल में खूब प्यार करेगी. माहिरा यह सब सोच कर रोमांचित हो जाती थी. कमरे में इस समय उस का साथी आईना ही था जिस में वह बारबार अपने को निहार रही थी. अब उसे बेसब्री से कबीर के फोन आने की प्रतीक्षा थी.

कबीर ने कहा था कि वे चलने से पहले फोन करेंगे पर अभी तक तो कोई फोन नहीं आया था. ऊहापोह में थी माहिरा पर तभी उस का मोबाइल बजा. शायद कबीर का फोन ही होगा, मुसकराते हुए माहिरा ने मोबाइल देखा. एक अनजाना नंबर था.

‘‘हैलो,’’ माहिरा ने धीरे से कहा.

उधर से जो स्वर गूंजा, उसे माहिरा कभी याद नहीं रखना चाहेगी क्योंकि उस अजनबी स्वर ने दुख जताते हुए उसे मोबाइल पर कबीर के एक आतंकी हमले में मारे जाने की खबर दी थी.

कबीर शहीद हो चुके थे. अब वे कभी वापस नहीं आएंगे और माहिरा का यह इंतजार कभी खत्म नहीं होगा. एक पल में माहिरा की दुनिया लुट चुकी थी.

माहिरा की आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे. उस के सीने में अपार दुख भरा था और आंखों में उन दिनों की स्मृतियां घूम गई थीं जो दिन उस ने कबीर के साथ बिताए थे पर अब कुछ नहीं हो सकता था. वह एक विधवा थी. समाज और सरकार ने भले ही एक शहीद की विधवा को  वीर नारी कह कर सम्मानित किया पर इन शब्दों से भला क्या होने वाला था? माहिरा अकेली थी क्योंकि उस का जीवनसाथी कबीर वहां जा चुका था जहां से कोई वापस नहीं आता.

माहिरा के जीवन में एक ऐसा जख्म जन्म

ले चुका था जिसे सरकार के द्वारा दिया गया

कोई भी सम्मान और कोई भी पुरस्कार राशि

भर नहीं सकती थी और इसीलिए माहिरा को

तब भी अधिक खुशी नहीं हुई जब सरकार ने शहीद कबीर को कीर्ति चक्र प्रदान करने की घोषणा करी और एक नियत तारीख पर माहिरा को कीर्ति चक्र लेने दिल्ली राष्ट्रपति भवन जाना था.

कबीर के मातापिता लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में अपने निजी मकान में रहते थे और माहिरा को उन के साथ रह पाने का अधिक समय नहीं मिल पाया था पर जितना भी समय उस ने अपने सासससुर के साथ बिताया उन दिनों की स्मृतियां मधुर नहीं थीं. उस के सासससुर बेहद दकियानूसी और टोकाटोकी करने वाले थे और माहिरा अपने बहुत प्रयासों के बाद भी उन की पसंदीदा बहू नहीं बन पाई थी.

अभी तक उन्होंने माहिरा की खोजखबर नहीं ली थी पर अपने बेटे के शहीद हो जाने के बाद से वे माहिरा के पास ही आ गए थे और कीर्ति चक्र का सम्मान लेने माहिरा के साथ ही गए थे. बातबात में अपने बेटे के लिए उन के द्वारा किए गए त्याग की बातें करने लगते, मीडिया को कई इंटरव्यू में नौस्टैल्जिक होते हुए उन लोगों ने कबीर के बचपन की बहुत सी बातें बताईं और यह भी बताया कि कबीर को आर्मी की नौकरी दिलाने के लिए उन लोगों ने कितना पैसा लगाया और खुद भी कितना त्याग किया है.

सरकार ने माहिरा को वीर नारी का दर्जा देने के साथसाथ लखनऊ कैंट के आर्मी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी औफर करी जिसे माहिरा ने कुछ सोचनेसम?ाने के बाद स्वीकार कर लिया.

घाव भरने के लिए समय से बड़ी कोई औषधि नहीं होती है. जब तक कबीर थे तब तक तो माहिरा ने नौकरी नहीं करी थी पर अब वह एक वर्किंग कामकाजी महिला थी और बिना जीवनसाथी के जीवन जीने का प्रयास कर रही थी.

माहिरा अपनी आंखों में कबीर का एक सपना ले कर जी रही थी. कबीर चाहते थे कि वे एक ऐसा स्कूल खोलें जहां पर गरीब और पिछड़ी जाति के लोग पढ़ाई के साथसाथ आर्मी की भरती के लिए अपनेआप को मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार कर सकें. माहिरा जानती थी कि यह कठिन होगा पर फिर भी कठिनाई को जीतना ही तो जीवन है.

कबीर को गुजरे लगभग 8 महीने हो चुके थे और आज कबीर का जन्मदिन था. माहिरा ने आज स्कूल से छुट्टी ले ली थी और कबीर की पसंद के पकवान बनाने के बाद माहिरा ने हलके गुलाबी रंग की साड़ी के ऊपर सफेद रंग का स्लीवलैस ब्लाउज पहना तो उस के सासससुर की आंखें तन गईं. भले ही माहिरा सादे लिबास में थी पर उन्हें एक विधवा का इस तरह से स्लीवलैस ब्लाउज पहनना नहीं भा रहा था.

माहिरा ने कबीर की तसवीर के सामने खड़े हो कर आंखें बंद कीं और कबीर को याद किया. अभी वह मन ही मन कबीर को याद कर ही रही थी कि कौलबैल की आवाज ने माहिरा का ध्यान भटका दिया. आंखों की नम कोरों को पोंछते हुए माहिरा ने दरवाजा खोला. सामने लोकेश खड़ा था. लोकेश भी माहिरा के साथ कैंट स्कूल में स्पोर्ट्स टीचर था.

माहिरा ने बैठने का इशारा किया और किचन में चाय बनाने चली गई. माहिरा और कबीर के बीच थोड़ीबहुत बातें हुईं. चाय पी कर लोकेश वापस चला गया. उस के यहां आने का मकसद आज के दिन माहिरा को मानसिक संबल प्रदान करना था.

‘‘बहू, बुरा मत मानना पर एक विधवा को शालीनता से अपना चरित्र संभाल कर रखना चाहिए,’’ सास का स्वर कठोर था.

माहिरा ने जवाब देना ठीक नहीं सम?ा तो सास ने दोबारा तंज कसते हुए माहिरा को अपनी वेशभूषा एक विधवा की तरह रखने का उपदेश दे डाला.

माहिरा ने उत्तर में बहुत कुछ कह देना चाहा पर चुप ही रही. उसे अपने निजी जीवन में सासससुर का दखल देना ठीक नहीं लग रहा था.

2-3 दिन बीतने के बाद जो कुछ माहिरा की सास ने उस से कहा उस बात ने तो माहिरा को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया था. हुआ यों था कि बारिश तेज हो रही थी और माहिरा को लोकेश की बाइक से उतरते हुए सास ने देखा और इसी बात पर अपनी दकियानूसी सोच का परिचय देते हुए माहिरा को पतिव्रता स्त्री के रहनसहन के ढंग बताने लगी.

