चमत्कार: क्या पूरा हो पाया नेहा और मनीष का प्यार

ड्राइंगरूम में बैठे पापा अखबार पढ़ रहे थे और उन के पास बैठी मम्मी टीवी देख रही थीं. मैं ने जरा ऊंची आवाज में दोनों को बताया, ‘‘आप दोनों से मिलने मनीष 2 घंटे के बाद आ रहा है.’’

‘‘किसलिए?’’ पापा ने आदतन फौरन माथे पर बल डाल लिए.

‘‘शादी की बात करने.’’

‘‘शादी की बात करने वह हमारे यहां क्यों आ रहा है?’’

‘‘क्या बेकार का सवाल पूछ रहे हैं आप?’’ मम्मी ने भी आदतन तीखे लहजे में पापा को झिड़का और फिर उत्तेजित लहजे में मुझ से पूछा, ‘‘क्या तुम दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया है?’’

‘‘हां, मम्मी.’’

‘‘गुड…वेरी गुड,’’ मम्मी खुशी से उछल पड़ीं.

‘‘बट आई डोंट लाइक दैट बौय,’’ पापा ने चिढ़े लहजे में अपनी राय जाहिर की तो मम्मी फौरन उन से भिड़ने को तैयार हो गईं.

‘‘मनीष क्यों आप को पसंद नहीं है? क्या कमी है उस में?’’ मम्मी का लहजा फौरन आक्रामक हो उठा.

‘‘हमारी नेहा के सामने उस का व्यक्तित्व कुछ भी नहीं है. जंचता नहीं है वह हमारी बेटी के साथ.’’

‘‘मनीष कंप्यूटर इंजीनियर है. उस के पिताजी आप से कहीं ज्यादा ऊंची पोस्ट पर हैं. वह फ्लैट नहीं बल्कि कोठी में रहता है. मुझे तो वह हर तरह से नेहा के लिए उपयुक्त जीवनसाथी नजर आता है.’’

‘‘तुझे तो वह जंचेगा ही,’’ पापा गुस्से में बोले, ‘‘क्योंकि मैं जो उसे पसंद नहीं कर रहा हूं. मेरे खिलाफ बोलते हुए ही तो तू ने सारी जिंदगी गुजारी है.’’

‘‘पापा, आई लव मनीष. मुझे अपना जीवनसाथी चुनने…’’

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मम्मी ने मुझे अपनी बात पूरी नहीं कहने दी और पापा से भिड़ना जारी रखा, ‘‘मैं ने आप के साथ जिंदगी गुजारी नहीं, बल्कि बरबाद की है. रातदिन की कलह, टोकाटाकी और बेइज्जती के सिवा कुछ नहीं मिला है मुझे पिछले 25 साल में.’’

‘‘इनसान जिस लायक होता है उसे वही मिलता है. बुद्धिहीन इनसान को जिंदगी भर जूते ही खाने को मिलेंगे.’’

‘‘आप के पास भी जहरीली जबान ही है, दिमाग नहीं. क्या यह समझदारी का लक्षण है कि बेटी शादी करने की अपनी इच्छा बता रही है और आप क्लेश करने पर उतारू हैं.’’

‘‘मैं अपनी बेटी के लिए मनीष से कहीं ज्यादा बेहतर लड़का ढूंढ़ सकता हूं.’’

‘‘पहली बात तो यह कि आज तक आप ने नेहा के लिए एक भी रिश्ता नहीं ढूंढ़ा है. दूसरी बात कि जब नेहा मनीष से प्रेम करती है तो शादी भी उसी से करेगी या नहीं?’’

‘‘यह प्रेमव्रेम कुछ नहीं होता. जो फैसला बड़े सोचसमझ और ऊंचनीच देख कर करते हैं, वही बेहतर होता है.’’

‘‘प्रेम के ऊपर आप नहीं तो और कौन लेक्चर देगा?’’ मम्मी ने तीखा व्यंग्य किया, ‘‘शादी के बाद भी आप प्रेम के क्षेत्र में रिसर्च जो करते रहे हैं.’’

‘‘मैं किसी भी औरत से हंसूंबोलूं, तो तुझे हमेशा चिढ़ ही हुई है. जिस आदमी की पत्नी लड़झगड़ कर महीने में 15 दिन मायके में पड़ी रहती थी वह अपने मनोरंजन के लिए दूसरी औरतों से दोस्ती करेगा ही.’’

‘‘मेरी गोद में नेहा न आ गई होती तो मैं ने आप से तलाक ले लिया होता,’’ अब मम्मी की आंखों में आंसू छलक आए थे.

‘‘बातबात पर पुलिस बुला कर पति को हथकडि़यां लगवा देने वाली पत्नी को तलाक देने की इच्छा किस इनसान के मन में पैदा नहीं होगी? मैं भी इस नेहा के सुखद भविष्य के कारण ही तुम से बंधा रहा, नहीं तो मैं ने तलाक जरूर…’’

‘‘अब आप दोनों चुप भी हो जाओ,’’ मैं इतनी जोर से चिल्लाई कि मम्मी और पापा जोर से चौंक कर सचमुच खामोश हो गए.

‘‘घर में आप का होने वाला दामाद कुछ ही देर में आ रहा है,’’ मैं ने उन दोनों को सख्त स्वर में चेतावनी दी, ‘‘अगर उसे आप दोनों ने आपस में गंदे ढंग से झगड़ने की हलकी सी झलक भी दिखाई, तो मुझ से बुरा कोई न होगा.’’

‘‘मैं बिलकुल चुप रहूंगी, गुडि़या. तू गुस्सा मत हो और अच्छी तरह से तैयार हो जा,’’ मम्मी एकदम से शांत नजर आने लगी थीं.

‘‘मैं भी बाजार से कुछ खानेपीने का सामान लाने को निकलता हूं,’’ नाखुश नजर आ रहे पापा मम्मी को गुस्से से घूरने के बाद बैडरूम की तरफ चले गए.

अपने कमरे में पहुंचने के बाद मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. अपने मातापिता को बचपन से मैं बातबात पर यों ही लड़तेझगड़ते देखती आई हूं. अपनी- अपनी तीखी, कड़वी जबानों से दोनों ही एकदूसरे के दिलों को जख्मी करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं.

वे दोनों ही मेरे भविष्य का निर्माण अपनेअपने ढंग से करना चाहते थे. अकसर उन के बीच झड़पें मुझे ले कर ही शुरू होतीं.

मम्मी चाहती थीं कि उन की सुंदर बेटी प्रभावशाली व्यक्तित्व की स्वामिनी बने. उन्होंने मुझे सदा अच्छा पहनाया, मुझे डांस और म्यूजिक की ट्रेनिंग दिलवाई. मेरी हर इच्छा को पूरी करने के लिए वे तैयार रहती थीं. वे खुद कमाती थीं, इसलिए मुझ पर पैसा खर्च करने में उन्हें कभी दिक्कत नहीं हुई.

पापा का जोर सदा इस बात पर रहता कि मेरा कैरियर बड़ा शानदार बने. वे मुझे डाक्टर या आई.ए.एस. अफसर बनाना चाहते थे. मेरे स्वास्थ्य की भी उन्हें फिक्र रहती. मैं खूब जूस और दूध पिऊं और नियमित रूप से व्यायाम करूं, ऐसी बातों पर उन का बड़ा जोर रहता.

वैसे सचाई यही है कि मेरी मम्मी के साथ ज्यादा अच्छी पटती रही क्योंकि पापा को खुश करना मेरे खुद के लिए टेंशन का काम बन जाता था. पापा की डांट से बचाने के लिए मम्मी मेरी ढाल हमेशा बन जाती थीं.

मुझे ले कर उन के बीच सैकड़ों बार झगड़ा हुआ होगा. जब एक बार  दोनों का मूड बिगड़ जाता तो अन्य क्षेत्रों में भी उन के बीच टकराव और तकरार का जन्म हो जाता. मम्मी ने 5-6 साल पहले ऐसे ही एक झगड़े में पुलिस बुला ली थी. मुझे वह सारी घटना अच्छी तरह से याद है. उस दिन डर कर मैं खूब रोई थी.

मैं न होती तो वे दोनों कब के अलग हो गए होते, ऐसी धमकियां मैं ने हजारों बार उन दोनों के मुंह से सुनी थीं. अब मनीष से शादी कर मैं सिंगापुर जाने वाली थी. मेरी गैरमौजूदगी में कहीं इन दोनों के बीच कोई अनहोनी न घट जाए, इस सोच के चलते मेरा मन कांपना शुरू हो गया था.

मनीष आया तो मम्मी ने प्यार से उसे गले लगा कर स्वागत किया था. पापा भी जब उस से मुसकरा कर मिले तो मैं ने मन ही मन बड़ी राहत महसूस की थी.

‘‘हम दोनों अगले हफ्ते शादी करना चाहते हैं क्योंकि 15 दिन बाद मुझे सिंगापुर में नई कंपनी जौइन करनी है. अभी शादी नहीं हुई तो मामला साल भर के लिए टल जाएगा,’’ मनीष ने उन्हें यह जानकारी दी, तो मम्मीपापा दोनों के चेहरों पर टेंशन नजर आने लगा था.

‘‘सप्ताह भर का समय तो बड़ा कम है, मनीष. हम सारी तैयारियां कैसे कर पाएंगे?’’ मम्मी चिंतित हो उठीं.

‘‘आंटी, शादी का फंक्शन छोटा ही करना पड़ेगा.’’

‘‘वह क्यों?’’ पापा के माथे में फौरन बल पड़े तो उन्हें शांत रखने को मैं ने उन का हाथ अपने हाथ में ले कर अर्थपूर्ण अंदाज में दबाया.

‘‘सच बात यह है कि मेरे मम्मीपापा इस रिश्ते से बहुत खुश नहीं हैं. मैं ने इसी वजह से कल रात ही उन्हें नेहा से शादी करने की बात तब बताई जब नई कंपनी से मुझे औफर लैटर मिल गया. उन दोनों की नाखुशी के चलते बड़ा फंक्शन करना संभव नहीं है न, अंकल.’’

‘‘मेरी बेटी लाखों में एक है, मनीष. उन्हें तो इस रिश्ते से खुश होना चाहिए.’’

‘‘आई नो, अंकल, पर वे दोनों आप दोनों जितने समझदार नहीं हैं जो अपनी संतान की खुशी को सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानें.’’

मनीष की इस बात को सुन कर मुझे अचानक इतनी जोर से हंसी आई कि मुझे ड्राइंगरूम से उठ कर रसोई में जाना ही उचित लगा था.

उस पूरे सप्ताह खूब भागदौड़ रही. मम्मी व पापा को इस भागदौड़ के दौरान जब भी फुरसत मिलती, वे आपस में जरूर उलझ पड़ते. मैं दोनों पर कई बार गुस्से से चिल्लाई, तो कई बार आंखों से आंसू भी बहाए. जो रिश्तेदार इकट्ठे हुए थे उन्होंने भी बारबार उन्हें लड़ाईझगड़े में ऊर्जा बरबाद न करने को समझाया, पर उन दोनों के कानों पर जूं नहीं रेंगी.

हम ने फंक्शन ज्यादा बड़ा नहीं किया था, पर हर काम ठीक से पूरा हो गया. मेरी ससुराल में मेरे रंगरूप की खूब तारीफ हुई, तो मेरे सासससुर भी खुश नजर आने लगे थे.

हमारा हनीमून 3 दिन का रहा. मनाली के खुशगवार मौसम में अपने अब तक के जीवन के सब से बेहतरीन, मौजमस्ती भरे 3 दिन मनीष के संग बिता कर हम दिल्ली लौट आए.

वापस आने के 2 दिन बाद ही हम ने हवाईजहाज पकड़ा और सिंगापुर चले आए. अपने मम्मीपापा से विदा लेते हुए मैं रो रही थी.

‘‘आप दोनों एकदूसरे का ध्यान रखना, प्लीज. आप का लड़ाईझगड़ा अब भी चलता रहा, तो मेरा मन परदेस में बहुत दुखी रहेगा.’’

मैं ने बारबार उन से ऐसी विनती जरूर की, पर मन में भारी बेचैनी और चिंता समेटे ही मैं ने मम्मीपापा से विदा ली थी.

शुरुआत के दिनों में दिन में 2-2 बार फोन कर के मैं उन दोनों का हालचाल पूछ लेती.

‘‘हम ठीक हैं. तुम अपना हालचाल बताओ,’’ वे दोनों मुझे परेशान न करने के इरादे से यही जवाब देते, पर मेरा मन उन दोनों को ले कर लगातार चिंतित बना रहता था.

मनीष जब भी मुझे इस कारण उदास देखते, तो बेकार की चिंता न करने की सलाह देते. मैं खुद को बहुत समझाती, पर मन चिंता करना छोड़ ही नहीं पाता था.

