अजब मृत्यु: क्या हुआ था रमा के साथ

कितनी अजीब बात है न कि किसी की मौत की खबर लोगों में उस के प्रति कुछ तो संवेदना, दया के भाव जगाती है लेकिन जगत नारायण की मौत ने मानो सब को राहत की सांस दे दी थी. अजब मृत्यु थी उस की. पांडवपुरी कालोनी के रैजिडैंस वैलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष 75 वर्षीय सदानंद दुबेजी नहीं रहे. अचानक दिल का दौरा पड़ने से 2 दिन पहले निधन हो गया. सदा की तरह इस बार भी आयोजित शांतिसभा में पूरी कालोनी जुटी थी. दुबेजी की भलमनसाहत से सभी लोग परिचित थे. सभी एकएक कर के स्टेज पर आते और उन की फोटो पर फूलमाला चढ़ा कर उन के गुणगान में दो शब्द व्यक्त कर रहे थे.

कार्यक्रम समाप्त हुआ, तो सभी चलने को खड़े हुए कि तभी चौकीदार गोपी ने भागते हुए आ कर यह खबर दी कि बी नाइंटी सेवन फ्लैट वाले जगत नारायण 4 बजे नहीं रहे. सभी कदम ठिठक गए. भीड़ में सरगर्मी के साथ सभी चेहरों पर एक राहत की चमक आ गई. ‘‘अरे नहीं, वो नल्ला?’’ ‘‘सच में? क्या बात कर रहे हो.’’ ‘‘ऐसा क्या?’’ सभी तरहतरह से सवाल कर समाचार की प्रामाणिकता पर सत्य की मुहर लगवाना चाह रहे थे. लोगों के चेहरों पर संतोष छलक रहा था. ‘‘हांहां, सही में साब, वहीं से तो लौट रहा हूं. सुबह भाभीजी ने कहा तो भैयाजी लोगों के साथ क्रियाकर्म में गया. सब अभी लौटे हैं, उस ने अपनी चश्मदीद गवाही का पक्का प्रूफ दे दिया.

‘‘चलो, अच्छा हुआ. फांस कटी सब की.’’ ‘‘कालोनी की बला टली समझो.’’ ‘‘अपने परिवार वालों की भी नाक में दम कर रखा था कम्बख्त ने, ऐसा कोई आदमी होता है भला?’’ ‘‘तभी उस के परिवार का कोई दिख नहीं रहा यहां, वरना कोई न कोई तो जरूर आता. मानवधर्म और सुखदुख निभाने में उस के घर वाले कभी न चूकते.’’ सभी जगत नारायण से दुखी हृदय आज बेधड़क हो बोल उठे थे. वरना जगत जैसे लड़ाके के सामने कोई हिम्मत न जुटा पाता. अपने खिलाफ कुछ सुन भर लेता, तो खाट ही खड़ी कर देता सब की, उस की पत्नी नम्रता के लाख कहने पर भी वह किसी के मरने के बाद की शोकसभा आदि में कभी नहीं गया. नम्रता और उस के 3 बच्चे जगत से बिलकुल अलग थे. पास ही में अपने परिवार के साथ रहने वाली जगत की जुड़वां बहन कंचन अपने भाई से बिलकुल उलट थी.

अपने पति शील के साथ ऐसे मौके पर जरूर पहुंचती. ननदभाभी की एक ही कालोनी में रहते हुए भी, ऐसे ही कहीं बातें हो पातीं, क्योंकि जगत ने नम्रता को अपने घरवालों से बात करने पर भी पाबंदी लगा रखी थी. कहीं चोरीछिपे दोनों की मुलाकात देख लेता, तो दूर से ही दोनों को गालियां निकालना शुरू कर देता. पिछली बार हीरामल के निधन पर दोनों इकट्ठी हुई थीं. तभी लोगों को हीरामल का एकएक कर गुणगान करते देख नम्रता बोल उठी थी, ‘देख रही हो कंचन, भले आदमी को कितने लोग मरने के बाद भी याद करते हैं. तुम्हारे भैया तो तब भी उन्हें नहीं पूछते, उलटे गालियां ही निकालते हैं, इन के खयाल से तो इन के अलावा सारी दुनिया ही बदमाश है.’

‘नम्रता, भाई मत कहो. किसी से उस की बनी भी है आज तक? जब अम्माबाबूजी को नहीं छोड़ा. दोनों को जबान से मारमार कर हौस्पिटल पहुंचा दिया. खून के आंसू रोते थे वे दोनों, इस की वजह से. ‘शिव भैया और हम तीनों बहनें उस की शिकार हैं. समय की मारी तुम जाने कहां से पत्नी बन गई इस की. मैं तुम्हें पहले मिली होती तो तुम्हें इस से शादी के लिए मना ही कर देती. तुम्हारे सज्जन सीधेसादे पिता को इस ने धोखा दे कर तुम जैसी पढ़ीलिखी सिंपल लड़की से ब्याह रचा लिया, कि बस इसे ढोए जा रही हो आज तक. अरे कैंसर कोई पालता थोड़ी है, कटवा दिया जाता है. बच्चे भी कैसे निभा रहे हैं जंगली, घमंडी धोखेबाज बाप से. ‘क्या जिंदगी बना रखी है तुम सब की. कोई सोशललाइफ ही नहीं रहने दी तुम सब की. सब से लड़ाई ही कर डालता है. इस के संपर्क में आया कोई भी ऐसा नहीं होगा जिस से उस की तूतू मैंमैं न हुई हो. सब से पंगा लेना काम है इस का, फिर चाहे बच्चाबूढ़ाजवान कोई भी हो.

जब मरेगा तो कोई कंधा देने को आगे नहीं बढ़ेगा.’ सच ही तो था कामधाम कोई था नहीं उस के पास. फिर भी जाने किस अकड़ में रहता. सब से दोगुना पैसा वापस देने का झांसा दे कर टोपियां पहनाता रहता. वापस मांगने पर झगड़ा करता, मूल भी बड़ी मुश्किल से चुकाता. इसी से कोई भी उसे मुंह नहीं लगाना चाहता. पैसा जब तक कोई देता रहता तो दोस्त, वरना जानी दुश्मन. चाहे बहन की ससुराल का कोई हो, पड़ोसी, रिश्तेदार हो, पत्नी की जानपहचान का हो या बच्चों के फ्रैंड्स के पेरैंट्स. किसी से भी मांगने में उसे कोई झिझक न होती. यहां तक कि सब्जीवाले, प्रैसवाले, कालोनी के चौकीदार के आगे 10-20 रुपए के लिए भी उसे हाथ फैलाने में कोई शर्म न आती. बच्चे उस की हरकत से परेशान थे. नम्रता से कहते, ‘फार्म में पिता के व्यवसाय कालम में हमें यही डालना चाहिए लड़ना, झगड़ना टोपी पहनाना.’ ‘इन के कुहराम जिद और गालीगलौज से परेशान हो इन का झगड़ा सुलटाने चली जाती थी.

पर अब तो तय कर लिया, कोई इन्हें पीटे, तो भी नहीं जाऊंगी,’ नम्रता ने कहा. ‘बिलकुल ठीक, न इस के साथ जाने की जरूरत है न कोईर् पैसा देने की. झूठा एक नंबर का. गाता फिरता है कि कंपनी में इंजीनियर था, पैसा नहीं दिया उन लोगों ने तो उन की नौकरी को लात मार के चला आया. कहां का इंजीनियर, बड़ी मुश्किल से 12वीं पास की थी. अम्मा ने किसी तरह सिफारिश कर इसे कालेज में ऐडमिशन दिलाया था. 6 महीने में ही भाग छूटा वहां से, पर इस के सामने कौन कुछ कहे. सड़क पर ही लड़ने बैठ जाएगा. दिमाग का शातिर और गजब का आत्मविश्वासी. ‘देखदेख कर ठेकेदारी के गुर सीख गया. अपने को इंजीनियर बता कर ठेके पर काम हथिया लेता पर खुद की घपलेबाजी के चलते मेजर पेमेंट अटक जाती. फिर उन्हें गालियां बकता फिरता, ‘छोड़ूंगा नहीं सालों को, सीबीआई, कोर्ट, पुलिस सब में मेरी पहचान है. गौड कैन नौट बी चीटेड, उस का पसंदीदा डायलौग. पर सब से बड़ा चीटर तो वह खुद है. हम बहनें तो 10 सालों से इसे राखी तक नहीं बांधतीं, भैया दूज का टीका तो दूर की बात. तुम ने तो देखा ही है. ‘अरे उधर देखो नम्रता, वहां बैठा जगत कुछ खा रहा था. कोई मरे चाहे जिए, जन्म का भुक्खड़. फिर हमें साथ देख लिया तो हम दोनों की शामत. लड़ने ससुराल तक पहुंच जाएगा, नजरें बहुत तेज हैं शैतान की.

चलो बाय.’ कंचन कह कर चली गई थी. नम्रता और कंचन के इस वार्त्तालाप को अभी महीनाभर ही तो हुआ होगा कि कंचन के जगत के प्रति कहे हृदय उद्गार लोगों के मुख से सही में श्रद्धांजलि सुमन के रूप में निकल रहे थे. ‘‘हां भई, हां, सही खबर है. आज सुबह तड़के ही उस नामुराद, नामाकूल जगत ने आखिरी सांस छोड़ी. बड़ा बेवकूफ बनाया था उस ने सब को,’’ सिद्दीकी साहब ने यह कहा तो ललितजी मजे लेते हुए बोल उठे, ‘‘चलो अच्छा हुआ, बड़ा कहता फिरता था ब्रह्म मुहूर्त में पैदा हुआ हूं, कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. ब्रह्म मुहूर्त ने ही उसे मार डाला.’’ ‘‘कलेजे विच ठंड पै गई, मैनु इत्ता दुखी कीता इत्ता कि पुच्छो न. साडे वास्ते तो वडी चंगी गल हैगी,’’ गुरमीत साहब मुसकरा पड़े. जगत के घर से तीसरे घर में रहने वाले मिस्टर गौरव हैरान थे, बताने लगे, ‘‘अरे, कल ही तो शाम को देखा था उसे, गालियां निकालते, लंगड़ाते हुए अपने गेट में घुस रहा था. आंखों के नीचे बड़े काले निशान देख कर लग रहा था कि फिर कहीं से पिट कर आया है. उस की हालत देख कर मुझे हंसी आ रही थी, लेकिन कैसे पूछे कोई, कौन मुंह लगे, सोच मैं अंदर हो लिया.’’ ‘‘समझ नहीं आ रहा परिवार वालों को शोक संवदेना दें या बधाई,’

’ गणेश मुसकराते हुए बोले थे. ‘‘अजब संयोग हुआ, कहां नम्रता बिटिया कालेज की लैक्चरार, इतनी पढ़ीलिखी, समझदार, एक संभ्रांत परिवार से और कहां यह स्वभाव से उद्दंड, गंवार. जगत लगता ही नहीं था उस का पति किसी भी ऐंगल से. बिटिया के मांबाप तो पहले ही इस गम में चल बसे.’’ ‘‘नम्रता बहन की वजह से तीनों बच्चे पढ़ाई के साथसाथ संस्कारों में भी अच्छे निकल गए. बेटी स्टेट बैंक में पीओ हो गई, बेटा आस्तिक आईएस में सलैक्ट हो कर ट्रेनिंग पर जा रहा है, छोटी बेटी आराध्या बीटेक के आखिरी साल में पहुंच गई है,’’ ललितजी बोले थे. ‘‘बगैर उचित सुखसुविधाओं के, उस के आएदिन कुहराम के बीच बच्चों की मेहनत, काबिलीयत और नम्रता भाभी की मेहनत का फल है. वरना उस ने तो अपनी तरफ से बच्चे को लफडि़या बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी, पढ़ने नहीं देता उन को. कहता, इतना दिमाग खपाने की क्या जरूरत है, पैसे दे कर आराम से पास करा दूंगा,’’ गौरव ने टिप्पणी की. ‘‘वह तो कहो बापदादा का घर है, वरना तो जो कमाई बताता वह उस की लड़ाई के मारे हमेशा अटकी ही पड़ी रही.

परिवार को सड़क पर ही ले आता. बिटिया और बच्चों ने बड़ी ज्यादती बरदाश्त की इस की. अच्छा हुआ गया. बेचारों को चैन की सांस तो आएगी,’’ कह कर गणेश मुसकराए. ‘‘इसलिए, अब तय रहा शोकसंवेदना का कोई औचित्य नहीं. हम सब एकत्रित जरूर हैं लेकिन उस के प्रति अपनीअपनी भड़ास निकालने के लिए,’’ कह कर सोमनाथ मुसकराए थे. ‘‘अंकल, आप वहीं से बैठेबैठे कुछ बोलिए, जगत के पिता आप के अच्छे मित्रों में से थे,’’ सोमनाथ मिस्टर अखिलेश के पास अपना माइक ले आए थे. ‘‘अरे, जब वह छोटा था तब भी सब की नाक में दम कर रखा था उस ने. स्कूल, कालोनी में अकसर मारपिटाई कर के चला आता. टीचरों से भी पंगे लेता. कभी उन के बालों में च्यूइंगम तो कभी सीट पर उलटी कील ठोंक आता. उस से बेहद तंग आ कर पिता बद्री नारायण अपनी कच्ची गृहस्थी छोड़ कर चल बसे. पर 10-12 साल के जगत को कोई दर्द नहीं, उलटे सब से बोलता फिरता, ‘मर गए न, बड़ा टोकते थे खेलने से रोकेंगे और मना करें.’ एक साहित्यकार के बेटे ने जाने कहां से ये शब्द सीख लिए थे. ‘‘गुस्से के मारे उन की अंतिम विदाई में उन्हें अंतिम समय देखा तक नहीं और अंदर ही बैठा रहा, बाहर ही नहीं आया.

मां रमा रोतीपीटती ही रह गई थी. पहले मंदबुद्धि बड़े लड़के के बाद 2 लड़कियां, फिर जगत, 5वीं फिर एक लड़की. जगत के जन्म पर तो बड़ा जश्न मना. बड़ी उम्मीद थी उस से. पर जैसेजैसे बड़ा होता गया, कांटे की झाडि़यों सा सब को और दुखी करता गया.’’ अखिलेश अंकल बताए जा रहे थे. अखिलेश अंकल की बातें सुन कर कंचन बोल उठी, ‘‘आज मैं भी जरूर कुछ कहूंगी. अम्मा जब तक जिंदा थीं, आएदिन के अपने झगड़े से उन्हें परेशान कर रखा था उस ने. सब से लड़ताझगड़ता और मां बेचारी झगड़े सुलटाती माफी ही मांगती रहतीं. बाबूजी के दफ्तर में अम्मा को क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. कम तनख्वाह से सारे बच्चों की परवरिश के साथ जगत की नितनई फरमाइशें करतीं लेकिन जब पूरी कर पाना संभव न हो पाता तो जगत उन की अचार की बरनी में थूक आता, आटे के कनस्तर में पानी, तो कभी प्रैस किए कपड़े फर्श पर और उन का चश्मा कड़ेदान में पड़े मिलते. ऊंची पढ़ीलिखी नम्रता से धोखे से शादी कर ली, बच्चे पढ़ाई में अच्छे निकल गए. वैसे वह तो सभी को अंगूठाछाप, दोटके का कह कर पंगे लेता रहता. उस के बच्चों पर दया आती,’’ अपनी बात कह कर कंचन ने माइक शील को दे दिया.

‘‘कुछ शब्द ऐसे रिश्तेदार को क्या कहूं. मेरे घर में तो घर, मेरी बहनों की ससुराल में भी पैसे मांगमांग कर डकार गया. कुछ पूछो तो कहता, ‘कैसे भूखेनंगे लोग हैं जराजरा से पैसों के लिए मरे जा रहे हैं. भिखारी कहीं के. चोरी का धंधा करते हो, सब को सीबीआई, क्राइम ब्रांच में पकड़वा दूंगा. बचोगे नहीं,’ उसी के अंदाज में कहने की कोशिश करते हुए शील ने कहा. उस के बाद कई लोगों ने मन का गुस्सा निकाला. सीधेसादे सुधीर साहब बोल उठे, ‘‘मुझ से पहले मेरा न्यूजपेपर उठा ले जाता. उस दिन पकड़ लिया, ‘क्या ताकझांक करता रहता है घर में?’ तो कहने लगा, ‘अपनी बीवी का थोबड़ा तुझ से तो देखा जाता नहीं, मैं क्या देखूंगा.’ ‘‘मैं पेपर उस के हाथों से छीनते हुए बोला, ‘अपना पेपर खरीद कर पढ़ा कर.’ तो कहता ‘मेरे पेपर में कोई दूसरी खबर छपेगी?’ मैं उसे देखता रह जाता.’’ कह कर वे हंस पड़े. अपनी भड़ास निकाल कर उन का दर्द कुछ कम हो चला था. ‘‘अजीब झक्की था जगत. मेरी बेटी की शादी में आया तो सड़क से भिखारियों की टोली को भी साथ ले आया. बरात आने को थी, प्लेटें सजासजा कर भिखारियों को देने लगा. मना किया तो हम पर ही चिल्लाने लगा, ‘8-10 प्लेटों में क्या भिखारी हो जाओगे.

आने दो बरातियों को, देखूं कौन रोकता है?’ ‘‘जी कर रहा था सुनाऊं उस को पर मौके की नजाकत समझ कर चुप रहना मुनासिब समझा.’’ उस दिन न कह पाने का मलाल आज खत्म हुआ था, जगत के फूफा रविकांत का और अपनी बात कह कर वह मुसकरा उठे थे. गंगाधर ने हंसते हुए अपनी घड़ी की ओर अचानक देखा और फिर बोले, ‘‘भाइयो और बहनो, शायद सब अब अपनेअपने मन को हलका महसूस कर रहे होंगे, हृदय को शांति मिल गई हो, तो सभा विसर्जित करते हैं.’’ सभी ने सहमति जाहिर की और एकएक कर खड़े होने लगे थे कि लगभग भागता हुआ चौकीदार गोपी आ गया. उस के पीछे दोतीन और आदमी थे. जिन के हाथों में चायपानी का सामान था. ‘‘सुनीता भाभीजी जो जगत के घर के बराबर में रहती हैं, ने सब के लिए चाय, नमकीन बिस्कुट व समोसे भिजवाए हैं. मुझे इस के लिए पैसे दे गई थीं कि समय से सब को जरूर पहुंचा देना. पर ताजा बनवाने व लाने में जरूर थोड़ी देर हो गई. सारा सामान माखन हलवाई से गरमागरम लाया हूं.’’ गोपी अपने बंदों के साथ सब को परोस कर साथियों संग खुद भी खाने लगा. ‘‘भई वाह, कमाल है, न बाहर किसी को न घर में किसी को अफसोस. उलटे राहत ही राहत सब ओर. ऐसी श्रद्धांजलि तो न पहले कभी देखी न सुनी हो.’’

सभी के चेहरों की मंदमंद हंसी धीरेधीरे ठहाकों में बदलने लगी थी.