‘‘अरे हमारे लड़के के शहीद हो जाने का दुख तो पहले से हमारे बुढ़ापे पर भारी था उस पर यह सब देखना पड़ेगा यह तो हम ने सोचा भी न था.’’

उन की बातें सुन कर माहिरा का मन छलनी हो गया. आएदिन और बातबात पर अपने लड़के और स्वयं के त्याग का रोना रोने वाले सासससुर अब माहिरा को अखरने लगे थे. वह विधवा हो गई है तो क्या? विधवा हो जाने में माहिरा का भला क्या दोष है? पति को खोने के बाद क्या वह भी जीना छोड़ दे? वह ये सारी बातें सोच कर परेशान हो चली थी.

सासससुर निरंतर यह जताने में लगे हुए थे कि बहू विधवा हो गई है पर उन लोगों ने तो अपना बेटा खोया है इसलिए उन का दुख बहू के दुख से बड़ा है और बेटे को मिले सम्मान और कीर्ति चक्र पर तो माहिरा से अधिक अधिकार उन लोगों का है. कीर्ति चक्र को माहिरा की सास हमेशा अपने हाथ में ही लिए रहती थी.

माहिरा पूरे निस्स्वार्थ भाव से सासससुर का ध्यान रख रही थी. वह सुबह 5 बजे उठ कर नाश्ता बना कर रखती. ससुर को डायबिटीज थी अत: उन के लिए दलिया बनाती और स्कूल से लौटने के बाद लंच में क्या बनाना है उस की तैयारी भी कर के जाती ताकि बाद में उसे कम मेहनत करनी पड़े. सास भी लंच बन जाने का इंतजार ही करते मिलती थी. खाना बनाने और घर के किसी काम में सास का कोई सहयोग नहीं मिलता था.

मगर आज तो माहिरा पूरे 6 बजे जागी और नहाधो कर सिर्फ ब्रैड खा कर स्कूल चली गई. जाते समय सासूमां से लंच बना कर रखने के लिए कह गई और हो सकता है कि उसे आने में देर हो जाए इसलिए सासूमां से डिनर की तैयारी भी कर के रख लेने को कह गई.

अभी तक तो सासससुर माहिरा के फ्लैट में मुफ्त की रोटियां तोड़ रहे थे पर आज थोड़ा सा ही काम कह दिए जाने पर तिलमिला गए.

जब माहिरा वापस आई तो उस ने देखा कि उस की सास ने घर का कोई काम नहीं निबटाया है. उस के माथे पर सिकुड़न तो आई पर उस ने शांत स्वर में सास से सवाल किया तो सास ने सिर दर्द का बहाना बना दिया. बेचारी माहिरा को ही खानेपीने का प्रबंध करना पड़ा. सासससुर आराम से खाना खा अपने कमरे में सोने चले गए .

अगले दिन भी माहिरा ने जाते समय सामान की एक लंबी लिस्ट अपने ससुर को पकड़ाते हुए कहा कि सोसायटी की शौप में सामान नही मिल रहा है इसलिए वे चौक बाजार जा कर सारा सामान ले आए. माहिरा ने सामान लाने के लिए पैसे भी ससुर को दे दिए और स्कूल चली गई.

माहिरा जब स्कूल से थकी हुई आई तब देखा कि ससुर टीवी के सामने बैठे हुए किसी बाबा को कपाल भाति करते हुए देख रहे हैं और बगल वाले शर्माजी से अपने बेटे की शहादत और बेटे के लिए खुद किए गए त्याग के बारे में बातें कर रहे हैं. ससुर की बातों में बेटे की शहादत का गर्व तो था ही पर उस में वे अपने योगदान का उल्लेख करना भी नहीं भूल रहे थे.

माहिरा ने देखा कि सामान का थैला खाली ही रखा हुआ है. वह सम?ा गई कि ससुर मार्केट नहीं गए. उस ने निराशाभरे स्वर में पूछा तो जवाब मिला कि गए थे पर दुकान ही बंद थी. ससुर के इस जवाब पर माहिरा खीज गई थी पर प्रत्यक्ष में कुछ कह न सकी.

घर का माहौल विषादपूर्ण था. माहिरा अब विडो थी. अभी उस का पूरा जीवन शेष था जिसे वह अच्छे और शांतिपूर्ण ढंग से जीने का पूरा प्रयास कर रही थी पर सासससुर का अपने बेटे के लिए दिनरात रोनाकल्पना और उस की शहादत पर अपना अधिकार दिखाना, माहिरा की सैलरी में भी उन का अपना हिस्सा मिलने की उम्मीद रखना तो ठीक न था.

पिछले कुछ दिनों से सासससुर की टोकाटाकी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी पर उस दिन तो मामला बिगड़ ही गया जब माहिरा लोकेश के साथ उस की बाइक पर फिर बैठ कर आई. हालांकि लोकेश अंदर नहीं आया पर सास ने माहिरा को डांटते हुए कहा, ‘‘मना करने के बाद भी इस आदमी की बाइक पर लिफ्ट ले कर आती हो… एक विधवा को ये चरित्र शोभा नहीं देता और फिर लोग क्या कहेंगे?’’

इस से आगे भी सास बहुत कुछ कहना चाह रही थी पर आज माहिरा ने सासससुर को आइना दिखाना ही ठीक सम?ा. बोली, ‘‘मु?ो लोग क्या कहेंगे और क्या नहीं, इस की चिंता आप लोग मत करो. मैं कबीर की विधवा हूं और मरते दम तक कोई गलत कदम नहीं उठाने वाली मुझे आप लोगों से मानसिक शांति मिलने की आशा थी पर आप लोग तो शांति छीनने में ही लगे हो,’’ माहिरा की आंखें नम हो चली थीं.

उस ने बोलना जारी रखा और आगे कहा, ‘‘आप लोग कबीर के मांबाप हैं यानी मेरे भी मांबाप के समान ही हैं और मैं आप लोगों के मानसम्मान में कोई कमी नहीं रख रही थी पर आप लोग निरंतर मेरी कमियां ही निकालने में लगे हुए हैं. आप ने अपना बेटा खोया है तो मैं ने भी अपना पति खोया है. हमारे दोनों के दुख में कोई तुलना नहीं करी जा सकती पर आप लोग कहीं न कहीं अपने दुख को बड़ा बता कर महान बन जाना चाहते हैं… चलिए ठीक है आप ही महान बन जाइए पर महानता और बड़ापन सिर्फ बातों से नहीं आता. जब भी मैं ने आप लोगों से घर के काम में सहयोग की अपेक्षा करी आप लोगों ने कोई न कोई बहाना बनाया. और तो और मेरे चरित्र को भी खराब बताने की चेष्टा करी. लोकेश मेरा सहकर्मी है इस से ज्यादा कुछ नहीं पर आप लोगों की सोच को मैं क्या कहूं? पर इतना तो निश्चित है कि हम लोग एकसाथ नहीं रह सकते. आप दोनों बेशक इस फ्लैट में रहिए मैं कहीं और कमरा देख लेती हूं. हां महीने की एक तारीख को आप लोगों के पास पूरा खर्चा भेज दिया करूंगी,’’ कह कर माहिरा अपने कमरे में चली गई और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