बीतते समय के साथ मेरा मम्मीपापा को फोन करना सप्ताह में 1-2 बार का हो गया. मनीष की अपने बौस से ज्यादा अच्छी नहीं पट रही थी. इस कारण मुझे जो टेंशन होता, वही मैं फोन पर अपने मम्मीपापा से ज्यादा बांटता था.

मनीष ने कोशिश कर के अपना तबादला बैंकाक में करा लिया. वहां शिफ्ट होने से पहले उन्होंने 1 सप्ताह की छुट्टी ले ली. लगभग 6 महीने बाद इस कारण हमें इंडिया आने का मौका मिल गया था. सारा कार्यक्रम इतनी जल्दी बना कि अपने आने की सूचना मैं ने मम्मीपापा को न दे कर उन्हें ‘सरप्राइज’ देने का फैसला किया था.

मनीष और मैं एअरपोर्ट से टैक्सी ले कर सीधे पहले मेरे घर पहुंचे. 4 दिन बाद मेरे सासससुर की शादी की 30वीं वर्षगांठ थी, इसलिए पहले 3 दिन मुझे मायके में बिताने की स्वीकृति मनीष ने दे दी थी.

मनीष और मुझे अचानक सामने देख कर मेरे मम्मीपापा भौचक्के रह गए. मम्मी की चाल ने मुझे साफ बता दिया कि उन की कमर में तेज दर्द हो रहा है, पर फिर भी उन्होंने उठ कर मुझे गले से लगाया और खूब प्यार किया.

पापा की छाती से लग कर मैं अचानक ही आंसू बहाने लगी थी. उन को प्रसन्न अंदाज में मुसकराते देख मुझे इतनी राहत और खुशी महसूस हुई कि मेरी रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘आप दोनों को क्या हमारे आने की खबर थी?’’ कुछ संयत हो जाने के बाद मैं ने इधरउधर नजरें घुमाते हुए हैरान स्वर में सवाल किया.

‘‘नहीं तो. क्यों नहीं दी तू ने अपने आने की खबर?’’ मम्मी नकली नाराजगी दिखाते हुए मुसकराईं.

‘‘मुझे आप दोनों को ‘सरप्राइज’ देना था. वैसे पहले यह बताओ कि सारा घर फिर किस खुशी में इतना साफसुथरा… इतना सजाधजा नजर आ रहा है?’’

‘‘घर तो अब ऐसा ही रहता है, नेहा. हां, परदे पिछले महीने बदलवाए थे, सो इस कारण ड्राइंगरूम का रंग ज्यादा निखर आया है.’’

‘‘कमाल है, मम्मी. अपनी कमर दर्द की परेशानी के बावजूद आप इतनी मेहनत…’’

‘‘मेरी प्यारी गुडि़या, यह सारी जगमग तेरी मां की मेहनत का नतीजा नहीं है. आजकल साफसफाई का भूत मेरे सिर पर जरा ज्यादा चढ़ा रहता है,’’ पापा ने छाती चौड़ी कर मजाकिया अंदाज में अपनी तारीफ की तो हम तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘आप और घर की साफसफाई…आई कांट बिलीव यू, पापा.’’

‘‘अरे, अपनी मम्मी से पूछ ले.’’

मैं मम्मी की तरफ घूमी तो उन्होंने हंस कर कहा, ‘‘मैं ने अब इन्हें गृहकार्यों में अच्छी तरह से ट्रेंड कर दिया है, नेहा. कुछ देर में ये हम सब को देखना कितने स्वादिष्ठ गोभी और मूली के परांठे बना कर खिलाएंगे.’’

‘‘गोभी और मूली के परांठे पापा बनाएंगे?’’ मेरा मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘साफसफाई और किचन पापा ने संभाल लिया है, तो घर में आप क्या करती हो?’’ मैं ने आंखें मटकाते हुए मम्मी से सवाल पूछा.

‘‘आजकल जम कर ऐश कर रही हूं,’’ मम्मी ने जब अपने बालों को झटका दे कर बड़ी अदा से पीछे किया तो मैं ने नोट किया कि उन्होंने बाल छोटे करा लिए थे.

‘‘बाल कब कटवाए आप ने? बड़ा सूट कर रहा है आप पर यह नया स्टाइल,’’ मैं ने चारों तरफ घूम कर मम्मी के नए स्टाइल का निरीक्षण किया.

‘‘तेरे पापा को ही मुझे मेम बनाने का शौक चढ़ा और जबरदस्ती मेरे बाल कटवा दिए,’’ मम्मी ने अजीब सी शक्ल बना कर पापा की तरफ बड़े प्यार से देखा था.

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‘‘चल, बाल तो मैं ने कटवा दिए, पर ज्यादा सुंदर दिखने को ब्यूटीपार्लर और जिम के चक्कर तो तुम अपनी इच्छा से ही लगा रही हो न,’’ पापा ने यह नई जानकारी दी, तो मैं ने मम्मी की तरफ और ज्यादा ध्यान से देखा.

उन्होंने अपना वजन सचमुच कम कर लिया था और उन के चेहरे पर भी अच्छाखासा नूर नजर आ रहा था.

‘‘आप दोनों 6 महीने में कितना ज्यादा बदल गए हो. मम्मी, आप सचमुच बहुत सुंदर दिख रही हो,’’ मैं ने प्यार से उन का गाल चूम लिया.

‘‘स्वीटहार्ट, तुम बेकार ही सिंगापुर में मम्मीपापा की चिंता करती रहती थीं. ये दोनों बहुत खुश नजर आ रहे हैं,’’ मनीष की इस बात को सुन कर मैं झेंप उठी थी.

‘‘हमारी फिक्र न किया करो तुम दोनों, परदेस में तुम तो हमारी गुडि़या का पूरापूरा ध्यान रखते हो न, मनीष?’’ पापा ने अपने दामाद के कंधे पर हाथ रख दोस्ताना अंदाज में सवाल पूछा.

‘‘रखता तो हूं… पर शायद उतना अच्छी तरह से नहीं जितना आप मम्मी का रखते हैं,’’ मनीष की यह बात सुन कर हम सब फिर से हंस पड़े.

‘‘कैसे हो गया यह चमत्कार,’’ मेरी हंसी थमी, तो मैं ने पापा और मम्मी का हाथ प्यार से पकड़ कर हैरान सी हो यह सवाल मानो खुद से ही पूछा था.

 

‘‘मुझे कारण पता है,’’ मनीष किसी स्कूली बच्चे की तरह हाथ उठा कर बोले तो हम तीनों बड़े ध्यान से उन का चेहरा ताकने लगे थे.

हमारे ध्यान का केंद्र अच्छी तरह बन जाने के बाद उन्होंने शरारती अंदाज में मुसकरातेशरमाते हुए कहा, ‘‘मेरी समझ से इस घर में दामाद के पैरों का पड़ना शुभ साबित हुआ है.’’

फिर हम चारों के सम्मिलित ठहाके से ड्राइंगरूम गूंज उठा.

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फेसबुक का कारनामा: अंजलि ने अपने पति और बच्चों से कौनसी बात छिपाई थी?

किट्टीपार्टी का थीम इस बार ‘वनपीस’ था. पार्टी निशा के घर थी. निशा ठहरी खूब आधुनिक, स्लिम, स्मार्ट. नएनए थीम उसे ही सूझते थे. पिछली किट्टी पार्टी अमिता के घर थी. वहीं निशा ने कह दिया था, ‘‘मेरी पार्टी का थीम ‘वनपीस’ है.’’

इस पर गोलमटोल नेहा ने तुरंत कहा, ‘‘तेरा दिमाग खराब है क्या? क्यों सोसायटी में हमारा कार्टून बनवाना चाहती है. यह उम्र है क्या हमारी वनपीस पहनने की?’’

अपनी बात पर अड़े रहने वाली, थोड़ी सी जिद्दी निशा ने कहा, ‘‘जो नहीं पहनेगा वह फाइन देगा.’’

नेहा ने घूरा, ‘‘कितना फाइन लेगी? सौ रुपए न? ले लेना.’’

‘‘नहीं, सौ रुपए नहीं. कुछ और पनिशमैंट दूंगी.’’

दोनों की बातें सुनती हुई अंजलि ने प्यार से कहा, ‘‘निशा प्लीज, वनपीस मत रख. कोई और थीम रख ले. क्यों हमारा कार्टून बनवाने पर तुली हो?’’

‘‘नहीं, सब वनपीस पहन कर आएंगे, बस.’’

रेखा, मंजू, दीया, अनीता, सुमन, कविता और नीरा अब अपनाअपना प्रोग्राम बनाने लगीं.

रेखा ने कहा, ‘‘ठीक है, जिद्दी तो तू है ही, पर इतना तो सोच निशा, मेरे सासससुर भी हैं घर पर, पति को तो मैं पटा लूंगी, उन के साथ तो बाहर घूमने जाने पर पहन लेती हूं, सासूमां को कभी पता ही नहीं चला पर उन के सामने घर से ही वनपीस पहन कर कैसे निकलूंगी?’’

‘‘तो ले आना. आ कर मेरे घर तैयार हो जाना. इतना तो कर ही सकती हो न?’’ निशा ने सलाह दी.

‘‘हां, यह ठीक है.’’

मंजू, दीया, अनिता को कोई परेशानी नहीं थी. उन के पास इस तरह की कई ड्रैसेज थीं. वे खुश थीं. अनीता, कविता, सुमन और नीरा ने भी अपनीअपनी मुश्किल बताई थी, ‘‘हमारे पास तो ऐसी ड्रैस है ही नहीं. नई खरीदनी पड़ेगी, निशा.’’

‘‘तो क्या हुआ, खरीद लेना. इस तरह के अपने प्रोग्राम तो चलते ही रहते हैं.’’

वे भी तैयार हो ही गईं.

अंजलि की मनोव्यथा कुछ अलग थी. बोली, ‘‘क्या करूं, मेरे पति अनिल को तो हर मौडर्न ड्रैस भाती है पर मेरे युवा बच्चे कुछ ज्यादा ही रोकटोक करने लगे हैं मेरे पहनावे पर… क्या करूं… वे तो पहनने ही नहीं देंगे.’’

‘‘तो तू भी मेरे घर आ कर तैयार हो जाना.’’

अंजलि ने मन मसोस कर हां तो कर दी थी पर इन सब में सब से ज्यादा परेशान वही थी.

निशा की किट्टी का दिन पास आ रहा था. अंजलि सब के साथ डिनर कर रही थी. वह कुछ चुप सी थी, तो उस की 23 वर्षीय बेटी तन्वी और 21 वर्षीय बेटे पार्थ ने टोका, ‘‘मौम, क्या सोच रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ कह कर अंजलि ने ठंडी सांस भरी.

अनिल ने भी कहा, ‘‘भई, कुछ तो बोलो, हमें कहां इतनी शांति में खाना खाने की आदत है.’’

अंजलि ने घूरा तो तीनों हंस पड़े. अंजलि फिर बोल ही पड़ी, ‘‘अगले हफ्ते निशा के घर हमारी किट्टी पार्टी है.’’

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‘‘वाह,’’ तन्वी चहकी, ‘‘निशा आंटी तो नएनए थीम रखती हैं न मौम… इस बार क्या थीम है?’’

अंजलि ने धीरे से बताया, ‘‘वनपीस ड्रैस.’’

‘‘क्या?’’ पार्थ को जैसे करंट सा लगा. अनिल को भी तेज झूठी खांसी आई.

पार्थ ने कहा, ‘‘नहीं मौम, आप मत पहनना.’’

‘‘क्यों?’’

तन्वी ने कहा, ‘‘हर चीज की एक उम्र होती है न मौम. निशा आंटी पर तो सब कुछ चलता है, आप पर सूट नहीं करेगी और फिर हमें आप को ऐसे कपड़ों में देखने की आदत भी नहीं है न, मौम. आप साड़ी ही पहनना.’’

‘‘नहीं, मैं सोच रही हूं तुम्हारी ब्लैक ड्रैस ट्राई कर ही लूं.’’

पार्थ चिढ़ कर बोला, ‘‘नो मौम, बिलकुल नहीं. वह घुटनों तक की दीदी की ड्रैस आप कैसे पहन सकती हैं? दीदी भी पहनती हैं, तो मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

इस बात पर तन्वी ने उसे बुरी तरह घुड़का, ‘‘छोटे हो, छोटे की तरह बात करो.’’

अनिल मुसकराते हुए डिनर कर रहे थे.

अंजलि ने कहा, ‘‘आप क्यों चुप हैं? आप भी कुछ बोल ही दीजिए.’’

‘‘तुम सब की बातें सुनने में ज्यादा मजा आ रहा है… वनपीस पर कब फैसला होगा, उसी का इंतजार कर रहा हूं,’’ अनिल कह कर हंसे.