शायद: क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

लेखिका- शशि उप्पल

शगुन स्कूल बस से उतर कर कुछ क्षण स्टाप पर खड़ा धूल उड़ाती बस को देखता रहा. जब वह आंखों से ओझल हो गई, तब घर की ओर मुड़ा. दरवाजे की चाबी उस के बैग में ही थी. ताला खोल कर वह अपने कमरे में चला गया. दीवार घड़ी में 3 बज रहे थे.

शगुन ने अनुमान लगाया कि मां लगभग ढाई घंटे बाद आ जाएंगी और पिता 3 घंटे बाद. हाथमुंह धो कर वह रसोईघर में चला गया. मां आलूमटर की सब्जी बना कर रख गई थीं. उसे भूख तो बहुत लग रही थी, परंतु अधिक खाया नहीं गया. बचा हुआ खाना उस ने कागज में लपेट कर घर के पिछवाड़े फेंक दिया. खाना पूरा न खाने पर मां और पिता नाराज हो जाते थे.

फिर शीघ्र ही शगुन कमरे में जा कर सोने का प्रयत्न करने लगा. जब नींद नहीं आई तो वह उठ कर गृहकार्य करने लगा. हिंदी, अंगरेजी का काम तो कर लिया परंतु गणित के प्रश्न उसे कठिन लगे, ‘शाम को पिताजी से समझ लूंगा,’ उस ने सोचा और खिलौने निकाल कर खेलने बैठ गया.

शालिनी दफ्तर से आ कर सीधी बेटे के कमरे में गई. शगुन खिलौनों के बीच सो रहा था. उस ने उसे प्यार से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

समीर जब 6 बजे लौटा तो देखा कि मांबेटा दोनों ही सो रहे हैं. उस ने हौले से शालिनी को हिलाया, ‘‘इस समय सो रही हो, तबीयत तो ठीक है न ’’

शालिनी अलसाए स्वर में बोली, ‘‘आज दफ्तर में काम बहुत था.’’

‘‘पर अब तो आराम कर लिया न. अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जाओ. सुरेश ने 2 पास भिजवाए हैं…किसी अच्छे नाटक के हैं.’’

‘‘कौन सा नाटक है ’’ शालिनी आंखें मूंदे हुए बोली, ‘‘आज कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही है.’’

‘‘अरे, ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता. सुना है, बहुत बढि़या नाटक है. अब जल्दी करो, हमें 7 बजे तक वहां पहुंचना है.’’

‘‘और शगुन को कहां छोड़ें  रोजरोज शैलेशजी को तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अरे भई, रोजरोज कहां  वैसे भी पड़ोसियों का कुछ तो लाभ होना चाहिए. मौका आने पर हम भी उन की सहायता कर देंगे,’’ समीर बोला.

जब शालिनी तैयार होने गई तो समीर शगुन के पास गया, ‘‘शगुन, उठो. यह क्या सोने का समय है ’’

शगुन में उठ कर बैठ गया. पिता को सामने पा कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

‘‘जल्दी से नाश्ता कर लो. मैं और तुम्हारी मां कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

शगुन का चेहरा एकाएक बुझ गया. वह बोला, ‘‘पिताजी, मेरा गृहकार्य पूरा नहीं हुआ है. गणित के प्रश्न बहुत कठिन थे. आप…’’

‘‘आज मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. कक्षा में क्यों नहीं ध्यान देता  ठीक है, शैलेशजी से पूछ लेना. अब जल्दी करो.’’

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था. अब भला वह बात करता भी तो कैसे  उसे यहां इस प्रकार आ कर बैठना अच्छा ही नहीं लगता था. जब वह शैलेशजी को अपने बच्चों के साथ खेलता देखता, उन्हें प्यार करते देखता तो उसे और भी गुस्सा आता.

शगुन अपनी गृहकार्य की कापी भी साथ लाया था, परंतु उस ने शैलेशजी से प्रश्न नहीं समझे और हमेशा की तरह कुरसी पर बैठाबैठा सो गया.

अगली सुबह जब वह उठा तो घर में सन्नाटा था. रविवार को उस के मातापिता आराम से ही उठते थे. वह चुपचाप जा कर बालकनी में बैठ कर कौमिक्स पढ़ने लगा. जब देर तक कोई नहीं उठा तो वह दरवाजा खटखटाने लगा.

‘‘क्यों सुबहसुबह परेशान कर रहे हो  जाओ, जा कर सो जाओ,’’ समीर झुंझलाते हुए बोला.

‘‘मां, भूख लगी है,’’ शगुन धीरे से बोला.

‘‘रसोई में से बिस्कुट ले लो. थोड़ी देर में नाश्ता बना दूंगी,’’ शालिनी ने उत्तर दिया.

शगुन चुपचाप जा कर अपने कमरे में बैठ गया. उस की कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रह गई थी.

दोपहर के खाने के बाद समीर और शालिनी का किसी के यहां ताश खेलने का कार्यक्रम था, ‘‘वहां तुम्हारे मित्र नीरज और अंजलि भी होंगे,’’ शालिनी शगुन को तैयार करती हुई बोली.

‘‘मां, आज चिडि़याघर चलो न. आप ने पिछले सप्ताह भी वादा किया था,’’ शगुन मचलता हुआ बोला.

‘‘बेटा, आज वहां नहीं जा पाएंगे. गिरीशजी से कह रखा है. अगले रविवार अवश्य चिडि़याघर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, आज ही,’’ शगुन हठ करने लगा, ‘‘पिछले रविवार भी आप ने वादा किया था. आप मुझ से झूठ बोलती हैं… मेरी बात भी नहीं मानतीं. मैं नहीं जाऊंगा गिरीश चाचा के यहां,’’ वह रोता हुआ बोला.

तभी समीर आ गया, ‘‘यह क्या रोना- धोना मचा रखा है. चुपचाप तैयार हो जा, चौथी कक्षा में आ गया है, पर आदतें अभी भी दूधपीते बच्चे जैसी हैं. जब देखो, रोता रहता है. इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, बढि़या से बढि़या खिलौने ले कर देते हैं…’’

‘‘मैं गिरीश चाचा के घर नहीं जाऊंगा,’’ शगुन रोतेरोते बोला, ‘‘वहां नीरज, अंजलि मुझे मारते हैं. अपने साथ खेलाते भी नहीं. वे गंदे हैं. मेरे सारे खिलौने तोड़ देते हैं और अपने दिखाते तक नहीं. वे मूर्ख हैं. उन की मां भी मूर्ख हैं. वे भी मुझे ही डांटती हैं, अपने बच्चों को कुछ नहीं कहती हैं.’’

समीर ने खींच कर एक थप्पड़ शगुन के गाल पर जमाया, ‘‘बदतमीज, बड़ों के लिए ऐसा कहा जाता है. जितना लाड़प्यार दिखाते हैं उतना ही बिगड़ता जाता है. ठीक है, मत जा कहीं भी, बैठ चुपचाप घर पर. शालिनी, इसे कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दो. इसे बदतमीजी की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

शालिनी लिपस्टिक लगा रही थी, बोली, ‘‘रहने दो न, बच्चा ही तो है. शगुन, अगले रविवार जहां कहोगे वहीं चलेंगे. अब जल्दी से पिताजी से माफी मांग लो.’’

शगुन कुछ क्षण पिता को घूरता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मांगूंगा माफी. आप भी मूर्ख हैं, रोज मुझे मारती हैं.’’

समीर ने शगुन का कान उमेठा, ‘‘माफी मांगेगा या नहीं ’’

‘‘नहीं मांगूंगा,’’ वह चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं. रोज मुझे शैलेश चाचा के घर छोड़ जाते हैं. कभी प्यार नहीं करते. चिडि़याघर भी नहीं ले जाते. नहीं मांगूंगा माफी…गंदे, थू…’’

समीर क्रोध में आपे से बाहर हो गया, ‘‘तुझे मैं ठीक करता हूं,’’ उस ने शगुन को कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दिया.

शगुन देर तक कमरे में सिसकता रहा. उस दिन से उस में एक अक्खड़पन आ गया. उस ने अपनी कोई भी इच्छा व्यक्त करनी बंद कर दी. जैसा मातापिता कहते, यंत्रवत कर लेता, पर जैसेजैसे बड़ा होता गया वह अंदर ही अंदर घुटने लगा. 10वीं कक्षा के बाद पिता के कहने से उसे विज्ञान के विषय लेने पड़े. पिता उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे. शगुन की इच्छाओं की किसे परवा थी और मां भी जो पिता कहते, उसे ही दोहरा देतीं.

एक दिन दफ्तर के लिए तैयार होती हुई शालिनी बोली, ‘‘शगुन का परीक्षाफल शायद आज घोषित होने वाला है…तुम जरा पता लगाना.’’

‘‘क्यों, क्या शगुन इतना भी नहीं कर सकता,’’ समीर नाश्ता करता हुआ बोला, ‘‘जब पढ़ाईलिखाई में रुचि ही नहीं ली तो परिणाम क्या होगा.’’

‘‘ओहो, वह तो मैं इसलिए कह रही थी ताकि कुछ जल्दी…’’ वह टिफिन बाक्स बंद करती हुई बोली.

‘‘तुम्हें जल्दी होगी जानने की…मुझे तो अभी से ही मालूम है, पर मैं फिर कहे देता हूं यदि यह मैडिकल में नहीं आया तो इस घर में इस के लिए कोई स्थान नहीं है.  जा कर करे कहीं चपरासीगीरी, मेरी बला से.’’

‘‘तुम भी हद करते हो. एक ही तो बेटा है, यदि दोचार होते तो…’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूं. एक ही इतना सिरदर्द बना हुआ है. क्या नहीं दिया हम ने इसे  फिर भी कभी दो घड़ी पास बैठ कर बात नहीं करता. पता नहीं सारा समय कमरे में घुसा क्या करता रहता है ’’ एकाएक समीर उठ कर शगुन के कमरे में पहुंच गया.

शगुन अचानक पिता को सामने देख कर अचकचा गया. जल्दी से उस ने ब्रश तो छिपा लिया परंतु गीली पेंटिंग न छिपा सका. पेंटिंग को देखते ही समीर का पारा चढ़ गया. उस ने बिना एक नजर पेंटिंग पर डाले ही उस को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया, ‘‘तो यह हो रही है मैडिकल की तैयारी. किसे बेवकूफ बना रहे हो, मुझे या स्वयं को  वहां महंगीमहंगी पुस्तकें पड़ी धूल चाट रही हैं और यह लाटसाहब बैठे चिडि़यातोते बनाने में समय गंवा रहे हैं. कुछ मालूम है, आज तुम्हारा नतीजा निकलने वाला है.’’

‘‘जी पिताजी. मनोज बता रहा था,’’ शगुन धीरे से बोला. उस की दृष्टि अब भी अपनी फटी हुई पेंटिंग पर थी.

‘‘मनोज के सिवा भी किसी को जानते हो क्या  जाने क्या करेगा आगे चल कर…’’ समीर बोलता चला जा रहा था.

शालिनी को दफ्तर के लिए देर हो रही थी. वह बोली, ‘‘शगुन, मुझे फोन अवश्य कर देना. तुम्हारा खाना रसोई में रखा है, खा लेना.’’

मातापिता के जाते ही शगुन एक बार फिर अकेला हो गया. बचपन से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. स्कूल से आ कर खाली घर में प्रवेश करना, फिर मातापिता की प्रतीक्षा करना. उस के मित्र उन्हें पसंद नहीं आते थे. बचपन में वह जब भी किसी को घर बुलाता था तो मातापिता को यही शिकायत रहती थी कि घर गंदा कर जाते हैं. महंगे खिलौने खराब कर जाते हैं. अकेला कहीं वह आजा नहीं सकता था क्योंकि मातापिता को सदा किसी दुर्घटना का अंदेशा रहता था.

शगुन के कई मित्र स्कूटर, मोटर- साइकिल चलाने लगे थे, पर उस के पिता ने कड़ी मनाही कर रखी थी. बस जब देखो अपने घिसेपिटे संवाद दोहराते रहते थे, ‘हम तो 8 भाईबहन थे. पिताजी के पास इतने रुपए नहीं थे कि किसी को डाक्टर बना सकते. मेरी तो यह हसरत मन में ही रह गई, पर तेरे पास तो सबकुछ है,’ और मां सदा यही पूछती रहती थीं, ‘ट्यूटर चाहिए, पुस्तकें चाहिए, बोल क्या चाहिए ’

पर शगुन कभी नहीं बता पाया कि उसे क्या चाहिए. वह सोचता, ‘मातापिता जानते तो हैं कि मेरी रुचि कला में है, मैं सुंदरसुंदर चित्र बनाना चाहता हूं, रंगबिरंगे आकार कागज पर सजाना चाहता हूं. इस में इनाम जीतने पर भी डांट पड़ती है कि बेकार समय नष्ट कर रहा हूं. उन्होंने कभी मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं की.’

तभी मनोज आ गया. शगुन उस से बोला, ‘‘यार, बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है. ‘फाइन आर्ट्स’ ही तो करना चाहता है न ’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता है,’’ शगुन कड़वाहट से बोला, ‘‘मेरे पिता को तो मानो मेरी इच्छाओं का गला घोंटने में मजा आता है.’’

मनोज उस को समझ नहीं पाता था. उसे अचरज होता था कि इतना सब होने पर भी शगुन उदास क्यों रहता है.

स्कूल पहुंचते ही दोनों ने नोटिस बोर्ड पर अपने अंक देखे. अपने 54 प्रतिशत अंक देख कर मनोज प्रसन्न हो गया, ‘‘चलो, पास हो गया, पर तू मुंह लटकाए क्यों खड़ा है, तेरे तो 65 प्रतिशत अंक हैं.’’

शगुन बिना कुछ बोले घर की ओर चल दिया. वह मातापिता पर होने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोच रहा था, ‘मां तो निराश हो कर रो लेंगी, परंतु पिताजी  वे तो पिछले 2 वर्षों से धमकियां दे रहे थे.’

उस ने मां को फोन किया. चुपचाप कमरे में जा कर बैठ गया. शगुन रेंगती हुई घड़ी की सूइयों को देख रहा था और सोच रहा था. जब 5 बज गए तो वह झट बिस्तर से उठा. उस ने अलमारी में से कुछ रुपए निकाले और घर से बाहर आ गया.

समीर जब दफ्तर से लौटा तो शालिनी पर बरसने लगा, ‘‘कहां है तुम्हारा लाड़ला  कितना समझाया था कि मेहनत कर ले…पर मैं तो केवल बकता हूं न.’’

शालिनी वैसे ही परेशान थी. बोली, ‘‘आज उस ने खाना भी नहीं खाया. कहां गया होगा. बिना बताए तो कहीं जाता ही नहीं है.’’

जब रात के 9 बजे तक भी शगुन नहीं लौटा तो मातापिता को चिंता होने लगी. 2-3 जगह फोन भी किए परंतु कुछ मालूम न हो सका. शगुन के कोई ऐसे खास मित्र भी नहीं थे, जहां इतनी रात तक बैठता.

11 बजे समीर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा आया. शालिनी ने सब अस्पतालों में भी फोन कर के पूछ लिया. सारी रात दोनों बेटे की प्रतीक्षा में बैठे रहे. लेकिन शगुन का कुछ पता न चला. शालिनी की तो रोरो कर आंखें दुखने लगी थीं और समीर तो मानो 10 दिन में ही 10 वर्ष बूढ़ा हो गया था.

एक दिन शगुन की अध्यापिका शालिनी से मिलने आईं तो अपने साथ एक डायरी भी ले आईं, ‘‘एक बार शगुन ने मुझे यह डायरी भेंट में दी थी. इस में उस की कविताएं हैं. बहुत ही सुंदर भाव हैं. आप यह रख लीजिए, पढ़ कर आप के मन को शांति मिलेगी.’’

शालिनी ने डायरी ले ली परंतु वह यही सोचती रही, ‘शगुन कविताएं कब लिखता था  मुझ से तो कभी कुछ नहीं कहा.’

शाम को जब समीर आया तो शालिनी अधीरता से बोली, ‘‘समीर, क्या तुम जानते हो कि शगुन न केवल सुंदर चित्र बनाता था बल्कि बहुत सुंदर कविताएं भी लिखता था. हम अपने बेटे को बिलकुल नहीं जानते थे. हम उसे केवल एक रेस का घोड़ा मान कर प्रशिक्षित करते रहे, पर इस प्रयास में हम यह भूल गए कि उस की अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं. हम अपने सपने उस पर थोपते रहे और वह मासूम निरंतर उन के बोझ तले दबता रहा.’’

समीर ने शालिनी से डायरी ले ली और बोला, ‘‘आज मैं मनोज से भी मिला था.’’

‘‘वह तो तुम्हें कतई नापसंद था,’’ शालिनी ने विस्मित हो कर कहा.

‘‘बड़ा प्यारा लड़का है,’’ समीर शालिनी की बात अनसुनी करता हुआ बोला, ‘‘उस से मिल कर ऐसा लगा, मानो शगुन लौट आया हो. शालिनी, शगुन मुझे जान से भी प्यारा है. यदि वह लौट कर नहीं आया तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ समीर की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘नहीं, समीर,’’ शालिनी दृढ़ता से बोली, ‘‘शगुन आत्महत्या नहीं कर सकता, जो इतने सुंदर चित्र बना सकता है, इतनी सुंदर कविताएं लिख सकता है, वह जीवन से मुंह नहीं मोड़ सकता.’’

‘‘हां, हम ने उसे समझने में जो भूल की, वह हमें उस की सजा देना चाहता है,’’ समीर भरे गले से बोला.

शालिनी शगुन की डायरी खोल कर एक कविता की पंक्तियां पढ़ कर सुनाने लगी,

‘खेल और खिलौने, आडंबर और अंबार हैं.

बांट लूं किसी के संग उस पल का इंतजार है.’

उस समय दोनों यही सोच रहे थे कि यदि शगुन की कोई बहन या भाई होता तो वह शायद स्वयं को इतना अकेला कभी भी महसूस न करता और तब शायद.

भावनाओं के साथी: जानकी को किसका मिला साथ

जानकी को आज सुबह से ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. सिरदर्द और बदनदर्द के साथ ही कुछ हरारत सी महसूस हो रही थी. उन्होंने सोचा कि शायद काम की थकान की वजह से ऐसा होगा. सारे काम निबटातेनिबटाते दोपहर हो गई. उन्हें कुछ खाने का मन नहीं कर रहा था, फिर भी उन्होंने थोड़ा सा दलिया बना लिया. खा कर वे कुछ देर आराम करने के लिए बिस्तर पर लेट गईं. सिरदर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा था. उन्होंने माथे पर थोड़ा सा बाम मला और आंखें मूंद कर बिस्तर पर लेटी रहीं.

आज उन्हें अपने पति शरद की बेहद याद आ रही थी. सचमुच शरद उन का कितना खयाल रखते थे. थोड़ा सा भी सिरदर्द होने पर वे जानकी का सिर दबाने लगते. अपने हाथों से इलायची वाली चाय बना कर पिलाते. उन के पति कितने अधिक संवेदनशील थे. सोचतेसोचते जानकी की आंखों से आंसू टपक पड़े. आंसू जब गालों पर लुढ़के तो उन्हें आभास हुआ कि तन का ताप कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. उन्होंने थर्मामीटर लगा कर देखा तो पारा 103 डिगरी तक पहुंच गया था. जैसेतैसे वे हिम्मत जुटा कर उठीं और स्वयं ही ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखने लगीं. उन्होंने सोचा कि अब ज्यादा देर करना ठीक नहीं रहेगा. रात हो गई है. अच्छा यही होगा कि वे कल सुबह अस्पताल चली जाएं.