सासससुर सन्नाटे में ही बैठे रह गए. शाम को करीब 7 बजे माहिरा अपने कमरे से बाहर निकली तो उसे सासससुर कहीं दिखाई नहीं दिए. उन का सामान भी गायब था. माहिरा ने देखा कि टेबल पर एक परचा रखा हुआ था. उस ने ?ापट कर उसे उठाया और सरसरी निगाह से पढ़ने लगी. लिखा हुआ था- बहू तुम्हें सम?ाने में शायद हम से कुछ गलती हुई जो तुम्हारे चरित्र पर सवाल उठाया और तुम्हारे रहनसहन में टोकाटाकी करी. ऐसा शायद हमारेतुम्हारे बीच का जैनरेशन गैप होने के कारण हुआ.

तुम्हारी दोस्तों से होने वाली वीडियो कौल्स में कुछ गलत नहीं, बेटे को खोने के दुख में हम ज्यादा ही स्वार्थी और आत्मकेंद्रित हो गए थे. तुम एक वीर की विधवा हो और तुम्हारे दुख की तुलना संसार के किसी भी दुख से नहीं करी जा सकती. हमें खेद है कि हम ने तुम्हें मानसिक रूप से परेशान किया. हम चाहते हैं कि स्कूल खोलने का कबीर का सपना तुम पूरा कर सको और अब हम अपने मकान में वापस जा रहे हैं. हां हम यदाकदा और खासतौर से कबीर के जन्मदिन पर वापस तुम से मिलने जरूर आएंगे. आशा है तुम भी एक शहीद के मातापिता का दुख सम?ागी.

माहिरा यह पढ़ कर सोफे पर बैठ गई. उस ने पलकें उठाई और दीवार पर लगी कबीर की तसवीर की ओर देखा, तस्वीर पर कबीर को मिला हुआ कीर्ति चक्र अपनी पूरी शानोशौकत के साथ चमक और दमक रहा था. माहिरा ने महसूस किया कि कबीर की तसवीर मुसकरा उठी है और माहिरा से कह रही है कि यह सफर बहुत है कठिन मगर न उदास हो मेरे हमसफर.’’

पीछे मुड़ कर : आखिर विद्या ने अपने इतने अच्छे पति को क्यों ठुकराया

शाम को 7 बजते ही दफ्तर के सारे मुलाजिम बाहर की ओर चल पड़े. अभिनव भी अपनी सीट से उठा और ओवरसीयर के कमरे के पास जा कर खड़ा हो गया.

‘‘क्या हुआ अभिनव तुम गए नहीं? क्या आज भी ओवरटाइम का इरादा है?’’

‘‘हां बड़े साहब, आप तो जानते ही हैं विद्या की ट्यूशन की फीस देनी है फिर उन की किताबे, कापियों का खर्च, पूरे 15-20 हजार का खर्च हर महीने होता है. इतनी सी तनख्वाह में कैसे गुजारा हो सकता है, ओवरटाइम नहीं करूंगा तो भूखे मरना पड़ेगा.’’

जवाब में ओवरसीयर बाबू मुसकरा दिए, ‘‘यह तो हरजाना है अभिनव बाबू एक पढ़ीलिखी लड़की से शादी रचाने का और उस पर उसे और आगे पढ़ाने का.’’

‘‘हरजाना नहीं है बाबू, यह मेरा फर्ज है. विद्याजी में हुनर है, बुद्धि है, प्रतिभा है. मैं तो सिर्फ एक जरीयामात्र हूं उन के ज्ञान को उभार

कर लोगों तक लाने का और फिर जब वे जीवन में कुछ बन जाएंगी तो नाम तो मेरा भी ऊंचा

होगा न.’’

‘‘हां वह तो है आने वाले कल को सजाने के लिए जो तुम अपना आज दांव पर लगा रहे

हो उस की मिसाल बड़ी मुश्किल से ही मिलेगी मगर ऐसे सपने भी नहीं देखने चाहिए जो तुम

से तुम्हारी नींद ही चुरा लें. कभीकभी इंसान को अपने बारे में भी सोचना चाहिए जो तुम नहीं कर रहे.’’

‘‘मेरी सोच विद्याजी से शुरू हो कर वहीं पर खत्म हो जाती है सर, मुझे हर हाल मे विद्याजी को वहां तक पहुंचाना है जहां की वे हकदार हैं. शादी के बंधन ने उन्हें एक क्षण के लिए बांध जरूर दिया था मगर मेरे होते उन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता.’’

9 बजे पारी खत्म कर के अभिनव बाजार में कुछ छोटीबड़ी खरीदारी करते हुए घर पहुंच गया. दरवाजे को हलके से खोल कर उस ने सुनिश्चित किया कि विद्या अपनी पढ़ाई में मशगूल थीं. फौरन हाथमुंह धो कर वह रसोई में घुस गया. खाना बना कर उस ने परोसा और विद्या को खाने के स्थान पर आने के लिए आवाज दी.

‘‘बहुत थक गई होगी न आज, सारा दिन किताबों में सिर खपाना, कभी पढ़पढ़ कर लिखना कभी लिखलिख कर पढ़ना. मेरी तो समझ से ही दूर की बात है.’’

‘‘हां थक तो गई, अभी नोट्स बनाने हैं फिर सुबह सर को दिखाने हैं. तुम भी तो थक गए होंगे न, सारा दिन मेहनत करते हो मेरे लिए.’’

‘‘तुम ने इतना सोच लिया मेरे बारे में मेरे लिए इतना ही बहुत है. अब तुम आराम से अंदर जा कर पढ़ो. मैं कूलर में पानी भर देता हूं और दूध का गिलास भी सिरहाने रख देता हूं. रात को कुछ चाहिए तो आवाज दे देना.’’

‘‘तुम भी अंदर सो सकते हो, बाहर गरमी…’’

‘‘बाहर मौसम बहुत खुशनुमा है और मेम साहब जब तक आप कुछ बन नहीं जातीं मेरे लिए बाहर और अंदर के मौसम में कोई अंतर नहीं है.’’

घर के आंगन में चारपाई लगा कर हाथ में अखबार से हवा करते हुए अभिनव लेट गया. पास की चारपाई पर पड़ोस में रहने वाले शुभेंदु दादा भी आ कर पसर गए. फिर अभिनव से पूछा, ‘‘अगर आप बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? मुझे तो मेरी बीवी घर से निकाल देती है मगर आप क्यों बाहर आ कर सोते हैं?’’

