डौलर का लालच : कैसे सेवकराम को ले डूबा मसाज पार्लर का लालच

लेखक- राजेंद्र शर्मा सूदन

सेवकराम फैक्टरी में मजदूर था. वह 12वीं जमात पास था. घर की खस्ता हालत के चलते वह आगे की पढ़ाई नहीं कर सका था, लेकिन उस का सपना ज्यादा पैसा कमा कर बड़ा आदमी बनने का था.

फैक्टरी में लंच टाइम हो गया था. सेवकराम सड़क के किनारे बने ढाबे पर खाना खा रहा था. उस के सामने अखबार रखा था. उस के एक पन्ने पर छपे एक इश्तिहार पर उस की निगाह टिक गई.

इश्तिहार बड़ा मजेदार था. उस में नए नौजवानों को मौजमस्ती वाले काम करने के एवज में 20-25 हजार रुपए हर महीने की कमाई लिखी गई थी. सेवकराम मन ही मन हिसाब लगाने लगा. इस तरह तो वह 5 साल तक भी दिल लगा कर काम करेगा, तो 8-10 लाख रुपए आराम से कमा लेगा.

इश्तिहार में लिखा था कि भारत के मशहूर मसाज पार्लर को जवान लड़कों की जरूरत है, जो विदेशी व भारतीय रईस औरतों की मसाज कर सकें. अच्छा काम करने वाले को विदेशों के लिए भी बुक किया जा सकता है.

इतना पढ़ते ही सेवकराम की आंखों के सामने रेशमी जुल्फें लहराती गोरे गुलाबी तराशे बदन वाली गोरीगोरी विदेशी औरतें उभर आईं, जिन्हें कभी पत्रिकाओं में, फोटो में या फिल्मों में देखा था. अगर उसे काम मिल गया, तो ऐसी खूबसूरत हसीनाओं के तराशे गए बदन उस की बांहों में होंगे. ऐसे में तो उस की जिंदगी संवर जाएगी. फैक्टरी में सारा दिन जान खपाने के बाद उसे 3 हजार रुपए से ज्यादा नहीं मिल पाते. मिल मालिक हर समय काम कम होने का रोना रोता रहता है.

सेवकराम ने उसी समय इश्तिहार के नीचे लिखा मोबाइल नंबर नोट किया और तुरंत फैक्टरी की नौकरी छोड़ने का मन बना लिया.

सेवकराम सीधा दफ्तर गया और बुखार होने का बहाना बना कर 3 दिन की छुट्टी ले ली. इस के बाद वह बाजार गया. वहां पर उस ने 2 जोड़ी नए कपडे़ और जूते खरीदे. वह जब बड़े घरानों की औरतों के सामने जाएगा, तो उस के कपड़े भी अच्छे होने चाहिए.

सेवकराम शाम तक सपनों में डूबा बाजार में घूमता रहा. उस का कमरे पर जाने को मन नहीं हो रहा था. रात का खाना भी उस ने बाहर ढाबे पर ही खाया. वह देर रात कमरे पर गया.

कमरे में 4-5 आदमी एकसाथ रहते थे. उस के तमाम साथी सो गए थे. वह भी अपनी चारपाई पर लेट गया. उस ने अपने साथ वाले लोगों का जायजा लिया कि गहरी नींद में सो गए हैं या नहीं. जब उसे तसल्ली हो गई, तो उस ने इश्तिहार वाला फोन नंबर मिलाया और बात की.

दूसरी तरफ से किसी लड़की की उखड़े हुए लहजे में आवाज गूंजी, ‘इतनी रात गुजरे कौन बेवकूफ बोल रहा है? तुम्हें जरा भी अक्ल नहीं है क्या? सुबह तो होने दी होती… क्या परेशानी है?’

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‘‘मैडमजी, माफ करना. मैं एक परदेशी हूं. हम एक कमरे में 4-5 लोग रहते हैं. मैं आप से चोरीछिपे बात करना चाहता था, इसलिए उन के सोने का इंतजार करता रहा. मैं ने आप का इश्तिहार अखबार में पढ़ा था. मैं आप के मसाज पार्लर में काम करना चाहता हूं. मुझे काम की सख्त जरूरत है.’’ सेवकराम ने बेहद नरम लहजे में कहा था. इस से दूसरी तरफ से बोल रही लड़की की आवाज में भी मिठास आ गई थी. ‘ठीक है, तुम ने हमारा इश्तिहार पढ़ा होगा. हमारे मसाज पार्लर की कई जवान औरतें, लड़कियां हमारी ग्राहक हैं, जिन की मसाज के लिए हमें जवान लड़कों की जरूरत रहती है. तुम बताओ कि मर्दों की मसाज करोगे या जवान औरतों की?’

यह सुनते ही सेवकराम रोमांचित हो उठा. उसे तो ऐसा महूसस हुआ, जैसे उसे नौकरी मिल गई है. उस की आवाज में जोश भर उठा. वह शरमाते हुए बोला, ‘‘मैडमजी, मेरी उम्र 30 साल है. मुझे जवान औरतों की मसाज करना अच्छा लगता है. मैं अपना काम मेहनत और ईमानदारी से करूंगा.’’

‘ठीक है, तुम्हें काम मिल जाएगा. बस, इतना ध्यान रखना होगा कि उस समय कोई शरारत नहीं होनी चाहिए, वरना नौकरी से निकाल दिए जाओगे,’ दूसरी तरफ से बेहद सैक्सी अंदाज में जानबूझ कर चेतावनी दी गई, तो सेवकराम रोमांटिक होते हुए बोला, ‘‘जी, मैं अपना काम समझ कर करूंगा. मेरे मन में उन के लिए कोई गलत भावना नहीं आएगी.’’

‘ठीक है, तुम्हारा नाम मैं रजिस्टर में लिख लेती हूं. कल दिन में तुम करिश्मा बैंक में 10 हजार रुपए हमारे खाते में जमा करा दो. रुपए जमा होते ही तुम्हारा एक पहचानपत्र भी बनाया जाएगा. जिसे दिखा कर तुम देश के किसी भी शहर में काम के लिए जा सकते हो,’ उधर से निर्देश दिया गया.

यह सुन कर सेवकराम कुछ परेशान हो गया और बोला, ‘‘मैडमजी, 10 हजार रुपए तो कुछ ज्यादा हैं.’’ ‘ठीक है, फिर हम तुम्हारा पहचानपत्र नहीं बनाएंगे. अगर तुम्हें पुलिस ने पकड़ लिया, तो क्या जेल जाना पसंद करोगे?’

‘‘क्या ऐसा भी हो जाता है मैडमजी?’’ सेवकराम ने थोड़ा घबराते हुए पूछा.

‘ऐसा हो जाता है सेवकरामजी. ये परदे में करने वाले काम हैं. पुलिस पकड़ लेती है. बोलो, क्या तुम पुलिस के चक्कर में फंसना चाहते हो?’

‘‘ठीक है मैडमजी, मैं कल ही 10 हजार रुपए जमा करा दूंगा. बस, आप मेरा पहचानपत्र बनवा कर तुरंत काम पर बुलाइए. मैं ज्यादा दिन बेरोजगार नहीं रह सकता,’’ सेवकराम ने कहा, तो फोन कट गया.

उस रात सेवकराम सो नहीं सका. उस के दिलोदिमाग में खूबसूरत, जवान औरतों के दिल घायल करते हुए जिस्मों के सपने छाए रहे. सारी रात ऐसे ही गुजर गई.

अगले दिन सेवकराम सीधे बैंक पहुंचा और अपनी पासबुक से 20 हजार रुपए निकाले. 10 हजार रुपए तो उस ने रात फोन पर बताए गए खाते में जमा करा दिए और बाकी के 10 हजार रुपए अपने खर्चे के लिए रख लिए. अब वह लाखों रुपए कमाएगा.

सेवकराम को तो अब मसाज पार्लर के दफ्तर से फोन आने का इंतजार था. इसी इंतजार में 4-5 दिन गुजर गए, मगर उस औरत का फोन नहीं आया.

सेवकराम को अब बेचैनी होना शुरू हो गई. उस ने 10 हजार नकद खाते में जमा कराए थे. इंतजार की घडि़यां काटनी मुश्किल होती हैं, फिर भीउस ने 7 दिनों तक इंतजार किया.

आखिर में सेवकराम ने ही फोन कर के पूछा, तो दूसरी तरफ से किसी औरत की आवाज गूंजी, मगर वह आवाज पहले वाली नहीं थी. उस के बात करने का लहजा जरा कड़क और गंभीर था.

‘‘क्या बात है मैडमजी, मुझे 10 हजार रुपए आप के खाते में जमा कराए 7-8 दिन गुजर गए हैं. अभी मेरा परिचयपत्र भी नहीं मिला है. मुझे काम की सख्त जरूरत है.’’

‘आप बेफिक्र रहें. आप का परिचयपत्र तैयार है. हमारी मसाज पार्लर कमेटी ने एक टीम बनाई है, जिस में आप का नाम भी शामिल है. इस टीम को विदेशों में भेजा जाएगा.’

सेवकराम खुशी से उछल पड़ा. वह चहकते हुए बोला, ‘मैडमजी, जल्दी से टीम को काम दिलाओ. विदेश में तो काम करने के डौलर मिलेंगे न?’’

‘हां, वहां से तो तुम लोगों की पेमेंट डौलरों में होगी,’ औरत ने बताया, तो थोड़ी देर के लिए सेवकराम सीने पर हाथ रख कर हिसाब लगाता रहा. आंखों के सामने नोटों के बंडल चमकते रहे. अपनी बेताबी जाहिर करते हुए उस ने पूछा, ‘‘अब देर क्यों की जा रही है? हम तो काम के लिए कहीं भी जाने को तैयार हैं.’’

‘आप सब के परिचयपत्र मंजूरी के लिए विदेश मंत्रालय भेजे जाने हैं. अगर भारत सरकार से मंजूरी मिल गई, तो तुम लोग किसी भी देश में बेधड़क हो कर काम कर सकते हो, मगर भारत सरकार की मंजूरी दिलाने के लिए 20 हजार रुपए का खर्चा आएगा. आप को 20 हजार रुपए उसी खाते में जमा कराने होंगे.’