कुछ सोचतेसोचते उन्होंने अपने बेटे नकुल को फोन लगाया. उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो मम्मी, आप ने कैसे याद किया? सब ठीक तो है न?’’

‘‘बेटे, मुझे काफी तेज बुखार है. यदि तुम आ सको तो किसी अच्छे अस्पताल में भरती करा दो. मेरी तो हिम्मत ही नहीं हो रही,’’ जानकी ने कांपती आवाज में कहा.

‘‘मम्मी, मेरी तो कल बहुत जरूरी मीटिंग है. कुछ बड़े अफसर आने वाले हैं. मैं लतिका को ही भेज देता पर नवल की भी तबीयत ठीक नहीं है,’’ नकुल ने अपनी लाचारी प्रकट की, ‘‘आप नीला को फोन कर के क्यों नहीं बुला लेतीं. उस के यहां तो उस की सास भी है. वह 1-2 दिन घर संभाल लेगी. प्लीज मम्मी, बुरा मत मानिएगा, मेरी मजबूरी समझने की कोशिश कीजिएगा.’’

जानकी ने बेटी नीला को फोन लगाया तो प्रत्युत्तर में नीला ने जवाब दिया, ‘‘मम्मी, मेरा वश चलता तो मैं तुरंत आप के पास आ जाती पर इस दीवाली पर मेरी ननद अमेरिका से आने वाली है, वह भी 3 सालों बाद. मुझे काफी तैयारी व खरीदारी करनी है. यदि कुछ कमी रह गई तो मेरी सास को बुरा लगेगा. आप नकुल भैया को बुला लीजिए. मेरी कल ही उन से बात हुई थी. कल शनिवार है, वे वीकएंड में पिकनिक मनाने जा रहे हैं. पिकनिक का प्रोग्राम तो फिर कभी भी बन सकता है.’’

जानकी बेटी की बात सुन कर अवाक् रह गईं. कितनी मायाचारी की थी उन के पुत्र ने अपनी जन्मदात्री से पर उन्होंने जाहिर में कुछ भी नहीं कहा. उन्होंने अब कल सुबह होते ही ऐंबुलैंस बुला कर अकेले ही अस्पताल जाने का निर्णय लिया. उन की महरी रधिया सुबह जल्दी ही आ जाती थी. उस की मदद से जानकी ने कुछ आवश्यक वस्तुएं रख कर बैग तैयार किया और अस्पताल चली गईं.

वे बुखार से कांप रही थीं. उन्हें कुछ जरूरी फौर्म भरवाने के बाद तुरंत भरती कर लिया गया. बुखार 104 डिगरी तक पहुंच गया था. डाक्टर ने बुखार कम करने के लिए इंजैक्शन लगाया व कुछ गोलियां भी खाने को दीं. पर बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. उन के खून की जांच करने के लिए नमूना लिया गया. रिपोर्ट आने पर पता चला कि उन्हें डेंगू है. उन की प्लेटलेट्स काउंट कम हो रही थीं. अब डेंगू का इलाज शुरू किया गया.

डाक्टर ने जानकी से कहा, ‘‘आप अकेली हैं. अच्छा यही होगा कि जब तक आप बिलकुल ठीक नहीं हो जातीं, अस्पताल में ही रहिए.’’

2 दिन बाद एक बुजुर्ग सज्जन ने नर्स के साथ उन के कमरे में प्रवेश किया. उन के हाथ में फूलों का बुके व कुछ फल थे. जानकी ने उन्हें पहचानने की कोशिश की. दिमाग पर जोर डालने पर उन्हें याद आया कि उक्त सज्जन को उन्होंने सवेरे घूमते समय पार्क में देखा था. वे अकसर रोज ही मिल जाया करते थे पर उन दोनों में कभी कोई बात नहीं हुई थी.

तभी उन सज्जन ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं हूं नवीन गुप्ता. आप की कालोनी में ही रहता हूं. रधिया मेरे यहां भी काम करती है. उसी से आप की तबीयत के बारे में पता चला और यह भी कि आप बिलकुल अकेली हैं. इसलिए आप को देखने चला आया.’’

जानकी ने फलों की तरफ देख कर कमजोर आवाज में कहा, ‘‘इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘अरे भाई, आप को ही तो इस की जरूरत है, तभी तो आप जल्दी स्वस्थ हो कर घर लौट पाएंगी,’’ कहने के साथ ही नवीनजी मुसकराते हुए फल काटने लगे.

जानकी को बहुत संकोच हो रहा था पर वे चुप रहीं.

अब तो रोज ही नवीनजी उन्हें देखने अस्पताल आ जाते. साथ में फल लाना न भूलते. उन का खुशमिजाज स्वभाव जानकी को अंदर ही अंदर छू रहा था.

करीब 8 दिनों बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिली. शाम तक वे घर वापस आ गईं. वे अभी रात के खाने के बारे में सोच ही रही थीं कि तभी नवीनजी डब्बा ले कर आ गए.

जानकी सकुचाते हुए बोलीं, ‘‘आप ने नाहक तकलीफ की. मैं थोड़ी खिचड़ी खुद ही बना लेती.’’

नवीनजी ने खाने का डब्बा खोलते हुए जवाब दिया, ‘‘अरे जानकीजी, वही तो मैं लाया हूं, लौकी की खिचड़ी. आप खा कर बताइएगा कि कैसी बनी? वैसे एक राज की बात बताऊं, खिचड़ी बनाना मेरी पत्नी ने मुझे सिखाया था. वह रसोई के काम में बड़ी पारंगत थी. वह खिचड़ी जैसी साधारण चीज को भी एक नायाब व्यंजन में बदल देती थी,’’ कहने के साथ ही वे कुछ उदास से हो गए. इस दुनिया से जा चुकी पत्नी की याद उन्हें ताजा हो आई.

जीवनसाथी के बिछोह का दुख वे जानती थीं. उन्होंने नवीनजी के दर्द को महसूस किया व तुरंत प्रसंग बदलते हुए पूछा, ‘‘नवीनजी, आप के कितने बच्चे हैं और कहां पर हैं?’’

‘‘मेरे 2 बेटे हैं व दोनों अमेरिका में ही सैटल हैं,’’ उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया फिर उठते हुए बोले, ‘‘अब आप आराम कीजिए, मैं चलता हूं.’’

जानकी को लगा कि उन्होंने नवीनजी की कोई दुखती रग को छू लिया है. वे अपने बेटों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताना चाहते.

अब तो अकसर नवीनजी जानकी के यहां आने लगे. वे लोग कभी देश के वर्तमान हालत पर, कभी समाज की समस्याओं पर और कभी टीवी सीरियलों के बारे में चर्चा करते पर अपनेअपने परिवार के बारे में दोनों ने कभी कोई बात नहीं की.

एक दिन नवीनजी और जानकी एक पारिवारिक धारावाहिक के विषय में बात कर रहे थे जिस में एक स्त्री के पत्नी व मां के उज्ज्वल चरित्र को प्रस्तुत किया गया था. नवीनजी अचानक भावुक हो उठे. वे आर्द्र स्वर में बोले, ‘‘मेरी पत्नी केसर भी एक आदर्श पत्नी और मां थी. अपने पति व बच्चों का सुख ही उस के जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता थी. अपने बच्चों की एक खुशी के लिए अपनी हजारों खुशियां न्योछावर कर देती थी. उस के प्रेम को व्यवहार की तुला का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था. दोनों बेटे पढ़ाई में बहुत ही मेधावी थे.

‘‘दोनों ने ही कंप्यूटर में बीई किया और एक सौफ्टवेयर कंपनी में जौब करने लगे. केसर के मन में बहू लाने के बड़े अरमान थे. वह अपने बेटों के लिए अपने ही जैसी, गुणों से युक्त बहू लाना चाहती थी. पर बड़े बेटे ने अपने ही साथ काम करने वाली एक ऐसी विजातीय लड़की से प्रेमविवाह कर लिया जो मेरी पत्नी के मापदंडों के अनुरूप नहीं थी. उसे बहुत दुख हुआ. रोई भी. फिर धीरेधीरे समय के मलहम ने उस के घाव भरने शुरू कर दिए.

‘‘कुछ समय बाद छोटा बेटा भी कंपनी की तरफ से अमेरिका चला गया. जाते वक्त उस ने अपनी मां से कहा कि वह उस के लिए अपनी मनपसंद लड़की खोज कर रखे. 1 साल बाद जब वह भारत लौटेगा तो शादी करेगा.

‘‘पर वह अमेरिका के माहौल में इतना रचाबसा कि वहां ही स्थायी रूप से रहने का निर्णय ले लिया और वहां की नागरिकता प्राप्त करने के लिए एक अमेरिकी लड़की से विवाह कर लिया.

‘‘केसर के सारे अरमान धूलधूसरित हो गए. वह बिलकुल खामोश रही और एकदम जड़वत हो गई. बस, अकेले ही अंदर ही अंदर वेदना के आसव को पीती रही. नतीजा यह हुआ कि वह बीमार पड़ गई और फिर एक दिन मुझे अपनी यादों के सहारे छोड़ कर इस संसार से विदा हो गई.’’

यह कहतेकहते नवीनजी की आवाज भर्रा गई. जानकी की आंखों की कोर भी गीली होने लगी. वे भीगे कंठ से बोलीं, ‘‘न जाने क्यों बच्चे अपने मांबाप के सपनों की समाधि पर ही अपने प्रेम का महल बनाना चाहते हैं?’’ फिर वे रसोईघर की तरफ मुड़ते हुए बोलीं, ‘‘मैं अभी आप के लिए मसाले वाली चाय बना कर लाती हूं. मूंग की दाल सुबह ही भिगो कर रखी थी. आप मेरे हाथ के बने चीले खा कर बताइएगा कि केसरजी के हाथों जैसा स्वाद है या नहीं.’’

नवीनजी के उदास मुख पर मुसकान की क्षीण रेखा उभर आई.

थोड़ी ही देर में जानकी गरमगरम चाय व चीले ले कर आ गईं. चाय का एक घूंट पीते ही नवीनजी बोले, ‘‘चाय तो बहुत लाजवाब बनी है, सचमुच मजा आ गया. कौनकौन से मसाले डाले हैं आप ने इस में. मुझे भी बनाना सिखाइएगा.’’

जानकी ने उत्तर दिया, ‘‘दरअसल, यह चाय मेरे पति शरदजी को बेहद पसंद थी. मैं खुद अपने हाथों से कूट कर यह मसाला तैयार करती थी. बाजार का रेडीमेड मसाला उन्हें पसंद नहीं आता था.’’

अपने पति का जिक्र करतेकरते जानकी की भावनाओं की सरिता बहने लगी. वे भावातिरेक हो कर बोलीं, ‘‘शरदजी और मुझ में आपसी समझ बहुत अच्छी थी. प्रतिकूल परिस्थितियों में सदैव उन्होंने मुझे संबल प्रदान किया. हम ने अपने दांपत्यरूपी वस्त्र को प्यार व विश्वास के सूईधागे से सिला था. पर नियति को हमारा यह सुख रास नहीं आया और मात्र 35 वर्ष की आयु में उन का निधन हो गया. तब नकुल 7 वर्ष का और नीला 5 वर्ष की थी. मैं ने अपने बच्चों को पिता का अभाव कभी नहीं खलने दिया. उन्हें लाड़प्यार करते समय मैं उन की मां थी व उन्हें अनुशासित करते समय एक पिता की भूमिका निभाती थी.

‘‘नकुल एक बैंक में अधिकारी है. उस की पत्नी लतिका एक कालेज में लैक्चरर है. नीला के पति विवेकजी इंजीनियर हैं. वे लोग भी इसी शहर में ही हैं. उन की एक बेटी भी है.

‘‘सेवानिवृत्त होने के बाद मैं फ्री थी. इसलिए जब कभी जरूरत पड़ती, नकुल और नीला मुझे बुलाते थे. पर बाद में काम निकल जाने के बाद उन दोनों के व्यवहार से मुझे स्वार्थ की गंध आने लगती थी. मैं मन को समझा कर तसल्ली देती थी कि यह मेरा कोरा भ्रम है पर सचाई तो कभी न कभी प्रकट हो ही जाती है.

‘‘बात उस समय की है जब लतिका दोबारा गर्भवती थी. तब मुझे उन लोगों के यहां कुछ माह रुकना पड़ा था. एक दिन नकुल मुझ से लाड़भरे स्वर में बोला, ‘मम्मी, आप के हाथ का बना मूंग की दाल का हलवा खाए बहुत दिन हो गए. लतिका को तो बनाना ही नहीं आता.’

‘‘मैं ने उत्साहित हो कर अगले ही दिन पीठी को धीमीधीमी आंच पर भून कर बड़े ही मनोयोग से हलवा तैयार किया. भले ही रात को हाथदर्द से परेशान रही. अब तो नकुल खाने में नित नई फरमाइशें करता और मैं पुत्रप्रेम में रोज ही सुस्वादु व्यंजन तैयार करती. बेटेबहू तारीफों की झड़ी लगा देते. पर मुझे पता नहीं था मेरे बेटेबहू प्रशंसा का शहद चटाचटा कर मेरा देहदोहन कर रहे हैं. एक दिन रात को मैं दही जमाना भूल गई. अचानक मेरी नींद खुली तो मुझे याद आया और मैं किचन की तरफ जाने लगी तो बहू की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘सुनो जी, यदि मम्मी हमेशा के लिए यहीं रह जाएं तो कितना अच्छा रहे. मुझे कालेज से लौटने पर बढि़या गरमगरम खाना तैयार मिलेगा. कभी दावत देनी हो तो होटल से खाना नहीं मंगाना पड़ेगा और बच्चों की भी देखभाल होती रहेगी.’

‘‘‘बात तो तुम्हारी बिलकुल ठीक है पर 2 कमरों के इस छोटे से फ्लैट में असुविधा होगी,’ नकुल ने राय प्रकट की.

‘‘बहू ने बड़ी ही चालाकीभरे स्वर में जवाब दिया, ‘इस का उपाय भी मैं ने सोच लिया है. यदि मम्मीजी विदिशा का घर बेच दें और आप बैंक से कुछ लोन ले लें तो 3 कमरों का हम खुद का फ्लैट खरीद सकते हैं.’’

‘‘नकुल ने मुसकराते हुए कहा, ‘तुम्हारे दिमाग की तो दाद देनी पड़ेगी. मैं उचित मौका देख कर मम्मी से बात करूंगा.’

‘‘बेटेबहू का स्वार्थ मेरे सामने बेपरदा हो चुका था. मैं सोचने लगी कि अधन होने के बाद कहीं मैं अनिकेतन भी न हो जाऊं. बस, 2 दिन बाद ही मैं विदिशा लौट आई. नीला का भी कमोबेश यही हाल था. उस की भी गिद्ध दृष्टि मेरे मकान पर थी.

‘‘नवीनजी, मैं काफी अर्थाभाव से गुजर रही हूं. मैं ने बच्चों को पढ़ाया. नीला की शादी की. यह मकान मेरे पति ने बड़े ही चाव से बनवाया था. तब जमीन सस्ती थी. जब उन की मृत्यु हुई, मकान का कुछ काम बाकी था. मैं ने आर्थिक कठिनाइयों से गुजरते हुए जैसेतैसे इस को पूरा किया. अभी बीमार हुई तो काफी खर्च हो गया. मैं सोचती हूं कि कुछ ट्यूशंस ही कर लूं. मैं एक स्कूल में हायर सैकंडरी क्लास की कैमिस्ट्री की शिक्षिका थी.’’

नवीनजी ने जानकी की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आप शुरू से ही शिक्षण व्यवसाय से जुड़ी हैं इसलिए इस से बेहतर विकल्प और कुछ नहीं हो सकता,’’ फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘क्यों न हम एक कोचिंग सैंटर खोल लें. मैं एक कालेज में गणित का प्रोफैसर था. मेरे एक मित्र हैं किशोर शर्मा. वे उसी कालेज में फिजिक्स के प्रोफैसर थे. वे मेरे पड़ोसी भी हैं. उन की भी रुचि इस में है. हम लोगों के समय का सदुपयोग हो जाएगा और आप को सहयोग. हां, हम इस का नाम रखेंगे, जानकी कोचिंग सैंटर क्योंकि इस में हम तीनों का नाम समाहित होगा.’’

जानकी उत्साह से भर गई और बोलीं, ‘‘2-3 विद्यालयों के पिं्रसिपल से मेरी पहचान है. मैं कल ही उन से मिलूंगी और विद्यालयों के नोटिसबोर्डों पर विज्ञापन लगवा दूंगी.’’

किशोरजी भी सहर्ष तैयार हो गए और जल्दी ही उन लोगों की सोच ने साकार रूप ले लिया. अब तो नवीनजी रोज ही जानकी के यहां आनेजाने लगे. कभी कुछ प्लानिंग तो कभी कुछ विचारविमर्श के लिए. वे काफी देर वहां रुकते. वैसे भी कोचिंग क्लासेज जानकी के घर में ही लगती थीं.

किशोरजी क्लास ले कर घर चले जाते क्योंकि उन की पत्नी घर में अकेली थीं. रोजरोज के सान्निध्य से उन लोगों के दिलों में आकर्षण के अंकुर फूटने लगे. वर्षों से सोई हुई कामनाएं करवट लेने लगीं व हृदय के बंद कपाटों पर दस्तक देने लगीं. जज्बातों के ज्वार उफनने लगे. आखिर उन्होंने एक ही जीवननौका पर सवार हो कर हमसफर बनने का निर्णय ले लिया.

ऐसी बातें भी भला कहीं छिपती हैं. महल्ले वाले पीठ पीछे जानकी और नवीनजी का मजाक उड़ाते व खूब रस लेले कर उलटीसीधी बातें करते. फिर ऐसी खबरों के तो पंख होते हैं. उड़तेउड़ते ये खबर नकुल और नीला के कानों में भी पड़ी. एक दिन वे दोनों गुस्से से दनदनाते हुए आए और जानकी के ऊपर बरस पड़े, ‘‘मम्मी, हम लोग क्या सुन रहे हैं? आप को इस उम्र में ब्याह रचाने की क्या सूझी? हमारी तो नाक ही कट जाएगी. क्या आप ने कभी सोचा है कि हमारा समाज व रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

जानकी ने तनिक भी विचलित न होते हुए पलटवार करते हुए उत्तर दिया, ‘‘और तुम लोगों ने कभी सोचा है कि मैं भी हाड़मांस से बनी, संवेदनाओं से भरी जीतीजागती स्त्री हूं. मेरी भी शिराओं में स्पंदन होता है. जिंदगी की मधुर धुनों के बीच क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि अकेलेपन का सन्नाटा कितना चुभता है? बेटे, बुढ़ापा तो उस वृक्ष की भांति होता है जो भले ही ऊपर से हरा न दिखाई दे पर उस के तने में नमी विद्यमान रहती है. यदि उस की जड़ों को प्यार के पानी से सींचा जाए तो उस में भी अरमानों की कलियां चटख सकती हैं.