अभिनव मुसकरा दिया, ‘‘आप रोज मुझसे यह सवाल करते हैं और रोज मैं आप को यही जवाब देता हूं,’’ बाहर नीले आकाश के नीचे, तारों की छांव में सपने साफ दिखते हैं, दूर तक फैला  खुशी का साम्राज्य, हंसी की ?ाल उस पर खुशी की नैया और उस नाव में मैं और विद्याजी आगे बढ़ते ही जा रहे हैं. पीछे मुड़ कर देखने का भी समय नहीं होता. बहुत मजा आता है दादा ऐसे सपनों में जीने का इसलिए मै बाहर सोता हूं.’’

‘‘कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं भी तो बाहर सोता हूं मुझे ऐसे सपने क्यों नहीं आते? अच्छा एक और जिज्ञासा थी, कई बार आप से पूछा भी मगर आप टाल गए, वादा कीजिए कि आज नहीं टालेंगे,’’ दादा ने कहा.

‘‘पूछिए दादा, अपना सवाल फिर से दोहरा दीजिए.’’

‘‘आप अपनी पत्नी के लिए इतना कुछ क्यों करते हैं? सुबह से रात तक उन की छोटीबड़ी हर जरूरत का ध्यान रखना, खुद तकलीफ में रह कर उन्हें आराम से रखना, कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना, ऐसा करने की कोई खास वजह लगती है?

‘‘वजह कोई नहीं बस यह एक तरह का पश्चात्ताप है दादा.’’

‘‘पश्चात्ताप,’’ दादा की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी.

‘‘हां दादा. मेरा एक ?ाट, मेरा एक फरेब जिस ने मुझे विद्या की नजरों में गिरा दिया था. उसी का प्रायश्चित्त है यह. बात उन दिनों की है जब हमारी शादी की बात चल रही थी. मैं ने विद्या को पहली बार देखा तो बस देखता ही रह गया. लगा मानो वक्त थम कर विद्या पर ही अटक गया हो. मुझे अपनी जिंदगी की मंजिल सामने नजर आ गई थी. बात आगे बढ़ी तो पता चला कि विद्या पढ़नेलिखने में बहुत होशियार है और उसे एक पढ़ालिखा वर चाहिए. कहां उस की चाहत और कहां मैं जिस ने स्कूल की शिक्षा भी पूरी नहीं की थी. मैं परेशान हो कर इधरउधर घूमताफिरता  रहता था कि किसी ने झूठ की राह पर चलने की सलाह दी और फिर मानो होनी ने भी झूठ में मेरा साथ दिया. मैं एक दिन पास के ही एक बैंक में किसी काम से गया था कि बाहर मुझे विद्या नजर आई तो मैं ने कहा कि आप यहां विद्याजी, बहुत ही सुखद संयोग है. मैं ने विद्या से वहां इस तरह से मिलने की कभी अपेक्षा नहीं की थी.

‘‘विद्या संकुचाते हुए बोली कि तो आप इस बैंक में काम करते हैं… मां बता रही थीं कि शायद आप किसी बैंक में अफसर हैं लेकिन आप यहां हैं इस की मुझे जानकारी नहीं थी.

‘‘मैं ऐसे किसी प्रश्न के लिए तैयार न था लेकिन साथ ही मैं विद्या का साथ एक पल के लिए भी नहीं खोना चाह रहा था. मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि मैं क्या उत्तर दूं. बस पता नहीं क्या दिमाग में आया कि मैं बोल पड़ा कि हां मैं इसी बैंक में काम करता हूं. आजकल मेरी पोस्टिंग पास के एक गांव में है. आप तो जानती ही होंगी कि हम बैंक वालों के 2-3 साल किसी गांव की शाखा में गुजारने जरूरी होते हैं.’’

‘‘मैं जानती हूं. आप कितने पढे़लिखे हैं, स्मार्ट हैं फिर भी आप ने मुझे पसंद किया.’’

‘‘आप तो मुझे शर्मिंदा कर रही हैं,’’ मैं ने जवाब दिया.

कुछ क्षण रुक कर विद्या बोली, ‘‘हमारी लगभग चट मंगनी पट ब्याह वाली तरह

शादी हो रही है. एकदूसरे को सम?ाने का, परखने का समय भी नहीं है इसलिए इतनी जल्दी आप से इस विषय पर बात कर रही हूं, मैं चाहूंती तो किसी के जरीए आप को यह संदेश पहुंचवा सकती थी मगर मैं सीधे बात करने में यकीन करती हूं. आप से एक वादा चाहिए था. अगर इजाजत हो तो कहूं?’’

‘‘हां कहिए न. निस्संकोच हो कर कहिए.’’

‘‘मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, बहुत बड़ी डाक्टर बनना चाहती हूं, दूर तक उड़ना चाहती हूं. क्या आप मु?ो इस का मौका देंगे? आप मेरे पर तो नहीं कतरेंगे?’’

‘‘नहींनहीं विद्याजी. इस में सोचविचार, नानुकुर का कोई प्रश्न ही नहीं है और फिर डाक्टर बन कर आप न सिर्फ अपने परिवार का नाम रोशन करेंगी बल्कि समाज सेवा भी कर सकती हैं,’’ मैं ने सहज भाव से जवाब दिया.

विद्या खुशी से फूली न समाई, ‘‘मेरी इंग्लिश थोड़ी कमजोर है. छोटे शहर

से हूं न, आप तो इतने बड़े कालेज से एमबीए हैं, तो क्या मैं आशा करूं कि इंग्लिश तो आप मुझे पढ़ा ही देंगे? बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

‘‘क्यों नहीं विद्याजी,’’ मैं ने यंत्रवत ढंग से थूक निगलते हुए जवाब दिया.

‘‘फिर क्या हुआ,’’ दादा की आंखों से जैसे नींद उड़ चुकी थी.

‘‘शादी की रात को ही मेरा भांड़ा फूट गया जब मेरे कुछ दोस्तों ने बातोंबातों में मेरी सचाई बयां कर दी. उन्होंने बता दिया कि मैं ने तो स्कूल के सारे कमरे भी नहीं देखे थे. सुन कर विद्या बिफर गई कि इतना बड़ा फरेब, धोखा और झूठ के बारे में उस ने सोचा ही नहीं था. उस ने मुझे बहुत जलील किया. मेरे पास उस को देने के लिए कोई जवाब न था सिवा इस के कि मैं उस से बेइंतहा प्यार करता हूं और यह झूठ मुझे एकमात्र हथियार जरीया नजर आया जो मुझे उस तक पहुंचा सकता था.

‘‘इस के आगे की कहानी मैं समझ गया अभिनवजी. आप ने उसे आगे पढ़ाने का अपना वादा पूरा करने की ठानी और अपना दिनरात एक कर दिया. विद्या को भी मन मार कर इसी में संतोष करना पड़ा, उस के पास इस से बेहतर कोई विकल्प भी नहीं था.’’

सुबह उठते ही अभिनव ने चाय बनाई और अखबार ले कर विद्या के कमरे में दाखिल हो गया, ‘‘तुम्हारे लिए चाय और अखबार दोनों जरूरी हैं. चाय फुरती के लिए और अखबार चुस्ती के लिए, अखबार में देशविदेश की खबरें तुम्हें चुस्त रखेंगी. आगे बढ़ने के नएनए रास्ते सुझाएंगी.’’