‘‘मैडमजी, इतनी बड़ी रकम तो बहुत ज्यादा है. हम तो गरीब आदमी हैं,’’ सेवकराम की तो मानो हव  निकल गई थी. उस का जोश ढीला पड़ने लगा था.

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‘हम मानते हैं कि 20 हजार रुपए ज्यादा हैं, मगर यह सोचो कि जब तुम अलगअलग देशों में जाओगे, वहां से वापस आने पर लाखों रुपए ले कर आओगे. सोच लो, अगर विदेश नहीं जाना चाहते हो, तो रहने दो,’ औरत ने दूसरी तरफ से कहा, तो सेवकराम पलभर के लिए खामोश रहा, फिर जल्दी ही वह बोला, ‘‘ठीक है, मैं 20 हजार रुपए आप के खाते में जमा करा दूंगा. बस, मेरा काम सही होना चाहिए.’’

सेवकराम ने ठंडे दिमाग से सोचा, तो उसे यह काम फायदे का लगा. बेशक, 20 हजार रुपए उस के पास नहीं थे, फिर भी अगर उधार उठा कर लगा देगा, तो बाहर के पहले टूर में लाखों रुपए वारेन्यारे कर देगा, इसलिए 20 हजार रुपए उन के खाते में जमा कराना ही फायदे में रहेगा.

सेवकराम ने इधरउधर से रुपए उधार लिए और उसी खाते में जमा करा दिए. अब वह इंतजार करने लगा. उसे यकीन था कि उसे बुलाया जाएगा.

सेवकराम को इंतजार करतेकरते 10 दिन गुजर गए. सेवकराम के मन में तमाम तरह के खयाल आ रहे थे. वह इस मुगालते में था कि दफ्तर वाले खुद फोन करेंगे. वह महीने भर से काम छोड़ कर बैठा था. जमापूंजी खर्च हो चुकी थी. ऊपर से 20 हजार रुपए का कर्जदार और हो गया था.

काफी इंतजार करने के बाद सेवकराम ने उसी फोन नंबर पर फोन किया, तो मोबाइल बंद मिला. काफी कोशिश करने के बाद भी उस नंबर पर बात नहीं हुई. उस के पैरों तले जमीन खिसक गई.

वह उसी पल उस बैंक में गया, जहां अजनबी खाते में उस ने 30 हजार रुपए जमा कराए थे. वहां से पता चला कि वह खाता वहां से 5 सौ किलोमीटर दूर किसी शहर में किसी बैंक का था. अब उस खाते में महज 4 रुपए कुछ पैसे बाकी थे.

सेवकराम थाने में गया, लेकिन पुलिस ने उस की शिकायत लिखने की जरूरत नहीं समझी. थकहार कर वह कमरे पर लौट आया. विदेशों में जा कर खूबसूरत औरतों की मसाज करने के एवज में लाखों डौलर कमाने के चक्कर में सेवकराम ने अपनी जमापूंजी गंवा दी, साथ ही 20 हजार रुपए का कर्जदार भी हो गया. लालच में वह न तो घर का रहा और न घाट का.

Short Story: तोहफा अप्रैल फूल का

लेखक- नरेश कुमार पुष्करना

अप्रैल की पहली तारीख थी. चंदू सुबह से ही सब से मूर्ख बननेबनाने की बातें कर रहा था. इसी कशमकश में वह स्कूल पहुंचा, लेकिन स्मार्टफोन पर बिजी हो गया. हमेशा गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया में खोया रहने वाला चंदू स्मार्टफोन से व्हाट्सऐप पर गुडमौर्निंग के मैसेजेस कौपीपेस्ट कर रहा था कि अचानक व्हाट्सऐप पर एक मैसेज आया. इस मैसेज को पढ़ने और इंप्लीमैंट करने के बाद जो नतीजा उस के सामने आया उस से वह ठगा सा रह गया. दरअसल, किसी ने उसे अप्रैल फूल बनाया था. वह खुद पर खिन्न था लेकिन तभी उसे खुराफात सूझी. अत: उस ने भी अपने सभी दोस्तों को अप्रैल फूल बनाने की सोची और अपने सभी कौंटैक्ट्स पर उस मैसेज को कौपी कर दिया.

उस के कौंटैक्ट्स में उस की क्लास टीचर अंजू मैडम का नंबर भी था, सो मैसेज उन के नंबर पर भी फौरवर्ड हो गया. मैसेज में लिखा था, ‘क्या आप किसी अमित कुमार को जानते हैं? वह कह रहा है कि वह आप को जानता है. उसे आप का फोन नंबर दूं या आप को उस का फोटो सैंड करूं. मेरे पास उस का फोटो है. आप बोलें तो दूं नहीं तो नहीं.’

संयोग से मैडम के वुडबी का नाम भी अमित था, सो उन्हें बड़ी हैरानी हुई. उन्होंने आननफानन में रिप्लाई किया कि फोटो भेज दो और उन्हें मेरा नंबर भी दे दो, लेकिन जवाब में चंदू ने उन्हें फोटो भेजा तो वे ठगी रह गईं. फिर नीचे लिखे मैसेज को पढ़ कर हैरान हुईं. लिखा था ‘अप्रैल फूल बनाया.’ उस फोटो में अंगरेजी फिल्म ‘द मम्मी’ के प्रेतात्मा वाले करैक्टर का भद्दा चित्र था. मैम को चंदू पर बहुत गुस्सा आया. सो उन्होंने उसे सबक सिखाने की सोची. ‘अपने से बड़ों से मजाक करता है. इसे सबक सिखाना ही होगा.’ लेकिन साथ ही वे संदेश भी देना चाहती थीं कि मजाक हमउम्र से ही करे.

चंदू, जिस का पूरा नाम चंद्रप्रकाश था, 11वीं कक्षा का छात्र था. पढ़ाई में निखद लेकिन बात बनाने में आगे. तिस पर उसे छोटेबड़े का भी लिहाज न था. हमेशा गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया में ही खोया रहने वाला चंदू स्मार्टफोन मिलने के बाद तो और खो गया था. हर समय, चैटिंग, व्हाट्सऐप, यूट्यूब में लगा रहता. प्रार्थना के बाद जब सब क्लासरूम में आए तो क्लास टीचर अंजू क्लास में आते ही बोलीं, ‘‘आज सुबह से ही तुम सब एकदूसरे को अप्रैल फूल बना रहे हो. चलो, मैं भी तुम्हें खेलखेल में फन के रूप में पढ़ाती हूं. मैं इतिहास विषय से कुछ प्रश्न पूछूंगी, जो सब से ज्यादा सही उत्तर देगा उसे इनाम दिया जाएगा. शर्त यह है कि वह किसी तरह मुझे अप्रैल फूल भी बनाए.’’

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मैम ने पहला प्रश्न पूछा, ‘‘बाबर का जन्म कब हुआ था?’’ सभी छात्र शून्य में देखने लगे लेकिन पीछे बैठा चंदू झट से बोला, ‘‘14 फरवरी, 1483.’’

‘‘सही जवाब,’’ मैम ने कहा और अगला प्रश्न दागा, ‘‘क्रीमिया का युद्ध कब से कब तक चला?’’

इतिहास की तिथियां किसे याद रहती हैं. अत: सभी चुप थे. तभी चंदू फिर बोला, ‘‘जुलाई 1853 से सितंबर 1855 तक.’’

‘‘बिलकुल सही,’’ एक बार फिर तालियां बजीं. तभी प्रीति बोल पड़ी, ‘‘मैम आप के बालों पर चौक लगा है.’’

‘‘हां, मुझे पता है,’’ कह कर वे चुप हो गईं. दरअसल, प्रीति ने मैम को अप्रैल फूल बनाना चाहा था. फिर मैम ने अगला प्रश्न पूछा, ‘‘कुतुबमीनार किस ने बनवाई थी?’’ इस बार कईर् छात्रों के हाथ खड़े थे, लेकिन अंजू मैडम ने जानबूझ कर चंदू से ही पूछा तो उस ने भी सटीक उत्तर बता दिया, ‘‘गुलाम वंश के संस्थापक कुतबुद्दीन ऐबक ने.’’

‘‘सही उत्तर,’’ कह कर मैम ब्लैक बोर्ड की ओर मुड़ीं तो राहुल बोल पड़ा, ‘‘मैम, आप की साड़ी के पल्लू पर छिपकली है.’’

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अंजू मैम जानती थीं कि अप्रैल फूल बनाया जा रहा है, सो बोलीं, ‘‘तुम हटा दो.’’ अब मैम जो भी प्रश्न पूछतीं पीछे डैस्क पर बैठा चंदू उस का सही जवाब बताता. 10 में से केवल एक सवाल का उत्तर अन्य छात्र ने दिया. बाकियों ने सिर्फ अप्रैल फूल बनाने की नाकाम कोशिश की. सभी छात्र इस बात से भी हैरान थे कि फिसड्डी चंदू आज इतनी आसानी से बिलकुल सटीक उत्तर कैसे दे रहा है? अंत में नतीजा सुनाती अंजू मैम बोलीं, ‘‘आज के इस चैलेंज में ज्यादा से ज्यादा सवालों के सही जवाब चंदू ने दिए और अप्रैल फूल भी उसी ने बनाया,’’ कहती हुई मैम चंदू की सीट पर गईं और उस के हाथ से मोबाइल छीनती हुई बोलीं, ‘‘देखो, यह सभी प्रश्नों के उत्तर नैट से गूगल सर्च कर के दे रहा था.’’