‘‘जब तुम्हारे पापा ने इस संसार से विदा ली, मैं ने जीवन के सिर्फ 30 वसंत ही देखे थे. मुझे लगा कि अचानक ही मेरे जीवन में पतझड़ का मौसम आ गया हो तथा मेरे जीवन के सारे रंग ही बदरंग हो गए हों. मैं ने तुम लोगों के सुखों के लिए अपनी सारी आकांक्षाओं की आहुति दे दी. पर जवान होने पर तुम लोगों की आंखों पर स्वार्थ की इतनी गहरी धुंध छाई जिस में कर्तव्य और दायित्व जैसे शब्द धुंधले हो गए. जब मेरी तबीयत खराब हुई और मैं ने तुम लोगों को बुलाया तो तुम दोनों ने बहाने गढ़ कर अपनेअपने पल्लू झाड़ लिए.

‘‘ऐसे आड़े वक्त और तकलीफ में नवीनजी एक हमदर्द इंसान के रूप में मेरे सामने आए. उन्होंने मेरा मनोबल बढ़ा कर मुझे मानसिक सहारा दिया. वे मेरे दुखदर्द के ही नहीं, भावनाओं के भी साथी बने. अब मैं उन्हें अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार कर एक नए जीवन की शुरुआत करने जा रही हूं.’’

नकुल और नीला को आत्मग्लानि का बोध हुआ. वे पछतावेभरे स्वर में बोले, ‘‘मम्मी, आज आप ने हमारी आंखें खोल कर हमें अपनी गलतियों का एहसास कराया है और जीवन के एक बहुत बड़े सत्य से भी साक्षात्कार करवाया है. मां का हृदय बहुत विशाल होता है. हमारी भूलों के लिए आप हमें क्षमा कर दीजिए. आप के जीवन में हमेशा खुशियों के गुलाब महकते रहें, ऐसी हम लोगों की मंगल कामना है.’’

अपनी संतानों की ये बातें सुन कर जानकी की खुशी दोगुनी हो गई.

लेखिका- उर्मिला फुसकेले

लंबी रेस का घोड़ा: अंबिका ने क्यों मांगी मां से माफी

‘‘हर्षजी, टीवी आप का ध्यान दर्द से हटाने के लिए चल रहा है पर मेरा ध्यान तो न बटाएं. आप को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए यह कसरतें दवा से भी अधिक आवश्यक हैं,’’ डा. अनुराधा अनमने स्वर में बोलीं.

‘‘सौरी, अनुराधाजी, कसरतों की जरूरत मैं भली प्रकार समझता हूं. मैं तो आप को केवल यह बताना चाह रहा था कि कभी मैं भी मैराथन रनर था.’’

‘‘अच्छा तो फिक्र मत करें, आप एक बार फिर दौड़ेंगे,’’ डा. अनुराधा मुसकराई थीं.

‘‘क्यों मजाक करती हैं, डा. साहिबा, उठ कर खडे़ होने का साहस भी नहीं है मुझ में और आप मैराथन दौड़ने की बात करती हैं. आप मेरे बारे में ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं,’’ हर्ष दर्द से कराहते हुए बोले.

‘‘मिस्टर हर्ष, कोई लक्ष्य सामने हो तो व्यक्ति बहुत जल्दी प्रगति करता है.’’

‘‘मेरे हाथों का हाल देखा है आप ने, कलाई से बेजान हो कर लटके हैं. अब तो मैं ने इन के ठीक होने की उम्मीद भी छोड़ दी है,’’ हर्ष ने एक मायूस दृष्टि अपने बेजान हाथों पर डाली.

‘‘जानती हूं मैं, आज आप छोटेछोटे कामों के लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं पर पहले से आप की हालत में सुधार तो आया है, यह तो आप भी जानते हैं. छोटी दौड़ में हाथों का प्रयोग करने की तो आप को जरूरत नहीं होगी,’’ डा. अनुराधा इतना कह कर हर्ष को सोचता छोड़ चली गई.

‘‘क्या हुआ? कहां खोए हैं आप?’’ पत्नी टीना की आवाज से हर्ष की तंद्रा टूटी.

‘‘कहीं नहीं, टीना, अपनी यादों में खोया था. मेरे जैसे दीनहीन, अपाहिज के पास सोचने के अलावा

दूसरा विकल्प भी क्या है.

डा. अनुराधा ने कहा कि मैं भी अर्द्धमैराथन में भाग ले सकता हूं, जबकि मैं जानता हूं कि यह संभव नहीं,’’ हर्ष के स्वर में पीड़ा थी.

‘‘खबरदार, जो कभी स्वयं को दीनहीन और अपाहिज कहा तो. याद रखो, तुम्हें एक दिन पूरी तरह स्वस्थ होना ही होगा. वैसे भी डा. अनुराधा उन लोगों में से नहीं हैं जो केवल मरीज का मन रखने के लिए झूठे आश्वासन दें.’’

‘‘अच्छा छोड़ो यह सब और बताओ, बीमा एजेंट ने क्या कहा?’’ हर्ष ने टीना के चेहरे की गंभीरता को देख कर पूछा था.

‘‘वह कह रहा था, आप का व्यापार और उस में काम करने वाले कर्मचारी तो बीमा पालिसी के दायरे में आते हैं पर इस तरह असामाजिक तत्त्वों द्वारा किया गया हमला बीमा के दायरे में नहीं आता.’’

‘‘यानी बीमा से हमें फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी?’’ हर्ष उत्तेजित हो उठे.

‘‘लगता तो ऐसा ही है हर्ष,’’ टीना बोली, ‘‘वैसे गलती हमारी ही है जो हम ने समय रहते मेडीक्लेम पालिसी नहीं ली.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि मेरे साथ ऐसा भयंकर हादसा…’’ हर्ष का स्वर टूट गया.

‘‘छोड़ो, यह सब. आज की एक्सरसाइज पूरी हो गई हो तो घर चलें?’’ टीना ने बात टालते हुए कहा.

‘‘हां, डा. अनुराधा कह रही थीं कि आप अब एक दिन छोड़ कर आ सकते हैं, रोज आने की जरूरत नहीं.’’

टीना पहिए वाली कुरसी ले आई और उस की सहायता से हर्ष को कार में बैठाया फिर दूसरी ओर बैठ कर कार चलाने लगी. हर्ष पत्नी को सजल नेत्रों से कार चलाते देखता रहा.

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हर्ष ने अपने दोनों हाथों पर एक नजर डाली जो आज दैनिक जरूरत के काम भी पूरा करने के लायक नहीं थे. अब तो खाने और बटन लगाने से ले कर जूतों के फीते बांधने में भी दूसरों की सहायता लेनी पड़ती थी. कार चलाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. ऐसे अपाहिज जीवन का भी भला कोई मतलब है और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी जीवन- लीला समाप्त कर के वह अपने परिवार को मुक्ति तो दे ही सकता है.

दूसरे ही क्षण हर्ष चौंक गए कि यह क्या सोचने लगे वह. अपने परिवार को वह और दुख नहीं दे सकते.

‘‘क्या हुआ? बहुत दर्द है क्या?’’ टीना ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं, आज दर्द कम है. मैं तो बस, यह सोच रहा हूं कि मेरे इलाज में ही 6 लाख से ऊपर खर्च हो गए हैं. जमा पूंजी तो इसी में चली गई अब बीमे की राशि मिलेगी नहीं तो काम कैसे चलेगा? फ्लैट की किस्त, बच्चों की पढ़ाई, कार की किस्त और सैकड़ों छोटेबडे़ खर्चे कैसे पूरे होंगे?’’

‘‘मैं शाम को ट्यूशन ले लिया करूंगी. कुछ न कुछ पैसों का सहारा हो ही जाएगा.’’

‘‘ट्यूशन कर के कितना कमा लोगी तुम?’’

‘‘फिर तुम ही कोई रास्ता दिखाओ,’’ टीना मुसकराई.

‘‘मेरे विचार से तो हमें अपना फ्लैट बेच देना चाहिए. जब मैं ठीक हो जाऊंगा तो फिर खरीद लेंगे,’’ हर्ष ने सुझाव दिया.

उत्तर में टीना ने बेबसी से उस पर एक नजर डाली. उस की नजरों में जाने क्या था जिस ने हर्ष को भीतर तक छलनी कर दिया. इसी के साथ बीते समय की कुछ घटनाएं सागर की लहरों की भांति उस के मानसपटल से टकराने लगी थीं.

‘क्यों भाई, तुम्हारा मीटर तो ठीकठाक है?’ उस दिन आटोरिकशा से उतरते हुए हर्ष ने मजाक के लहजे में कहा था.

‘कैसी बातें कर रहे हैं साहब. मीटर ठीक न होता तो मैं गाड़ी सड़क पर उतारता ही नहीं,’ चालक ने जवाब दिया.

हर्ष ने अपना बटुआ खोल कर 75 रुपए 50 पैसे निकाले. इस से पहले कि वह किराया चालक को  दे पाते, किसी ने उन की कमर पर खंजर सा कुछ भोंक दिया.

दर्द से तड़प कर वह पीछे की ओर पलटे कि दाएं हाथ और फिर बाएं हाथ पर भी वार हुआ. वह कराह उठे. दायां हाथ तो कलाई से इस तरह लटक गया जैसे किसी भी क्षण अलग हो कर गिर पडे़गा.

हर्ष छटपटा कर जमीन पर गिर पडे़ थे. धुंधलाई आंखों से उन्होंने 3 लोगों को दौड़ कर कुछ दूर खड़ी कार में बैठते देखा.

‘नंबर….नंबर नोट करो,’ असहनीय दर्द के बीच भी वह चिल्ला पडे़े. आटोचालक, जो अब तक भौचक खड़ा था, कार की ओर लपका. उस ने तेजी से दूर जाती कार का नंबर नोट कर लिया.

‘मेरा बैग,’ कटे हाथों से हर्ष ने कार की तरफ संकेत किया. पर वे जानते थे कि इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा.

‘चलिए, आप को पास के दवाखाने तक छोड़ दूं,’ चालक ने सहारा दे कर हर्ष को आटोरिकशा में बैठाया तो उन्होंने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि चालक पर डाली और पीछे की सीट पर ढेर हो गए.

दिव्या नर्सिंग होम के सामने आटो रिकशा रुका तो उस से बाहर निकलने के लिए हर्ष को पूरी शक्ति लगानी पड़ी. उन को डर लग रहा था कि कहीं उन का दायां हाथ शरीर से अलग ही न हो जाए. आखिर बाएं हाथ से उसे थाम कर वे नर्सिंग होम की सीढि़यां चढ़ गए थे.

‘क्या हुआ? कैसे हुआ यह सब?’ आपातकक्ष में डाक्टर के नेत्र उन्हें देखते ही विस्फारित हो गए थे.

‘गुंडों ने हमला किया…तलवार और चाकू से.’

‘तब तो पुलिस केस है. हम आप को हाथ तक नहीं लगा सकते. आप प्लीज, सरकारी अस्पताल जाइए.’

हर्ष उलटे पांव नर्सिंग होम से बाहर निकल आए और सरकारी अस्पताल तक छोड़ने की प्रार्थना करते हुए उन्होंने आतीजाती गाडि़यों से लिफ्ट मांगी पर किसी ने मदद नहीं की.

वह अपने को घसीटते हुए कुछ दूर चले पर इस अवस्था में सरकारी अस्पताल पहुंच पाना उन के लिए संभव नहीं था.

तभी एक पुलिस जीप उन के पास आ कर रुकी. उन्होंने सहायता के लिए प्रार्थना नहीं की क्योंकि जिस से आशा ही न हो उस से मदद की भीख मांगने से क्या लाभ?

‘क्या हुआ?’ जीप के अंदर से प्रश्न पूछा गया. उत्तर में हर्ष ने अपना बायां हाथ ऊपर उठा दिया.

दूसरे ही क्षण कुछ हाथों ने उठा कर उन्हें जीप में बैठा दिया. बेहोशी की हालत में भी उन्होंने टूटेफूटे शब्दों में अनुनय किया था, ‘मुझे अस्पताल ले चलो भैया…’

जीप में बैठे सिपाही गणेशी ने न केवल उन्हें सरकारी अस्पताल पहुंचाया बल्कि उन की जेब से ढूंढ़ कर कार्ड निकाला और उन के घर फोन भी किया.

‘आप हर्षजी की पत्नी बोल रही हैं क्या?’

गणेशी का स्वर सुन कर टीना के मुख से निकला, ‘देखिए, हर्षजी अभी घर नहीं लौटे हैं. आप कल सुबह फोन कीजिए.’

‘आप मेरी बात ध्यान से सुनिए. हर्षजी यहां उस्मानिया अस्पताल में भरती हैं. वे घायल हैं और यहां उन का इलाज चल रहा है. उन के पास न तो पैसे हैं और न कोई देखभाल करने वाला.’

‘क्या हुआ है उन्हें और उन के पैसे कहां गए?’ टीना बदहवास सी हो उठी थी. रिसीवर उस के हाथ से छूट गया. अपने को किसी तरह संभाल कर टीना लड़खड़ाते कदमों से पड़ोसी दवे के घर तक पहुंची तो वह तुरंत साथ चलने को तैयार हो गए. टीना ने घर में रखे पैसे पर्स में डाल लिए. मन किसी अनहोनी की आशंका से धड़क रहा था.

अस्पताल पहुंच कर हर्ष को ढूंढ़ने में टीना को अधिक समय नहीं लगा. घायल अवस्था में अस्पताल आने वाले वही एकमात्र व्यक्ति थे.

‘आप के पति की किसी से दुश्मनी है क्या?’ टीना को देखते ही गणेशी ने प्रश्न किया.

‘नहीं तो, वह बेचारे सीधेसादे इनसान हैं. मैं ने तो उन्हें कभी ऊंची आवाज में किसी से बात करते भी नहीं सुना,’ उत्तर दवे साहब ने दिया था.

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‘तो क्या बहुत रुपए थे उन के पास?’

‘नहीं, उन का अधिकतर लेनदेन तो बैंकों के माध्यम से होता है.’

‘तो फिर ऐसा क्यों हुआ इन के साथ…?’ गणेशी ने प्रश्न बीच में ही छोड़ दिया था.

‘पर हुआ क्या है आप बताएंगे…?’ टीना अपना आपा खो रही थी.

‘गुंडों ने आप के पति पर जानलेवा हमला किया है. वह अभी तक जीवित हैं आप के लिए यह एक अच्छी खबर है,’  गणेशी ने सीधे सपाट स्वर में कहा.

हर्ष की दशा देख कर टीना और दवे दंपती सकते में आ गए थे.

‘गुंडों ने तलवार और छुरों से हमला किया था. कमर में बहुत गहरा जख्म है. हाथों को भारी नुकसान पहुंचा है. दायां हाथ तो कलाई से लगभग अलग ही हो गया है. मांसपेशियां, रक्तवाहिनियां सब कट गई हैं, इन का तुरंत आपरेशन करना पडे़गा,’ चिकित्सक ने सूचना दी थी.

हर्ष के मातापिता कुछ ही दूरी पर रहते थे. पिता को 2-3 वर्ष पहले पक्षाघात हुआ था पर मां अंबिका समाचार मिलते ही दौड़ी आईं.

‘मां, हर्ष को दूसरे अस्पताल ले जाएंगे, वहां के डा. मनुज रक्तवाहिनियों के कुशल शल्य चिकित्सक हैं,’ टीना बोली.

आपरेशन 4 घंटों से भी अधिक समय तक चला. 5 दिनों के बाद ही हर्ष को अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई थी. पट्टियां खुलने के बाद भी दोनों हाथ बेकार थे. छोटेमोटे कामों के लिए भी हर्ष दूसरों पर निर्भर हो गए.

कुछ ही दिनों में हर्ष के पैरों में इतनी ताकत आ गई कि वह बिना किसी सहारे के अस्पताल चले जाते थे. टीना के वेतन पर ही सारा परिवार निर्भर था अत: सुबह 10 से 3 बजे तक वह हर्ष के साथ नहीं रह पाती थी.

कार झटके से रुकी तो हर्ष वर्तमान में आ गया.

‘‘क्या बात है, ऐसी रोनी सूरत क्यों बना रखी है?’’ कार से उतरते टीना ने कहा, ‘‘क्या हुआ जो बीमे की राशि नहीं मिलेगी. कुछ ही दिनों में तुम पूरी तरह स्वस्थ हो जाओगे और अपना व्यापार संभाल लोगे.’’

हर्ष और टीना घर पहुंचे तो हर्ष की मां अंबिका वहां आई हुई थीं.

‘‘तुम्हारी पसंद का भोजन बनाया है आज. याद है न आज कौन सा दिन है?’’ टिफिन खोल कर स्वादिष्ठ भोजन मेज पर सजाते हुए मां अंबिका बोलीं, ‘‘हर्ष, आज मैं ने तेरी पसंद की मखाने की खीर और दाल की कचौडि़यां बनाई हैं.’’

हर्ष और टीना को याद आया कि वह अपने विवाह की वर्षगांठ तक भूल गए थे.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगी, घर में तेरे पापा अकेले हैं,’’  खाने के बाद चलने के लिए तैयार अंबिका ने कहा, ‘‘सब ठीक है ना हर्ष. तुम्हारा इलाज ठीक से चल रहा है न?’’

‘‘हां, सब ठीक है मां,’’ हर्ष ने जवाब दिया.

‘‘फिर तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है?’’

‘‘मां, मैं जिस बीमे की रकम की उम्मीद लगाए बैठा था वह अब नहीं मिलेगी,’’  इस बार उत्तर टीना ने दिया.

‘‘तो क्या सोचा है तुम ने?’’ अंबिका ने पूछा.

‘‘सोचता हूं मां, यह फ्लैट बेच दूं. बाद में फिर खरीद लेंगे,’’  हर्ष ने कहा.

‘‘मैं कई दिनों से एक बात सोच रही थी,’’  अंबिका गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘क्यों न तुम सपरिवार हमारे पास रहने आ जाओ. अपने फ्लैट को किराए पर उठाओगे तो किस्तों की समस्या हल हो जाएगी.’’

एकाएक सन्नाटा पसर गया था.

‘‘क्या हुआ?’’ मौन अंबिका ने ही तोड़ा. हर्ष ने कुछ नहीं कहा पर टीना रो पड़ी थी.

‘‘हम इस योग्य कहां मां, जो आप के साथ रह सकें. याद है जब पापा पर लकवे का असर हुआ था तो हम आप को अकेला छोड़ कर यहां रहने चले आए थे. तब लगा था कि वहां रहने पर हमें दिनरात की कुंठा और निराशा का सामना करना पडे़गा,’’  हर्ष ने ग्लानि भरे स्वर में कहा.