विद्या ने अखबार पर नजर डाली और

एक पन्ने पर छपी खबर देख कर ठिठक गई, ‘‘अभिनव दिल्ली में नीट, मेरा मतलब है

मैडिकल की पढ़ाई वालों का एक नया केंद्र खुला है. वहां पर समयसमय पर नोट्स बना कर दिए जाएंगे जो मु?ा जैसे प्रतियोगी परीक्षा वालों के लिए बहुत काम के होंगे, मगर…’’ विद्या बोलतेबोलते रुक गई.

‘‘हां तो दिक्कत क्या है. मैं ला कर दूंगा तुम्हें नोट्स…’’

‘‘रहने दो अभिनव, बहुत खर्च है इस में. लाख सवा लाख देना हमारे बस का नहीं.’’

अभिनव सोच में पड़ गया, अभी लैपटौप खरीदने के लिए दफ्तर से कर्ज लिया वह भी उतारना है, उस के अलावा पहले ही 2-3 लाख का लोन है. ओवरसीयर साहब चाह कर भी मदद नहीं कर पाएंगे. इसी उधेड़बुन में अभिनव कब दफ्तर पहुंच कर वापस बाहर आ गया उसे स्वयं भी पता नहीं चला. घर के लिए वापसी में स्टेशन का फाटक था.

अभिनव के कदम स्टेशन के प्लेटफौर्म की तरफ चल पड़े और एक बैंच पर जा कर रुक गए. मेरी तपस्या व्यर्थ जाएगी. क्या विद्या की पढ़ाई का रिजल्ट उस की मेहनत के अनुसार नहीं आएगा? क्या विद्या एक सफल और कामयाब डाक्टर नहीं बन पाएगी? अभिनव स्वयं से ही बातें कर रहा था कि एक स्पर्श ने उस की तंद्रा भंग कर दी. अभिनव उस अपरिचित को पहचानने का प्रयत्न कर रहा था.

‘‘पहचान लिया या बताना पड़ेगा?

निहाल याद है या भूल गया? तारानगर सरकारी विद्यालय.’’

अभिनव को दिमाग पर ज्यादा जोर देने

की जरूरत नहीं पड़ी. उठ कर गले लगते हुए बोला, ‘‘तुझे कैसे भूल सकता हूं भाई तेरी वजह से बहुत पिटा हूं मैं, पेड़ पर चढ़ कर आम तोड़ कर भाग जाता था और पिटता था मैं, मगर फिर मिल कर आम खाने का मजा भी कुछ और ही होता था. हम कौन सी कक्षा तक साथ थे. 7वीं तक तूने स्कूल छोड़ा और मु?ो निकाल दिया

गया. तब से इस स्टेशन ने मुझे आश्रय दिया. मुझे देख कर तुझे पता चल ही गया होगा कि मैं यहां कुली हूं.’’

अभिनव मुसकरा दिया. उस की शून्य आंखें उस की व्यथा बयां कर रही थीं.

‘‘तू यहां स्टेशन पर क्या कर रहा है? कोई आ रहा है या जा रहा है?’’

‘‘न कोई आ रहा है न ही कोई जा रहा है… जिंदगी ही थम सी गई है.’’

‘‘थोड़ी देर रुक, मैं इस ट्रेन से उतरे यात्रियों को टटोलता हूं, कोई ग्राहक आया तो ठीक वरना फौरन आता हूं.’’

थोड़ी ही देर में निहाल अभिनव के पास था, ‘‘आजकल हर सूटकेस में पहिए लगे होते हैं भाई. हजारों का टिकट खरीद कर आने वाले स्टेशन पर कुली को पैसे देने में हजार बार सोचते हैं. पता नहीं इन चलतेफिरते सूटकेसों का आविष्कार हम जैसों की मजदूरी पर लात मारने के लिए किस ने किया था? खैर, तू बता क्या हुआ तेरी जिंदगी में तारानगर कब और कैसे छोड़ कर यहां… बसा शादीवादी हुई या मेरी तरह कुंआरा है?’’

‘‘एक ही तो काम किया है मैं ने मेरे भाई, शादी की है या यों कहो कि मौसी ने मेरा घर बसाने के लिए मुझे मंडप में बैठा दिया और उधर तेरी भाभी का भी पुस्तकों से रिश्ता तोड़ कर मु?ा से करवा दिया,’’ अभिनव ने अपने जीवन के हर सफे को पढ़ कर सुन दिया.

‘‘कितना बड़ा काम किया है तूने अभिनव. भाभी की पढ़ाई की लौ को जलाए रखने के

लिए उन्हें डाक्टर बनाने के लिए स्वयं को भट्टी में झांक दिया.’’

‘‘इस में मेरा ही स्वार्थ है, एक दिन जब पढ़लिख कर वह लोगों का इलाज करेगी, औपरेशन कर के लोगों को ठीक करेगी, ऊंची कुरसी पर बैठेगी तो लोग कहेंगे कि देखो जो यह सफेद कोट पहन कर, बड़ी सी गाड़ी में बैठ कर जा रही है यह अभिनव की पत्नी है. मैं तो सारा कामकाज छोड़ कर या तो दिनरात आराम करूंगा या उस के आगेपीछे मंडराता रहूंगा, लोग कहेंगे कितना खुशहाल है अभिनव. जब ऐसी बातें मेरे कानों तक आएंगी तो उस समय मेरा चेहरा देखने लायक होगा, गर्व से फूल कर सीना दोगुना हो जाएगा,’’ कहतेकहते अभिनव की आंखों में चमक आ गई.

निहाल मुसकरा दिया, ‘‘मेरी कामना है कि ऐसा ही हो. फिलहाल तुम्हें और पैसे कमाने हैं तो मेरे पास तो उस के लिए एक ही उपाय है. रात को 11 बजे के बाद तू अगर स्टेशन आ सके तो मैं अपना कुली का बैज तु?ो दे सकता हूं. तू सामान बाहर तक छोड़ना और कई बार उन्हें होटल या गेस्टहाउस के बारे में भी बताना, वहां से अच्छा कमीशन मिल सकता है.’’

निहाल की सोच सही साबित हुई. अभिनव रोज रात को स्वयं को स्टेशन पर खपाता और अतिरिक्त कमाए पैसे से विद्या के लिए नोट्स वगैरह का इंतजाम करता. विद्या को मन मांगी मुराद मिल गई थी. उस की मेहनत ने और गति प्राप्त कर ली थी. धीरेधीरे उस के और उस की मंजिल के बीच का फासला कम होता जा रहा था.