फिर वे चंदू की ओर मुखातिब होती हुई बोलीं, ‘‘चंदू, आखिरी पीरियड में आ कर मुझ से अपना मोबाइल और अप्रैल फूल का तोहफा ले जाना.’’ सभी बच्चे हैरान थे कि चंदू ने बैठेबैठे खेलखेल में इनाम जीत लिया. सभी को इस बात से चंदू से ईर्ष्या थी, लेकिन चंदू बहुत खुश था. आखिरी पीरियड में चंदू अंजू मैम के पास गया तो उन्होंने उसे एक बड़ा सा डब्बा थमा दिया, जिसे बहुत ही सुंदर पैकिंग से पैक किया हुआ था. ऊपर चिट लगी थी, ‘‘चंदू को अप्रैल फूल का तोहफा मुबारक.’’ चंदू ने खुशीखुशी तोहफा लिया और क्लासरूम में आ कर बड़े उत्साह से खोलने लगा. तोहफे का डब्बा खोलते समय वह फूला नहीं समा रहा था. चंदू ने पैकिंग पेपर हटाया औैर डब्बा खोला. वह तोहफा देखने को खासा उत्सुक था. उस के आसपास अन्य छात्र भी इकट्ठे हो तोहफा देखने को उत्सुक दिखे. डब्बे को खोलने पर उसे अंदर एक और छोटा डब्बा मिला. चंदू हैरान था. अब इस डब्बे को खोला तो अंदर एक और डब्बा था. चंदू नरवस हो गया. डब्बे में डब्बा खोलते उस के पसीने छूट गए. वह सोचने लगा, ‘मैम ने अच्छा तोहफा दिया है कि खोलते रहो.’

एक छात्र बोला, ‘‘लगता है चंदू को मैम ने अप्रैल फूल बनाया है, डब्बे में डब्बा ही खुलता जा रहा है.’’ ‘हां, शायद अप्रैल फूल के तोहफे में अप्रैल फूल ही बनाया है मैम ने,’ सोचता हुआ चंदू डब्बे खोलता गया लेकिन अंत में जो डब्बा मिला उसे पा कर वह फूला न समाया. यह अत्यंत महंगे मोबाइल फोन का डब्बा था.  चंदू खुश हो गया. उसे लगा मैम ने इतना महंगा फोन गिफ्ट किया है, लेकिन ज्यों ही उस ने मोबाइल फोन का डब्बा खोला, उस में मोबाइल के बजाय एक पत्र पा कर हैरान हुआ. फिर पत्र निकाल कर पढ़ने लगा. लिखा था,‘चंदू तुम्हें अप्रैल फूल का तोहफा मुबारक हो. तुम ने सुबह मुझे मैसेज कर अप्रैल फूल बनाया, मुझे बहुत पिंच हुआ. संयोग से मेरे वुडबी का नाम भी अमित है सो मैसेज का संबंध उन से जुड़ा, लेकिन बाद में तुम्हारे द्वारा भेजा ‘ममी’ का फोटो देख दिल धक्क रह गया. तुम्हें मजाक करते समय यह भी खयाल नहीं रहा कि तुम मजाक किस से कर रहे हो. उस की उम्र क्या है. तुम से संबंध क्या है. तुम्हें इस तरह की हरकतें अपने हमउम्र के साथ ही करनी चाहिए, बड़ों के  साथ नहीं. ‘दूसरे, तुम ने स्कूल में मोबाइल लाने की गलती की, क्योंकि स्कूल में मोबाइल अलाउड नहीं होता. तुम जानते ही हो. तिस पर तुम ने गूगल सर्च कर कर के प्रश्नों के उत्तर दिए और मुझे फूल बनाया. इस तरह तुम सटीक उत्तर दे पाए परंतु क्या खुद को परख पाए? परीक्षा खुद को परखने का पैमाना है. स्कूल परीक्षा में मोबाइल भी नहीं होगा, तब क्या करोगे? ‘समय से चेत जाओ और गैजेट्स की वर्चुअल दुनिया से बाहर आ कर ऐक्चुअल में विचरण करो. गैजेट्स का सही इस्तेमाल सीखो. नैट से नकल के बजाय हैल्प लो और अपने नोट्स बनाओ. परीक्षा की तैयारी करो. मैं ने पहले भी जब क्लास टैस्ट लिए हैं तुम्हें मोबाइल सर्च करते पाया है, पर तुम्हारी बेइज्जती न हो इसलिए चुप थी. आज का नाटक भी तुम्हारे कारण किया. तभी मैं तुम से ही सब प्रश्न पूछ रही थी और तुम उत्साह में नैट से देख कर उत्तर देते रहे. मेरा फर्ज था समय रहते तुम्हें चेताऊं. आगे से मजाक हमउम्र लोगों से करना साथ ही पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल करो इस से गैजेट्स का सही इस्तेमाल भी होगा और तुम्हारा भला भी. हैप्पी अप्रैल फूल.

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‘तुम्हारी क्लास टीचर

‘अंजू.’

चंदू ने पत्र फोल्ड कर के जेब में रख लिया लेकिन उस में लिखी बातों ने उस के हृदय को झकझोर कर रख दिया. सभी साथी भी उसे हमदर्दी की नजरों से देख रहे थे. उसे सबक मिल गया था. ‘वाकई अगर वह डिजिटल दुनिया से निकल कर ऐक्चुअल तैयारी करे तो परीक्षा में अच्छे अंक ही नहीं लाएगा बल्कि टौप भी करेगा. अगली परीक्षा में वह इन बातों पर जरूर अमल करेगा और अप्रैल फूल के इस तोहफे को जीवन का टर्निंग पौइंट मान कर संभाल कर रखेगा.’ यह संकल्प लेते हुए चंदू ने पत्र जेब में डाला और नैट पर परीक्षा सामग्री सर्च कर डायरी में नोट्स बनाने बैठ गया.

बंदिनी: रेखा ने कौनसी कीमत चुकाई थी कीमत

शरशय्या- भाग 3 : त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

लेखक- ज्योत्स्ना प्रवाह

‘‘दूसरा रिश्ता पति का था, वह भी सतही. जब अपना दिल खोल कर तुम्हारे सामने रखना चाहती तो तुम भी नहीं समझते थे क्योंकि शायद तुम गहरे में उतरने से डरते थे क्योंकि मेरे दिल के आईने में तुम्हें अपना ही अक्स नजर आता जो तुम देखना नहीं चाहते थे और मुझे समझने में भूल करते रहे…’’

‘‘देखो, तुम्हारी सांस फूल रही है. तुम आराम करो, इला.’’

‘‘वह नवंबर का महीना था शायद, रात को मेरी नींद खुली तो तुम बिस्तर पर नहीं थे, सारे घर में तुम्हें देखा. नीचे से धीमीधीमी बात करने की आवाज सुनाई दी. मैं ने आवाज भी दी मगर तब फुसफुसाहट बंद हो गई. मैं वापस बैडरूम में आई तो तुम बिस्तर पर थे. मेरे पूछने पर तुम ने बहाना बनाया कि नीचे लाइट बंद करने गया था.’’ ‘‘अच्छा अब बहुत हो गया. तुम इतनी बीमार हो, इसीलिए मैं तुम्हें कुछ कहना नहीं चाहता. वैसे, कह तो मैं पूरी जिंदगी कुछ नहीं पाया. लेकिन प्लीज, अब तो मुझे बख्श दो,’’ खीज और बेबसी से मेरा गला भर आया. उस के अंतिम दिनों को ले कर मैं दुखी हूं और यह है कि न जाने कहांकहां के गड़े मुर्दे उखाड़ रही है. उस घटना को ले कर भी उस ने कम जांचपड़ताल नहीं की थी. विभा ने भी सफाई दी थी कि वह अपने नन्हे शिशु को दुलार रही थी लेकिन उस की किसी दलील का इला पर कोई असर नहीं हुआ. उसे निकाल बाहर किया, पता नहीं वह कैसे सच सूंघ लेती थी.

‘‘उस दिन मैं कपड़े धो रही थी, तुम मेरे पीछे बैठे थे और वह मुझ से छिपा कर तुम्हें कोई इशारा कर रही थी. और जब मैं ने उसे ध्यान से देखा तो वह वहां से खिसक ली थी. मैं ने पहली नजर में ही समझ लिया था कि यह औरत खूब खेलीखाई है, पचास बार तो पल्ला ढलकता है इस का, तुम को तो खैर दुनिया की कोई भी औरत अपने पल्लू में बांध सकती है. याद है, मैं ने तुम से पूछा भी था पर तुम ने कोई जवाब नहीं दिया था, बल्कि मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि वह तुम से डरती है, तुम्हारी इज्जत करती है.’’

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तब शिखा ने टोका भी था, ‘मां, तुम्हारा ध्यान बस इन्हीं चीजों की तरफ जाता है, मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता.’

मां की इन ठेठ औरताना बातों से शिखा चिढ़ जाती थी, ‘कौन कहेगा कि मेरी मां इतने खुले विचारों वाली है, पढ़ीलिखी है?’ उन दिनों मेरे दफ्तर की सहकर्मी चित्रा को ले कर जब उस ने कोसना शुरू किया तो भी शिखा बहुत चिढ़ गई थी, ‘मेरे पापा हैं ही इतने डीसैंट और स्मार्ट कि कोई भी महिला उन से बात करना चाहेगी और कोई बात करेगा तो मुसकरा कर, चेहरे की तरफ देख कर ही करेगा न?’ बेटी ने मेरी तरफदारी तो की लेकिन उस के सामने इला की कोसने वाली बातें सुन कर मेरा खून खौलने लगा था. मुझे इला के सामने जाने से भी डर लगने लगा था. मन हुआ कि शिखा को एक बार फिर वापस बुला लूं, लेकिन उस की भी नौकरी, पति, बच्चे सब मैनेज करना कितना मुश्किल है. दोपहर में खाना खिला कर इला को लिटाया तो उस ने फिर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘तुम ने मुझे बताया नहीं. देखो, अब तो मेरा आखिरी समय आ गया है, अब तो मुझे धोखे में मत रखो, सचसच बता दो.’’