‘‘बेटा, मैं यह नहीं कहूंगी कि उस वक्त मुझे बुरा नहीं लगा था. पर मुसीबत का सामना करने के लिए मैं ने खुद को पत्थर सा कठोर बना लिया था. तुम लोग आज भी मेरे परिवार का हिस्सा हो और आज फिर मेरे परिवार पर आफत आई है,’’  अंबिका सधे स्वर में बोलीं.

‘‘मां, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना. जो कुछ हुआ उस के लिए हर्ष से अधिक मैं दोषी हूं,’’ यह कह कर टीना अपनी सास के चरणों में झुक गई.

‘‘नदी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहती है बेटी. मातापिता कभी अपनी ममता का प्रतिदान नहीं चाहते. हम जितना अपनी संतान के लिए करते हैं मातापिता के लिए कहां कर पाते,’’ यह कहते हुए अंबिका ने टीना को गले से लगा लिया.

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‘‘आप जैसे मातापिता हों तो कोई भी औलाद बडे़ से बडे़ संकट से जूझ सकती है,’’  टीना बोली.

‘‘यह मत सोचना कि मेरा बेटा किसी से कम है. मैराथन का धावक रहा है मेरा बेटा. लंबी रेस का घोड़ा है यह,’’ अंबिका मुसकराईं.

‘‘अरे, हां, अच्छा याद दिलाया आप ने. शहर में अर्द्धमैराथन होने को है और हर्ष ने उस में भाग लेने का फैसला किया है,’’  टीना बोली.

‘‘सच? पर इस के लिए कडे़ अभ्यास की जरूरत होगी,’’ अंबिका ने कहा.

‘‘चिंता मत कीजिए दादी मां, हम दोनों भी पापा के साथ अभ्यास करेंगे,’’ कहते हुए ऋचा और ऋषि ने हाथ हवा में लहराए. आगे की बात उन सब की सम्मिलित हंसी में खो गई थी.

रागरागिनी: क्या रागिनी अधेड़ उम्र के अनुराग से अपना प्रेम राग छेड़ पाई?

आज सुबह से ही बारिश ने शहर को आ घेरा है. उमड़घुमड़ कर आते बादलों ने आकाश की नीली स्वच्छंदता को अपनी तरह श्यामल बना लिया है. लेकिन अगर ये बूंदें जिद्दी हैं तो रागिनी भी कम नहीं. रहरह कर बरसती इन बूंदों के कारण रागिनी का प्रण नहीं हारने वाला.

ग्रीन टी पीने के पश्चात रागिनी ट्रैक सूट और स्पोर्ट शूज में तैयार खड़ी है कि बारिश थमे और वह निकल पड़े अपनी मौर्निंग जौग के लिए.

कमर तक लहराते अपने केशों को उस ने हाई पोनी टेल में बांध लिया. एक बार जब वह कुछ ठान लेती है, तो फिर उसे डिगाना लगभग असंभव ही समझो.

पिछले कुछ समय से अपने काल सैंटर के बिजनेस को जमाने में रातदिन एक करने के कारण न तो उसे सोने का होश रहा और न ही खाने का. इसी कारण उस का वजन भी थोड़ा बढ़ गया. उसे जितना लगाव अपने बिजनेस से है, उतना ही अपनी परफेक्ट फिगर से भी. इसलिए उस ने मौर्निंग जौग शुरू कर दी, और कुछ ही समय में असर भी दिखने लगा.

लंबी छरहरी काया और श्वेतवर्ण बेंगनी ट्रैक सूट में उस का चेहरा और भी निखर रहा था. उस ने अपनी कार निकाली और चल पड़ी पास के जौगर्स पार्क की ओर.

यों तो रागिनी के परिवार की गिनती उस के शहर के संभ्रांत परिवारों में होती है. मगर उस का अपने पैरों पर खड़े होने का सपना इतना उग्र रहा कि उस ने केवल अपने दम पर एक बिजनेस खड़ा करने का बीड़ा उठाया. तभी तो एमबीए करते ही कोई नौकरी जौइन करने की जगह उस ने अपने आंत्रिप्रिन्यौर प्रोग्राम का लाभ उठाते हुए बिजनेस शुरू किया. बैंक से लोन लिया और एक काल सैंटर डालने का मन बनाया. उस का शहर इस के लिए उतना उचित नहीं था, जितना ये महानगर.

जब उस ने यहां अकेले रह कर काल सैंटर का बिजनेस करने का निर्णय अपने परिवार से साझा किया, तो मां ने भी साथ आने की जिद की.

“आप साथ रहोगी तो हर समय खाना खाया, आराम कर ले, आज संडे है, आज क्यों काम कर रही है, कितने बजे घर लौटेगी, और न जाने क्याक्या रटती रहोगी. इसलिए अच्छा यही रहेगा कि शुरू में मैं अकेले ही अपना काम सेट करूं,” उस ने भी हठ कर लिया. घर वालों को आखिर झुकना ही पड़ा.

इस महानगर में रहने के लिए उस ने एक वन बेडरूम का स्टूडियो अपार्टमेंट किराए पर ले लिया. हर दो हफ्तों में एकलौता बड़ा भाई आ कर उस का हालचाल देख जाता है और हर महीने वो भी घर हो आती है. इस व्यवस्था से घर वाले भी खुश हैं और वह भी.

पार्क के बाहर कार खड़ी कर के रागिनी ने आउटर बाउंडरी का एक चक्कर लगा कर वार्मअप किया, और फिर धीरेधीरे दौड़ना आरंभ कर दिया.

आज पार्क के जौगिंग ट्रैक पर भी कीचड़ हो रहा था. बारिश के कारण रागिनी संभल कर दौड़ने लगी. मगर इन बूंदों ने भी मानो आज उसे टक्कर देने का मन बना रखा था, फिर उतरने लगीं नभ से.

भीगने से बचने के लिए रागिनी ने अपनी स्पीड बढ़ाई और कुछ दूर स्थित एक शेल्टर के नीचे पहुंचने के लिए जैसे ही मुड़ी, उस का पैर भी मुड़ गया. शायद मोच आ गई.

“उई…” दर्द के मारे वह चीख पड़ी. अपने पांव के टखने को दबाते हुए उसे वहीं बैठना पड़ा. असहनीय पीड़ा ने उसे आ दबोचा. आसपास नजर दौड़ाई, किंतु आज के मौसम के कारण शायद कोई भी पार्क में नहीं आया था. अब वह कैसे उठेगी, कैसे पहुंचेगी अपने घर. वह सोच ही रही थी कि अचानक उसे एक मर्दाना स्वर सुनाई पड़ा, “कहां रहती हैं आप?”

आंसुओं से धुंधली उस की दृष्टि के कारण वह उस शख्स की शक्ल साफ नहीं देख पाई. वह कुछ कहने का प्रयास कर रही थी कि उस शख्स ने उसे अपनी बलिष्ठ बाजुओं में भर कर उठा लिया.

“मेरी कार पार्क के गेट पर खड़ी है. मैं पास ही में रहती हूं,” रागिनी इतना ही कह पाई.

रिमझिम होती बरसात, हर ओर हरियाली, सुहावना मौसम, शीतल ठंडी बयार और किसी की बांहों के घेरे में वह खुद – उसे लगने लगा जैसे मिल्स एंड बूंस के एक रोमांटिक उपन्यास का पन्ना फड़फड़ाता हुआ यहां आ गया हो. इतने दर्द में भी उस के अधरों पर स्मित की लकीर खिंच गई.

उस ने रागिनी को कार की साइड सीट पर बैठा दिया और स्वयं ड्राइव कर के चल दिया.

“आप को पहले नहीं देखा इस पार्क में,” उस शख्स ने बातचीत की शुरुआत की.

रागिनी ने देखा कि ये परिपक्व उम्र का आदमी है – साल्टपेपर बाल, कसा हुआ क्लीन शेव चेहरा, सुतवा नाक, अनुपम देहयष्टि, लुभावनी रंगत पर गंभीर मुख मुद्रा. बैठे हुए भी उस के लंबे कद का अंदाजा हो रहा था.

“अभी कुछ ही दिनों से मैं ने यहां आना आरंभ किया है. आप भी आसपास रहते हैं क्या?” रागिनी बोली. वह उस की भारी मर्दानी आवाज की कायल हुई जा रही थी.

“जी, मैं यहीं पास में सेल्फ फाइनेंस फ्लैट में रहता हूं. अभीअभी रिटायर हुआ हूं. अब तक काफी बचत की. उसी के सहारे अब जिंदगी की सेकंड इनिंग खेलने की तैयारी है,” उस के हंसते ही मोती सी दंतपंक्ति झलकी.

“उफ्फ, कौन कह सकता है कि ये रिटायर्ड हैं. इन का इतना टोंड बौडी, आकर्षक व्यक्तित्व, मनमोहक हंसी, और ये कातिलाना आवाज,” रागिनी सोचने पर विवश होने लगी.

“बस, पास ही है मेरा घर,” वह बोली. पार्क के इतना समीप घर लेने पर उसे कोफ्त होने लगी.

किंतु घर ले जाने की जगह पहले वे रागिनी को निकटतम अस्पताल ले चले, “पहले आप को अस्पताल में डाक्टर को दिखा लेते हैं.”

उन्होंने रागिनी को फिर अपनी भुजाओं में उठाया और बिना हांफे उसे अंदर तक ले गए. वहां कागजी कार्यवाही कर के उन्होंने डाक्टर से बात की और रागिनी का चेकअप करवाया. उस की जांच कर के बताया गया कि पैर की हड्डी चटक गई है. 4 हफ्ते के लिए प्लास्टर लगवाना होगा. सुन कर रागिनी कुछ उदास हो उठी.

“आप के परिवार वाले कहां रहते हैं? बताइए, मैं बुलवा लेता हूं,” उसे चिंताग्रस्त देख वे बोले.

“वे सब दूसरे शहर में रहते हैं. यहां मैं अकेली हूं.”

“मैं हूं आप के साथ, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए,” कहते हुए वे रागिनी को ले कर उस के घर छोड़ने चल पड़े.

घर में प्रवेश करते ही एक थ्री सीटर सोफा और एक सैंटर टेबल रखी थी. टेबल पर कुछ बिजनेस मैगजीन और सोफे पर कुछ कपड़े बेतरतीब पड़े थे.

घर की हालत देख रागिनी झेंप गई, “माफ कीजिएगा, घर थोड़ा अस्तव्यस्त है. वो मैं सुबहसुबह जल्दी में निकली तो…”

सोफे पर रागिनी को बिठा कर वे चलने को हुए कि रागिनी ने रोक लिया, “ऐसे नहीं… चाय तो चलेगी. मौसम की भी यही डिमांड है आज.”

“पर, आप की हालत तो अभी उठने लायक नहीं है,” उन्होंने कहा.

“डोंट वरी, मैं पूरा रेस्ट करूंगी. रही चाय की बात… तो वह तो आप भी बना सकते हैं. बना सकते हैं न?” रागिनी की इस बात पर उस के साथसाथ वे भी हंस पड़े.

रागिनी ने किचन का रास्ता दिखा दिया और उन्होंने चाय बनाना शुरू किया. दोनों ने चाय पी और एकदूसरे का नाम जाना. चाय पी कर वे लौटने लगे.

“फिर आएंगे न आप?” रागिनी के स्वर में थोड़ी व्याकुलता घुल गई.

“बिलकुल, जल्दी आऊंगा आप का हालचाल पूछने.”

“मुझे सुबह 7 बजे चाय पीने की आदत है,” जीभ काटते हुए रागिनी बोल पड़ी.

“हाहाहा…” अनुराग की उन्मुक्त हंसी से रागिनी का घर गुंजायमान हो उठा. “जैसी आप की मरजी. कल सुबह पौने 7 बजे हाजिर हो जाऊंगा.”

अनुराग से मिल कर रागिनी जैसे खिल उठी. आज उस का मन शारीरिक पीड़ा होने के बाद भी प्रफुल्लित हो रहा था. ऐसा क्या था आज की मुलाकात में जिस ने उस के अंदर एक उजास भर दिया. उस का चेहरा गुलाबी आभा से दमकने लगा. पैर के दर्द को भुला कर वह गुनगुनाने लगी, “मैं रंग शरबतों का, तू मीठे घाट का पानी, मुझ से खुद में घोल दे तो मेरे यार बात बन जानी…”

अगली सुबह जब तक अनुराग आए, रागिनी नहाधो कर अपने गीले केश लहराती किचन के पास आरामकुरसी डाल कर बैठ चुकी थी. उस का एक मन अनुराग के आकर्षण में बंधा प्रतीक्षारत अवश्य था, परंतु दूसरा मन उन के निजी जीवन में उपस्थित लोगों के प्रति चिंताग्रस्त था. उन का अपना परिवार भी तो होगा, यही विचार रागिनी के उफनते उत्साह पर ठंडे पानी के छींटे का काम कर रहा था.

“तो आप अर्ली राइजर हैं,” उसे एकदम फ्रेश देख कर अनुराग बोले.

“बस, आप का इंतजार कर रही थी, इसलिए आज जल्दी नींद खुल गई,” रागिनी की आंखों में अलग सा आकर्षण उतर आया. उस की भावोद्वेलित दृष्टि देख अनुराग कुछ विचलित हो गए. आगे बात न करते हुए वे चाय बनाने लगे.

“तो तय रहा कि अगले एक महीने तक आप यों ही रोज मेरे लिए चाय बनाएंगे,” रागिनी कह तो गई, पर सामने से कोई प्रतिक्रिया न आने पर संशय से घिर गई, “आप के घर वाले… आई मीन… आप की वाइफ और बच्चे… कहीं उन्हें बुरा तो नहीं लगा आप का मेरे घर इतनी सुबह आना.”

कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात अनुराग कहने लगे, “मेरे कोई बच्चा नहीं है. एक अदद बीवी थी, पर उस से तलाक हुए एक अरसा बीत चुका है. मैं यहां अकेला रहता हूं.”

“तो फिर कोई दिक्कत नहीं. आज से मौर्निंग टी हम दोनों साथ में पिएंगे. यही पक्का रहा…?” कहते हुए उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया. अनुराग ने भी खुश हो कर उस से हाथ मिला लिया.

“आप की जेनेरेशन की यही बात मुझे बेहद पसंद है – नई चीजें, नए आयाम करने में आप लोग घबराते नहीं हैं. एक हम थे – बस लकीर के फकीर बने रहे ताउम्र,” रागिनी के बिजनेस के बारे में जान कर अनुराग बोले.

“चलिए, आप की जेनेरेशन का एक गाना सुनाती हूं,” कहते हुए रागिनी ने यूट्यूब पर एक गाना लगा दिया, “मैं तेरी, तू मेरा, दुनिया से क्या लेना…” उस का विचार था कि संगीत वातावरण को और भी रूमानी और खुशनुमा बनाता है.

“ये भी मेरे जमाने का गाना नहीं है,” कह कर अनुराग हंस पड़े, “अपने जमाने का गाना मैं सुनाता हूं,” और वे गाने लगे, “जीवन से भरी तेरी आंखें, मजबूर करें जीने के लिए…”

उन की मदहोश करने वाली आवाज में किशोर कुमार का ये अमर गीत जादू करने लगा. सभवतः रागिनी की नजरों में उठतेगिरते भावों को पढ़ने में अनुराग सक्षम थे. उन्होंने अपनी बात गीत के जरीए रागिनी तक पहुंचा दी. गीत के बोलों ने पूरे समां को रंगीन कर दिया. आज की सुबह का नशा रागिनी पर शाम तक बना रहा.

अगले दिन सवेरे जब अनुराग आए तो देखा, रागिनी का बड़ा भाई आया हुआ है. उस के प्लास्टर की बात सुन कर वह उस की खैरखबर लेने आ पहुंचा.

“ये हैं मेरे भैया… और ये हैं अनुरागजी, मेरे दोस्त,” रागिनी ने दोनों का परिचय करवाया.

“अंकलजी, अच्छा हुआ कि आप पास में रहते हैं. आप जैसे बुजुर्ग की छत्रछाया में रागू को छोड़ने में हमें भी इस की चिंता नहीं रहेगी,” भाई ने बोला, तो रागिनी का मुंह बन गया.

“अनुरागजी, बैठिए न. आज चाय बनाने की जिम्मेदारी मेरे भैया की. आप बस मेरे साथ चाय का लुत्फ उठाइए,” उस ने फौरन बीच में बोला.

अनुराग रागिनी की बात का मर्म समझ गए शायद, तभी तो मंदमंद मुसकराहट के साथ उस के पास ही बैठ गए.

चाय पीने के बाद इधरउधर की बातें कर रागिनी के भैया ने कहा, “अंकलजी, कल मैं लौट जाऊंगा. प्लीज, रागू का ध्यान रखिएगा.”

“क्या बारबार अनुरागजी को अंकलजी बोल रहे हो, भैया,” इस बार रागिनी से चुप नहीं रहा गया. उस के दिल का हाल भैया की समझ से परे था, सो बड़े शहरों के चोंचले समझ कर चुप रह गए.

प्लास्टर बंधे 2 हफ्ते बीत चुके थे. अनुराग हर सुबह रागिनी के घर आते, चाय बनाते, कभीकभी नाश्ता भी, और दोनों एक अच्छा समय साथ बिताते.

अनुराग की मदद से रागिनी अपने कई काम निबटा लेती. दोनों का सामीप्य काफी बढ़ गया था. दोनों एकदूसरे के गुणोंअवगुणों से वाकिफ होने लगे थे. एक रिश्ते को सुदृढ़ बनाने के लिए ये आवश्यक हो जाता है कि एकदूसरे की खूबियां और कमियां पहचानी जाएं और पूरक बन कर एकदूजे की दुर्बलताओं की पूर्ति की जाए. जिन कामों में रागिनी अक्षम थी जैसे अच्छा खाना पकाना, उसे अनुराग सिखाते. और जिन कामों में अनुराग पीछे थे जैसे आर्थिक संबलता के काम उन में वे रागिनी से सलाह लेने लगे थे. दोनों को एकदूसरे पर विश्वास होने लगा था.

प्लास्टर लगा होने के कारण रागिनी अपने काल सैंटर नहीं जा पा रही थी. बिजनेस पर इस का प्रभाव पड़ने लगा.

रागिनी की परेशानी अनुराग के अनुभव भरे जीवन के तजरबों ने दूर कर दी. बिना किसी नियुक्तिपत्र या वेतन के अनुराग ने रागिनी के काल सैंटर जाना आरंभ कर दिया. अब वे प्रतिदिन तकरीबन 5-6 घंटों के लिए उस के औफिस जाने लगे. मालिक के आने से मातहतों की उत्पादकता में फर्क आना वाजिब है. काल सैंटर का बिजनेस पहले से भी बेहतर चलने लगा.

“आप के अनुभव मेरे बहुत काम आ रहे हैं. इस के लिए आप को ट्रीट दूंगी,” रागिनी अपनी बैलेंस शीट देख कर उत्साहित थी.

“क्या ट्रीट दोगी? मुझे कोई भजन की सीडी दे देना.”