उस रात जब अभिनव घर पहुंचा तो बाहर मौसी उस का इंतजार कर रही थी, ‘‘बहू से पता चला कि तू रोज रात को काम खत्म कर के कहीं बाहर चला जाता है. कहीं कोई नशावशा तो नहीं करता? कभी अपने स्वास्थ्य को भी देखा है, दिनबदिन बुझता जा रहा है. दादा ने बताया तू सुबह तड़के से देर रात तक…’’

‘‘नहीं मौसी बस दोस्तों के साथ बैठ कर थोड़ी गपशप कर लेता हूं, थकावट दूर हो जाती है,’’ अभिनव ने मौसी की बात काट कर अपनी कमीज बदलते हुए कहा.

‘‘1 मिनट अभि तेरे बदन पर यह लाल निशान? क्या करता है तू?’’

‘‘कुछ नहीं मौसी किसी कीड़ेमकोड़े ने काट लिया होगा. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘यह तू क्या कर रहा है अभि बेटा, क्यों अपनेआप को दांव पर लगा रहा है? क्यों बहू की अभिलाषाओं को पाने के लिए स्वयं को चलतीफिरती लाश बना रहा है. ऐसा मत कर बेटा, वक्त के पलटने से इंसान भी पलट सकता है, मंजिल पर पहुंच कर पीछे मुड़ कर देखने वाले विरले ही होते हैं.’’

अभिनव मुसकरा दिया, ‘‘विद्या ऐसी नहीं

है मौसी, विद्या कुछ बन गई तो मेरे साथ तेरे

दिन भी फिर जाएंगे. तुझे भी अस्पताल में नर्स बनवा दूंगा.

‘‘तेरी ऐसी की तैसी, मुझे नर्स बनाएगा.

मैं तो घर पर बैठ कर राज करूंगी राज,’’ मौसी भी कम न थी. उस के पोपले मुंह से हंसी छलक रही थी.

आखिरकार वह दिन आ ही गया जब विद्या के अपनी मुराद मिल गई और अभिनव का स्वप्न पूर्ण हो गया. दोनों की ही मेहनत रंग लाई और विद्या अपने इम्तिहान में अच्छे अंकों से उतीर्ण हो गई. रिजल्ट आने के बाद उसे दूसरे शहर के मैडिकल कालेज मे दाखिले के लिए जाना पड़ा और दाखिले के पश्चात होस्टल में कमरा ले कर रहना पड़ा.

4 साल के लिए विद्या अभिनव की नजरों से दूर हो गई. दिनरात मेहनत कर के अभिनव विद्या की फीस, किताबकापियों और रहने के खर्च का बो?ा उठाता और हर माह नियत समय पर आवश्यकता से अधिक राशि बिना तकाजे के भेजता. लगातार पड़ते इस बो?ा से धीरेधीरे कब वह स्वयं पर बो?ा बन गया उसे पता ही नहीं चला.

विद्या का फोन कभी भूलेभटके ही आता, मगर महीने के अंतिम सप्ताह में अवश्य आता. शायद यह अभिनव के एक प्रकार का अनुस्मारक होता, अभिनव को विद्या के इस कौल का भी इंतजार रहता. चंद मिनटों की यह बातचीत अभिनव को प्रफुल्लित कर देती और उस में एक नई ऊर्जा का संचार कर देती.

एक दिन जब विद्या का फोन आया तो उस में अभिनव को विद्या के चिंतित होने का बोध हुआ, ‘‘क्या बात है आज डाक्टर साहिबा कुछ परेशान लग रही हैं? सब खैरीयत तो है?’’

‘‘कुछ नहीं बस यों ही, जरा काम का बोझ था,’’ विद्या ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘काम का बो?ा या कुछ और?’’ अभिनव ने आशंकित हो कर पूछा. उसे लग रहा था कि हो न हो बात कुछ और ही है.

‘‘यों ही. कुछ छात्रों को जापान सरकार ने जापान आने का निमंत्रण दिया है. उन छात्रों मे एक नाम मेरा भी है. वहां की रैडिएशन तकनीक के बारे में जानने का अच्छा अवसर है, लेकिन मैं ने मना कर दिया.’’

‘‘क्यों?’’ अभिनव ने हैरान हो कर फौरन पूछा.

विद्या एक पल के लिए खामोश हो गई फिर धीरे से बोली, ‘‘बिना मतलब के कम से कम डेढ़दो लाख का खर्च है हालांकि ज्यादातर खर्च जापान सरकार ही कर रही है, फिर भी इतना पैसा तो चाहिए ही होगा.’’

अभिनव खामोश हो गया, ‘‘मैं कोशिश करता हूं विद्या, कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा.’’

अभिनव ने इधरउधर हाथपैर मारने शुरू कर दिए. अपने हर जानपहचान वाले से उस ने कुछ न कुछ उधार लिया हुआ था. लिहाजा, हर जगह से उसे टका सा जवाब मिला. थकहार के उस ने निहाल के पास पहुंच कर अपना रोना रोया.

‘‘इतने पैसे कहां से लाएगा अभि? चोरी करेगा, डाका डालेगा या अपनेआप को बेच देगा?’’ निहाल ने ?ाल्ला कर कहा.

‘‘अपनेआप को बेच दूंगा निहाल. खून का 1-1 कतरा दिलजिगर सब बेच दूंगा.’’

निहाल खामोश हो गया फिर हौले से फुसफुसाया, ‘‘ज्यादा तो पता नहीं लेकिन सुना है कई लोग अपनी एक किडनी बेच देते हैं. यहां के अस्पताल का एक कंपाउंडर मेरी जानपहचान का है, वही बता रहा था.’’

‘‘तू मु?ो उस के पास ले चल, मैं अपनी किडनी बेच दूंगा, विद्या की सफलता की राह में पैसा बीच में नहीं आना चाहिए.’’

निहाल अवाक हो कर अभिनव को ताक रहा था, ‘‘यह तू क्या कह रहा है. बात में से बात निकली तो मैं ने जिक्र कर दिया.’’

‘‘नहीं निहाल तूने तो मुझे पर बहुत बड़ा एहसान किया है. एक बार तू मुझे उस के पास

ले चल.’’

अभिनव के बारबार कहने से अनमने ढंग से निहाल अभिनव को अस्पताल ले गया.

‘‘यह बहुत ही रिस्की मामला है. पकड़े गए तो सब के सब जेल की हवा खाएंगे,’’ कंपाउंडर फुसफुसाते हुए बोला.

‘‘आप का एहसान होगा भाई. मुझे पैसों की सख्त जरूरत है,’’ अभिनव ने रोंआसे स्वर में कहा.

कंपाउंडर थोड़ी देर के लिए ओ?ाल हो गया. लौट कर आया तो हाथ में एक परची थी जिस पर कोई पता लिखा था, ‘‘मैं ने बात कर ली है, अगले शनिवार को तुम यहां चले जाओ. पूरी प्रक्रिया में हफ्ता 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’’

‘‘हफ्ता 10 दिन,’’ अभिनव सोच में पड़ गया और बोला, ‘‘क्या कुछ पैसा मु?ो पहले मिल सकता है?’’

‘‘कोशिश कर के तुम्हें कुछ पैसा एडवांस दिला दूंगा, आखिर तुम निहाल के खास जानने वाले हो.’’