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है, पूरी जिंदगी बीत गई है. अब तक तो तुम ने इतनी जिरह नहीं की, इतना दबाव नहीं डाला मुझ पर, अब क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं स्वयं को धोखे में रखना चाहती थी. अगर तुम ने दबाव में आ कर कभी स्वीकार कर लिया होता तो मुझे तुम से नफरत हो जाती. लेकिन मैं तुम्हें प्रेम करना चाहती थी, तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मैं तुम्हारे बच्चों की मां थी, तुम्हारे साथ अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहती थी. तुम्हारे गुस्से को, तुम्हारी अवहेलना को मैं ने अपने प्रेम का हिस्सा बना लिया था, इसीलिए मैं ने कभी सच जानने के लिए इतना दबाव नहीं डाला.

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‘‘फिर यह भी समझ गई कि प्रेम यदि किसी से होता है तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर धोखे का यह बोझ ले कर क्यों जाऊं? मरना है तो हलकी हो कर मरूं. तुम्हें मुक्त कर के जा रही हूं तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए न? अभी तो मैं तुम्हें माफ भी कर सकती हूं, जो शायद पहले बिलकुल न कर पाती.’’ ओफ्फ, राहत का एक लंबा गहरा उच्छ्वास…तो इन सब के लिए अब ये मुझे माफ कर सकती है. वह अकसर गर्व से कहती थी कि उस की छठी इंद्रिय बहुत शक्तिशाली है. खोजी कुत्ते की तरह वह अपराधी का पता लगा ही लेती है. लेकिन ढलती उम्र और बीमारी की वजह से उस ने अपनी छठी इंद्रिय को आस्था और विश्वास का एनेस्थिसिया दे कर बेहोश कर दिया था या कहीं बूढ़े शेर को घास खाते हुए देख लिया होगा. इसी से मैं आज बच गया

सच और विश्वास की रेशमी चादर में इत्मीनान से लिपटी जब वह अपने बच्चों की दुनिया में मां और नानी की भूमिका में आकंठ डूबी हुई थी, उन्हीं दिनों मेरी जिंदगी के कई राज ऐसे थे जिन के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं. अब इस मुकाम पर मैं उस से कैसे कहता कि मुझे लगता है यह दुनिया 2 हिस्सों में बंटी हुई है. एक, त्याग की दुनिया है और दूसरी धोखे की. जितनी देर किसी में हिम्मत होती है वह धोखा दिए जाता है और धोखा खाए जाता है और जब हिम्मत चुक जाती है तो वह सबकुछ त्याग कर एक तरफ हट कर खड़ा हो जाता है. मिलता उस तरफ भी कुछ नहीं है, मिलता इस तरफ भी कुछ नहीं है. मेरी स्थिति ठीक उसी बरगद की तरह थी जो अपनी अनेक जड़ों से जमीन से जुड़ा रहता है, अपनी जगह अटल, अचल. कैसे कभीकभी एक अनाम रिश्ता इतना धारदार हो जाता है कि वह बरसों से पल रहे नामधारी रिश्ते को लहूलुहान कर जाता है. यह बात मेरी समझ से परे थी.

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बंदिनी- भाग 1 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

जेल की एक कोठरी में बंद रेखा रोशनदान से आती सुबह की पहली किरण की छुअन से मूक हो जाया करती थी. अपनी जिन यादों को उस ने अमानवीय दुस्साहस से दबा रखा था, वे सब इसी घड़ी जीवंत हो उठती थीं.

पहली बार जब रेखा ने सुना था कि उसे जेल की सजा हुई है, तो उस ने बहुत चाहा था कि जेलखाने में घुसते ही उस के गले में फांसी लगा दी जाए. उसे कहां मालूम था कि सरकारी जेल में महिला कैदियों की कोई कमी नहीं है, और कोर्ट में अपनी सुनवाई के इंतजार में ही वे कितनी बूढ़ी हो गई हैं. फीमेल वार्ड में घुसते ही रेखा आश्चर्यचकित हो गई थी. अनगिनत स्त्रियां थीं वहां. बूढ़ी से ले कर बच्चियां तक.

देखसुन कर रेखा ने साड़ी से फांसी लगा कर मरने का विचार भी त्याग दिया था. सोचा, बड़ी अदालत को उस के लिए समय निकालतेनिकालते ही कितने साल पार हो जाएंगे. और वही हुआ था. देखते ही देखते दिनरात, महीने गुजरते चले गए और 4 वर्ष बीत गए थे. बीच में एकदो बार जमानत का प्रयास हुआ था, परंतु विफल ही रहा था. एनजीओ कार्यकर्ता आरती दीदी ने अभी भी प्रयास जारी रखा था, परंतु रिहाई की आशा धूमिल ही थी.

‘‘रेखा, रोज सुबह तुझे इस रोशनदान में क्या दिख जाता है?’’

शीला के इस प्रश्न पर रेखा थोड़ी सहज हो गई थी. पिछले 2 वर्षों से दोनों एकसाथ जेल की इस कोठरी में कैद थीं. शीला ने अपने शराबी पति के अत्याचारों से तंग आ कर उस की हत्या कर दी थी. उस ने अपना अपराध न्यायाधीश के सामने स्वीकार कर लिया था. किंतु किसी ने उसे छुड़ाने का प्रयास नहीं किया था. उसे उम्रकैद हुई थी.

तभी से वह और अधिक चिड़चिड़ी हो गई थी. वह रेखा की इस नित्यक्रिया से अवगत थी और इस क्रिया का प्रभाव भी देख चुकी थी. आज वह खुद को रोक नहीं पाई थी और रेखा से वह प्रश्न पूछ बैठी थी. शीला के प्रश्न पर रेखा ने एक हलकी मुसकान के साथ उत्तर दिया था.

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‘‘रोज एक नई सुबह.’’

‘‘हमारे जीवन में क्या बदलाव लाएगी सुबह, हमारे लिए तो हर सुबह एकसमान है,’’ शीला ने ठंडी आह भरी.

‘‘यहां तुम गलत हो, स्वतंत्र मनुष्य रोज एक नई सृजन के बारे में सोच सकता है,’’ रेखा के चेहरे पर हलकी सी लुनाई छा गई थी.

शीला का चेहरा और आंखें सख्त हो आईं, बोली, ‘‘तुम एक बंदिनी हो, याद है या भूल गईं, तुम क्या स्वतंत्र हो?’’

रेखा इस सवाल का जवाब ठीक से न दे सकी, ‘‘शायद अभी पूरी तरह से नहीं, परंतु उम्मीद है…’’

‘‘यह हत्यारिनों का वार्ड है. यहां से रिहाई तो बस मृत्यु दिला सकती है. चिरबंदिनियां यहां निवास करती हैं,’’ रेखा की बात को बीच में काट कर ही शीला लगभग चिल्लाते हुए बोली थी.

रेखा बोली, ‘‘स्वतंत्र प्रतीत होता मनुष्य भी बंदी हो सकता है, उस यंत्रणा की तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं.’’

दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि घंटी की तेज आवाज सुनाई पड़ी थी. बंदिनियों के लिए तय काम का समय हो चुका था. सभी कैदी वार्ड से बाहर निकलने लगी थीं. रेखा और शीला भी बाहर की तरफ चल दी थीं.

आज जिस अपराध की दोषी बन रेखा इस जेल की चारदीवारों में कैद थी उस अपराध की नींव वर्षों पूर्व ही रख दी गई थी. उस के बंदीगृह तक का यह सफर उसी दिन शुरू हो गया था जब वह सपरिवार ओडिशा से शिवपुरी आई थी.

शिवपुरी, मध्य प्रदेश का एक शहर है. यह एक पर्यटन नगरी है. यहां का सौंदर्य अनुपम है. यहीं के एक छोटे से गांव में रेखा अपने परिवार के साथ आई थी.

ओडिशा के एक छोटे से गांव मल्कुपुरु में रेखा का गरीब परिवार रहा करता था. पिछले कई सालों से उस के मामा अपने परिवार समेत शिवपुरी के इसी गांव में आ कर बस गए थे. उन की आर्थिक स्थिति में आए प्रत्याशित बदलाव ने रेखा के पिता को इस गांव में आने के लिए प्रोत्साहित किया था.

4 भाईबहनों में रमेश सब से बड़ा था और विवाहित भी. सतीश उस से छोेटा था परंतु अधिक चतुर था. वह अभी अविवाहित ही था. उन के बाद कल्पना और रेखा थीं. सब से छोटी होने के कारण रेखा थोड़ी चंचल थी. आरंभ में रेखा और उस की बड़ी बहन कल्पना इस बदलाव से खुश नहीं थीं, परंतु मामा के घर की अच्छी स्थिति ने उन के भीतर भी आशा की लौ रोशन कर दी थी. यह उन्हें मालूम नहीं था कि यह लौ ही उन्हें और उन के सपनों को जला कर भस्म कर देगी.

गांव में आने के कुछ दिनों बाद ही कल्पना के विवाह की झूठी खबर उस के पिता और मामा ने उड़ा दी थी. मां का विरोध सिक्कों की झनकार में दब गया था. कल्पना अपने सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई थी और रेखा इस खुशी का आनंद लेने में. परन्तु दोनों ही बहनें सचाई से अनजान थीं. जब तक दोनों को हकीकत का पता चला तब तक देर हो चुकी थी.

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प्रथा के नाम पर स्त्री के साथ अत्याचारों की तो एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है. इस गांव में भी कई सालों से एक विषैली प्रथा ने अपनी जड़ें फैला ली थीं. स्थानीय भाषा में इस प्रथा का नाम ‘धड़ीचा’ था, जिस के तहत लड़कियों को एक साल या ज्यादा के लिए कोई भी पुरुष अपने साथ रख सकता था, अपनी बीवी बना कर. इस के एवज में वह लड़की की एक कीमत उस के घर वालों  या संबंधित व्यक्ति को देता था. लड़की को बीवी बना कर एक साल के लिए ले जाने वाला पुरुष कोई गड़बड़ी न करे, अनुबंध में रहे, इस के लिए 10 रुपए से ले कर 100 रुपए के स्टांपपेपर पर लिखापढ़ी होती थी. एक बार अनुबंध से निकली लड़की को दोबारा अनुबंधित कर के बेच दिया जाता था.