“व्हाट? भजन… मेरे पापा भी भजन नहीं सुनते हैं. खैर, वो आप से उम्र में छोटे भी तो हैं,” कह कर रागिनी ने कुटिलता से मुसकरा कर अनुराग की ओर देखा. फिर पेट पकड़ कर वह हंसते हुए कहने लगी, “आप की लेग पुलिंग करने में बड़ा मजा आता है. पर अगर आप सीरियस हैं तो मैं आप को बिग बैंग थ्योरी पर एक वीडियो शेयर करूंगी, ताकि आप की सारी गलतफहमी दूर हो जाए कि ये दुनिया कैसे बनी.” “मैं मजाक कर रहा हूं. जानता हूं कि दुनिया कैसे बनी. मैं तो बस तुम्हें अपनी उम्र याद दिलाना चाह रहा था,” अनुराग अब भी गंभीर थे. शायद मन में उठती भावनाओं को स्वीकारना उन के लिए कठिन हो रहा था. परंतु रागिनी की इस रिश्ते को ले कर सहजता, सुलभता और स्पष्टता उन्हें अकसर चकित कर देती.

एक दिन रागिनी ने अनुराग को अपने घर लंच पर न्योता दिया, “हर बार आप के हाथ का इंडियन खाना खाते हैं. आज मेरा हाथ का लेबनीज क्विजीन ट्राई कीजिए. वीडियो देख कर सीखा है मैं ने.”

“तुम खाना पकाओगी?” अनुराग ने रागिनी की खिंचाई की.

“मैं तो पका लूंगी, पर तुम को पच जाएगा कि नहीं, ये नहीं कह सकती,” आज रागिनी अनुराग को ‘आप’ संबोधन से ‘तुम’ पर ले आई. समीप आने के पायदान पर एक और सीढ़ी चढ़ते हुए.

“क्यों नहीं पचेगा? मुझे बुड्ढा समझा है?” अनुराग ने ठिठोली में आंखें तरेरीं. “अर्ज किया है – उम्र का बढ़ना तो दस्तूरेजहां है, महसूस न करें तो बढ़ती कहां है.”

“वाह… वाह… तो शायरी का भी शौक रखते हैं जनाब. आई मीन, माई ओल्ड मैन,” हंसते हुए रागिनी कम शब्दों में काफी कुछ कह गई.

“चलो, तुम कहती हो तो मान लेता हूं. हो सकता है कि मैं सच में बूढ़ा हो गया हूं. तुम्हारे बड़े भैया तो मुझे अंकलजी पुकारते हैं.”

“ऊंह… उन का तो दिमाग खराब है. तुम्हें पता है उन की एक गर्लफ्रेंड है – फिरंगी. फेसबुक पर मुलाकात हुई. फिर भैया उस से मिलने उस के देश हंगरी भी गए. पता चला, उसे भैया पर तभी विश्वास हुआ जब भैया ने प्रत्यक्ष रूप से उसे विश्वास दिलाया कि वे उस से प्यार करते हैं. इस का कारण – वह प्यार में 2 बार धोखा खा चुकी है. एक फिरंगी लड़की प्यार में धोखा खाए, इस का मतलब समझते हो न? उन के यहां शादी बाद में होती है, बच्चे पहले. तो फिर हुई न वो 2 बार शादीशुदा… लेकिन, मेरी फैमिली को कोई एतराज नहीं है. मुझे भी नहीं है. पर यही आजादी मुझे अपनी जिंदगी में भी चाहिए. मैं समाज का दोगलापन नहीं सह सकती. मैं हिपोक्रेट नहीं हूं. जो मुझे पसंद आएगा, उसे मेरे परिवार को भी पसंद करना पड़ेगा. उस समय कोई अगरमगर नहीं चलने दूंगी,” रागिनी बेसाख्ता कहती चली गई. अपने विचार प्रकट करने में वह निडर और बेबाक थी. अनुराग इशारा समझ चुके थे.

“वो क्या कहती है तुम्हारी जेनेरेशन… इस बात पर तुम्हें हग करने को जी चाह रहा है,” अनुराग ने माहौल को हलका बनाते हुए कहा.

“ऐज यू प्लीज,” कहते हुए रागिनी ने अनुराग को गले लगा लिया. स्पर्श में अजीब शक्ति होती है, उसे शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती. आलिंगनबद्ध होते ही दोनों एकदूसरे की धड़कन सुनने के साथसाथ, एकदूसरे का भोवोद्वेलन भी समझ गए. बात आगे बढ़ती, इस से पहले अनुराग ने रागिनी को स्वयं से दूर कर दिया.

“दिन में सपने देख रही हो?” अनुराग ने पूछ लिया.

“दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं… और, मैं अपनी लाइफ की हीरो हूं, इसलिए इस के सपने भी मैं ही डिसाइड करूंगी,” रागिनी का अपने दिल पर काबू नहीं था. उस की चाहतों की टोह लेते हुए अनुराग को वहां से चले जाने में ही समझदारी लगने लगी.

अगले दिन जब अनुराग आए तो रागिनी के घर का नक्शा बदला हुआ था. लिविंग रूम के बीचोंबीच रखी सैंटर टेबल पर लाल गुलाबों का बड़ा सा गुलदस्ता सजा था. आसपास लाल रिबन से बने हुए ‘बो’ रखे थे. सोफे के ऊपर वाली दीवार पर एक कोने से दूसरे कोने तक एक डोरी में रागिनी की तसवीरें टंगी हुई थीं, जिन में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

अनुराग की नजर कभी किसी फोटो पर अटक जाती तो कभी दूसरी पर. हर तसवीर में एक से एक पोज में रागिनी की मनमोहक छटा सारे कक्ष को दीप्तिमान कर रही थी. आज कमरे के परदे खींच कर हलका अंधियारा किया हुआ था, जिन में दीवारों पर सजी फेयरी लाइट्स जगमगा रही थीं. पार्श्व में संगीत की धुन बज रही थी. शायद कोई रोमांटिक गीत का इंसट्रूमेंटल म्यूजिक चलाया हुआ था.

अनुराग अचकचा गए. आज ये घर कल से बिलकुल भिन्न था. “रागिनी,” उन्होंने पुकारा.

पिंडली तक की गुलाबी नाइटी में रागिनी अंदर से आई. उस के रक्ताभ कपोल, अधरों पर फैली मुसकान, आंखों में छाई मदहोशी, और खुले हुए गेसू – एक पल को अनुराग का दिल धक्क से रह गया. लगा जैसे वो उम्र के तीस वर्ष पीछे खिंचते चले गए हों. उन की नजर में भी एक शरारत उभर आई. नेह बंधन की कच्ची डोर ने दोनों को पहले से ही कस कर पकड़ना शुरू कर दिया था. आज के माहौल से आंदोलित हुई भावनाएं तभी थमीं, जब शरमोहया के सारे परदे खुल गए. आज जो गुजरा, उस के बारे में अनुराग ने सोचा न था. परंतु जो भी हुआ, दोनों को आनंदित कर गया.

अंगड़ाई लेते हुए रागिनी के मुंह से अस्फुट शब्द निकले, “आज सारे जोड़ खुले गए… कहीं कोई अड़चन नहीं बची.”

उसे प्रसन्न देख अनुराग भी प्रफुल्लित हो गए, “जानती हो रागिनी,” उस के बालों में उंगली फिराते हुए उन्होंने कहा, “मेरी शादी बहुत कड़वी रही. बहुत घुटन थी उस में. ऐसा तो नहीं हो सकता न कि हम सांस भी न लें और जिंदा भी रहें. खैर, मैं भी पता नहीं क्या बात ले बैठा… इस समय, तुम से… न जाने क्यों?”

“मुझे अच्छा लगा यह जान कर कि तुम ने मेरे समक्ष अपने दिल की परत खोली. प्रेम केवल अच्छी बातें, सुख और कामना नहीं. प्रेम में मन का कसेलापन भी शामिल होता है. प्रेम में हम दुखतकलीफें न बांट सकें तो फिर ये तकल्लुफ हुआ, प्यार नहीं,” रागिनी अनुराग के और निकट आ कर संतुष्ट हुई.

बाहर टिपटिप गिरती बूंदें एक राग सुनाने लगीं. कमरे के अंदर आती पवन चंपई गंध लिए थी. आज की खामोशी में एक संगीत लहरा रहा था. प्यार उम्र नहीं देखता, समर्पण चाहता है.

इस प्रकरण के बाद रागिनी और अनुराग के बीच एक अटूट रिश्ता बन गया. अब उन्हें बातों की आवश्यकता नहीं पड़ती. आंखों से संपर्क साधना सीख लिया था उन के रिश्ते ने. दोनों के बीच एक लहर प्रवाहित होती जो मौन में भी सबकुछ कह जाती. मन के सभी संशय मीठे अनुनाद में बदल चुके थे. यही तो सच्चा और अकूत प्रेम है.

जब रागिनी का प्लास्टर उतरा, तब वह पहली बार अनुराग के घर गई.

“तो यहां रहते हैं आप?” बिना किसी तसवीर या चित्रकारी के नीरस दीवारें, बेसिक सा सामान, पुराने बरतन, पुराना फर्नीचर. घर में कुछ भी आकर्षक नहीं था. लेकिन रागिनी चुप रही. हर किसी का जीने का अपना एक ढंग होता है. उस पर आक्रमण किसी को नहीं भाता. जो कुछ बदलाव लाएगी, वो धीरेधीरे.

“अपने फोटो एलबम दिखाइए,” रागिनी की डिमांड पर अनुराग कुछ एलबम ले आए. उन में अनुराग के बचपन की, जवानी की तसवीरें देख रागिनी हंसती रही.

“पहले मेरे बाल काफी काले थे,” अपने खिचड़ी बालों की वजह से सकुचाते हुए अनुराग बोले, “क्या फिर कलर कर लूं इन्हें?”

“नहीं, आप साल्ट एंड पेपर बालों में ही जंचते हैं. ये तो आजकल का फैशन है. मैच्यौर्ड लुक, यू सी,” रागिनी ने कहा. फिर मौके का फायदा उठाते हुए वह कहने लगी, “अगर कुछ चेंज करना ही है तो इस घर में थोड़े बदलाव कर दूं? यदि आप कहें?”

“मेरा सबकुछ तुम्हारा ही तो है. जो चाहो करो,” अनुराग से अनुमति पा कर रागिनी हर्षित हो उठी.

“ठीक है, तो कल से ही काम चालू,” कह कर रागिनी खिलखिला पड़ी.

अब रागिनी अकसर अनुराग के घर आती, और वो उस के. दोनों एकदूसरे के हो चुके थे – तन से भी, मन से भी और काम से भी. एक खुशहाल साथ बसर करते दोनों को कुछ हफ्ते बीत चुके थे कि एक दिन अनुराग कहने लगे, “ऐसे कब तक चलेगा, रागिनी? मेरा मतलब है कि बिना शादी किए हम यों ही…”

“क्यों, आप को कोई परेशानी है इस अरेंजमेंट से?”

“नहीं, मुझे गलत मत समझो रागिनी, तुम्हारे आने से मेरे मुरदा जीवन में जैसे प्राण आने लगे हैं. इस बेजान मकान को एक घर की सूरत मिलने लगी है. तुम ने इस की शक्ल बदल कर मुझ पर बड़ा एहसान किया है. पर तुम एक जवान लड़की हो, क्या तुम्हारे परिवार वाले मुझे स्वीकारेंगे?” अनुराग ने अपने मन में उठती शंकाओं के पट खोल दिए.

“शादी किसी रिश्ते को शक्ति व सामर्थ्य देने का ढंग है, बस. जब हम दोनों एकदूसरे के हो चुके हैं, तो फिर हमें किसी बाहरी ठप्पे की जरूरत नहीं है. हम जैसे हैं, खुश हैं.

“रही बात समाज की, तो समाज हम से ही बनता है. हमारी नीयत में जब खोट नहीं तो हम किसी से क्यों डरें?”

रागिनी के विचार सच में आज की पीढ़ी की बेबाक सोच प्रस्तुत कर रहे थे. जबकि अनुराग के विचार अपनी पीढ़ी के ‘लोग क्या कहेंगे’ की परिपाटी दर्शा रहे थे. यही तो फर्क है दोनों में. मगर जब सोच लिया कि साथ निभाना है तो फिर घबराना कैसा? मुश्किलों का आना तो पार्ट औफ लाइफ है. उन में से हंस कर बाहर आना, यही आर्ट औफ लाइफ है.

 

 

 

तजरबा: कैसे जाल में फंस कर रह गई रेणु

अगले मुलाकाती का नाम देखते ही ऋषिराज चौंक पड़ा. ‘डा. धवल पनंग.’ इस से पहले कि वह अपनी सेक्रेटरी सीपा से कुछ पूछता, उस ने आगंतुक के आने की सूचना दे दी. सीपा के सामने वह गाली तो दे नहीं सकता था फिर भी कहे बिना न रह सका, ‘‘तू अपना नर्सिंग होम छोड़ कर मेरे आफिस में क्या कर रहा है?’’

‘‘मास्टर डिटेक्टिव ऋषिराज से मुलाकात का इंतजार. भाई, क्लाइंट हूं आप का, बाकायदा फीस भर कर समय लिया…’’

‘‘मगर क्यों? घर पर नहीं आ सकता था?’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘जैसे मरीज के रोग का इलाज डाक्टर नर्सिंग होम में करते हैं वैसे ही मैं समझता हूं कि जासूस समस्या का सही समाधान अपने आफिस में करते होंगे,’’ धवल बोला.

‘‘वह तो है पर तू अपनी समस्या बता?’’

‘‘पिछले सप्ताह की बात है. एक दिन नर्सिंग होम में मोबाइल पर बात करते वक्त रेणु ने घबराए स्वर में कहा था, ‘कहा न मैं आऊंगी, फिर बारबार फोन क्यों…हां, जितना भी हो सकेगा करूंगी.’ रेणु के मायके वाले अपनी हर छोटीबड़ी घरेलू समस्या में रेणु को जरूर उलझाते हैं. सो यह सोच कर कि वहीं से फोन होगा, मैं ने कुछ नहीं पूछा. फिर मैं ने गौर किया कि रेणु काफी कोशिश कर के भी अपनी घबराहट छिपा नहीं पा रही है और अपने कुछ खास मरीज भी उस ने अपनी सहायक डा. सुरेखा के सिपुर्द कर दिए.

‘‘भले ही एकसाथ काम करते हैं, मगर मैं और रेणु अपनीअपनी गाड़ी से जाते हैं ताकि जिसे जब फुरसत मिले वह बच्चों को देखने घर आ जाए. उस दिन रेणु ने कहा कि उस का गाड़ी चलाने का मन नहीं है सो वह मेरे साथ चलेगी. मैं ने कहा कि शौक से चले, मगर वापस कैसे आएगी क्योंकि मुझे तो एक आपरेशन करने जल्दी आना है तो उस ने कहा कि सुरेखा से पिकअप करने को कह दिया है. रास्ते में मैं ने उस से पूछा कि किस का फोन था तो उस के चेहरे पर ऐसे डर के भाव आए जैसे कोई खून करते हुए वह रंगेहाथों पकड़ी गई हो.

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‘‘वह सकपका कर बोली, ‘यहां तो सारे दिन ही फोन आते रहते हैं, आप किस की बात कर रहे हो?’ मैं चाह कर भी नहीं कह सका कि जिसे सुन कर तुम्हारा हाल बेहाल हो गया है, लेकिन ऋषि, घर पहुंचने पर रेणु के बाथरूम जाते ही मैं ने उस के मोबाइल में वह नंबर ढूंढ़ लिया. वह रेणु के मायके वालों का नंबर नहीं था…’’

‘‘नंबर बता, अभी नामपता मंगवा देता हूं,’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘तेरा खयाल है, मैं नंबर पता लगवाने तेरे पास आया हूं?’’ धवल सूखी सी हंसी हंसा. फिर कहने लगा, ‘‘खैर, अगली सुबह मैं तो जल्दी निकल गया और आपरेशन से फुरसत मिलने पर जब बाहर आया तो देखा कि रेणु आज नर्सिंग होम आई ही नहीं है. घर पर फोन किया तो पता चला कि मैडम वहां भी नहीं है और गाड़ी नर्सिंग होम में खड़ी है. उस के मोबाइल पर फोन किया तो बोली कि किसी जरूरी काम से सिविल लाइन आई थी, अब ट्रैफिक में फंसी हुई हूं. सिविल लाइन में मेरी ससुराल है सो सोचा कि मायके की परदादारी रखना चाह रही है तो रखे.

‘‘मगर परसों शाम जब रेणु एक डिलीवरी केस में व्यस्त थी, मैं बच्चों को ले कर डिजनी वर्ल्ड चला गया. वहां जिस बैंक में हमारा खाता है उस के मैनेजर भी सपरिवार घूम रहे थे. उन्होंने मजाक में पूछा कि क्या डाक्टर साहिबा अभी भी खरीदारी में व्यस्त हैं, कल उन्होंने खरीदारी करने के लिए 1 लाख रुपए निकलवाए थे.

‘‘मैं यह सुन कर स्तब्ध रह गया. रेणु जो घरखर्च के लिए भी मुझ से पूछ कर पैसे निकलवाती थी, चुपचाप 1 लाख रुपए निकलवा ले, यकीन नहीं आया. अभी इस उलझन से उबर नहीं पाया था कि मेरी छोटी साली और साला मिल गए. वह हमारे घर गए थे, पता चलने पर कि हम यहां हैं, वह भी यहीं आ गए. बच्चों को उन के मामा को सौंप कर मैं साली के साथ बैठ गया और पूछा कि घर में ऐसी क्या परेशानी है जिसे फोन पर सुनते ही रेणु भी परेशान हो जाती है.

‘‘सुनते ही मीनू चौंक पड़ी. बोली, ‘क्या कह रहे हैं, जीजाजी? दीदी को घर पर आए 15 रोज से ज्यादा हो गए हैं और पिछले 4-5 रोज से उन्होंने फोन भी नहीं किया. तभी तो मां ने हमें उन का हालचाल जानने को भेजा है क्योंकि हमें फोन करने को तो जीजी ने मना कर रखा है.’

‘‘अब चौंकने की मेरी बारी थी, ‘रेणु ने कब से तुम्हें फोन करने को मना किया हुआ है?’

‘‘‘हमेशा से बहुत ही जरूरी काम होने पर हम उन्हें फोन करते हैं, फुरसत मिलने पर वह खुद ही रोज सब से बात कर लेती हैं, कभीकभी तो दिन में 2 बार भी. सो 4-5 रोज से फोन न आने पर सब को चिंता हो रही है.’

‘‘‘चिंता की कोई बात नहीं है, रेणु आजकल थोड़ी व्यस्त है,’ अपनी चिंता को दरकिनार करते हुए मैं ने मीनू की चिंता दूर की. वह अनजान फोन नंबर जो मैं ने अपने मोबाइल में नोट कर लिया था, दिखा कर मीनू से पूछा कि यह किस का नंबर है?