अभिनय के लिए आने वाले दिन उस के सब्र का इम्तिहान लेने वाले थे.

चंद ही दिनों के इंतजार के बाद निहाल ने उसे सूचना दी कि उन्हें पैसे मिल गए हैं और उसे ले कर वह अभिनव के दफ्तर ही आ रहा है. निहाल ने आते ही रुपयों का एक लिफाफा अभिनव के सामने रख दिया. अभिनव की आंखों में खुशी के आंसू थे. उस ने विद्या को फोन मिलाने के लिए उठाया ही था कि घंटी घनघना उठी. दूसरी ओर विद्या थी. उस की आवाज में एक अजीब सा उत्साह था, ‘‘अभिनव तुम तो इंतजाम कर नहीं पाए लिहाजा मैं ने अपने जापान जाने के खर्चे का इंतजाम खुद ही कर लिया, तुम बस मेरा पासपोर्ट जल्द से जल्द मुझे भेज दो.’’

‘‘मगर कैसे?’’ अभिनव जानना चाह रहा था.

‘‘मेरे टीम लीडर डाक्टर विश्वास ने मेरा सारा खर्च उठाने का फैसला किया है, वे मुझे बहुत पसंद करते हैं. न जाने उन का यह एहसान मैं कैसे चुकाऊंगी,’’ इस के पहले कि अभिनव कुछ और कहता या पूछता विद्या ने फोन काट दिया.

अभिनव ने लिफाफा निहाल के हाथों में थमा दिया, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं, मेरी तपस्या पीछे रह गई. विद्या ने आगे बढ़ने का जरीया ढूंढ़ लिया.’’

विद्या के विदेश जाते ही अभिनव का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा. दिनरात खांसखांस कर उस का बुरा हाल था और उस पर सीने में दर्द ने उस की रातों की नींद उड़ा दी थी. एक दिन जब बलगम में खून अत्यधिक मात्र में आ गया तो निहाल जबरदस्ती उसे सरकारी अस्पताल में डाक्टर को दिखाने ले गया. डाक्टरों ने सारी जांच कर के उस के हाथ में एक रुक्का पकड़ा दिया जिस पर बहुत कुछ लिखा था- मगर जो थोड़ा कुछ सम?ा आया उस के मुताबिक अभिनव को एक गंभीर संक्रामक बीमारी थी और उस के फेफड़े पूरी तरह से काम करना छोड़ चुके थे. डाक्टरों ने कई अन्य टैस्ट लिख कर दिए और घर पर अच्छे खानपान पर जोर डालने को कहा.

निहाल ने विद्या को सूचित करने की सलाह दी मगर अभिनव न माना. उस की पढ़ाई चल रही है. अभी विदेश में ट्रैनिंग कर के लौटी है. उस का ध्यान बांटना ठीक नहीं है. उसे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने दो. अभिनव के मना करने के बावजूद भी निहाल ने विद्या से संपर्क साध लिया और अपना परिचय दे कर अभिनव के बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में बताया.

विद्या ने कोई संवेदना या गंभीरता प्रकट नहीं की और इस स्थिति के लिए अभिनव पर ही दोष जड़ दिया, ‘‘जो इंसान अपना खयाल नहीं रखता, जीवनचर्या ठीक नहीं रखता उस का हश्र तो ऐसा ही होता है निहालजी, मैं फिलहाल तो अपनेआप में ही इतना व्यस्त हूं कि इन सब चीजों के लिए मेरे पास वक्त नहीं और न ही मैं अब तक डाक्टर बनी हूं जो आप को कोई इलाज बता सकूं. आप वहीं के सरकारी हस्पताल के डाक्टर की सलाह पर अमल कीजिए.’’

‘‘फिर भी मैं आप को डाक से रुक्का भेज रहा हूं, आप उसे अस्पताल में दिखवा दीजिएगा और दवाई वगैरह के बारे में राय भेज दीजिएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ विद्या ने बात काटते हुए कहा.

‘‘विद्या ने क्या कहा निहाल? मुझे यकीन है कि तूने जरूर फोन किया होगा.’’

‘‘नहीं,’’ निहाल की मानो चोरी पकड़ी गई थी. निहाल थोड़ी देर के लिए खामोश हो गया, फिर बोला, ‘‘हां मैं ने किया था, मेरी बात हुई थी.’’

‘‘क्या कहा विद्या ने?’’

‘‘कहना क्या था बस बेचारी फूटफूट कर रो पड़ी. कहने लगी अब आप ही ध्यान रखिए अभिनव का और आप कहें तो मैं वापस आ जाऊं. मैं ने बिलकुल मना कर दिया. ठीक किया न?’’

आंसू की एक बूंद अभिनव की पलकों की छोर से बह निकली जिसे उस ने फौरन पोंछ दिया, ‘‘देखा निहाल इसे कहते हैं प्यार, दिल से दिल का रिश्ता, थोड़े ही दिनों की बात है विद्या मेरे पास होगी, हम अपनी जिंदगी की शुरुआत करेंगे, जो गुनाह मैं ने उस से ?ाठ बोल कर किया था उस का पश्चात्ताप पूरा होगा.’’

आखिरकार विद्या एक दिन अभिनव के सामने थी. अभिनव का स्वास्थ्य अत्यधिक खराब था मगर विद्या को देख उस की चेतना मानो सामान्य हो गई. होंठों पर एक मुसकान फैल गई और उस ने अपनी बांहें आगे कर दीं.

विद्या ठिठक गई, ‘‘अभिनव तुम्हें ऐक्टिव टीबी है जो संक्रामक है. मु?ो तुम्हारे पास नहीं आना चाहिए, अगर मुझे भी यह बीमारी हो गई तो बहुत बड़ा व्यवधान हो जाएगा. तुम ठीक हो जाओ फिर…’’

‘‘बिलकुल ठीक कह रही हो विद्या, मैं ठहरा अनपढ़ गंवार इतना इल्म होता तो मैं डाक्टर न बन जाता. जब तक मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाता तुम्हारे करीब नहीं आऊंगा.’’

विद्या ने संयत रहने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘ठीक है मैं चलती हूं.’’

उस दिन के बाद शायद ही विद्या कभी वापस आई, अभिनव की पथराई आंखें उस की राह तकती रहतीं. उस की सेहत धीरेधीरे उस की जिंदगी का साथ छोड़ रही थीं. निहाल और दादा उस की देखभाल करते. उड़तीउड़ती खबर भी आती कि विद्या और डाक्टर विश्वास एकदूसरे के करीब आ रहे हैं.

अभिनव मुसकरा कर इन खबरों को टाल देता, ‘‘निहाल, विद्या सिर्फ मेरी है, कामकाज के दौरान घनिष्ठता हो ही जाती है. इस का यह मतलब तो नहीं.’’ निहाल उसे तकता रहता.