काफी देर तक वनपीस थीम पर बहस होती रही. अगले दिन तन्वी और पार्थ कालेज और अनिल औफिस चले गए. मेड के काम कर के जाने के बाद अंजलि अब घर में अकेली थी. उस ने आराम से तन्वी की अलमारी खोली.

बेतरतीब कपड़े रखने की तन्वी की आदत पर अंजलि को हमेशा की तरह गुस्सा आया पर इस समय गुस्सा करने का समय नहीं था. उस ने तन्वी की ब्लैक ड्रैस खोजनी शुरू की. कुछ देर बाद वह उसे मुड़ीतुड़ी हालत में मिली. ड्रैस हाथ में लेते ही वह मुसकराई. उस ने गुनगुनाते हुए उसे प्रैस किया और फिर पहन कर ड्रैसिंग टेबल के शीशे में खुद को निहारा, तो खुशी से चेहरा चमक उठा, घुटनों तक की इस स्लीवलैस ड्रैस में वह बहुत अच्छी लग रही थी. वाह, शरीर भी उतना नहीं फैला है… देख कर उसे खुशी हुई कि बेटी की ड्रैस उसे इस उम्र में बिलकुल फिट आ रही है. यह कितनी खुशी की बात है यह कोई स्त्री ही समझ सकती है. याद आया तन्वी पहनती है तो उस पर थोड़ी ढीली लगती है. यह एकदम फिट थी. वाह, सुबहशाम की सैर का यह फायदा तो हुआ.

अपनेआप से पूरी तरह संतुष्ट हो कर उस का मन खिल उठा था. हां, वह किट्टी में अच्छी लगेगी, थोड़ी टाइट तो हो रही है पर चलेगा, उसे कौन सा रैंप पर चलना है. अपनी सहेलियों के साथ मस्ती कर के लौट आएगी हमेशा की तरह. बेकार में दोनों बच्चे इतना टोक रहे थे. ठीक है, घर में किसी को बताऊंगी ही नहीं. उस ने निशा को फोन किया, ‘‘निशा, मैं भी तुम्हारे घर थोड़ा पहले आ जाऊंगी. वहीं बदल लूंगी कपड़े.’’

‘‘हां, ठीक है. जल्दी आ जाना.’’

किट्टी पार्टी वाले दिन अनिल, पार्थ और तन्वी के साथ नाश्ता करते हुए अंजलि मन ही मन बहुत उत्साहित थी. उस का चेहरा चमक रहा था.

पार्थ ने पूछा, ‘‘मौम, आज आप की किट्टी पार्टी है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘फिर आप क्या पहनोगी?’’

‘‘साड़ी.’’

अनिल ने पूछा, ‘‘कौन सी?’’

‘‘ब्लू वाली, जो पिछले महीने खरीदी थी.’’

‘‘हां मौम, आप साड़ी में अच्छी लगती हैं,’’ तन्वी ने कहा.

पार्थ फिर कहने लगा, ‘‘आप कितनी अच्छी हो मौम, हमारी सारी बातें मान जाती हो. वह वनपीस वाला ड्रामा बाकी आंटियों को करने दो, आप बैस्ट हो, मौम.’’

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अंजलि ने मन ही मन कहा कि हुंह, तुम लोगों के साथ क्या करना चाहिए, पता है मुझे. सारे नियम मेरे लिए ही हैं. मुझ पर ही रोब चलता है सब का. मन ही मन अंजलि मुसकरा कर रह गई.

किट्टी पार्टी का टाइम 4 बजे का रहता था. सब घर वापस साढ़े 6 बजे तक आते थे. अंजलि ने सोचा कि इन लोगों को तो खबर ही नहीं लगेगी कि आज मैं ने क्या पहना. घर से ब्लू साड़ी ही पहन कर जाऊंगी, वापस भी साड़ी में ही आ जाऊंगी.

अंजलि इतनी उत्साहित थी कि वह 3 बजे ही निशा के घर पहुंच गई. वह फटाफट तन्वी की ड्रैस पहन कर तैयार हो गई. निशा तो खुद भी एक स्टाइलिश सी छोटी सी ड्रैस पहन कर तैयार थी. उस पर इस तरह के कपड़े लगते भी बहुत अच्छे थे.

निशा ने अंजलि को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर कहा, ‘‘वाह अंजलि, यू आर लुकिंग सो स्मार्ट.’’

अंजलि को अच्छा लगा. बोली, ‘‘पर थोड़ी टाइट है न?’’

‘‘तो क्या हुआ, सब चलता है. अभी सब को देखना, आज बहुत मजा आने वाला है.’’

निशा के घर भी इस समय कोई नहीं था. तभी रेखा भी आ गई. उस ने भी कपड़े वहीं बदले. धीरेधीरे पूरा ग्रुप आ गया. मंजू, दीया और अनिता घर से ही तैयार हो कर आई थीं. सब एकदूसरे की तारीफ करते रहे. फिर जबरदस्त फोटो सैशन हुआ, खूब फोटो खींचे गए, फिर कोल्डड्रिंक्स का दौर शुरू हुआ, गेम्स हुए. फिर सब ने स्नैक्स का आनंद लिया. निशा अच्छी

कुक थी. उस ने खूब सारी चीजें तैयार कर ली थीं. सब ने हमेशा की तरह खूब ऐंजौय किया. पूरा ग्रुप 40 के आसपास की उम्र का था.

साढ़े 6 बज गए तो सब जाने की तैयारी करने लगे. सब ने हंसते हुए घर जाने के कपड़े पहने. इस बात पर खूब हंसीमजाक हुआ.

नीरा ने कहा, ‘‘कोई सोच भी नहीं सकता न कि आज हम ने बच्चों की तरह झूठ बोल कर यहां कपड़े बदले हैं. अब सीधेसच्चे, मासूम सी शक्ल ले कर घर चले जाएंगे.’’

इस बात पर सब खूब हंसीं. सब एक ही सोसायटी में रहती थीं. अंजलि जब घर पहुंची, तीनों आ चुके थे. 7 बज रहे थे. सब के पास घर की 1-1 चाबी रहती थी. अंजलि ने जब डोरबैल बजाई, तो पार्थ ने दरवाजा खोला, ‘‘आप की पार्टी कैसी रही मौम?’’

‘‘बहुत अच्छी,’’ पार्थ मुसकरा रहा था.

तन्वी ने हंसते हुए कहा, ‘‘मौम, आप साड़ी में कितनी अच्छी लग रही हैं.’’

‘‘थैंक्स,’’ अंजलि ने कहा तो सोफे पर

बैठे मुसकराते हुए अनिल ने कहा, ‘‘और कैसी रही पार्टी?’’

‘‘बहुत अच्छी, भूख लगी होगी तुम लोगों को?’’

‘‘नहीं, अभी तन्वी ने चाय पिलाई है. हम तीनों ने कुछ नाश्ता भी कर लिया है. आओ, बैठो न. अच्छी लग रही हो साड़ी में.’’

अनिल मुसकराए तो अंजलि को कुछ महसूस हुआ. सालों का साथ था, इतना तो पति को पहचानती ही थी कि इस मुसकराहट में कुछ तो खास है. फिर उस ने बच्चों पर नजर डाली. उन दोनों के चेहरों पर भी प्यारी शरारत भरी हंसी थी. वे तीनों पासपास ही सोफे पर बैठे थे.

उन के सामने वाले सोफे पर बैठ कर अंजलि ने तीनों को बारीबारी से देखा और फिर पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम लोग हंस क्यों रहे हो?’’

अनिल ने कहा, ‘‘तुम्हें देख कर?’’

‘‘क्यों? मुझे क्या हुआ?’’ तीनों ने हंसते हुए एकदूसरे को देखा. फिर आंखों ही आंखों में कुछ तय करते हुए अनिल ने कहा, ‘‘कैसी लग रही थीं तुम्हारी सहेलियां वनपीस में?’’

‘‘अच्छी लग रही थीं?’’

‘‘तुम भी तो अच्छी लग रही थीं.’’

अंजलि मुसकराई तो अनिल ने आगे कहा, ‘‘वनपीस में, तन्वी की ब्लैक ड्रैस में.’’

अंजलि को झटका लगा, ‘‘क्या? मैं तो साड़ी पहन कर बैठी हूं न तुम्हारे सामने.’’

‘‘हां, पर वहां वनपीस में अच्छी लग रही थीं, पहनती रहना,’’ कह कर अनिल हंसे तो अंजलि को कुछ समझ नहीं आया, क्योंकि वह तो आज अपनी ड्रैस भी वहीं छोड़ कर आई थी कि कहीं कोई देख न ले. बाद में ले आएगी.

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अनिल बोले, ‘‘अपने फोन में जल्दी से फेसबुक देख लो.’’

अंजलि ने पर्स से फोन निकाला, फेसबुक देखा. फेसबुक पर फोटो डालने की शौकीन निशा सब के घर से निकलते ही किट्टी पार्टी के फोटो फेसबुक पर डाल कर अंजलि को टैग कर चुकी थी.

अंजलि के घर आने से पहले ही अनिल, पार्थ और तन्वी जो उस की फ्रैंड्स लिस्ट में थे ही, सब तसवीरें देख चुके थे और लाइक करने के बाद अच्छे कमैंट भी कर चुके थे. इतना कुछ हो चुका था, अब कुछ भी बाकी नहीं था. अंजलि का चेहरा देखने लायक था. वह दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा कर जोरजोर से हंस पड़ी कि फेसबुक ने तो सारी पोल ही खोल दी.

सीजर: क्या दादाजी की कुत्तों से नफरत कम हो पाई?

कुत्ते का पिल्ला पालने की बात चली तो दादाजी ने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की, ‘‘पालना ही है तो मिट्ठू पाल लो, मैना पाल लो, खरगोश पाल लो…और कोई सा भी जानवर पाल लो, लेकिन कुत्ता मत पालो.’’

घर की नई पीढ़ी ने घोषणा की, ‘‘नहीं, हम तो कुत्ता ही पालेंगे. अच्छी नस्ल का लाएंगे.’’

दादाजी ने दलील दी, ‘‘भले ही अच्छी नस्ल का हो…मगर होगा तो कुत्ता ही?’’

नई पीढ़ी ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘तो क्या हुआ? कुत्ते में क्या खराबी होती है? वह वफादार होता है. इसीलिए आजकल सभी लोग कुत्ता पालने लगे हैं.’’

दादाजी का मन हुआ कि कहें, ‘हां बेटा, अब गोपाल के बजाय सब श्वानपाल हो गए हैं.’ किंतु इस बात को उन्होंने होंठों से बाहर नहीं निकाला.

कुत्ते की अच्छाईबुराई के विवाद में भी वे नहीं पड़े. व्यावहारिक कठिनाइयां ही बताईं, ‘‘कुत्ते बड़े बंगलों में ही निभते हैं क्योंकि वहां कई कमरे होते हैं, लंबाचौड़ा लौन होता है, खुली जगह होती है. इसलिए वह बड़े मजे से घूमताफिरता है. इस छोटे फ्लैट में बेचारा घुट कर रह जाएगा.’’

नई पीढ़ी ने दलील दी, ‘‘अपने आसपास ही छोटेछोटे फ्लैटों में कई कुत्ते हैं. आप कहें तो नाम गिना दें?’’

दादाजी ने इनकार में हाथ हिलाते हुए दूसरी व्यावहारिक कठिनाई बताई, ‘‘वह घर में गंदगी करेगा, खानेपीने की चीजों में मुंह मारेगा. कहीं पागल हो गया तो घर भर को पेट में बड़ेबड़े 14 इंजैक्शन लगवाने पड़ेंगे.’’

नई पीढ़ी ने इन कठिनाइयों को भी व्यर्थ की आशंकाएं बताते हुए कहा, ‘‘अच्छी नस्ल के कुत्ते समझदार होते हैं. वे देसी कुत्तों जैसे गंदे नहीं होते. प्रशिक्षित करने पर विदेशी नस्ल के कुत्ते सब सीख जाते हैं. सावधानी बरतने पर उन के पागल होने का कोई खतरा नहीं रहता है.’’

दादाजी ने अपनी आदत के अनुसार हथियार डाल दिए. नई पीढ़ी से असहमत होने पर भी वे ज्यादा जिद नहीं करते थे. अपनी राय व्यक्त कर छुट्टी पा लेते थे. इसी नीति से वे कलह से बचे रहते थे. इस मामले में भी उन्होंने यह कह कर छुट्टी पा ली, ‘‘तुम जानो…मेरा काम तो सचेत करना भर है.’’

अलसेशियन पिल्ला घर में आया तो दादाजी ने उस में कोई विशेष रुचि नहीं ली. वे आश्चर्य से उसे देखते रहे. वह अस्पष्ट सी ध्वनि करता हुआ उन के पैर चाटते हुए दुम हिलाने लगा, तब भी वे उस से दूरदूर ही रहे. उन्होंने उसे न उठाया, न सहलाया. हालांकि उस छोटे से मनभावन पिल्ले का पैरों को चाटना व दुम हिलाना उन्हें अच्छा लगा.