इस दौरान जन्म लिए गए संतानों की भी एक अलग कहानी थी. उन्हें यदि पिता का परिवार नहीं अपनाता था तो वे मां के साथ ही लौट आते थे. अगला खरीदार यदि उन्हें साथ ले जाने को तैयार नहीं होता तो लड़की को उसे अपने परिवार के पास छोड़ना पड़ता था.

पुत्रमोह के लालच में कन्याभू्रण की हत्या करते गए, और जब स्त्रियों का अनुपात कम होता गया तो उन का ही क्रयविक्रय करने लगे. परंतु बात इतनी भी आसान नहीं थी. हकीकत में पैसे वाले पुरुषों को अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए रोज एक नया खिलौना प्राप्त करना ही इस प्रथा का प्रयोजन मात्र था.

भारत में इन दिनों नारीवाद और नारी सशक्तीकरण का झंडा बुलंद है. परंतु महानगरों में बैठे लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि देश के गांवकूचों में महिलाओं की हालत किस कदर बदतर हो चुकी है.

कल्पना को भी 10 रुपए के स्टांपपेपर पर एक साल के लिए 65 साल के एक बुजुर्ग के हवाले कर दिया गया था. हालांकि उस की पहली पत्नी जीवित थी, परंतु वह वृद्ध थी. और पुरुष कहां वृद्ध होते हैं. कल्पना के दूसरे खरीदार का भी चयन हो रखा था. वह उसी बुजुर्ग का भतीजा था और उस की पत्नी का देहांत पिछले वर्ष ही हुआ था. कल्पना का पट्टा देना तय करने के बाद वे रेखा को ले कर अपने महत्त्वाकांक्षी विचार बुनने लगे थे.

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अपनी ही दुश्मन- भाग 2 : कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

बड़े लोगों से संपर्क बने तो वह पार्टियों में भी जाने लगी. मोनू की वजह से उसे नाइट पार्टियों में जाने में परेशानी होती थी, इसलिए उसे संभालने के लिए उस ने एक नौकर रख लिया.

कविता का सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उस की जिंदगी में खलल तब पड़ा, जब सुरेश एक दिन दोपहर में आ गया. दरअसल उस दिन मंगलवार था और लखनऊ में उसे एक दोस्त की शादी में शामिल होना था. वैसे भी उस दिन कोई छुट्टी नहीं थी. उस ने सोचा था कि अचानक पहुंच कर कविता को सरप्राइज देगा. लेकिन दांव उलटा पड़ गया. ड्राइंगरूम में खुलने वाला दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में खिलौने बिखरे पड़े थे. उन्हें देख कर लग रहा था कि मोनू खेल से बोर हो कर कहीं बाहर चला गया है. यह भी संभव हो कि वह मां के पास अंदर हो.

अंदर बैडरूम का दरवाजा वैसे ही भिड़ा हुआ था. अंदर से हंसनेखिलखिलाने की आवाजें आ रही थीं. सुरेश ने दरवाजे को थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. भीतर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गया. बेशर्मी, बेहयाई और बेवफाई की मूरत बनी नग्न कविता परपुरुष की बांहों में अमरबेल की तरह लिपटी हुई पड़ी थी. पत्नी को इस हाल में देख कर सुरेश की आंखों में खून उतर आया. उस का मन कर रहा था कि वहीं पड़ा बैट उठा कर दोनों के सिर फोड़ दे.

‘‘पापा, पापा आ गए.’’ बाहर से आती मोनू की आवाज उस के कानों में पड़ी. कुछ नहीं सूझा तो उस ने झट से बैडरूम का दरवाजा बंद कर दिया. उसी वक्त अंदर से कुंडी लगाने की आवाज आई. यह काम शायद कविता ने किया होगा. सुरेश धीरे से बड़बड़ाया, ‘‘कमबख्त को बच्चे का भी लिहाज नहीं.’’

‘‘पापा, खेलने चलें.’’ मोनू ने सुरेश के पैर पकड़ कर इस तरह खींचते हुए कहा, जैसे उसे मम्मी से कोई मतलब ही न हो.

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अब सुरेश की समझ में आ रहा था कि कविता उसे बौड़म क्यों कहती थी. सब कुछ उस की नाक के नीचे चलता रहा और वह उस पर विश्वास किए बैठा रहा. सचमुच बौड़म ही था वह. किराए का ही सही, महंगा घर, शानदार परदे, उच्च क्वालिटी की क्रौकरी, ब्रांडेड कपड़े, मोनू का महंगा स्कूल. सब कुछ कैसे मैनेज करती होगी कविता, उस ने कभी सोचा ही नहीं. यहां तक कि अभी अंदर आते वक्त उस ने दीवार के साथ खड़ी लाल रंग की आलीशान कार देखी थी, उस पर भी ध्यान नहीं दिया था उस ने. सुरेश सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया.

‘‘पापा, पापा खेलने चलें.’’ कहते हुए मोनू ने उस की टांगें हिलाईं. लेकिन वह जड़वत बैठा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे. अब तो उस के मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि वह मोनू का पिता है या नहीं?

‘‘तुम खेलने जाओ, मैं अभी आता हूं.’’ दुखी मन से कहते हुए उस ने मोनू को बाहर भेज दिया.

सुरेश ने घड़ी देखी तो शाम के 4 बज रहे थे. सोचविचार कर उस ने कविता को उस के हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया. उस ने 4 लाइनों का पत्र लिखा, ‘मैं ने तुम्हारा असली चेहरा देख लिया है. तुम्हारे खून से हाथ रंग कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे यह भी नहीं पता कि मोनू मेरा बेटा है या किसी और का? लेकिन तुम्हें अब कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से निकाल कर खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं’

सुरेश ने अपना बैग उठाया और वापस लौट गया. कभी वापस न लौटने के लिए. उस दिन से सुरेश कविता की जिंदगी से निकल गया और उस की जगह दरजनों मर्द आ गए. कविता को सुरेश के जाने का कोई गम नहीं हुआ. उस ने चैन की सांस ली. अब वह आजाद पंछी की तरह थी.

आजकल वह जिस आखिलेंद्र से पेंच लड़ा रही थी, वह व्यवसायी था और उस का पूरा परिवार लंदन में रहता था. वहां भी उन का बड़ा बिजनैस था. परिवार के कुछ लोग जरूर लखनऊ में पुश्तैनी घर में रहते थे. अखिलेंद्र उन से चोरीछिपे कविता के पास जाता था. उस के रहते उसे सुरेश की कोई चिंता नहीं थी.

धीरेधीरे कविता ने गोमतीनगर जैसे महंगे इलाके में घर ले लिया और कार भी. उस ने ड्राइविंग भी सीख ली. अखिलेंद्र चूंकि कभीकभी ही आता था और उस का लंदन आनाजाना भी लगा रहता था, इसलिए कविता ने कुछ और चाहने वाले ढूंढ लिए थे. स्कूल में वह प्रधानाध्यापक नवलकिशोर के सामने अपने सिंगल पैरेंट्स होने का रोना रोती रहती थी. कितनी ही बार वह आधे दिन की छुट्टी ले कर स्कूल से निकल जाती थी. तब तक मोनू 10 साल का हो गया था.

उस दिन कविता ने बेटे की बीमारी का रोना रो कर नवलकिशोर को 2 दिनों की आकस्मिक छुट्टी की अरजी दी थी. लेकिन अचानक ही उन्होंने उस के बेटे को देखने की इच्छा जाहिर करते हुए उस के घर चलने की इच्छा जाहिर कर दी. कविता किस मुंह से मना करती. उस ने हां कर दी. नवलकिशोर की नजर काफी दिनों से कविता पर जमी थी. वह उन्मुक्त पक्षी जैसी लगती थी, इसीलिए वह उस की हकीकत जानने को उत्सुक थे.

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

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कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

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सरहद पार से- भाग 2 : अपने सपनों की रानी क्या कौस्तुभ को मिल पाई

लेखिका- उषा रानी

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

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घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

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तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

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‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

‘‘तू होश में थी?’’

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

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शरशय्या- भाग 2 : त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

लेखक- ज्योत्स्ना प्रवाह

उस की नींद बहुत कम हो गई थी, उस के सिर पर हाथ रखा तो उस ने झट से पलकें खोल दीं. दोनों कोरों से दो बूंद आंसू छलक पड़े.

‘‘शिबू के लिए काजू की बरफी खरीदी थी?’’

‘‘हां भई, मठरियां भी रखवा दी थीं.’’ मैं ने उस का सिर सहलाते हुए कहा तो वह आश्वस्त हो गई.

‘‘नर्स के आने में अभी काफी समय है न?’’ उस की नजरें मुझ पर ठहरी थीं.

‘‘हां, क्यों? कोई जरूरत हो तो मुझे बताओ, मैं हूं न.’’

‘‘नहीं, जरूरत नहीं है. बस, जरा दरवाजा बंद कर के तुम मेरे सिरहाने आ कर बैठो,’’ उस ने मेरा हाथ अपने सिर पर रख लिया, ‘‘मरने वाले के सिर पर हाथ रख कर झूठ नहीं बोलते. सच बताओ, रानी भाभी से तुम्हारे संबंध कहां तक थे?’’ मुझे करंट लगा. सिर से हाथ खींच लिया. सोते हुए ज्वालामुखी में प्रवेश करने से पहले उस के ताप को नापने और उस की विनाशक शक्ति का अंदाज लगाने की सही प्रतिभा हर किसी में नहीं होती, ‘‘पागल हो गई हो क्या? अब इस समय तुम्हें ये सब क्या सूझ रहा है?’’

‘‘जब नाखून बढ़ जाते हैं तो नाखून ही काटे जाते हैं, उंगलियां नहीं. सो, अगर रिश्ते में दरार आए तो दरार को मिटाओ, न कि रिश्ते को. यही सोच कर चुप थी अभी तक, पर अब सच जानना चाहती हूं. सूझ तो बरसों से रहा है बल्कि सुलग रहा है, लेकिन अभी तक मैं ने खुद को भ्रम का हवाला दे कर बहलाए रखा. बस, अब जातेजाते सच जानना चाहती हूं.’’