एक सुबह अभिनव, निहाल और दादा घर के आंगन में बैठे हुए थे कि सामने विद्या आती नजर आई. विद्या को सामने देख कर अभिनव  की खुशी का ठिकाना न रहा. अभिनव को देख कर एक पल के लिए वह स्तब्ध रह गई. शरीर क्या था एक ढांचा था. एक क्षण के लिए सहानुभूति की लहर उस के तनबदन में दौड़ गई मगर अगले ही पल उस ने मानो स्वयं को संभाला.

अभिनव विद्या को देख कर यों प्रसन्न हुआ मानो किसी प्यासे को जल का स्रोत और भूखे को भोजन मिल गया हो, ‘‘आओ विद्या, मैं तुम्हें ही याद कर रहा था. कैसा चल रहा है?’’

‘‘ठीक ही चल रहा है अभिनव मगर तुम चाहो तो और भी अच्छा चल सकता है… मुझे जिंदगी का सही मकसद हासिल हो सकता है अगर तुम मेरा साथ दो तो.’’

‘‘मैं?’’ अभिनव हैरान था, ‘‘मैं भला तुम्हारे क्या काम आ सकता हूं? मेरे पास क्या है जो मैं तुम्हें दे पाऊं सिवा प्यार के.’’

‘‘अभिनव मैं झूठ और फरेब में विश्वास नहीं करती और न ही मैं पीछे मुड़ कर देखने में यकीन करती हूं. मेरा आज और मेरा आने वाला कल मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है न कि बीता हुआ कल,’’ विद्या ने ?ाठ और फरेब पर जोर देते हुए कहा.

अभिनव ने एक मुसकराहट फेंकी, ‘‘विद्या मैं अनपढ़ और गंवार इंसान हूं तुम इस बात को अच्छी तरह से जानती हो. मुझसे पहेलियां न बुझाओ. साफसाफ कहो मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम शायद मुझे खुदगर्ज और मतलबी सम?ागे, हो सकता है मुझसे नफरत

भी करने लग जाओ या मेरा जिक्र भी तुम्हें कुंठित कर दे, हो सकता है तुम मेरे किए को मेरा इंतकाम सम?ा, तुम्हारे दिए धोखे का बदला.’’

‘‘कैसी बात कर रही हो विद्या? मेरे धोखे में छिपा मेरा प्यार क्या तुम्हें अब तक नजर नहीं आया और फिर पतिपत्नी के रिश्ते में इंतकाम या प्रतिशोध के लिए कोई स्थान नहीं होता. याद रखना जिस रोज मु?ो तुम्हारे नाम से नफरत हो जाएगी, वह दिन मेरी जिंदगी का अंतिम दिन होगा. तुम नहीं जानती मैं तुम से कितना प्यार करता हूं.’’

विद्या ने एक फाइल आगे कर दी, ‘‘इसे पढ़ लेना.’’

‘‘अगर मैं पढ़ पाता तो आज तुम्हारे सामने गुनहगार की तरह खुद को खड़ा न पाता, तुम से नजर मिला कर बात करता, तुम्हीं बता दो क्या है यह और मुझे क्या करना है?’’

‘‘ये तलाक के कागजात हैं. मैं अपनी नई जिंदगी शुरू करना चाहती हूं डाक्टर विश्वास के साथ. मुझे तुम्हारी सहमति और हस्ताक्षर चाहिए.’’

अभिनव को काटो तो खून नहीं. बहुत कुछ कहना चाह रहा था मगर खामोश रहा. तन की  शक्ति तो क्षीण हो ही चुकी थी आज मन ने भी साथ छोड़ दिया.

‘‘क्या सोच रहे हो अभिनव? मत भूलो

कि हमारी शादी की इमारत झूठ की बुनियाद पर टिकी थी.’’

‘‘नहीं मैं तो सोच रहा था कि इतनी सी बात कहने में तुम्हें इतना संकोच क्यों हो रहा है?’’

विद्या यंत्रवत ढंग से बोली, ‘‘संकोच इसलिए क्योंकि मैं ने तुम्हारा इस्तेमाल किया है.’’

‘‘मैं ने तो प्यार किया है,’’ अभिनव ने स्फुटित स्वर के कहा.

‘‘तुम जरा भी अपराधबोध से मत जीना, मैं हस्ताक्षर कर दूंगा. तुम आजाद थी और आजाद रहोगी… तुम एक अच्छी कामयाब डाक्टर बन कर अपने डाक्टर पति के साथ अपनी जीवनयात्रा की नई शुरुआत करो. मेरा वजूद भी अपने दिलोदिमाग से निकाल देना. अपने अतीत को, मु?ो पूरी तरह से भूल जाना.’’

‘‘मेरा आदमी कल सुबह आ कर कागजात ले जाएगा.’’

‘‘एक गुजारिश है विद्या अगर मान सको तो.’’

विद्या ठिठक गई, ‘‘कहो.’’

‘‘कागजात लेने के लिए कल सुबह तुम स्वयं ही आना. किसी और को न भेजना. मेरी आखिरी इल्तजा जान कर फैसला करना,’’ अभिनव के हाथ स्वत: ही जुड़ गए थे.

‘‘ठीक है? मैं कल सुबह तुम से मिलती जाऊंगी,’’ विद्या के सिर पर से मानो मनो वजन उतर गया था. चैन की सांस लेते हुए वह लंबेलंबे डग भरते हुए घर और गली से बाहर निकल गई.

अगली सुबह जब विद्या अभिनव से मिलने पहुंची तो गली के मोड़ पर ही सामने से आते काफिले की वजह से उसे रुकना पड़ा. उस ने

गौर से देखा तो काफिले में निहाल को सब से आगे पाया. विद्या की गाड़ी को देख कर निहाल ठिठक गया और आगे बढ़ कर उस ने गाड़ी का शीशा खटखटाया.

विद्या ने शीशा नीचे किया और इस के पहले वह कुछ कहती या पूछती, निहाल ने कागज का एक पुलिंदा आगे कर दिया, ‘‘अभिनव ने आप के लिए यह भेंट दी है. आप न आतीं तो मैं देने आने ही वाला था.’’

विद्या ने हैरान हो कर कागज अपने हाथ में लिए और पन्ने पलटने लगी. पहले ही पृष्ठ पर उस की नजर ठिठक गई, उसे लिखे गए शब्दों पर विश्वास ही न हुआ. उस के पैरों तले मानो जमीन खिसक गई, कोने में बड़ेबड़े लफ्जों मे लिखा था, ‘‘जीतेजी तुम्हें स्वयं से अलग नहीं कर पाऊंगा. तुम्हारा अभिनव.’’

विद्या निहाल को कुछ पूछने के लिए गाड़ी से उतरी मगर निहाल कहीं भीड़ में ओझल हो गया था. हार कर वह गाड़ी में वापस बैठ गई. उस ने अपने ड्राइवर को किसी से बात करते हुए सुना, ‘‘कोई सिरफिरा था, किसी से बेइंतहा प्यार करता था, उसी की बेवफाई ने बेचारे की जान ले ली.’’

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