नई पीढ़ी ने खेलखेल में कई बार उस पिल्ले को दादाजी की गोद तथा हाथों में रख दिया, तब न चाहते हुए भी उन्हें उस पिल्ले के स्पर्श को सहना पड़ा. यह स्पर्श उन्हें अच्छा लगा. नरमनरम बाल, मांसल शरीर, बालसुलभ चंचलता आदि ने उन के मन को मोहा. घर में कोई छोटा बच्चा न होने से ऐसा स्पर्श सुख उन्हें अपवाद-स्वरूप ही मिलता था. इस पिल्ले के स्पर्श ने उसी सुख की अनुभूति उन्हें करा दी. फिर भी वे पिल्ले को अपने से परे हटाने का नाटक करते रहे. इसलिए नई पीढ़ी को नया खेल मिल गया. वे जब देखो तब दादाजी के पास उस पिल्ले को छोड़ने लगे. दादाजी का उस से कतराना एवं परे हटाने का प्रयास उन्हें प्रसन्नता से भर देता.

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नई पीढ़ी ने अपने चहेते पिल्ले का नाम रखा, सीजर.

दादाजी ने इस नाम का भारतीयकरण कर दिया, सीजरिया.

नई पीढ़ी ने शिकायत की, ‘‘दादाजी, सीजर का नाम मत बिगाडि़ए.’’

दादाजी ने सफाई दी, ‘‘मैं ने तो उसे भारतीय बना दिया.’’

‘‘यह भारतीय नहीं है…अलसेशियन है.’’

‘‘नस्ल भले ही विदेशी हो…मगर है तो यहीं की पैदाइश. इसलिए नाम इस देश के अनुकूल ही रखना चाहिए.’’

‘‘नहीं, इस का नाम सीजर ही रहेगा.’’

‘‘लेकिन हम तो इसे सीजरिया ही कहेंगे.’’

दादाजी को इस छेड़छाड़ में मजा आने लगा. नई पीढ़ी से बदला लेने का उन्हें अच्छा मौका मिल गया. वे लोग सीजर को उन के पास धकेल कर खुश होते रहते थे. दादाजी ने सीजर के नाम को ले कर जवाबी हमला कर दिया. इस हमले के दौरान वे सीजर को अपने दिए नाम से संबोधित करकर के अपने पास बुलाने लगे.

‘सीजरिया’ संबोधित करने पर भी पिल्ला जब ललक कर उन के पास आने लगा तो वे नई पीढ़ी को चिढ़ाने लगे, ‘‘देखा, सीजरिया को यह नाम पसंद है.’’

आएदिन की इस छेड़छाड़ ने दादाजी का सीजर से संपर्क बढ़ा दिया. अब वे उसे अपनी बांहों में भरने लगे, उठाने लगे, सहलाने लगे. नई पीढ़ी की अनुपस्थिति में भी वे उस से खेलने लगे. पलंग पर अपने पास लिटाने लगे. उस की चेष्टाओं पर प्रसन्न होने लगे. उस के स्पर्श से गुदगुदी सी अनुभव करने लगे.

एक दिन घर के लोगों ने दादाजी से प्रश्न किया, ‘‘आप तो इस के खिलाफ थे?’’

‘‘हां, था तो…मगर इस खड़े कान वाले ने मेरे मन में जगह बना ली है,’’ दादाजी ने मुसकराते हुए उत्तर दिया.

सीजर के लिए दादाजी का स्नेह दिनोदिन बढ़ता ही गया क्योंकि अपने खाली समय को भरने का उन्हें यह अच्छा साधन लगा. जब सीजर इस घर में नहीं आया था तब वे खाली समय बातों में, पढ़ने में, टीवी देखने में तथा ऐसे ही अन्य कामों में व्यतीत किया करते थे. बातों के लिए घर के लोग हमेशा सुलभ नहीं रहते थे क्योंकि दिन के समय सभी छोटेबड़े अपनेअपने काम से घर से बाहर चले जाते थे. कोई स्कूल जाता था तो कोई कालेज, कोई बाजार जाता था तो किसी को दफ्तर जाना होता था. खासी भागमभाग मची रहती थी. घर में रहने पर सभी की अपनीअपनी व्यस्तताएं थीं, इसीलिए दादाजी से बातें करने का अवकाश वे कम ही पाते थे.

लेदे कर घर में बस, दादीजी ही थीं, जो दादाजी के लिए थोड़ा समय निकालती थीं. किंतु उन के पास अपनी बीमारी और घर के रोनों के सिवा और कोई बात थी ही नहीं. आसपास भी कोई ऐसा बतरस प्रेमी नहीं था, इसलिए दादाजी बातें करने को तरसते ही रहते थे. कोई मेहमान आ जाता था तो उन की बाछें खिल उठती थीं.

पढ़ने और टीवी देखने में दादाजी की आंखों पर जोर पड़ता था. इसलिए वे अधिक समय तक न तो पढ़ पाते थे, न ही टीवी देख पाते थे. दैनिक समाचारपत्र को ही वे पूरे दिन में किस्तों में पढ़ पाते थे. घर की नई पीढ़ी उन के इस वाचन का मजा लेती रहती थी. सुबह के बाद किसी को यदि अखबार की आवश्यकता होती तो वह मुसकराते हुए दादाजी से पूछता, ‘‘पेपर ले जाऊं दादाजी, आप का वाचन हो गया?’’

सीजर ने उन के इस खाली समय को भरने में बड़ा योगदान दिया. वह जब देखो तब दौड़दौड़ कर उन के पास आने लगा, उन के आसपास मंडराने लगा. दादाजी उसे उठाने और सहलाने लगे तो उस का आवागमन उन के पास और भी बढ़ गया. घर के दूसरे लोगों को उसे पुकारना पड़ता था, तब कहीं वह उन के पास जाता था. दादाजी के पास वह बिना बुलाए ही चला आता था. घर के लोग शिकायत करने लगे, ‘‘दादाजी, आप ने सीजर पर जादू कर दिया है.’’

सीजर जब इस घर में नयानया आया था तब उस का स्पर्श हो जाने पर दादाजी हाथ धोते थे. खानेपीने से पहले तो वे साबुन से हाथ धोए बिना किसी वस्तु को छूते नहीं थे. वही दादाजी अब सारासारा दिन सीजर के स्पर्श में आने लगे. किंतु हाथ धोने की सुध उन्हें अब न रहती. खानेपीने की वस्तुएं उठाते समय भी साबुन से हाथ धोना वे कई बार भूल जाते थे. नई पीढ़ी कटाक्ष करने लगी, ‘‘दादाजी, गंदे हाथ.’’

दादाजी उत्तर देने लगे, ‘‘तुम ने ही भ्रष्ट किया है.’’

सीजर के प्रति यों उदार हो जाने के बावजूद यह भ्रष्ट किए जाने वाली बात दादाजी को फांस की तरह चुभती रहती थी. यह शिकायत उन्हें शुरू से ही बनी हुई थी. सीजर का सारे घर में निर्बाध घूमना, यहांवहां हर चीज में मुंह मारना उन्हें खलता रहता था. रसोईघर में उस का प्रवेश तथा भोजन करते समय उस का स्पर्श वे सहन नहीं कर पाते थे. इसलिए कई बार उन्हें नई पीढ़ी को झिड़कना पड़ा था, ‘‘कुछ तो ध्यान रखा करो…अपने संस्कारों का कुछ तो खयाल करो.’’

इस शिकायत के होते हुए भी सीजर का जन्मदिन जब मनाया गया तो दादाजी ने भी घर भर के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू…’’

सीजर के अगले पंजे से छुरी सटा कर जन्मदिन का केक काटने की रस्म अदा कराई गई तो दादाजी ने भी दूसरों के साथ तालियां बजाईं.

केक का प्रसाद भी दादाजी ने लिया. सीजर के साथ फोटो भी उन्होंने सहर्ष खिंचवाई.

देखते ही देखते जरा से पिल्ले के बजाय सीजर जब ऊंचा, पूरे डीलडौल वाला बनता गया. दादाजी भी घर भर की तरह प्रसन्न हुए. उस में आए इस बदलाव पर वे भी चकित हुए. वह पांवों में लोटने के बजाय अब कंधों पर दोनों पैर उठा कर गले मिलने जैसा कृत्य करने लगा तो दादाजी भी गद्गद कंठ से उसे झिड़कने लगे, ‘‘बस भैया, बस.’’

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यों प्रेम दर्शाते हुए सीजर जब मुंह चाटने को बावला होने लगा तो दादाजी को पिंड छुड़ाना मुश्किल होने लगा. फिर भी उन्होंने उसे पीटा नहीं. हाथ उठा कर पीटने का स्वांग करते हुए वे उसे डराते रहे.

आसपास के बच्चे पत्थर फेंकफेंक कर या और कोई शरारत कर के सीजर को चिढ़ाने की कुचेष्टा करते तो दादाजी फौरन दौड़े जाते थे और उन शरारती बच्चों को झिड़कते थे, ‘‘क्यों रे, उस से शरारत करोगे तो वह मजा चखा देगा…भाग जाओ.’’

रात को जब कभी भी सीजर भूंकता था तो वे फौरन देखते थे कि क्या मामला है. उन से उठते बनता नहीं था, फिर भी वे उठ कर जाते थे. घर भर के लोग उन की इस तत्परता पर मुसकराते तो वे जवाब देते, ‘‘सीजर अकारण नहीं भूंकता है.’’

एक बार 10-12 दिन के लिए दादाजी को दूसरे शहर जाना पड़ा. वे जब लौटे तो बरामदे में ही सीजर उन से लिपट गया. दादाजी उस के सिर को सहलाते हुए बुदबुदाते रहे, ‘बस बेटा, बस…इतना प्रेम अच्छा नहीं है.’

दादाजी की नींद बड़ी नाजुक थी. संकरी जगह में उन्हें नींद नहीं आती थी. किसी अन्य का स्पर्श हो जाने से भी उन की नींद उचट जाती थी. किंतु सीजर ने उन की इन असुविधाओं की कतई परवा नहीं की. वह दादाजी से सट कर या उन के पैरों के पास सोता रहा. दादाजी उसे सहन करते रहे. टांगें समेटते हुए कहते रहे, ‘‘तू जबरदस्त निकला.’’

एक बार सीजर घर से गायब हो गया. पड़ोसियों से पता लगा कि वह घर के सामने की मेहंदी की बाड़ को फलांग कर भागा है. एक बार इस बाड़ में उलझा, फिर दोबारा कोशिश करने पर निकल पाया. बाहर निकल कर गली की कुतिया के पीछे लगा था.

इस जानकारी के प्राप्त होते ही इस घर की नई पीढ़ी सीजर को ढूंढ़ने निकल पड़ी. सभी का यही खयाल था कि वह आसपास ही कहीं मिल जाएगा.

दादाजी भी अपनी लाठी टेकते हुए सीजर को ढूंढ़ने निकले. दादीजी ने टोका, ‘‘तुम क्यों जा रहे हो? सभी लोग उसे ढूंढ़ तो रहे हैं?’’

मगर दादाजी न माने. वे गलीगली में भटकते हुए परिचितअपरिचित से पूछने लगे, ‘‘हमारे सीजर को देखा? अलसेशियन है, लंबा…पूरा…बादामी, काला और सफेद मिलाजुला रंग है. कान उस के खड़े रहते हैं.’’

उन की सांस फूलती रही और वे लोगों से पूछते रहे, ‘‘हमारे सीजर को तो आप पहचानते ही होंगे? उसे बाहर घुमाने हम लाते थे. वह लोगों को देखते ही लपकता था. चेन खींचखींच कर हम उसे काबू में रखते थे. उस ने किसी को काटा नहीं, वह बस लपकता था.’’

काफी भटकने के बाद भी न तो नई पीढ़ी को और न ही दादाजी को सीजर का पता लगा. सारा दिन निकल गया, रात हो  गई, किंतु सीजर लौट कर न आया.

सभी को आश्चर्य हुआ कि वह कहां चला गया. गली की कुतिया के पास भी नहीं मिला. इस महल्ले के सारे रास्ते उस के देखेभाले थे, वह रास्ता भी नहीं भूल सकता था. किसी के रोके वह रुकने वाला नहीं था.

दादाजी ने आशंका व्यक्त की, ‘‘किसी ने बांध लिया होगा…बेचारा कैसे आएगा?’’

नई पीढ़ी ने इस आशंका को व्यर्थ माना, ‘‘उसे बांधना सहज नहीं है. वह बांधने वालों का हुलिया बिगाड़ देगा.’’

‘‘दोचार ने मिल कर बांधा होगा तो वह बेचारा क्या करेगा, असहाय हो जाएगा,’’ दादाजी ने हताश स्वर में कहा.