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‘‘जब अभी तक बहलाया है तो थोड़े दिन और बहलाओ. वहां ऊपर पहुंच कर सब सचझूठ का हिसाब कर लेना,’’ मैं ने छत की तरफ उंगली दिखा कर कहा. मेरी खीज का उस पर कोई असर नहीं था.

‘‘और वह विभा, जिसे तुम ने कथित रूप से घर के नीचे वाले कमरे में शरण दी थी, उस से क्या तुम्हारा देह का भी रिश्ता था?’’

‘‘छि:, तुम सठिया गई हो क्या? ये क्या अनापशनाप बक रही हो? कोई जरूरत हो तो बताओ वरना मैं चला.’’ मैं उन आंखों का सामना नहीं करना चाहता था. क्षोभ और अपमान से तिलमिला कर मैं अपने कमरे में आ गया. शिबू ने जातेजाते कहा था, मां को एक पल के लिए भी अकेला मत छोडि़एगा. ऐसा नहीं है कि ये सब बातें मैं ने पहली बार उस की जबान से सुनी हैं, पहले भी ऐसा सुना है. मुझे लगा था कि वह अब सब भूलभाल गई होगी. इतने लंबे अंतराल में बेहद संजीदगी से घरगृहस्थी के प्रति समर्पित इला ने कभी इशारे से भी कुछ जाहिर नहीं किया. हद हो गई, ऐसी बीमारी और तकलीफ में भी खुराफाती दिमाग कितना तेज काम कर रहा था. मेरे मन के सघन आकाश से विगत जीवन की स्मृतियों की वर्षा अनेक धाराओं में होने लगी. कभीकभी तो ये ऐसी मूसलाधार होती हैं कि उस के निरंतर आघातों से मेरा शरीर कहीं छलनीछलनी न हो जाए, ऐसा संदेह मुझ को होने लगता है. परंतु मन विचित्र होता है, उसे जितना बांधने का प्रयत्न किया जाए वह उतना ही स्वच्छंद होता जाता है. जो वक्त बीत गया वह मुंह से निकले हुए शब्द की तरह कभी लौट कर वापस नहीं आता लेकिन उस की स्मृतियां मन पर ज्यों की त्यों अंकित रह जाती हैं.

रानी भाभी की नाजोअदा का जादू मेरे ही सिर चढ़ा था. 17-18 की अल्हड़ और नाजुक उम्र में मैं उन के रूप का गुलाम बन गया था. भैया की अनुपस्थिति में भाभी के दिल लगाए रखने का जिम्मा मेरा था. बड़े घर की लड़की के लिए इस घर में एक मैं ही था जिस से वे अपने दिल का हाल कहतीं. भाभी थीं त्रियाचरित्र की खूब मंजी खिलाड़ी, अम्मा तो कई बार भाभी पर खूब नाराज भी हुई थीं, मुझे भी कस कर लताड़ा तो मैं भी अपराधबोध से भर उठा था. कालेज में ऐडमिशन लेने के बाद तो मैं पक्का ढीठ हो गया. अकसर भाभी के साथ रिश्ते का फायदा उठाते हुए पिक्चर और घूमना चलता रहा. इला जब ब्याह कर घर आई तो पासपड़ोस की तमाम महिलाओं ने उसे गुपचुप कुछ खबरदार कर दिया था. साधारण रूपरंग वाली इला भाभी के भड़कीले सौंदर्य पर भड़की थी या सुनीसुनाई बातों पर, काफी दिन तो मुझे अपनी कैफियत देते ही बीते, फिर वह आश्चर्यजनक रूप से बड़ी आसानी से आश्वस्त हो गई थी. वह अपने वैवाहिक जीवन का शुभारंभ बड़ी सकारात्मक सोच के साथ करना चाहती थी या कोई और वजह थी, पता नहीं.

भाभी जब भी घर आतीं तो इला एकदम चौकन्नी रहती. उम्र की ढलान पर पहुंच रही भाभी के लटकेझटके अभी भी एकदम यौवन जैसे ही थे. रंभाउर्वशी के जींस ले कर अवतरित हुई थीं वे या उन के तलवों में साक्षात पद्मिनी के लक्षण थे, पता नहीं? उन की मत्स्यगंधा देह में एक ऐसा नशा था जो किसी भी योगी का तप भंग कर सकता था. फिर मैं तो कुछ ज्यादा ही अदना सा इंसान था. दूसरे दिन नर्स के जाते ही वह फिर आहऊह कर के बैठने की कोशिश करने लगी. मैं ने तकिया पीछे लगा दिया.

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‘‘कोई तुम्हारी पसंद की सीडी लगा दूं? अच्छा लगेगा,’’ मैं सीडी निकालने लगा.

‘‘रहने दो, अब तो कुछ दिनों के बाद सब अच्छा और शांति ही शांति है, परम शांति. तुम यहां आओ, मेरे पास आ कर बैठो,’’ वह फिर से मुझे कठघरे में खड़ा होने का शाही फरमान सुना रही थी.

‘‘ठीक है, मैं यहीं बैठा हूं. बोलो, कुछ चाहिए?’’

‘‘हां, सचसच बताओ, जब तुम विभा को दुखियारी समझ कर घर ले कर आए थे और नीचे बेसमैंट में उस के रहनेखाने की व्यवस्था की थी, उस से तुम्हारा संबंध कब बन गया था और कहां तक था?’’

‘‘फिर वही बात? आखिरी समय में इंसान बीती बातों को भूल जाता है और तुम.’’

‘‘मैं ने तो पूरी जिंदगी भुलाने में ही बिताई है,’’ वह आंखें बंद कर के हांफने लगी. फिर वह जैसे खुद से ही बात करने लगी थी, ‘‘समझौता. कितना मामूली शब्द है मगर कितना बड़ा तीर है जो जीवन को चुभ जाता है तो फांस का अनदेखा घाव सा टीसता है. अब थक चुकी हूं जीवन जीने से और जीवन जीने के समझौते से भी. जिन रिश्तों में सब से ज्यादा गहराई होती है वही रिश्ते मुझे सतही मिले. जिस तरह समुद्र की अथाह गहराई में तमाम रत्न छिपे होते हैं, साथ में कई जीवजंतु भी रहते हैं, उसी तरह मेरे भीतर भी भावनाओं के बेशकीमती मोती थे तो कुछ बुराइयों जैसे जीवजंतु भी. कोई ऐसा गोताखोर नहीं था जो उन जीवजंतुओं से लड़ता, बचताबचाता उन मोतियों को देखता, उन की कद्र करता. सब से गहरा रिश्ता मांबाप का होता है. मां अपने बच्चे के दिल की गहराइयों में उतर कर सब देख लेती है लेकिन मेरे पास में तो वह मां भी नहीं थी जो मुझे थोड़ा भी समझ पाती.

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अंतिम स्तंभ- भाग 3 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

दुख और क्षोभ में भरी सहेली कुछ पल खामोश खड़ी देखती रही. आंखों में पानी उतर आया. आंखें पोंछ कर प्लेटों में पकौड़े डाले. चटनी निकाली. ले जा कर सहेलियों को परोसा और हाथ जोड़ कर आग्रह किया, ‘‘यही स्वागत कर पा रही हूं तुम लोगों का.’’ फिर किचन में जा कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘कृपा कर के अब बनाना बंद करो. माफी चाहती हूं मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब किया.’’

सहेलियां तो दुखी मन से उस की चर्चा करते शाम की ट्रेन से चली गईं अपनेअपने शहर, पर मैं परेशान ही रही. अगली शाम को वह खुद आ गई मेरे घर. वैसे ही जर्जर शरीर ढोते, हांफतेहांफते. बोली, ‘बच्चे स्कूल से आ गए, बहू भी. तब आ पाई हूं. चाय पिला.’

मैं ने जल्दी से चाय बनाई. नाश्ता बनाने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई कि वह बोली, ‘‘बनाना छोड़, घर में कुछ हो तो वही दे दे.’’

मुझे संकोच हो आया, ‘‘सवेरे मेथी के परांठे बनाए थे. जल्दी काम निबटाने के चक्कर में आखिरी लोइयों को मसल कर 2 मोटेमोटे परांठे बना लिए थे. वही हैं. तू दो मिनट रुक न. मैं बढि़या सा कुछ बनाती हूं.’’

एकदम अधीर सी वह कहने लगी, ‘‘मुझे मेथी के मोटे परांठे ही अच्छे लगते हैं. तू दे तो सही.’’

उस की बेताबी देख मैं ने वही मोटेमोटे परांठे परोस दिए. चटनी थी. वह धड़ल्ले से खाने लगी. खा कर चाय पीने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘तू भूखी थी क्या?’’

उस की आंख में पानी उतर आया, बोली, ‘‘हां.’’

‘‘हो क्या गया?’’

उस का गला भर आया. कुछ रुक कर बोली, ‘‘कांड ही हो गया था. मेरे हाथ जोड़ कर माफी मांगने के बाद बहू अपने कमरे में जा कर मुंह लपेट कर औधेमुंह पलंग पर पड़ गई. मैं ने जा कर चौका समेटा. बचे हुए ढेर सारे घोल में से कुछ फ्रिज में रखा. बाकी कामवाली को दे दिया. पकौड़ों में से भी कुछ रखा, बाकी कामवाली को दिया. रात का खाना बना कर बच्चों को खिलाया.

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‘‘उसे खाने के लिए बुलाया तो भड़क गई, ‘मुझे चैन से जीने देना है कि नहीं. नम्रता का आवरण ओढ़े मुझे टौर्चर करती रहती है धूर्त बुढि़या.’ मैं भी पगला गई, ‘तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊं. मौत आएगी तभी न मरूंगी.’

‘‘अपनी दयनीय विवशता पर मैं रोती जाऊं और लड़ती जाऊं. वह भी रोती जाए और लड़ती जाए. उस का मुख्य आरोप था कि मैं पाखंडी हूं. अपने को श्रेष्ठ समझती हूं और उसे हमेशा नीचा दिखाने के चक्कर में रहती हूं. दुख से मेरा कलेजा फटा जा रहा था. मैं भी अपने कमरे में जा कर बिस्तर में रोती पड़ी रही. रातभर नींद नहीं आई. मुझ से कहां गलती होती है, यही समझ में नहीं आया.