‘‘‘यह तो अपने पड़ोसी डा. शिवमोहन चाचा का नंबर है. छोटीमोटी बीमारी में हम उन्हीं के पास जाते हैं. समझ में आ गया जीजाजी, इस नंबर से फोन आने पर जीजी क्यों परेशान हुई थीं और क्यों काम छोड़ कर उन से मिलने गई थीं. डा. चाचा का एक डाक्टर बेटा रतन मोहन है. भोपाल के सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम करता था. एक गलत रिपोर्ट देने के सिलसिले में नौकरी से निलंबित कर दिया गया सो यहां आ गया है. चाचाजी जीजी के पीछे पड़े होंगे कि उसे अपने नर्सिंग होम में रख लें और जीजी परेशान होंगी कि पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर का नर्सिंग होम में क्या काम?’

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‘‘मैं ने जब मीनू से पूछा कि रतन की उम्र क्या है? तो वह बताने लगी कि वह मेडिकल कालिज में रेणु दीदी से 2 साल सीनियर था. पहले उस का घर में बेहद आनाजाना था लेकिन फिर मां ने मुर्दे चीरने वाले रतन के घर में आनेजाने पर रोक लगा दी.

‘‘मैं बुरी तरह आहत हो गया. साफ जाहिर था कि रेणु ने वह 1 लाख रुपए रतन को पुरानी दोस्ती की खातिर दिए थे. जब किसी अपने से किसी गैर के लिए धोखा मिले तो बहुत तकलीफ होती है, ऋषि. खैर, जब मैं बच्चों के साथ घर पहुंचा तो रेणु आ चुकी थी. बच्चों से यह सुन कर कि उन्हें डिजनी वर्ल्ड में बड़ा मजा आया, रेणु के चेहरे पर अजीब से राहत और संतुष्टि के भाव उभरे और मैं ने उसे बुदबुदाते हुए सुना, ‘चलो, यह तसल्ली तो हुई कि मेरे जाने के बाद धवल बच्चों को बहला लेंगे.’ उस की यह बात सुनते ही मैं स्तब्ध रह गया. ऋषि, रेणु मुझे छोड़ने की सोच रही है.’’

‘‘तू ने भाभी से इस बुदबुदाने का मतलब नहीं पूछा?’’ ऋषि ने धवल से पूछा.

‘‘नहीं, ऋषि, मैं उस से अभी कुछ भी पूछना नहीं चाहता. तू मुझे रेणु और रतन के सही संबंधों के बारे में जो भी पता लगा कर दे सकता है, दे. उस के बाद मैं सोचूंगा कि क्या करना है. कितना समय लगेगा यह सब पता लगाने में?’’

‘‘अगर रतन के कालिज का नाम, किस साल से किस साल तक उस ने पढ़ाई की और उस के अन्य सहपाठियों के नाम का पता चल जाए तो 2-3 रोज में गड़े मुर्दे उखड़ जाएंगे और फिलहाल क्या हो रहा है, यह जानने के लिए भाभी और रतन की गतिविधियों पर पहरा बैठा देता हूं. रतन का अतापता मालूम है?’’

धवल को जो भी मालूम था वह ऋषि को बता कर थके कदमों से लौट आया. उस का खयाल था कि ऋषि 2-3 रोज से पहले क्या फोन करेगा लेकिन ऋषि ने उसी शाम फोन किया.

‘‘धवल, या तो अभी मेरे आफिस में आजा या फिर रात में खाने के बाद मेरे घर पर आ जाना.’’

‘‘अभी आया,’’ कह कर धवल ने फोन रख दिया. काम में दिल नहीं लग रहा था सो उस ने कल से ही नए मरीजों को समय देने से मना किया हुआ था.

ऋषि रिपोर्ट ले कर बैठा हुआ था. ‘‘रेणु और रतन मोहन में आज कोई संपर्क नहीं हुआ है,’’ ऋषि ने बताया, ‘‘पुराने सहपाठियों को कभी रेणु और रतन का रिश्ता आपत्तिजनक नहीं लगा. पड़ोसियों और पारिवारिक जानपहचान वालों में जैसा व्यवहार होता है वैसा ही था. रेणु अपनी और अपने सहपाठियों की समस्याएं ले कर रतन के पास जाया करती थी. वह कोई बहुत काबिल डाक्टर नहीं था, लेकिन सीनियर होने के नाते सुझाव तो दे ही देता था.

‘‘रतन जिस अस्पताल में काम कर रहा था वहीं रेणु और उस के साथ की कुछ लड़कियों ने इंटर्नशिप की थी और तब रतन ने उन सब की बहुत मदद की. उसी दौरान रेणु के साथ इंटर्नशिप कर रही एक लड़की डाक्टर रैचेल का अचानक हार्ट फेल हो गया. रेणु सहेली की मौत के बाद ज्यादा सहमी सी लगने लगी और रतन को देखते ही और ज्यादा सहम जाती थी. इंटर्नशिप खत्म होते ही रेणु तुझ से शादी कर के विदेश चली गई. जब तुम लोग विदेश से लौटे तब तक रतन कहीं और नौकरी पर जा चुका था. अच्छा, यह बता धवल, जब तुम लोग लंदन में थे तो रतन के साथ संपर्क थे भाभी के?’’

‘‘मुझे तो रतन के अस्तित्व के बारे में अभी पता चला है, रहा सवाल लंदन का तो उस जमाने में ई-मेल और एसएमएस जैसी सुविधाएं तो थीं नहीं और चिट्ठी लिखने की रेणु को फुरसत नहीं थी.’’

‘‘अब तक जो सूत्र हाथ लगे हैं उन से तो नहीं लगता कि भाभी और रतन में प्रेम या अनैतिक संबंध हैं. हां, ब्लैकमेल का मामला हो सकता है लेकिन किस बिना पर इस का पता लगवा रहा हूं.’’

‘‘रैचेल की मौत से कुछ संबंध हो सकता है?’’

‘‘खैर, मैं रैचेल की मौत की सही वजह पता लगाता हूं. तू यह पता कर सकता है कि रतन अभी तक कुंआरा क्यों है?’’

धवल कुछ देर सोचता रहा फिर बोला, ‘‘मैं बच्चों को नानी से मिलवाने ले जाता हूं और फिर किसी तरह रतन का जिक्र चला कर उस के बारे में मालूम करूंगा.’’

धवल की उम्मीद के मुताबिक उस की सास ने उसे बच्चों के साथ अकेला देख कर पूछा, ‘‘रेणु आजकल इतनी व्यस्त कैसे हो गई?’’

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‘‘कुछ तो रोज ही 1-2 डिलीवरी के मामले आ जाते हैं, मां. दूसरे, जब से उसे डा. रतन मोहन ने फोन किया है वह न जाने क्या सोचती रहती है.’’

‘‘उस कफन फाड़ रतन की इतनी हिम्मत कि रेणु को फोन करे?’’ मां चिल्लाईं, ‘‘मीनू, लगा तो फोन अपने बाबूजी को, पूछती हूं उन से कि उन्होंने रेणु का नंबर रतन को दिया क्यों?’’

‘‘बाबूजी से जवाबतलब करने से क्या फायदा, मां,’’ मीनू ने कहा, ‘‘अब तो आप डा. रतन मोहन को बुला कर फटकारिए कि आइंदा जीजी को परेशान न करे.’’

‘‘मैं मुंह नहीं लगती उस मरघट के ठेकेदार के. तेरे बाबूजी के आते ही उन से फोन करवाऊंगी.’’

‘‘अरे, नहीं मां, इस सब की कोई जरूरत नहीं है. मगर यह रतन है कौन और रेणु से क्या चाहता है?’’ धवल ने पूछा.

जो कुछ मां ने बताया, वह वही था जो मीनू बता चुकी थी.

धवल के यह पूछने पर कि रतन के बीवीबच्चे कहां हैं? मां ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘उस आलसी निखट्टू से शादी कौन करेगा? किसी तरह लेदे कर डाक्टरी तो बाप ने पास करवा दी लेकिन बेटे ने मरीज देखने की सिरदर्दी से बचने के लिए पोस्टमार्टम करना आसान समझा. बगैर मेहनत के काम में इतना पैसा तो मिलने से रहा कि कोई अपनी बेटी का हाथ थमा दे.’’

‘‘खैर, ऐसी बात तो नहीं है, मांजी, सरकारी डाक्टर को भी अच्छी तनख्वाह मिलती है. हो सकता है वह खुद ही शादी न करना चाहता हो. क्या नाम था रेणु की उस सहेली का, जिस की मौत हो गई थी?’’ धवल ने कुरेदा.

‘‘रैचेल. उस से रतन का क्या लेनादेना? उस आलसी को लड़कियों में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही. उसे तो दिन भर लेट कर टीवी देखने या उपन्यास पढ़ने का शौक है. सरकारी नौकरी में भी दुर्घटना की रिपोर्ट पर हार्ट फेल लिख दिया. वह किसी नेता के बेटे की लाश थी. उन का मुआवजा मारा गया सो उन्होंने उस की छुट्टी करवा दी,’’ मां ने कहा, ‘‘रेणु भी इसीलिए परेशान होगी कि इसे क्या काम दे.’’

सास से यह कह कर कि वह बच्चों को खाने के बाद घर छोड़ आएं और इसी बहाने रेणु से भी मिल लें, धवल ऋषि के घर आया. इस से पहले कि उस से सब सुन कर ऋषि कोई प्रतिक्रिया जाहिर करता, एक फोन आ गया.

‘‘रेणु भाभी पर नजर रख रही लड़की का फोन था. भाभी इस समय एडवोकेट कादिरी के चैंबर में हैं,’’ ऋषि ने फोन सुनने के बाद बताया, ‘‘घबरा मत यार, कादिरी तलाक के नहीं फौजदारी के मुकदमे का वकील है.’’

‘‘यह तो और भी घबराने की बात है. रेणु किस गुनाह में फंसी हुई है?’’

‘‘यह अगर तू खुद भाभी से पूछे तो बेहतर रहेगा. यह तो पक्का है कि वह तेरे से बेवफाई नहीं कर रही हैं सो वह जिस परेशानी में हैं उस में से उन्हें निकालना तेरा फर्ज है. अगर समस्या सुलझाने में कहीं भी मेरी जरूरत हो तो बताना.’’

जब धवल घर पहुंचा तो रेणु अपने मातापिता के साथ बैठी अनमने ढंग से बात कर रही थी. कुछ देर के बाद वे लोग उठ खड़े हुए और उस के पिता ने चलतेचलते कहा, ‘‘तू बेफिक्र रह बेटी, मैं रतन को आश्वासन दे देता हूं कि मैं उस की नौकरी लगवा दूंगा, वह तुझे परेशान न करे.’’

रेणु चुप रही मगर उस के चेहरे पर अविश्वास की मुसकान थी. सासससुर के जाते ही धवल ने मौका लपका.

‘‘यह डा. रतन मोहन है कौन, रेणु, जो सभी उस के लिए इतने परेशान हैं?’’

पहले तो रेणु सकपकाई फिर संभल कर बोली, ‘‘बाबूजी के करीबी दोस्त का बेटा है.’’

‘‘तब तो मेरा साला हुआ न, उसे तो अपने यहां काम मिलना ही चाहिए. भई, बाबूजी को फोन कर देता हूं कि उसे कल ही भेज दें, मरीज की केस हिस्ट्री नोट करने के लिए मुंहमांगी तनख्वाह पर रख लूंगा. बाबूजी का मोबाइल नंबर बोलो?’’

‘‘रहने दो, धवल. रतन को नौकरी नहीं चाहिए,’’ रेणु थके स्वर में बोली.

‘‘तो फिर क्या चाहिए?’’ धवल ने लपक कर रेणु को बांहों में भर लिया. धवल के स्पर्श की ऊष्मा से रेणु पिघल कर फूटफूट कर रोने लगी. धवल पहले तो चुपचाप उस की पीठ सहलाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘बताओ न, रेणु, रतन क्यों परेशान कर रहा है तुम्हें, क्या चाहिए उसे?’’

‘‘मेरी जान.’’

‘‘वह किस खुशी में, भई?’’

‘‘मेरी बेवकूफी की.’’

‘‘ऐसी कैसी बेवकूफी जिस की भरपाई जान दे कर हो? अगर तुम को मुझ पर भरोसा है तो मुझे सबकुछ खुल कर बताओ.’’

‘‘कैसी बात करते हो, धवल. तुम पर नहीं तो और किस पर भरोसा करूंगी? तुम्हें बेकार में परेशान नहीं करना चाहती थी सो अब तक चुप थी पर अब सहन नहीं होता,’’ रेणु ने सुबकते हुए कहा, ‘‘मैं ने गांधी अस्पताल में इंटर्नशिप की थी और उन दिनों रतन की नियुक्ति भी उसी अस्पताल में थी.

‘‘एक रोज मैं और मेरी सहेली रैचेल रतन के कमरे में बैठे हुए आपस में बात कर रहे थे कि नींद की गोलियों में कौन से ब्रांड की गोली सब से असरदायक होती है. रतन ने कहा कि किसी भी ब्रांड की गोली खाने से पहले अगर 1-2 घूंट ह्विस्की पी लो तो गोली जबरदस्त असर करती है. मेरे पूछने पर कि उसे कैसे मालूम, रतन ने कहा कि उस ने किसी उपन्यास में पढ़ा है और रासायनिक तथ्यों को देखते हुए बात ठीक भी हो सकती है.

‘‘रैचेल ने कहा कि अनिंद्रा की बीमारी से पीडि़त लोगों के लिए तो यह नुस्खा बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है लेकिन बगैर आजमाए तो किसी को बताना नहीं चाहिए. मुझे पता था कि रैचेल के घर में शराब का कोई परहेज नहीं है और ज्यादा थके होने पर रैचेल भी 1-2 घूंट लगा लेती है. मैं ने उस से कहा कि वह खुद पर ही यह फार्मूला आजमा के देख ले. भरपूर नींद सो लेगी तो अगले दिन तरोताजा हो जाएगी. रैचेल बोली कि ह्विस्की की तो कोई समस्या नहीं है लेकिन नींद की गोली बगैर डाक्टर के नुस्खे के नहीं मिलती, रतन अगर नुस्खा लिख दे तो वह तजरबा करने को तैयार है.

‘‘रतन ने कहा कि नुस्खे की क्या जरूरत है. रेणु की नाइट ड्यूटी आजकल आरथोपीडिक वार्ड में है, जहां आमतौर पर सब को ही गोली दे कर सुलाना पड़ता है. सो इस से कह, यह किसी मरीज के नाम पर तुम्हें भी एक गोली ला देगी. उस रात बहुत से मरीजों के लिए एक ही ब्रांड की गोली लिखी गई थी सो नर्स स्टोर से पूरी शीशी ले आई. आधी रात को सब की नजर बचा कर मैं ने वह शीशी अपने पर्स में रख ली और मौका मिलते ही रैचेल को दे दी.

‘‘अगले दिन हमारी छुट्टी थी. रात के 10 बजे के करीब रैचेल के पिता का फोन आया कि बहुत पुकारने पर भी रैचेल जब रात का खाना खाने नहीं आई तो उन्होंने उस के कमरे में जा कर देखा कि वह एकदम बेसुध पड़ी है. मैं ने उन्हें रैचेल को फौरन अस्पताल लाने को कहा और आश्वासन दिया कि मैं भी वहां पहुंच रही हूं. संयोग से रतन की उस रात नाइट ड्यूटी थी, मैं ने तुरंत उसे फोन पर सब बता कर कहा कि मुझे लगता है कि रैचेल ने तजरबा कर लिया. मैं ने उसे वार्ड से चुरा कर नींद की गोलियों की शीशी दी थी.

‘‘रतन बोला कि वह तो उसे मालूम है. आधी शीशी नींद की गोलियां गायब होने से वार्ड में काफी शोर मचा हुआ था, जिसे सुनते ही वह समझ गया था कि यह किस का काम है. खैर, चिंता की कोई बात नहीं, उसे बता दिया है सो वह सब संभाल लेगा और उस ने संभाला भी. अस्पताल पहुंचने से पहले ही रैचेल की मौत हो चुकी थी. रतन ने मौत की वजह मैसिव हार्ट अटैक बता कर किसी और डाक्टर के आने से पहले आननफानन में पोस्टमार्टम कर बौडी रैचेल के घर वालों को दे दी.

‘‘अगले रोज उस ने मुझे अकेले में बताया कि उस ने मुझे बचा लिया है. रैचेल ने काफी मात्रा में नींद की गोलियां खाई थीं. पलंग के पास पड़ी नींद की गोलियों की खाली शीशी भी उस के बाप को मिल गई थी, मगर रतन के समझाने पर कि आत्महत्या का पुलिस केस बनने पर उन की बहुत बदनामी होगी, उन्होंने चुपचाप रैचेल का जल्दी से अंतिम संस्कार कर दिया. यही नहीं जच्चाबच्चा वार्ड जहां रैचेल की ड्यूटी थी, वहां भी एक नर्स ने मुझे अचानक वार्ड में आ कर हंसते हुए रैचेल को कुछ पकड़ाते हुए देखा था. रतन ने उसे भी डांट कर चुप करा दिया कि सब के सामने हंसते हुए च्युंगम दी जाती है चुराई हुई नींद की गोलियों की शीशी नहीं.

‘‘मेरे आभार प्रकट करने पर रतन ने कहा कि खाली धन्यवाद कहने से काम नहीं चलेगा. जब वह किसी परेशानी में होगा तो वह जो कहेगा मुझे उस के लिए करना पड़ेगा. हामी भरने के सिवा कोई चारा भी नहीं था. उस के बाद से मैं रतन से डरने लगी थी, हालांकि उस ने दोबारा वह विषय कभी नहीं छेड़ा.

‘‘कुछ अरसे के बाद रैचेल की गोलियां खाने की वजह भी समझ में आ गई. डा. राममूर्ति ने एक रोज बताया कि वह और रैचेल एकदूसरे से प्यार करते थे और जल्दी ही शादी करने वाले थे लेकिन उस के घर वालों ने उस की शादी कहीं और तय कर दी थी.

राममूर्ति ने रैचेल को आश्वासन दिया था कि छुट्टी मिलते ही चेन्नई जा कर अपने घर वालों को सब बता कर वह रिश्ता खत्म कर देगा, लेकिन काफी कोशिश के बाद भी उसे छुट्टी नहीं मिल रही थी और रैचेल इसे उस की टालमटोल समझ कर काफी बेचैन थी. शायद इसी वजह से उस का हार्ट फेल हो गया. यह जान कर मेरे मन से एक बोझ उतर गया कि रैचेल की जान मेरे मजाक के कारण नहीं गई. वह आत्महत्या करने का फैसला कर चुकी थी. फिर मैं तुम से शादी कर के लंदन चली गई. वापस आने पर भी रतन से कभी मुलाकात नहीं हुई.

‘‘अब अचानक इतने साल बाद उस ने मुझे ब्लैकमेल करना शुरू किया है कि रैचेल की सही पोस्टमार्टम रिपोर्ट और विसरा वगैरा उस के पास सुरक्षित है, जिस के बल पर वह मुझे कभी भी सलाखों के पीछे भेज सकता है. अपना मुंह बंद रखने की कीमत उस ने 1 लाख रुपए मांगी थी जो मैं ने चुपचाप उसे दे दी. आसानी से मिले पैसे ने उस की भूख और भी बढ़ा दी. उस ने मुझे कहा कि मैं और भी मेहनत कर के पैसे कमाऊं क्योंकि अब वह अपनी नहीं मेरी कमाई पर जीएगा…’’

‘‘जुर्म के सुबूत छिपाने वाला जुर्म करने वाले जितना ही अपराधी होता है सो रतन तुम्हें फंसाने की कोशिश में खुद भी पकड़ा जाएगा,’’ धवल ने रेणु की बात काटी.