नई पीढ़ी ने उन की इस चिंता पर भी ध्यान न दिया तो वे बोले, ‘‘नगर निगम वालों ने कहीं न पकड़ लिया हो?’’

दादाजी के पुत्र झल्लाए, ‘‘कैसे पकड़ लेंगे…उस के गले में लाइसैंस का पट्टा है.’’

‘‘फिर भी देख आने में क्या हर्ज है?’’ दादाजी ने झल्लाहट की परवा न करते हुए सलाह दी.

पुत्र ने सहज स्वर में उत्तर दिया, ‘‘देख लेंगे.’’

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दूसरे रोज भी दिन भर सीजर की तलाश होती रही. नई पीढ़ी ने दूरदूर तक उसे खोजा मगर उस का कहीं पता न लगा. वह जैसे जमीन में समा गया था. दादाजी सड़क की ओर आंखें लगाए बाहर बरामदे में ही डटे रहे. हर आहट पर उन्हें यही लगता रहा कि सीजर अब आया, तब आया.

दिन ढलने तक भी सीजर का जब कोई पता नहीं लगा तो दादाजी ने आदेश दिया, ‘‘जाओ, समाचारपत्रों में चित्र सहित इश्तहार निकलवाओ. लिखो कि सीजर को लाने वाले को 100…नहीं, 200 रुपए इनाम देंगे.’’

नई पीढ़ी भी इश्तहार निकलवाने का विचार कर रही थी. किंतु वे लोग यह सोच रहे थे कि एक दिन और रुक जाएं. किंतु दादाजी तकाजे पर तकाजे करने लगे, ‘‘जाओ, नहीं तो सुबह के अखबार में इश्तहार नहीं निकलेगा.’’

दादाजी का बड़ा पोता सीजर का चित्र ले कर चला तो उन्होंने मसौदा बना कर दिया. साफसाफ लिखा, ‘सीजर का पता देने वाले को या उसे लाने वाले को 200 रुपए इनाम में दिए जाएंगे.’

आधी रात के बाद बाहर के बड़े लोहे के फाटक पर ‘खरर…खरर’ की ध्वनि हुई तो बरामदे में सो रहे दादाजी ने चौंक कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

कोई उत्तर नहीं मिला, तो उन्होंने फिर तकिए पर सिर टिका दिया. कुछ देर बाद फिर ‘खरर…खरर’ की आवाज आई. दादाजी ने फिर सिर ऊंचा कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

इस बार खरर…खरर ध्वनि के साथ सीजर का चिरपरिचित स्वर हौले से गूंजा, ‘भू…भू…’

इस स्वर को दादाजी ने फौरन पहचान लिया. वे खुशी में पलंग से उठने का प्रयास करते हुए गद्गद कंठ से बोले, ‘‘सीजरिया, बेटा आ गया तू.’’

गठिया के कारण वे फुरती से उठ नहीं पाए. घुटनों पर हाथ रखते हुए जैसेतैसे उठे. बाहर की बत्ती जलाई, बड़े गेट पर दोनों पंजे टिका कर खड़े सीजर पर नजर पड़ते ही वे बोले, ‘‘आ रहा हूं, बेटा.’’

बरामदे के दरवाजे का ताला खोलते- खोलते उन्होंने भीतर की ओर मुंह कर समाचार सुनाया, ‘‘सीजरिया आ गया… सुना, सीजरिया आ गया है.’’

घर भर के लोग बिस्तर छोड़छोड़ कर लपके. दादाजी ने बड़ा फाटक खोला, तब  तक सभी बाहर आ गए. फाटक खुलते ही सीजर तीर की तरह भीतर आया. दुम हिलाते हुए वह सभी के कंधों पर अगले पंजे रखरख कर खड़ा होने लगा. कभी इस के पास तो कभी उस के पास जाने लगा. मुंह के पास अपना मुंह लाला कर दयनीय मुद्रा बनाने लगा. तरहतरह की अस्पष्ट सी ध्वनियां मुंह से निकालने लगा.

कीचड़ सने सीजर के बदन पर खून के धब्बे तथा जख्म देख कर सभी दुखी थे. दादाजी ने विगलित कंठ से कहा, ‘‘बड़ी दुर्दशा हुई सीजरिया की.’’

नई पीढ़ी ने सीजर को नहलायाधुलाया, उस के जख्मों की मरहमपट्टी की, खिलायापिलाया. दादाजी विलाप करते रहे, ‘‘नालायक को इन्फैक्शन न हो गया हो?’’

देर रात को सीजर आ कर दादाजी के पैरों में सोया तो वे उसे सहलाते हुए बोले, ‘‘बदमाश, बाड़ कूद कर चला गया था.’’

सुबह अखबार में सीजर की तसवीर आई. उस तसवीर को सीजर को दिखाते हुए दादाजी चहके, ‘‘देख, यह कौन है? पहचाना? बेटा, अखबार में फोटो आ गया है तेरा…बड़े ठाट हैं तेरे.’’

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और ‘तोड़’ टूट गई

मैं 3 महीने से उस आफिस का चक्कर लगा रहा था. इस बार इत्तेफाक से मेरे पेपर्स वाली फाइल मेज पर ही रखी दिख गई थी. मेरी आंखों में अजीब किस्म की चमक सी आ गई और मुन्नालालजी की आंखों में भी.

‘‘मान्यवर, मेरे ये ‘बिल’ तो सब तैयार रखे हैं. अब तो सिर्फ ‘चेक’ ही बनना है. कृपया आज बनवा दीजिए. मैं पूरे दिन रुकने के लिए तैयार हूं,’’ मैं ने बड़ी ही विनम्रता से निवेदन किया.

उन्होंने मंदमंद मुसकान के साथ पहले फाइल की तरफ देखा, फिर सिर पर नाच रहे पंखे की ओर और फिर मेरी ओर देख कर बोले, ‘‘आप खाली बिल तो देख रहे हैं पर यह नहीं देख रहे हैं कि पेपर्स उड़े जा रहे हैं. इन पर कुछ ‘वेट’ तो रखिए, नहीं तो ये उड़ कर मालूम नहीं कहां चले जाएं.’’

मैं ‘फोबोफोबिया’ का क्रौनिक पेशेंट ठहरा, इसलिए पास में रखे ‘पेपरवेट’ को उठा कर उन पेपर्स पर रख दिया. इस पर मुन्नालालजी के साथ वहां बैठे अन्य सभी 5 लोग ठहाका लगा कर हंस पड़े. मैं ने अपनी बेचारगी का साथ नहीं छोड़ा.

मुन्नालालजी एकाएक गंभीर हो कर बोले, ‘‘एक बार 3 बजे आ कर देख लीजिएगा. चेक तो मैं अभी बना दूंगा पर इन पर दस्तखत तो तभी हो पाएंगे जब बी.एम. साहब डिवीजन से लौट कर आएंगे.’’

मैं ने उसी आफिस में ढाई घंटे इधरउधर बैठ कर बिता डाले. मुन्नालालजी की सीट के पास से भी कई बार गुजरा पर, न ही मैं ने टोका और न ही उन्होंने कोई प्रतिक्रिया जाहिर की. ठीक 3 बजे मेरा धैर्य जवाब दे गया, ‘‘बी.एम. साहब आ गए क्या?’’

‘‘नहीं और आज आ भी नहीं पाएंगे. आप ऐसा करें, कल सुबह साढ़े 11 बजे आ कर देख लें,’’ उन्होंने दोटूक शब्दों में जवाब दिया.

वैसे तो मैं काफी झल्ला चुका था पर मरता क्या न करता, फिर खून का घूंट पी कर रह गया.

मैं ने वहां से चलते समय बड़े अदब से कहा, ‘‘अच्छा, मुन्नालालजी, सौरी फौर द ट्रबल, एंड थैंक यू.’’ पर मेरा मूड काफी अपसेट हो चुका था इसलिए एक और चाय पीने की गरज से फिर कैंटीन में जा पहुंचा. संयोग ही था कि उस समय कैंटीन में बिलकुल सन्नाटा था. उस का मालिक पैसे गिन रहा था. जैसे ही मैं ने चाय के लिए कहा, वह नौकर को एक चाय के लिए कह कर फिर पैसे गिनने लगा.

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मैं ने सुबह से 3 बार का पढ़ा हुआ अखबार फिर से उठा लिया. अभी इधरउधर पलट ही रहा था कि वह पैसों को गल्ले के हवाले करते हुए मेरे पास आ बैठा, ‘‘माफ कीजिएगा, मुझे आप से यह पूछना तो नहीं चाहिए, पर देख रहा हूं कि आप यहां काफी दिनों से चक्कर लगा रहे हैं, क्या मैं आप के किसी काम आ सकता हूं?’’ कहते हुए उस ने मेरी प्रतिक्रिया जाननी चाही.

‘‘भैया, यहां के एकाउंट सैक्शन से एक चेक बनना है. मुन्नालालजी 3 महीने से चक्कर लगा रहे हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप ने कुछ तोड़ नहीं की?’’ उस ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘मैं बात समझा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘बसबस, मैं समझ गया कि क्या मामला है,’’ उस ने अनायास ही कह डाला.

‘‘क्या समझ गए? मुझे भी तो समझाइए न,’’ मैं ने सरलता से कहा.

‘‘माफ कीजिएगा, या तो आप जरूरत से ज्यादा सीधे हैं या फिर…’’ वह कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘मैं आप का मतलब नहीं समझा,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे, ऐसे कामों में कुछ खर्चापानी लगता है जिस को कुछ लोग हक कहते हैं, कुछ लोग सुविधाशुल्क कहते हैं और कुछ लोग ‘डील’ करना कहते हैं. यहां दफ्तर की भाषा में उसे ‘तोड़’ कहा जाता है.’’

‘‘तो इन लोगों को यह बताना तो चाहिए था,’’ मैं ने उलझन भरे स्वर में कहा.

‘‘यह कहा नहीं जाता है, समझा जाता है,’’ उस ने रहस्यात्मक ढंग से बताया.

‘‘ओह, याद आया. आज मुन्नालालजी ने मुझ से पेपर्स पर ‘वेट’ रखने के लिए कहा था. शायद उन का मतलब उसी से रहा होगा,’’ मैं ने उन को बताया.

‘‘देखिए, किसी भी भौतिक वस्तु में जो महत्त्व ‘वेट’ यानी भार का है वही महत्त्व भार में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का है. आप गुरुत्वाकर्षण का मतलब समझते हैं?’’ उस ने पूछा.

‘‘हां, बिलकुल, मैं ने बी.एससी. तक फिजिक्स पढ़ी है,’’ मैं ने कहा.

‘‘तो यह रिश्वत यानी वेट यानी डील यानी सुविधाशुल्क उसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के जैसा काम करता है. बिना इस के वेट नहीं और बिना वेट के पेपर्स उड़ेंगे ही. वैसे आप का कितने का बिल है?’’ वह गुरुत्वाकर्षण का नियम समझाते हुए पूछ बैठा.

‘‘60,400 रुपए का,’ मैं ने झट से बता दिया.

‘‘तो 6 हजार रुपए दे दीजिए, चेक हाथोंहाथ मिल जाएगा,’’ वह बोला.

‘‘पर यह दिए कैसे जाएं और किसे?’’

‘‘मुन्नालालजी को यहां चाय के बहाने लाएं. उन के हाथ में 6 हजार रुपए पकड़ाते हुए कहिए, ‘यह खर्चापानी है.’ फिर देखिए कि चेक 5 मिनट के अंदर मिल जाता है कि नहीं,’’ कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ.

मैं ने उसी बिल्ंिडग में स्थित ए.टी.एम. से जा कर 7 हजार रुपए निकाले. उस में से 1 हजार अपने अंदर वाले पर्स में रखे और बाकी बाईं जेब में रख कर मुन्नालालजी के पास जा पहुंचा तथा जैसे मुझे चाय वाले ने बताया था मैं ने वैसा ही किया. मैं चेक भी पा गया था पर लौटते समय मैं ने उस कैंटीन वाले को शुक्रिया कहना चाहा.

उस ने मुझे देखते ही पूछा, ‘‘चेक मिला कि नहीं?’’

‘‘साले ने 6 हजार रुपए लिए थे. चेक कैसे न देता?’’ मेरे मुंह से निकल गया.

मैं वहां से बाहर आ कर गाड़ी स्टार्ट करने वाला ही था कि एक चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘मांगेरामजी, आप को मुन्नालालजी बुला रहे हैं.’’

पहले मैं ने सोचा कि गाड़ी स्टार्ट कर के अब भाग ही चलूं, पर जब उस ने कहा कि चेक में कुछ कमी रह गई है तो मैं ने अपना फैसला बदल लिया.

जैसे ही मैं मुन्नालालजी के पास पहुंचा वे बोले, ‘‘अभी आप को फिर से चक्कर लगाना पड़ता. उस चेक में एक कमी रह गई है.’’