‘‘आधी रात के करीब बेटा आया. सीधे अपने कमरे में गया. मैं सहमीसटकी आहट लेती रही, क्या खाना परोसने जाऊं. मगर कुछ देर बाद बेटा खुद कमरे में आ गया, बोला, ‘मां, तुम लोग मुझे जीने दोगी कि नहीं. मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि उस में सहनशक्ति नहीं है. उसे डिस्टर्ब मत किया करो. वह भूखीप्यासी स्कूल से आई कि लड़के चले आए. किसी तरह लड़कों को पढ़ा रही थी कि तुम ने अपनी सहेलियों के लिए नाश्ता बनाने का फरमान सुना दिया. मां, आखिर तुम चाहती क्या हो? तुम हम को छोड़ कर तो रह नहीं सकतीं, तुम खुद जानती हो. तुम समय से पिछड़ चुकी हो. तुम्हें तो एटीएम से पैसा निकालना तक नहीं आता.’

‘‘तुझे एटीएम से पैसा निकालना नहीं आता सुमेधा?’’ मैं हैरान हो गई.

‘‘मैं कभी गई ही नहीं. तेरे जीजाजी के बाद से बैंक वगैरह के सारे कागजात बेटे के पास ही रहते हैं. मुझ से सिर्फ दस्तखत लेता रहा है. एटीएम से पैसा निकाल कर वही देता रहा है. वह न हो, तो बहू ला देती है.’’

‘‘तुझे पता है वे कितना निकालते हैं, तुझे कितनी पैंशन मिलती है?’’

‘‘वे मेरे हाथ में वही रकम थमा देते हैं, जो मुझे शुरू में मिलती थी.’’

मैं सिर पकड़ कर बैठ गई, बोली, ‘‘वह सब मैं तुझे सिखा दूं. मगर यह बता, क्या तू इन को छोड़ कर कहीं अलग सच में नहीं रह सकती?’’

‘‘फायदा क्या है. यहां मैं बेटे की सूरत तो देख सकती हूं. पोतेपोती से बोलबतिया तो लेती हूं. मैं जानती हूं, ये लोग मुझे मूर्ख, गंवार और अवांछित प्राणी समझ कर अपमानित करते रहते हैं. कुत्ता भी इन का अपना है, दुलारा है. मगर मैं नहीं. मैं क्या करूं. मुझ में इन के लिए ही प्रेम उमड़ता है. फिर बीचबीच में बेटियां आ जाती हैं. दामाद और बच्चे भी. मेरी छाती भर आती है. बेहद सुख लगता है. कभी देवरजेठभतीजेभतीजी वगैरह भी आ जाते हैं.

‘‘बहू अपने मायके वालों के अतिरिक्त किसी का आना पसंद नहीं करती. कई बार अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलती. मगर ये लोग बहुत समझदार हैं. उस के कमरे में जा कर खुद बोलबतिया लेते हैं. बेटियां तो अकसर भाभी के लिए तोहफे ले कर आती हैं. भरेपूरे मायके में आने से उन का भी तो ससुराल में मान बढ़ता है. इन्हीं सब से इस परिवार की प्रतिष्ठा बनी हुई है.

‘‘बहू को तो परिवार की प्रतिष्ठा की समझ नहीं है. शायद आजकल की अधिकतर युवतियों को ही नहीं है. अपना पति, अपने बच्चे, अपनी शानशौकत से भरी जिंदगी, अपना अधिकार, अपनी सत्ता. इन सब के लिए चाहिए पैसा. बटोर सको तो बटोरो. इसी में चौंधियाई हुई हैं. प्रतिष्ठा की फिक्र तो हम जैसों को होती है. सच तो यह है, मुझे जितना प्रेम अपने बेटेबेटी, नातीपोते से है, उतना ही परिवार की प्रतिष्ठा से है. बल्कि कुछ ज्यादा ही. अपने जीतेजी तो मैं इस प्रतिष्ठा को बचाए ही रखूंगी.’’

उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

परिवार की प्रतिष्ठा. अच्छे से जानती हूं कि यह तो उस की घुट्टी में रही है. याद आया, कालेज के दूसरे साल में थी कि वह पड़ोस के एक लड़के से प्रेम कर बैठी थी. लड़का एमए का छात्र था. यह कुछकुछ पूछने उस के पास जाती थी. भीतर ही भीतर प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था. मगर बातें हो पातीं सिर्फ पढ़ाई की. मुझ से कहने लगी, ‘तू उस से पूछ न, क्या वह मुझे चाहता है.’

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लड़का पहले ही मुझे अपने जज्बात बता चुका था, मैं बोली, ‘अगर वह ‘हां’ में जवाब दे तो क्या तू उस से शादी कर सकेगी?’ वह एकदम खामोश हो गई. फिर बोली, ‘मैं ऐसा नहीं कर सकती. वह दूसरी बिरादरी का है. बाबूजी को बहुत दुख होगा. समाज में हमारे परिवार की बदनामी होगी.’ उस की आंखें छलछलाने लगी थीं, आगे बोली, ‘मैं इस दारुण दुख को चुपचाप पी लूंगी, मगर परिवार की प्रतिष्ठा कलंकित नहीं कर सकती.’

और आज…?

आज भी उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

भीगे नेत्रों से देखती रह गई मैं. परिवार की प्रतिष्ठा का भारी बोझ उठाए उस जर्जर अंतिम स्तंभ को. घर में दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती, पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती.

यह भी खूब रही. मेरे बेटे का मित्र आशीष, दिल्ली के इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर यूरोप के एक देश की एयरलाइंस कार्यालय में नौकरी करता है. यह एयरलाइंस अपने कर्मचारियों को अपने देश में घूमने के लिए डिस्काउंट टिकट और होटल में ठहरने की सुविधा भी देती है.

इसी सुविधा के अंतर्गत जब वह पहली बार यूरोप में उन के देश घूमने गया तो होटल के कमरे में अपना समान रख कर बालकनी की तरफ लगे शीशे के दरवाजे के हैंडल को नीचे की ओर शीघ्रता से घुमा कर खोलने लगा तो ऊपर की ओर से पूरा का पूरा दरवाजा दोनों ओर से खुल गया और उस के ऊपर गिरने लगा. उस ने दरवाजे को कई बार टिकाना चाहा लेकिन जैसे ही वह उसे छोड़ने का प्रयास करता वह तेजी से उस के ऊपर गिरने लगता.

अपने दोनों हाथों से उस ने दरवाजों को संभाल रखा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी किसी ने मुख्य दरवाजे की घंटी बजाई. आशीष ने जोर से चिल्लाते हुए उसे अंदर आने को कहा. जैसे ही दरवाजा खुला तो होटल का वह कर्मचारी भीतर का दृश्य देख कर चौंक गया. वह कर्मचारी उस के पास आया और उस ने आशीष का हाथ पकड़ कर उसे वहां से हटाया और उसे दरवाजे की तकनीक समझाई.

नया व्यक्ति, जो इस तकनीक को नहीं जानता है, वह आम दरवाजे जैसे ही हैंडल नीचे की ओर कर, दरवाजे को खोलने की कोशिश करता है, तो उसे पूरा का पूरा दरवाजा खुल कर नीचे गिरने जैसा लगता है. आज भी यूरोप घूमने जाने पर ऐसे दरवाजेखिड़कियां खोलते ही यह वाकेआ ताजा हो जाता है और सब आशीष का नाम ले कर खूब ठहाके लगाते हैं.

मेरे एक बहुत ही घनिष्ठ मित्र हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं. उन का क्लिनिक घर के पास ही है. उन की नईनई शादी हुई थी. कुछ दिनों बाद उन की पत्नी की मौसी उन के यहां आईं. जब भी वे मरीजों के प्लास्टर चढ़ाते तो घर पास में होने के कारण घर आ जाते और स्नान वगैरह करते. जब वे घर आते तो उन के कपड़े चूने से सने होते थे. उन्हें ऐसी हालत में मौसी रोज देखतीं.

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लौट कर मौसी अपनी बहन के घर जा कर बोलीं, ‘‘तुम तो कहती हो कि लड़का डाक्टर है, पर मुझे तो लगता है वह सफेदी करने वाला है. घर में जब भी आता है, सारे कपड़े चूने से सने रहते हैं.’’

आज भी डाक्टर साहब इस बात को याद कर के हंस पड़ते हैं.

लड़की- भाग 1 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

मुंबई स्थित जसलोक अस्पताल के आईसीयू में वीणा बिस्तर पर  निस्पंद पड़ी थी. उसे इस हालत में देख कर उस की मां अहल्या का कलेजा मुंह को आ रहा था. उस के कंठ में रुलाई उमड़ रही थी. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एक दिन ऐसे दुखदायी दृश्य का सामना करना पड़ेगा.

वह वीणा के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ फेरने लगी. ‘मेरी बेटी,’ वह बुदबुदाई, ‘तू एक बार आंखें खोल दे, तू होश में आ जा तो मैं तुझे बता सकूं कि मैं तुझे कितना चाहती हूं, तू मेरे दिल के कितने करीब है. तू मुझे छोड़ कर न जा मेरी लाड़ो. तेरे बिना मेरा संसार सूना हो जाएगा.’

बेटी को खो देने की आशंका से वह परेशान थी. वह व्यग्रता से डाक्टर और नर्सों का आनाजाना ताक रही थी, उन से वीणा की हालत के बारे में जानना चाह रही थी, पर हर कोई उसे किसी तरह का संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ था.

जैसे ही उसे वीणा के बारे में सूचना मिली वह पागलों की तरह बदहवास अस्पताल दौड़ी थी. वीणा को बेसुध देख कर वह चीख पड़ी थी. ‘यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ?’ उस के होंठों पर हजारों सवाल आए थे.