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मैं ने खुशीखुशी चेक निकाल कर उन को दिया. उन्होंने उसे फिर से दबोच लिया. फिर मेरे दिए हुए 6 हजार निकाल कर मेरी ओर बढ़ा कर बोले, ‘‘ये आप के पैसे आप के पास पहुंच गए और यह मेरा चेक मेरे पास आ गया. अब आप जहां और जिस के पास जाना चाहें जाएं, कोर्ट, कचहरी, विधानसभा, पार्लियामैंट, अखबारों के दफ्तर या अपने क्षेत्र के दादा के पास. तमाम जगहें हैं.’’

हाथ में आई मोटी रकम यों फिसल जाएगी यह सोच कर मैं ने मायूसी व लाचारगी से मुन्नालाल को देखा पर कुछ बोला नहीं. मेरे मन में तोड़ की टूटी कड़ी को फिर से जोड़ने की जुगत चल रही थी.

Short Story: सफाई और कोरोना

दोपहरबिस्तर पर लोटपोट होने के बाद सोच कर कि चल कर जरा हौल की सैर कर आऊं, दरवाजा खोल कर बाहर कदम रखा कि किसी चीज से पैर टकराया. मुंह से चीख निकली और मैं बम जैसे फटा, ‘‘यह क्या हाल बना रखा है, घर के आदमी के चलनेफिरने लायक जगह तो छोड़ा कम से कम?’’

उधर से भी जवाबी धमाका हुआ, ‘‘दिनभर सोने से फुरसत मिल गई हो तो थोड़ा काम खुद भी कर लो.’’

मैं भिनभिनाया, ‘‘अभी तो तुम भी दिनभर घर में ही क्यों नहीं थोड़ा साफसफाई पर ध्यान दे लेती.’’

वह तमतमाई, ‘‘आप भी तो दिनभर बिस्तर पर ही हैं, आप ही क्यों नहीं थोड़ी साफसफाई कर लेते?’’

मैं सीना फुलाया, ‘‘यह मेरा काम नहीं है, मैं मर्द हूं.’’

सुमि पास आ गई, ‘‘अच्छा, यह कौन सी किताब में लिखा है

कि यह काम मर्दों का नहीं है.’’

मैं ने तन कर कहा, ‘‘मेरी अपनी किताब में.’’

सुमि ने

कमर पर हाथ रखे, ‘‘तो कौन से काम मर्दों के करने के हैं, ये भी लिखा होगा तो बता दो जरा?’’

मैं ने बांहें फैला दीं, ‘‘हां, लिखा है न आओ, बताऊं?’’

सुमि के चेहरे पर ललाई दौड़ गई जिसे उस ने तमतमाहट में छिपा लिया, ‘‘क्वारंटाइन में हो डिस्टैंस मैंटेन करो.’’

मैं ने आहें भरी, ‘‘वही

तो कर रहा हूं और कितना

करूं? 24 घंटे का साथ फिर

भी दूरियां…’’

मैं सुमि की तरफ बढ़ा सुमि ने बीच में ही

रोक दिया.

‘‘ये फालतू काम करने के बजाय कुछ काम की बात करो.’’

‘‘ये भी काम का ही काम है.’’

‘‘नहीं अभी बरतन मांजना ज्यादा काम का काम है, आओ जरा बरतन मांज दो.’’

‘‘कहा न यह मेरा काम नहीं है…’’

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सुमि तिनक कर बोली, ‘‘यह मेरा काम नहीं वह मेरा काम नहीं कहने से काम नहीं चलेगा. चुपचाप बरतन मांज दो वरना पुलिस को फोन कर दूंगी कि यहां एक कोरोना का मरीज है.’’

मैं थोड़ा डरा पर ऊपर से बोला, ‘‘यह गीदड़ भभकियां किसी और देना. तुम फोन कर सकती हो तो क्या मैं फोन नहीं कर सकता? मैं भी फोन कर के बोल दूंगा कि यहां एक कोरोना की मरीज है.’’

सुमि इत्मीनान से बोली, ‘‘बोल दो, बढि़या है. वे मेरी जांच करेंगे जांच में कुछ निकलेगा

नहीं पर मुझे 14 दिन का आराम मिल जाएगा. यहां घर में सारे काम आप करना. अभी तो पकापकाया मिल रहा है. बड़े ठाठ हैं नवाब

साहब के फिर खुद पकाना, खुद खाना और बरतन भी मांजना.’’

अब मैं वाकई डर गया, ‘‘छोड़ो न यार मैं तो मजाक कर रहा था, देखो बरतनवरतन मांजना तो अपने बस का है नहीं, मैं सफाई का काम कर देता हूं.’’

मैं ने डब्बू, डिंगी को आवाज लगाई, ‘‘चलो बच्चो मम्मी की हैल्प करते हैं. थोड़ी सफाई कर लेते हैं आ जाओ…’’

सुमि ने टोका, ‘‘कोई जरूरत नहीं है, सफाईवफाई करने की जैसा पड़ा है पड़े रहने दो. आप से जो कह रही हूं वह करो बस.’’

मैं ने जिद की, ‘‘अरे यार सफाई करना

मेरे लिए ज्यादा इजी रहेगा. करने दो न देखो, कितनी गंदगी पड़ी है हर जगह कितना पसरा

पड़ा है.’’

सुमि ने जैसे अल्टीमेटम देते हुए कहा, ‘‘न सफाई करनी है न करवानी है… जैसे पड़ा है पड़ा रहने दो, आप अपनी मर्दानगी इन बरतनों पर दिखाओ इन्हें चमका कर.’’

मैं फिर चिनमिनाया, ‘‘देखो एक तो यह

सब मेरे काम नहीं हैं फिर भी मैं करने को तैयार हूं तो जो काम मैं कर सकता हूं वही करने दो न.’’

सुमि फिर तुनकी, ‘‘एक बार कह तो

दिया सफाई नहीं करनी तो नहीं करनी क्यों पीछे पड़े हैं…’’

मैं भी जोर से बोला, ‘‘क्यों नहीं करनी? इतनी गंदगी में तुम कैसे रह सकती हो. तुम्हें आदत होगी तो होगी इतनी गंदगी में रहने की पर मुझे नहीं है तो मैं तो सफाई ही करूंगा.’’

सुमि ने मुंह बिचकाया,‘‘आए बड़े मिस्टर क्लीन. जैसे पहले व्हाइट हाउस में ही रहते थे… मैं भी कोई पाइप में रहती नहीं आई हूं पर अभी मुझे सफाई में नहीं रहना बस.’’

मैं ने भौंहें चढ़ाई, ‘‘क्यों पर क्यों नहीं रहना, क्यों नहीं करनी सफाई? इतने गंदे पसरे वाले घर में मन लग जाएगा तुम्हारा? अभी तो 24 घंटे तुम भी घर में ही हो…’’

सुमि ने होंठ टेढ़े किए, ‘‘हां तो इसी घर में रहना चाहती हूं, कहीं और नहीं जाना चाहती और यह भी चाहती हूं कि आप और बच्चे भी इसी घर में रहें कहीं किसी के घर न जाए.’’

मेरा सिर चकराया, ‘‘कमाल है, सफाई

का इस घर या कहीं जाने से क्या संबंध है?

तुम भी न कुछ का कुछ कहीं का कहीं जोड़ती रहती हो.’’

सुमि बोली, ‘‘संबंध कैसे नहीं हैं,

बिलकुल संबंध हैं, सौलिड संबंध हैं, जबरदस्त संबंध हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘वही तो पूछ रहा हूं, क्या संबंध है? तुम्हारी डेढ़ अक्ल ने निकाला है तो बता भी दो…’’

सुमि ने कंधे उचकाए, ‘‘इस में डेढ़ अक्ल, ढाई अक्ल वाली कोई बात नहीं है, सीधीसीधी बात है, देखो जितनी गंदगी होगी उतना इम्युनिटी सिस्टम अच्छा होगा. इम्युनिटी सिस्टम अच्छा होगा तो कोरोना का प्रभाव कम होगा. हम ऐसी गंदगी में रहेंगे तो न कोरोना होगा न हम कहीं और जाएंगे.’’

मेरा दिमाग घूम गया, ‘‘ये क्या लौजिक है, किस ने कहा गंदगी में रहने से कोरोना

नहीं आएगा?’’

सुमि ने अत्यधिक विश्वास से कहा, ‘‘आप खुद देखो न, कोरोना के सब से ज्यादा मरीज कहां थे और कहां पर मरे?’’

मैं ने कहा, ‘‘स्पेन, इटली में…’’

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‘‘और?’’

‘‘यूएसए, फ्रांस, ब्रिटेन…’’

‘‘तो देखो ये सभी देश साफस्वच्छ देशों में आते हैं कि नहीं. जितने साफ सुथरे थे उतना कोरोना का प्रभाव बढ़ता गया, लोगों की सांसें घटती गई.

‘‘एशियाई देशों में देखो चीन को छोड़

कर, कोरोना के कितने मरीज हैं? हमारे यहां

भी देखो जो शहर साफसुथरे थे वहां कोरोना

छाती ताने घूमता फिर रहा है, पर जो देश

और शहर गंदगी को अहमियत देते रहे आज उतना ही कम कोरोना से जूझ रहे हैं. हमारे

यहां भी देखो, रोज ही तो लोकल न्यूज चैनल

पर दिखा रहे हैं कि शहर में कितनी गंदगी हो

रही है. अभी पूरा शहर खाली पड़ा है आराम

से सफाई हो सकती है पर कोई ध्यान दे रहा क्या?

‘‘नहीं न, वह इसलिए कोरोना गंदगी देख कर पलट जाए, तो आप घर की सफाई भी रहने दो, जितना हम गंदगी में रहेंगे हमारी इम्युनिटी पावर बढे़गी और कोरोना से लड़ने की शक्ति भी. बाद की बाद में देखेंगे. आप तो अभी बरतन मांजो बस.’’

मैं मुंह खोले बेवकूफ सा उस की बात सुनता रहा. समझ नहीं पा रहा था इस का क्या जवाब दूं? बेचारे हमारे नेता स्वच्छ भारत मिशन चला कर देश को साफसुथरा बनाने में जीजान से कोशिश कर रहे हैं. यहां इस का यह नया ही फंडा. क्या वाकई यह सही कह रही है? सफाई से कोरोना प्रभावशाली व शक्तिशाली हो जाता है? इस पर रिसर्च बाद में करूंगा, फिलहाल

तो सिंक के पास खड़ा सोच रहा हूं कि बरतन कैसे मांजू?

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Short Story: लॉकडाउन- बुआ के घर आखिर क्या हुआ अर्जुन के साथ?

”दिनेश, तुम बिलकुल चिंता मत करो, अर्जुन मेरा भी तो बेटा है. पिंकी, बबलू तो उस के पीछे ही लगे रहते हैं.घर में ही तो रह रहा है. यह मत सोचो कि लौकडाउन में उस का यहां रहना मेरे लिए कोई परेशानी की बात होगी. मेरे लिए तो जैसे पिंकी, बबलू हैं वैसे अर्जुन. उस से बात करवाऊं?”

किचन में बरतन धोते हुए अर्जुन के कानों में बुआ अंजू के शब्द पड़े तो उस का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. अब बुआ पापा से बात कराने के लिए उसे फोन न दे दें. नहीं करनी है उसे अपने पापा से बात.

पर बुआ ने फोन होल्ड पर रखा था. उसे पकड़ाते हुए बोलीं,” लो बेटा, अपने पापा से बात कर लो. उस के बाद थोड़ा आराम कर लेना.”

अर्जुन समझ गया कि यह सब पापा को सुनाने के लिए कहे गए हैं. उस ने हाथ धोपोंछ कर फोन बहुत बेदिली से पकड़ा. पापा उस का हालचाल ले रहे थे, उस ने बस हांहूं… में जवाब दे कर फोन रख दिया. वह बरतन धो कर चुपचाप बालकनी में रखी कुरसी पर बैठ गया.

आज मुंबई में लौकडाउन की वजह से फंसे उसे 2 महीने हो रहे थे. वह यहां वाशी में होस्टल में  रह कर इंजीनियरिंग के बाद एक कोर्स कर रहा था. अचानक कोरोना के प्रकोप के चलते होस्टल बंद हो गया और सारे स्टूडैंट्स अपनेअपने घर जाने लगे.

वह सहारनपुर से आया हुआ था. उस ने अपने पिता दिनेश को कहा कि वह भी घर आ रहा है. ट्रेन या कोई भी फ्लाइट मिलने पर वह फौरन आना चाहता है.

दिनेश ने कहा,” नहींनहीं… आने की कोई जरूरत नहीं है. यह तो कुछ दिनों की ही बात है. क्यों आओगे फिर जाओगे? वहीं अंजू बुआ के यहां चले जाओ.”

उस ने कहा था,” नहीं पापा, कुछ दिनों की बात नहीं है, मेरे सभी साथी फ्लाइट पकड़ कर घर चले गए हैं. मैं भी मुंबई से फौरन निकलना चाहता हूं.”

”नहीं, बुआ के पास चले जाओ. क्यों आनेजाने में फालतू खर्च करना. वह भो तो अपना घर है.”

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उस ने अपनी मम्मी रीना से बात की,”मम्मी, पापा मेरी बात क्यों नहीं समझ रहे? लौकडाउन लंबा चलेगा. यह 2 दिनों की बात नहीं है, मुझे घर आना है.”

”हां, बेटा… मैं भी यही चाहती हूं कि तुम अपने घर ही आ जाओ. ऐसे समय मेरी आंखों के आगे रहो. पर तुम्हारे पापा बिलकुल सुन ही नहीं रहे.”

”और आप भी जानती हैं बुआ को. बस मीठी बोली बोल कर सामने वाले को बेवकूफ समझती हैं. जब भी उन से मिलने गया, इतना दिखावटी है उन के यहां सब. मुझे नहीं रहना उन के यहां. मम्मी, कुछ करो न.”

और जिद्दी पति के सामने रीना की एक न चली. सब बंद होता गया और उसे अंजू के घर ही आना पड़ा. बात 1-2 दिनों की थी नहीं. यह किसी को भी नहीं पता था कि कब हालात सामान्य होंगें?

अंजू, उस के पति विनय और दोनों बच्चों ने उस का स्वागत दिल खोल कर किया. अर्जुन स्वभाव से सरल था इसलिए शांत सा रहता. कुछ दिन तो उसे कोई दिक्कत नहीं हुई, पर जब अंजू की कामवाली भी छुट्टी पर चली गई तो अब घर के कामधाम कौन संभाले? अब इस का बंटवारा होने लगा.

अंजू ने पूछा,” पहले यह बताओ कि बरतन कौन धोएगा?”

20 साल की पिंकी ने कहा,”मैं तो बिलकुल भी नहीं. मेरे हाथ खराब हो जाएंगे.”

15 साल के बबलू ने कहा,” मेरी तो औनलाइन क्लासेज हो सकती हैं और आप के सिंक भरभर के बरतन धोने में तो आप की कामवाली ही रो देती है. सौरी मम्मी, यह तो अपने बस का नहीं.”

विनय ने सफाई दी,” बरतन धोने में तो मेरी कमर भी चली जाएगी.”

अंजू ने सब को घूरते हुए कहा,” तुम सब रहने दो, बस बहाने बना रहे हो. मैं तुम लोगों से कहूंगी ही नहीं. मेरा अर्जुन धो लेगा. यही मेरा बेटा है. क्यों अर्जुन?”

अर्जुन ने इतना ही कहा,”ठीक है बुआ धो लूंगा.”

अंजू ने फिर पूछा,” कुकिंग में हैल्प कौन करेगा?”

सब चुप रहे. तब अंजू ने कहा,” मुझे तो तुम लोगों से उम्मीद ही नहीं. तुम लोगों पर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है. ठीक है, मैं देख लूंगी. पिंकी तुम्हें साफसफाई करनी पड़ेगी और बबलू , सूखे कपङे तुम ही तह करोगे. मेरा अर्जुन मेरी हैल्प करेगा. बस, मुझे तुम लोगों को कुछ कहना ही नहीं.”

*लौकडाउन बढ़ता जा रहा था और इस के साथ ही अर्जुन मन ही मन टूटता भी जा रहा था. बुआ कहने को तो बहुत प्यार से पेश आतीं, पर वह उन की चालाकियों को समझ रहा था. पिंकी, बबलू उस के आगेपीछे घूमते. विनय उस के साथ बातें करते रहते. देखने में सब सामान्य लगता पर अर्जुन भी कोई बच्चा तो था नहीं, बुआ की मीठीमीठी बातों का मतलब इतने लंबे समय में अच्छी तरह समझ चुका था. उसे अपने पापा के लिए मन में बहुत नाराजगी थी. बेटा के आगे पिता ने पैसा को ज्यादा महत्त्व दिया था, बजाय इस के कि वह घर पहुंच जाए. उन्हें अपनी इस बहन का स्वभाव भी अच्छी तरह पता था.

पिता आर्थिक रूप से समृद्ध थे. ऐसा नहीं कि उस का इस समय जाने का खर्च वे सहन न कर पाते, पर बेकार की उन की सनक के कारण आज वह बुआ का एक ऐसा नौकर बन कर रह गया है, जो उन के किसी भी काम को मना नहीं कर पाता है. अब तो न कहीं जा ही सकता.

घर  से निकले लगभग 2 महीने हो गए थे. बाहर से आया सामान वही सैनिटाइज करता है. कोई उस सामान को तभी हाथ लगाता है जब वह साफ कर देता है. उस की लाइफ की ही कोई वैल्यू नहीं है.

बुआ का कहना है कि वही अच्छी तरह से सैनिटाइज करता है बाकि सब तो लापरवाह हैं. बुआ के उस से काम करवाने के स्टाइल पर अब अर्जुन को मन ही मन हंसी भी आ जाती है.

अर्जुन को अपनी मम्मी पर भी बहुत गुस्सा आता है कि क्यों उन्होंने अपने मन की बात पापा के सामने नहीं रखी? क्यों वे अपनी बात पापा से मनवा नहीं पातीं?

मम्मी जब भी उस से फोन पर बात करती हैं,  बुआ आसपास ही रहती हैं, फिर वह व्हाट्सऐप पर उन्हें अपनी हालत बताता है और फिर बाद में चैट डिलीट कर देता है, क्योंकि पिंकी, बबलू , कभी भी उस का फोन छेड़ते रहते हैं.

कभीकभी उसे लगता है कि पिंकी, बबलू को भी कहीं उस का फोन चेक करते रहने की ट्रैनिंग तो नहीं दे डाली बुआ ने?

उस ने एक बार मना भी किया था कि मेरा फोन मत छेड़ो, पर उस के इतना कहते ही बच्चों ने शोर मचा दिया था कि भैया ने डांटा. उसे फौरन बात संभालनी पड़ी थी.

अर्जुन अपने से 3 साल छोटी बहन अंजलि के टच में लगातार रहता. वह एक बार मुंबई घूमने आई थी. उसे बुआ के घर 4-5 दिन रहना पड़ा था. वापस घर लौट कर उस ने सब के सामने कान पकडे थे. कहा था,”मैं तो कभी बुआ के घर नहीं जाउंगी. मीठा बोल कर काम में ही जोत कर रखती हैं. क्या बताऊं, बैठने ही नहीं देतीं. मेरी बेटी, मेरी बेटी… कह कर कितना काम करवा लिया. पापा, आप की बहन है या कोई मीठी छुरी?”

इस नाम पर वह खूब हंसा था. जब से अर्जुन यहां फंसा है अंजलि उस से बुआ के हाल मीठी छुरी कह कर ही लेती है. वह उसे सब बताता है कि अंजलि भाई के लिए दुखी है. कहां उसे आदत है घर के काम करने की? कामचोर नहीं है अर्जुन, पर इतना भी समझ रहा है कि पिता और बुआ के बीच पिस गया है वह. पिता से तो वह अब कोई बात ही नहीं कर रहा है.

कभी वह भी देर से उठता है और इस बीच दिनेश का फोन आ जाए तो बुआ उन से ऐसे बात करती हैं कि जैसे वह इतना आराम कर रहा है और वे यही चाहती हैं कि बस वह यों ही उन के घर रहे. वह तो बाद में उसे अंजलि से पता चलता है जब पापा बताते हैं कि देखो, क्या ठाठ से रख रही है मेरी बहन उसे. आजकल के बच्चे तो यों ही उस के पीछे पड़े रहते हैं,”और वह यह सुन कर कुढ़ कर रह जाता है.

एक दिन तो उसे शरारत सूझी. उस ने बबलू से कहा,”मेरा वीडियो बनाओगे जब मैं बरतन धोऊंगा?”

बबलू ने पूछा,” क्यों भैया?”

”अपने दोस्तों को दिखाऊंगा. वे भी भेजते हैं मुझे ऐसे वीडियो.”

बबलू ने यह बात मम्मी यानी उस की बुआ को बता दी. और फिर वीडियो तो बनना ही नहीं था.

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यह लौकडाउन उसे बहुत भारी पड़ा है. उसे इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा कि उस के पिता ने उस की बात नहीं मानी. उस की जमा हुई फीस खतरे में थी, इसलिए पापा ने उसे न बुला कर अपने कुछ पैसे बचा लिए?क्यों वे किसी की बात नहीं सुनते? कितना दर्द दिया है उन्होंने उसे? शरीर से भी थक चुका है वह और मन से भी. पता नहीं कितने दिन और ऐसे…

अर्जुन की आंखों से आंसू बह कर गालों तक आ गए, मगर उस ने झट से आंसू पोंछ लिए क्योंकि बुआ आवाज जो लगा रही थीं.

Mother’s Day 2020: मां-सुख की खातिर गुड्डी ममता का गला क्यों घोटना चाहती हैं?

रात के 10 बजे थे. सुमनलता पत्रकारों के साथ मीटिंग में व्यस्त थीं. तभी फोन की घंटी बज उठी…

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

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गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

‘‘ऐसा कर, बच्चों के साथ तू भी यहां रह ले. तुझे भी काम मिल जाएगा और बच्चे भी पल जाएंगे,’’ सुमनलता ने कहा.

‘‘मैं कहां आप लोगों पर बोझ बन कर रहूं, मम्मीजी. काम भी जानती नहीं और मुझ अकेली का क्या, कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ हो जाएगा. अब आप तो इन बच्चों का भविष्य बना दो.’’

‘‘अच्छा, तो तू उस ट्रक ड्राइवर से शादी करने के लिए अपने बच्चों से पीछा छुड़ाना चाह रही है,’’ सुमनलता की आवाज तेज हो गई, ‘‘देख, या तो तू इन बच्चोें के साथ यहां पर रह, तुझे मैं नौकरी दे दूंगी या बच्चों को छोड़ जा पर शर्त यह है कि तू फिर कभी इन बच्चों से मिलने नहीं आएगी.’’

सुमनलता ने सोचा कि यह शर्त एक मां कभी नहीं मानेगी पर आशा के विपरीत गुड्डी बोली, ‘‘ठीक है, मम्मीजी, आप की शरण में हैं तो मुझे क्या फिक्र, आप ने तो मुझ पर एहसान कर दिया…’’

आंसू पोंछती हुई वह जमुना को दोनों बच्चे थमा कर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गई थी.

‘‘अब मैं कैसे संभालूं इतने छोटे बच्चों को,’’ हैरान जमुना बोली.

गोदी का बच्चा तो अब जोरजोर से रोने लगा था और बच्ची कोने में सहमी खड़ी थी.

कुछ देर सोच में पड़ी रहीं सुमनलता फिर बोलीं, ‘‘देखो, ऐसा है, अंदर थोड़ा दूध होगा. छोटे बच्चे को दूध पिला कर पालने में सुला देना. बच्ची को भी कुछ खिलापिला देना. बाकी सुबह आ कर देखूंगी.’’

‘‘ठीक है, मम्मीजी,’’ कह कर जमुना बच्चों को ले कर अंदर चली गई. सुमनलता बाहर खड़ी गाड़ी में बैठ गईं. उन के मन में एक अजीब अंतर्द्वंद्व शुरू हो गया कि क्या ऐसी भी मां होती है जो जानबूझ कर दूध पीते बच्चों को छोड़ गई.

‘‘अरे, इतनी देर कैसे लग गई, पता है तुम्हारा इंतजार करतेकरते पिंकू सो भी गया,’’ कहते हुए पति सुबोध ने दरवाजा खोला था.

‘‘हां, पता है पर क्या करूं, कभीकभी काम ही ऐसा आ जाता है कि मजबूर हो जाती हूं.’’

तब तक बहू दीप्ति भी अंदर से उठ कर आ गई.

‘‘मां, खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, तुम भी आराम करो, मैं कुछ थोड़ाबहुत खुद ही निकाल कर खा लूंगी.’’

ड्राइंगरूम में गुब्बारे, खिलौने सब बिखरे पडे़ थे. उन्हें देख कर सुमनलता का मन भर आया कि पोते ने उन का कितना इंतजार किया होगा.

सुमनलता ने थोड़ाबहुत खाया पर मन का अंतर्द्वंद्व अभी भी खत्म नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें देर रात तक नींद नहीं आई थी.

सुमनलता बारबार गुड्डी के ही व्यवहार के बारे में सोच रही थीं जिस ने मन को झकझोर दिया था.

मां की ममता…मां का त्याग आदि कितने ही नाम से जानी जाती है मां…पर क्या यह सब झूठ है? क्या एक स्वार्थ की खातिर मां कहलाना भी छोड़ देती है मां…शायद….