‘‘मैं आप को सारी बात बाद में विस्तार से बताऊंगा,’’ उस के दामाद भास्कर ने कहा था, ‘‘आप को तो पता ही है कि वीणा ड्रग्स की आदी थी. लगता है कि इस बार उस ने ओवरडोज ले ली और बेहोश हो गई. कामवाली बाई की नजर उस पर पड़ी तो उस ने दफ्तर में फोन किया. मैं दौड़ा आया, उसे अस्पताल लाया और आप को खबर कर दी.’’

‘‘हायहाय, वीणा ठीक तो हो जाएगी न?’’ अहल्या ने चिंतित हो कर सवाल किया.

‘‘डाक्टर्स पूरी कोशिश कर रहे हैं,’’  भास्कर ने उम्मीद जताई.

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भास्कर से कोई आश्वासन न पा कर अहल्या ने चुप्पी साध ली. और वह कर भी क्या सकती थी? उस ने अपने को इतना लाचार कभी महसूस नहीं किया था. वह जानती थी कि वीणा ड्रग्स लेती थी. ड्रग्स की यह आदत उसे अमेरिका में ही पड़ चुकी थी. मानसिक तनाव के चलते वह कभीकभी गोलियां फांक लेती थी. उस ने ओवरडोज गलती से ली या आत्महत्या करने का प्रयत्न किया था?

उस का मन एकबारगी अतीत में जा पहुंचा. उसे वह दिन याद आया जब वीणा पैदा हुई थी. लड़की के जन्म से घर में किसी प्रकार की हलचल नहीं हुई थी. कोई उत्साहित नहीं हुआ था.

अहल्या व उस का पति सुधाकर ऐसे परिवेश में पलेबढ़े थे जहां लड़कों को प्रश्रय दिया जाता था. लड़कियों की कोई अहमियत नहीं थी. लड़कों के जन्म पर थालियां बजाई जातीं, लड्डू बांटे जाते, खुशियां मनाई जाती थीं. बेटी हुई तो सब के मुंह लटक जाते.

बेटी सिर का बोझ थी. वह घाटे का सौदा थी. एक बड़ी जिम्मेदारी थी. उसे पालपोस कर, बड़ा कर दूसरे को सौंप देना होता था. उस के लिए वर खोज कर, दानदहेज दे कर उस की शादी करने की प्रक्रिया में उस के मांबाप हलकान हो जाते और अकसर आकंठ कर्ज में डूब जाते थे.

अहल्या और सुधाकर भी अपनी संकीर्ण मानसिकता व पिछड़ी विचारधारा को ले कर जी रहे थे. वे समाज के घिसेपिटे नियमों का हूबहू पालन कर रहे थे. वे हद दर्जे के पुरातनपंथी थे, लकीर के फकीर.

देश में बदलाव की बयार आई थी, औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष कर रही थीं, स्त्री सशक्तीकरण की मांग कर रही थीं. पर अहल्या और उस के पति को इस से कोई फर्क नहीं पड़ा था.

अहल्या को याद आया कि बच्ची को देख कर उस की सास ने कहा था, ‘बच्ची जरा दुबलीपतली और मरियल सी है. रंग भी थोड़ा सांवला है, पर कोई बात नहीं.

2-2 बेटों के जन्म के बाद इस परिवार में एक बेटी की कमी थी, सो वह भी पूरी हो गई.’

जब भी अहल्या को उस की सास अपनी बेटी को ममता के वशीभूत हो कर गोद में लेते या उसे प्यार करते देखतीं तो उसे टोके बिना न रहतीं, ‘अरी, लड़कियां पराया धन होती हैं, दूसरे के घर की शोभा. इन से ज्यादा मोह मत बढ़ा. तेरी असली पूंजी तो तेरे बेटे हैं. वही तेरी नैया पार लगाएंगे. तेरे वंश की बेल वही आगे बढ़ाएंगे. तेरे बुढ़ापे का सहारा वही तो बनेंगे.’

सासूमां जबतब हिदायत देती रहतीं, ‘अरी बहू, बेटी को ज्यादा सिर पे मत चढ़ाओ. इस की आदतें न बिगाड़ो. एक दिन इसे पराए घर जाना है. पता नहीं कैसी ससुराल मिलेगी. कैसे लोगों से पाला पड़ेगा. कैसे निभेगी. बेटियों को विनम्र रहना चाहिए. दब कर रहना चाहिए. सहनशील बनना चाहिए. इन्हें अपनी हद में रहना चाहिए.’

देखते ही देखते वीणा बड़ी हो गई. एक दिन अहल्या के पति सुधाकर ने आ कर कहा, ‘वीणा के लिए एक बड़ा अच्छा रिश्ता आया है.’

‘अरे,’ अहल्या अचकचाई, ‘अभी तो वह केवल 18 साल की है.’

‘तो क्या हुआ. शादी की उम्र तो हो गई है उस की, जितनी जल्दी अपने सिर से बोझ उतरे उतना ही अच्छा है. लड़के ने खुद आगे बढ़ कर उस का हाथ मांगा है. लड़का भी ऐसावैसा नहीं है. प्रशासनिक अधिकारी है. ऊंची तनख्वाह पाता है. ठाठ से रहता है हमारी बेटी राज करेगी.’

‘लेकिन उस की पढ़ाई…’

‘ओहो, पढ़ाई का क्या है, उस के पति की मरजी हुई तो बाद में भी प्राइवेट पढ़ सकती है. जरा सोचो, हमारी हैसियत एक आईएएस दामाद पाने की थी क्या? घराना भी अमीर है. यों समझो कि प्रकृति ने छप्पर फाड़ कर धन बरसा दिया हम पर. ‘लेकिन अगर उस के मातापिता ने दहेज के लिए मुंह फाड़ा तो…’

‘तो कह देंगे कि हम आप के द्वारे लड़का मांगने नहीं गए थे. वही हमारी बेटी पर लार टपकाए हुए हैं…’

जब वीणा को पता चला कि उस के ब्याह की बात चल रही है तो वह बहुत रोईधोई. ‘मेरी शादी की इतनी जल्दी क्या है, मां. अभी तो मैं और पढ़ना चाहती हूं. कालेज लाइफ एंजौय करना चाहती हूं. कुछ दिन बेफिक्री से रहना चाहती हूं. फिर थोड़े दिन नौकरी भी करना चाहती हूं.’

पर उस की किसी ने नहीं सुनी. उस का कालेज छुड़ा दिया गया. शादी की जोरशोर से तैयारियां होने लगीं.

वर के मातापिता ने एक अडं़गा लगाया, ‘‘हमारे बेटे के लिए एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे हैं. लाखों का दहेज मिल रहा है. माना कि हमारा बेटा आप की बेटी से ब्याह करने पर तुला हुआ है पर इस का यह मतलब तो नहीं कि आप हमें सस्ते में टरका दें. नकद न सही, उस की हैसियत के अनुसार एक कार, फर्नीचर, फ्रिज, एसी वगैरह देना ही होगा.’’

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सुधाकर सिर थाम कर बैठ गए. ‘मैं अपनेआप को बेच दूं तो भी इतना सबकुछ जुटा नहीं सकता,’ वे हताश स्वर में बोले.

‘मैं कहती थी न कि वरपक्ष वाले दहेज के लिए मुंह फाड़ेंगे. आखिर, बात दहेज के मुद्दे पर आ कर अटक गई न,’ अहल्या ने उलाहना दिया.

‘आंटीजी, आप लोग फिक्र न करें,’ उन के भावी दामाद उदय ने उन्हें दिलासा दिया, ‘मैं सब संभाल लूंगा. मैं अपने मांबाप को समझा लूंगा. आखिर मैं उन का इकलौता पुत्र हूं वे मेरी बात टाल नहीं सकेंगे.’ पर उस के मातापिता भी अड़ कर बैठे थे. दोनों में तनातनी थी.

आखिर, उदय के मांबाप की ही चली. वे शादी के मंडप से उदय को जबरन उठा कर ले गए और सुधाकर व अहल्या कुछ न कर सके. देखते ही देखते शादी का माहौल मातम में बदल गया. घराती व बराती चुपचाप खिसक लिए. अहल्या और वीणा ने रोरो कर घर में कुहराम मचा दिया.

‘अब इस तरह मातम मनाने से क्या हासिल होगा?’ सुधाकर ने लताड़ा, ‘इतना निराश होने की जरूरत नहीं है. हमारी लायक बेटी के लिए बहुतेरे वर जुट जाएंगे.’

वीणा मन ही मन आहत हुई पर उस ने इस अप्रिय घटना को भूल कर पढ़ाई में अपना मन लगाया. वह पढ़ने में तेज थी. उस ने परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की. इधर, उस के मांबाप भी निठल्ले नहीं बैठे थे. वे जीजान से एक अच्छे वर की तलाश कर रहे थे. तभी वीणा ने एक दिन अपनी मां को बताया कि वह अपने एक सहपाठी से प्यार करती है और उसी से शादी करना चाहती है.

जब अहल्या ने यह बात पति को बताई तो उन्होंने नाकभौं सिकोड़ कर कहा, ‘बहुत खूब. यह लड़की कालेज पढ़ने जाती थी या कुछ और ही गुल खिला रही थी? कौन लड़का है, किस जाति का है, कैसा खानदान है कुछ पता तो चले?’

और जब उन्हें पता चला कि प्रवीण दलित है तो उन की भृकुटी तन गई, ‘यह लड़की जो भी काम करेगी वह अनोखा होगा. अपनी बिरादरी में योग्य लड़कों की कमी है क्या? भई, हम से तो जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाएगी. समाज में क्या मुंह दिखाएंगे? हमें किसी तरह से इस लड़के से पीछा छुड़ाना होगा. तुम वीणा को समझाओ.’

‘मैं उसे समझा कर हार चुकी हूं पर वह जिद पकड़े हुए है. कुछ सुनने को तैयार नहीं है.’

‘पागल है वह, नादान है. हमें कोई तरकीब भिड़ानी होगी.’

सुधाकर ने एक तरीका खोज  निकाला. वे वीणा को एक  ज्योतिषी के पास ले गए.

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