सुबोध को तो सुबह ही कहीं जाना था सो उठते ही जाने की तैयारी में लग गए.

पिंकू अभी भी अपनी दादी से नाराज था. सुमनलता ने अपने हाथ से उसे मिठाई खिला कर प्रसन्न किया, फिर मनपसंद खिलौना दिलाने का वादा भी किया. पिंकू अपने जन्मदिन की पार्टी की बातें करता रहा था.

दोपहर 12 बजे वह आश्रम गईं, तो आते ही सारे कमरों का मुआयना शुरू कर दिया.

शिशु गृह में छोटे बच्चे थे, उन के लिए 2 आया नियुक्त थीं. एक दिन में रहती थी तो दूसरी रात में. पर कल रात तो जमुना भी रुकी थी. उस ने दोनों बच्चों को नहलाधुला कर साफ कपडे़ पहना दिए थे. छोटा पालने में सो रहा था और जमुना बच्ची के बालों में कंघी कर रही थी.

‘‘मम्मीजी, मैं ने इन दोनों बच्चों के नाम भी रख दिए हैं. इस छोटे बच्चे का नाम रघु और बच्ची का नाम राधा…हैं न दोनों प्यारे नाम,’’ जमुना ने अब तक अपना अपनत्व भी उन बच्चों पर उडे़ल दिया था.

सुमनलता ने अब बच्चों को ध्यान से देखा. सचमुच दोनों बच्चे गोरे और सुंदर थे. बच्ची की आंखें नीली और बाल भूरे थे.

अब तक दूसरे छोटे बच्चे भी मम्मीजीमम्मीजी कहते हुए सुमनलता के इर्दगिर्द जमा हो गए थे.

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सब बच्चों के लिए आज वह पिंकू के जन्मदिन की टाफियां लाई थीं, वही थमा दीं. फिर आगे जहां कुछ बडे़ बच्चे थे उन के कमरे में जा कर उन की पढ़ाईलिखाई व पुस्तकों की बाबत बात की.

इस तरह आश्रम में आते ही बस, कामों का अंबार लगना शुरू हो जाता था. कार्यों के प्रति सुमनलता के उत्साह और लगन के कारण ही आश्रम के काम सुचारु रूप से चल रहे थे.

3 माह बाद एक दिन चौकीदार ने आ कर खबर दी, ‘‘मम्मीजी, वह औरत जो उस रात बच्चों को छोड़ गई थी, आई है और आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘कौन, वह गुड्डी? अब क्या करने आई है? ठीक है, भेज दो.’’

मेज की फाइलें एक ओर सरका कर सुमनलता ने अखबार उठाया.

‘‘मम्मीजी…’’ आवाज की तरफ नजर उठी तो दरवाजे पर खड़ी गुड्डी को देखते ही वह चौंक गईं. आज तो जैसे वह पहचान में ही नहीं आ रही है. 3 महीने में ही शरीर भर गया था, रंगरूप और निखर गया था. कानोें में लंबेलंबे चांदी के झुमके, शरीर पर काला चमकीला सूट, गले में बड़ी सी मोतियों की माला…होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाई थी. और किसी सस्ते परफ्यूम की महक भी वातावरण में फैल रही थी.

‘‘मम्मीजी, बच्चों को देखने आई हूं.’’

‘‘बच्चों को…’’ यह कहते हुए सुमनलता की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘मैं ने तुम से कहा तो था कि तुम अब बच्चों से कभी नहीं मिलोगी और तुम ने मान भी लिया था.’’

‘‘अरे, वाह…एक मां से आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह बच्चों से नहीं मिले. मेरा हक है यह तो, बुलवाइए बच्चों को,’’ गुड्डी अकड़ कर बोली.

‘‘ठीक है, अधिकार है तो ले जाओ अपने बच्चों को. उन्हें यहां क्यों छोड़ गई थीं तुम,’’ सुमनलता को भी अब गुस्सा आ गया था.

‘‘हां, छोड़ रखा है क्योंकि आप का यह आश्रम है ही गरीब और निराश्रित बच्चों के लिए.’’

‘‘नहीं, यह तुम जैसों के बच्चों के लिए नहीं है, समझीं. अब या तो बच्चों को ले जाओ या वापस जाओ,’’ सुमनलता ने भन्ना कर कहा था.

‘‘अरे वाह, इतनी हेकड़ी, आप सीधे से मेरे बच्चों को दिखाइए, उन्हें देखे बिना मैं यहां से नहीं जाने वाली. चौकीदार, मेरे बच्चों को लाओ.’’

‘‘कहा न, बच्चे यहां नहीं आएंगे. चौकीदार, बाहर करो इसे,’’ सुमनलता का तेज स्वर सुन कर गुड्डी और भड़क गई.

‘‘अच्छा, तो आप मुझे धमकी दे रही हैं. देख लूंगी, अखबार में छपवा दूंगी कि आप ने मेरे बच्चे छीन लिए, क्या दादागीरी मचा रखी है, आश्रम बंद करा दूंगी.’’

चौकीदार ने गुड्डी को धमकाया और गेट के बाहर कर दिया.

सुमनलता का और खून खौल गया था. क्याक्या रूप बदल लेती हैं ये औरतें. उधर होहल्ला सुन कर जमुना भी आ गई थी.

‘‘मम्मीजी, आप को इस औरत को उसी दिन भगा देना था. आप ने इस के बच्चे रखे ही क्यों…अब कहीं अखबार में…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा, तुम लोग भी अपनाअपना काम करो.’’

सुमनलता ने जैसेतैसे बात खत्म की, पर उन का सिरदर्द शुरू हो गया था.

पिछली घटना को अभी महीना भर भी नहीं बीता होगा कि गुड्डी फिर आ गई. इस बार पहले की अपेक्षा कुछ शांत थी. चौकीदार से ही धीरे से पूछा था उस ने कि मम्मीजी के पास कौन है.

‘‘पापाजी आए हुए हैं,’’ चौकीदार ने दूर से ही सुबोध को देख कर कहा था.

गुड्डी कुछ देर तो चुप रही फिर कुछ अनुनय भरे स्वर में बोली, ‘‘चौकीदार, मुझे बच्चे देखने हैं.’’

‘‘कहा था कि तू मम्मीजी से बिना पूछे नहीं देख सकती बच्चे, फिर क्यों आ गई.’’

‘‘तुम मुझे मम्मीजी के पास ही ले चलो या जा कर उन से कह दो कि गुड्डी आई है…’’

कुछ सोच कर चौकीदार ने सुमनलता के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘मम्मीजी, गुड्डी फिर आ गई है. कह रही है कि बच्चे देखने हैं.’’

‘‘तुम ने उसे गेट के अंदर आने क्यों दिया…’’ सुमनलता ने तेज स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ सुबोध भी चौंक  कर बोले.

‘‘अरे, एक पागल औरत है. पहले अपने बच्चे यहां छोड़ गई, अब कहती है कि बच्चों को दिखाओ मुझे.’’

‘‘तो दिखा दो, हर्ज क्या है…’’

‘‘नहीं…’’ सुमनलता ने दृढ़ स्वर में कहा फिर चौकीदार से बोलीं, ‘‘उसे बाहर कर दो.’’

सुबोध फिर चुप रह गए थे.

इधर, आश्रम में रहने वाली कुछ युवतियों के लिए एक सामाजिक संस्था कार्य कर रही थी, उसी के अधिकारी आए हुए थे. 3 युवतियों का विवाह संबंध तय हुआ और एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न भी हो गया.

सुमनलता को फिर किसी कार्य के सिलसिले में डेढ़ माह के लिए बाहर जाना पड़ गया था.

लौटीं तो उस दिन सुबोध ही उन्हें छोड़ने आश्रम तक आए हुए थे. अंदर आते ही चौकीदार ने खबर दी.

‘‘मम्मीजी, पिछले 3 दिनों से गुड्डी रोज यहां आ रही है कि बच्चे देखने हैं. आज तो अंदर घुस कर सुबह से ही धरना दिए बैठी है…कि बच्चे देख कर ही जाऊंगी.’’

‘‘अरे, तो तुम लोग हो किसलिए, आने क्यों दिया उसे अंदर,’’ सुमनलता की तेज आवाज सुन कर सुबोध भी पीछेपीछे आए.

बाहर बरामदे में गुड्डी बैठी थी. सुमनलता को देखते ही बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे अपने बच्चे देखने हैं.’’

उस की आवाज को अनसुना करते हुए सुमन तेजी से शिशुगृह में चली गई थीं.

रघु खिलौने से खेल रहा था, राधा एक किताब देख रही थी. सुमनलता ने दोनों बच्चों को दुलराया.

‘‘मम्मीजी, आज तो आप बच्चों को उसे दिखा ही दो,’’ कहते हुए जमुना और चौकीदार भी अंदर आ गए थे, ‘‘ताकि उस का भी मन शांत हो. हम ने उस से कह दिया था कि जब मम्मीजी आएं तब उन से प्रार्थना करना…’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, बाहर करो उसे,’’ सुमनलता बोलीं.

सहम कर चौकीदार बाहर चला गया और पीछेपीछे जमुना भी. बाहर से गुड्डी के रोने और चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. चौकीदार उसे डपट कर फाटक बंद करने में लगा था.

‘‘सुम्मी, बच्चों को दिखा दो न, दिखाने भर को ही तो कह रही है, फिर वह भी एक मां है और एक मां की ममता को तुम से अधिक कौन समझ सकता है…’’

सुबोध कुछ और कहते कि सुमनलता ने ही बात काट दी थी.

‘‘नहीं, उस औरत को बच्चे बिलकुल नहीं दिखाने हैं.’’

आज पहली बार सुबोध ने सुमनलता का इतना कड़ा रुख देखा था. फिर जब सुमनलता की भरी आंखें और उन्हें धीरे से रूमाल निकालते देखा तो सुबोध को और भी विस्मय हुआ.

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‘‘अच्छा चलूं, मैं तो बस, तुम्हें छोड़ने ही आया था,’’ कहते हुए सुबोध चले गए.

सुमनलता उसी तरह कुछ देर सोच में डूबी रहीं फिर मुड़ीं और दूसरे कमरों का मुआयना करने चल दीं.

2 दिन बाद एक दंपती किसी बच्चे को गोद लेने आए थे. उन्हें शिशुगृह में घुमाया जा रहा था. सुमन दूसरे कमरे में एक बीमार महिला का हाल पूछ रही थीं.

तभी गुड्डी एकदम बदहवास सी बरामदे में आई. आज बाहर चौकीदार नहीं था और फाटक खुला था तो सीधी अंदर ही आ गई. जमुना को वहां खड़ा देख कर गिड़गिड़ाते स्वर में बोली थी, ‘‘बाई, मुझे बच्चे देखने हैं…’’

उस की हालत देख कर जमुना को भी कुछ दया आ गई. वह धीरे से बोली, ‘‘देख, अभी मम्मीजी अंदर हैं, तू उस खिड़की के पास खड़ी हो कर बाहर से ही अपने बच्चों को देख ले. बिटिया तो स्लेट पर कुछ लिख रही है और बेटा पालने में सो रहा है.’’

‘‘पर, वहां ये लोग कौन हैं जो मेरे बच्चे के पालने के पास आ कर खडे़ हो गए हैं और कुछ कह रहे हैं?’’

जमुना ने अंदर झांक कर कहा, ‘‘ये बच्चे को गोद लेने आए हैं. शायद तेरा बेटा पसंद आ गया है इन्हें तभी तो उसे उठा रही है वह महिला.’’

‘‘क्या?’’ गुड्डी तो जैसे चीख पड़ी थी, ‘‘मेरा बच्चा…नहीं मैं अपना बेटा किसी को नहीं दूंगी,’’ रोती हुई पागल सी वह जमुना को पीछे धकेलती सीधे अंदर कमरे में घुस गई थी.

सभी अवाक् थे. होहल्ला सुन कर सुमनलता भी उधर आ गईं कि हुआ क्या है.

उधर गुड्डी जोरजोर से चिल्ला रही थी कि यह मेरा बेटा है…मैं इसे किसी को नहीं दूंगी.

झपट कर गुड्डी ने बच्चे को पालने से उठा लिया था. बच्चा रो रहा था. बच्ची भी पास सहमी सी खड़ी थी. गुड्डी ने उसे भी और पास खींच लिया.

‘‘मेरे बच्चे कहीं नहीं जाएंगे. मैं पालूंगी इन्हें…मैं…मैं मां हूं इन की.’’

‘‘मम्मीजी…’’ सुमनलता को देख कर जमुना डर गई.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चे दे दो इसे,’’ सुमनलता ने धीरे से कहा था और उन की आंखें नम हो आई थीं, गला भी कुछ भर्रा गया था.

जमुना चकित थी, एक मां ने शायद आज एक दूसरी मां की सोई हुई ममता को जगा दिया था.

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