‘‘यह बात मैं ने रतन से कही थी तब वह बोला, ‘कह दूंगा कि तुम्हारे रूपजाल में फंस कर मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी लेकिन अब विवेक जागा है तो मैं आत्मसमर्पण करना चाहता हूं. मुझे थोड़ीबहुत सजा हो जाएगी, तुम शायद सुबूतों के अभाव में बरी भी हो जाओ लेकिन यह सोचो कि तुम्हारी कितनी बदनामी होगी, तुम्हारे नर्सिंग होम की ख्याति और पति की प्रतिष्ठा पर कितना बुरा असर पड़ेगा?’

‘‘उस की दलील में दम था, फिर भी मैं ने एक जानेमाने वकील से सलाह ली तो उन्होंने भी यही कहा कि सजा तो मुझे नहीं होने देंगे लेकिन बदनामी और उस से होने वाली हानि से नहीं बचा सकते. अब तुम ही बताओ, धवल, मैं क्या करूं?’’ रेणु ने पस्त मन से पूछा.

‘‘अब तुम्हें कुछ करने या परेशान होने की जरूरत नहीं है. जो भी करना है, अब मैं सोचसमझ कर करूंगा. फिलहाल तो चलो, आराम किया जाए,’’ धवल ने रेणु को बांहों में भर कर पलंग पर लिटा दिया.

अगले रोज धवल ऋषि से मिला.

‘‘भाभी को कह कि यह टेप रिकार्डर हरदम अपने पास रखें और जब भी रतन का फोन आए, इसे आन कर दें, ताकि वह जो भी कहे इस में रिकार्ड हो जाए,’’ ऋषि ने सब सुन कर एक छोटी सी डिबिया धवल को पकड़ाई, ‘‘फिर रतन को देने के लिए जो भी पैसा बैंक से निकाले उन नोटों के नंबर वहां दर्ज करवा दे जिन की बुनियाद पर हम पुलिसकर्मी बन कर उसे ब्लैकमेल के जुर्म में गिरफ्तार करने का नाटक कर के उसे इतना डराएंगे कि वह फिर कभी भाभी के सामने आने की हिम्मत नहीं करेगा. उस के पकड़े जाने पर उस के डाक्टर बाप की इज्जत या प्रेक्टिस की साख पर असर नहीं पड़ेगा?’’

‘‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. रेणु के तजरबे के सुझाव ने खुद रेणु को फंसा दिया था पर लगता है तुम्हारा रतन को डराने का तजरबा सफल रहेगा.’’

‘‘होना भी चाहिए, यार. भाभी अपने गलत सुझाव के लिए काफी आर्थिक और मानसिक यातना भुगत चुकी हैं.’’

 

 

वृक्ष मित्र: क्यों पति से ज्यादा उसे पेड़ से था प्यार

ससुराल में पति, सास और ससुरजी के बाद मुझेचौथे सब से प्रिय अपनी छत पर दाना चुगने आने वाले मुक्त मेहमान तोते और गौरैया थे. उस के बाद 5वें नंबर पर यह नीम का पौधा था. यह मेरा इकलौता पुरुष मित्र है.

इस पौधे को मैं ने नीम के बीज से अपने गमले में तैयार किया था. मैं प्रतिदिन इसे अपना स्पर्श और पानी देती हूं, इस की सुखसुविधा का खयाल रखती हूं.

6 माह पहले हमारी शादी हुई थी. यह समय हम ने रूठनेमनाने में बरबाद कर दिया. कोरोना महामारी के कारण पिछले 1 माह से अपने डाक्टर पति योगेश से एक क्षण के लिए नहीं मिली थी. कोरोना के मरीजों की देखभाल में व्यस्त थे.

आज मुझेअपना अकेलापन बहुत बुरा लग रहा था. मैं अपनी विरहपीढ़ा सह नहीं पा रही थी. अपने अकेलेपन से ऊब कर ही मैं ने नीम के इस पौधे से दोस्ती की थी.

यह पौधा मुझेप्रतिदिन ताजा, मुलायम,

हरी पत्तियां देता है. उन्हें चबा कर मैं अपने

शरीर से जहरीले पदार्थों को निकाल कर

तरोताजा महसूस करती हूं. नीम एक अच्छा ऐंटीऔक्सीडैंट है. अब यह बड़ा हो रहा था. कुछ दिनों में यह गमला और घर उस के लिए छोटा पड़ने लगेगा.

शादी के तुरंत बाद पहले भी  मैं ने एक नीम का एक पौधा तैयार किया था. मेरे पति ने उसे मुझ से मांग कर मैडिकल कालेज में अपने औफिस के प्रांगण में लगा दिया था. कुछ दिनों तक उस के हालचाल मुझेदेते रहे, पर अब उस नीम के पौधे से मेरा कोई संपर्क नहीं है.

इस बार अपने वृक्ष मित्र को अपने से

अलग नहीं होने दूंगी. पुरुष अपनी पत्नी के

पुरुष मित्रों के प्रति कुछ ज्यादा ही शंकालू होते

हैं. मेरे इकलौते पुरुष मित्र को मुझ से अलग

करने के कारण मुझेअपने पति योगेश पर बहुत गुस्सा आ रहा था. यदि वे अभी मेरे निकट होते तो मुझेउन को अभी के अभी कमरे में ले जा कर बिस्तर पर पटक देना था और फिर उन से बदला लेना था. आगे की घटना के बारे में कल्पना करते हुए मेरा चेहरा रोमांच से लाल पड़ गया.

अगली सुबह अपने वृक्ष मित्र नीम के

पौधे की अतिरिक्त टहनियों को मैं ने काट दिया और उस को बोनसाई बनाना शुरू कर दिया. इस बार मैं नीम के पौधे को बड़ा होने से रोकूंगी. अपनी हैसियत और आकार के बराबर रहने दूंगी दोस्ती के लिए समानता बहुत आवश्यक है.

मेरे पति योगेश झंसी मैडिकल कालेज के कोरोना वार्ड के इंचार्ज थे. ड्यूटी खत्म होने पर भी उन्हें होटल के कमरे में क्वारंटीन रहना पड़ता था. मैं बेसब्री से उन की ड्यूटी खत्म होने का इंतजार कर रही थी. जैसे ही वे होटल के कमरे में आते थे, हमारी वीडियो चैट शुरू हो जाती. मेरी कोशिश होती थी कि उन्हें जल्द से जल्द सैक्सुअली रिलीज कर दूं. मुझेडर था कि कहीं मेरी अनुपस्थिति के कारण वे किसी खूबसूरत नर्स के प्रेमजाल में न पड़ जाएं.

मेरी एक सहेली ने लंबे समय के लिए पति से दूर अपने मायके आते समय पति को व्यस्त रखने के लिए ‘फ्लैश लाइट बाइब्रेटर’ गिफ्ट दिया था. मैं ने भी और्डर कर दिया था, लेकिन आने में अभी देर लग रही थी.

आज सुबह मुझेनीम की पत्तियों को मुंह में रखते ही थूक देना पड़ा. आज नीम की पत्तियों का स्वाद कुछ ज्यादा कड़वा प्रतीत हो रहा था. जब मैं ने यह बात योगेश को बताई तो उन्होंने इसे मेरा वहम बताया. उन का कहना था कि एक पौधा कैसे इतनी जल्दी पत्तियों का स्वाद परिवर्तित कर सकता है?

हमारे शहर में भयावह तरीके से कोरोना फैला हुआ था. किसी न किसी कारण योगेश

की रोज अखबार में फोटो के साथ तारीफ

छपती थी. ससुरजी तुरंत उस अखबार को मेरे पास भेज देते. शाम होने पर उन की तसवीर को काट कर मैं 2 बार चूमती हूं, फिर उसे अपने ब्लाउज में रख लेती.

आज योगेश को कोरोना वार्ड में इलाज करते हुए 50 दिन हो चुके थे. पूरा स्टाफ 15 दिन काम कर के बदल हो जाता था, पर योगेश ने छुट्टी लेने से साफ इनकार कर दिया था. सिद्धांतवादी जो ठहरे मानो इन के बिना कोरोना के मरीजों का ठीक से इलाज नहीं हो पाएगा.

हमारे जिले की कोरोना प्रभावितों की मृत्यु दर पूरे प्रदेश में सब से कम थी, इस बात से खुश हो कर मुख्यमंत्री महोदय ने उन की प्रशंसा की थी. अखबार में उन का फोटो छपा था. उन्होंने वही नेवी ब्लू शर्ट पहनी थी जो मैं ने हनीमून पर उन्हें नैनीताल के माल रोड पर अपनी विदाई के पैसों से खरीद कर दी थी. मैं खुशी से फूली न समा रही थी.

नहाते हुए मुझेअपने हनीमून के मजे याद आ गए. मेरी मां कहा करती हैं कि हमें पूर्णत: नग्न हो कर स्नान नहीं करना चाहिए, जल देवता का अपमान होता है. शादी से पहले मैं गाउन पहन कर ही नहाती थी, लेकिन शादी के बाद हनीमून पर योगेश ने मेरी यह प्रतिज्ञा तुड़वा दी. कड़कड़ाती सर्दी में हम लोग बहुत ही बेशर्मी से 1 घंटा बाथटब में नहाए थे.

साबुन की धार वक्ष पर गोलगोल घूम कर नीचे बढ़ते हुए नाभि को भरने लगी. 10 सैकंड तक नाभि को भरने के पश्चात जांघों की ओर बहने लगी. योगेशजी कहते हैं कि मेरी बैलीबटन मेरे शरीर का सब से आकर्षक हिस्सा है.

बाहर मुख्य दरवाजे पर ससुरजी राहुल से बात कर रहे थे. ससुरजी कालेज में कैमिस्ट्री के प्रोफैसर पद से रिटायर्ड हुए थे. उन का एक पुराना छात्र राहुल इन दिनों हमारी जरूरत का सामान बाजार से खरीद कर हमें दे जाता था. राहुल और उस के दोस्त लोगों की सहायता के लिए यह काम स्वेच्छा से कर रहे थे. आज राहुल ससुरजी से किसी परिचित के लिए मैडिकल कालेज में वैंटिलेटर के लिए सिफारिश करने के लिए कह रहा था.

ससुरजी ने उसे प्यार से समझया, ‘‘लोगों को जरूरत के हिसाब से उन की स्थिति और बचने की उम्मीद को देख कर वैंटिलेटर दिया जा रहा है, फिर भी तुम्हारी बात मैं योगेश तक पहुंचा दूंगा.’’

ससुरजी और मुझेराहुल की यह सिफारिश के लिए कहना बिलकुल अच्छा नहीं लगा. योगेश तो सोर्ससिफारिश की बात सुनते ही उसी प्रकार भड़क जाते हैं जैसे सांड़ लाल कपड़े को देख भड़कता है. सांड़ की बात से ध्यान आया कि योगेश भी कई दिनों बाद मिलें तो सांड की तरह हो जाते थे. यह सोचते हुए मेरे गाल शर्म से लाल पड़ गए.

आज मैं ने नीम के पत्तियों के और अधिक कड़वा हो जाने की बात अपनी सासूमां को बताई. मां मुझेयोगेश की तुलना में ज्यादा अच्छे से जानती हैं. योगेश के साथ ज्यादा वक्त मैं या तो सिर्फ सोई थी या रोमांटिक बातें होती थीं. हम एकदूसरे के लिए चांदसितारे तोड़ लाने के झठे वादे करने में समय बरबाद करते थे.

वे सासूमां थीं जिन के साथ लोकाचार या व्यावहारिक बातें होती थीं. लौकडाउन ने सासूमां को मेरा और अच्छा दोस्त बना दिया था. हम एकदूसरे को भलीभांति जानने लगे थे. मां जानती थीं कि न तो मैं झठ बोलती हूं और न ही मेरे अवलोकन गलत होते हैं. वे हमेशा मेरे पक्ष में बोलती थीं. यहां तक कि उस के लिए वे अपने डाक्टर बेटे को भी डांट देती थीं.

योगेश का ध्यान आते ही एक बार फिर

मेरे जिस्म में करंट फैल गया. बुरा सा मुंह बना कर मैं मन ही मन बड़बड़ाई कि अपनी पत्नी की फिक्र नहीं हैं उन्हें… आने दो अच्छा मजा चखाऊंगी. यह योजना बनाते हुए मुझेगुदगुदी

होने लगी.

एक बार मां ने कह दिया, ‘‘यह नीम का पौधा तुझ से नाराज है. तुझेउसे गमले या अपने छोटे से घर में कैद रखने की योजना नहीं बनानी चाहिए.’’

उन का कहना था कि नीम को भी अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने देना चाहिए.

उन्होंने आदेश दिया, ‘‘दूर से दोस्ती रखो इस विशाल वृक्ष से. इस की सुंदरता इस की विशालता में है.’’

आज 65वां दिन था, भोजन के अतिरिक्त टीवी देखने के लिए मैं बैठक में सासससुर के पास कुछ वक्त गुजारती थी. ससुरजी आज के समाचार को ले कर पत्रकार के साथसाथ योगेश पर भी बहुत नाराज थे कि ऐसी समाजसेवा किस काम की?

किसी पत्रकार ने योगेश पर आरोप लगाया था कि रेमडेसिविर, प्लाज्मा, फेवी

फ्लू और वैंटिलेटर में गोलमाल हो रहा है, औक्सीजन खरीदने में घपला हो रहा है.

आज ससुरजी ने बहुत ही गंभीर हो कर मुझ से कहा, ‘‘पूर्णिमा, तुम योगेश से छुट्टी लेने को क्यों नहीं कहती?’’

ससुरजी ने बताया, ‘‘तुम्हारी सासूमां शादी के बाद मुझेविश्वविद्यालय के 30 दिन के ओरिएंटेशन कार्यक्रम और 15 दिन के रिफ्रैश कार्यक्रम भी अटैंड नहीं करने देती थीं और एक तुम हो योगेश 70 दिनों से बाहर है, फिर भी तुम वापस नहीं बुला पाई.’’

मैं ने बहुत ही धीमे स्वर में कहा, ‘‘मैं

मां की तरह खूबसूरत नहीं हूं… वे मेरे बस में

नहीं हैं.’’

मेरे जबाब पर सभी हंसने लगे. हम सभी जानते हैं कि इस का कारण मेरे रूपयौवन की कमी नहीं है.

योगेश को पकड़ कर घर खींच लाने की पापाजी की बात ने मुझेबहुत ही रोमांचित कर दिया था. मैं स्वयं को इंग्लिश मूवी की लड़कियों की तरह अनुभव करने लगी जो काले चमड़े की चोली और हाफ पैंट में एक हंटर लिए रहती हैं, गोल टोपी पहनती हैं, उन के पुरुषों के गले में गुलामी का पट्टा होता है. वे पुरुष उन के सैक्स स्लैव (काम नौकर) होते हैं. उन पुरुषों का कार्य सिर्फ अपनी मालकिन को खुश रखना है.

आजकल में योगेश आ जाएंगे, यह सोच कर आज मैं ने बैक्सिंग का प्लान बनाया था. दोपहर का भोजन जल्दी निबटा कर शक्कर, शहद, नीबू के रस और रोजिन को धीमी आंच में पका कर मैं कमरे में आ गई. हाथपैरों के बाल मैं वैक्सिंग से हटाती हूं और कांख तथा अन्य कोमल जगहों के बाल रेजर से हटा देती हूं. यदि योगेश  होते तो वे अपने ट्रिमर से पहले उन्हें कम कर देते. ट्रिमर का कंपन मुझेउत्तेजित कर देता और हम बैक्सिंग छोड़ प्यार करने लगते. ऐसा दसियों बार हो चुका होगा.

सासूमां नीम के पौधे को बोनसाई बनाने की मेरी योजना के सख्त खिलाफ थीं. शाम को सासूमां के बालों में नारियल के तेल की मालिश करते समय उन्होंने मुझेफिर से समझया कि विशाल वृक्ष के विकास को बाधित करने से मुझेप्रकृति का श्राप मिलेगा. उन की बात से मैं जरा भी सहमत नहीं थी. मैं ने उपेक्षा में सिर हिलाया तो मां होने के नाते तुरंत उन्होंने इस बात को समझ लिया होगा.

रात को बेलबूटे लगी हुई बेहद वल्गर नाइटी में मैं ने योगेश से वीडियो कौल चालू की. मैं योगेश को अपने चमकदार नितंब, रेजर फेरी हुई घाटी और फीते से बंधे हुए उभारों के दर्शन करा रही थी कि मां अचानक से कमरे में आ गईं. मैं ने बड़ी मुश्किल से तौलिए से अपने को ढकते हुए काल बंद कर दी.

मां ने बहुत ही प्यार से मुझेसहलाते हुए कहा, ‘‘रागिनी, एक तरफ तुम छत पर पक्षियों को दानापानी रख कर इतना नेक काम करती हो तो दूसरी ओर एक विशाल वृक्ष को अपना गुलाम बना कर क्यों रखना चाहती हो?’’

जातेजाते मुसकराते हुए उन्होंने मुझेडांटा, ‘‘योगेश से बात करते वक्त दरवाजा बंद रखा करो. पतिपत्नी की बातें चारदीवारी से बाहर नहीं निकलनी चाहिए.’’

लौकडाउन को आज 3 महीने हो चुके थे. मेरे जिस्म का 1-1 हिस्सा योगेश के स्पर्श को तरस रहा था. अपनी उंगलियों और कृत्रिम उपकरणों के झठे स्पर्श में अब मन नहीं लगता था. शादी के बाद हम ने अब तक गर्भनिरोधक उपाय किया था. सुहागरात के दिन योगेश भूखेप्यासे की तरह मुझ पर टूट पड़े थे. आज के आधुनिक युग में लड़केलड़कियां स्कूल छोड़ने तक अपने कौमार्य को सुरक्षित नहीं रख पाते, लेकिन हम दोनों अपवाद थे. हम अपना कौमार्य अपने जीवनसाथी के लिए बचा कर रखे थे और अब अपनी सारी आकांक्षाओं को पूरा करना चाहते थे.

आज मुझेहमारी परिवार नियोजन योजना का पछतावा हो रहा था. कोरोना का

इलाज करते हुए योगेश को यदि कुछ हो गया तो क्या होगा?  इस लौकडाउन से पहले काश मैं ने गर्भधारण कर लिया होता. इन बातों को सोचते हुए मेरी आंखों से आंसू टपकने लगे.

उस शाम योगेश ने मेरे संशय को भांप कर  मुझेआश्वासन दिया, ‘‘मैं अपने शुक्राणुओं को कल ही सीमन बैंक में सुरक्षित करवा दूंगा. मम्मीपापा के आशीर्वाद के कारण मुझेकुछ नहीं हो सकता. तुम निश्चिंत रहो. तुम्हारा प्यार मुझेयमराज के दरबार से वापस खींच लाएगा. हम पूरी सावधानी रखते हैं. पूरा समय पीपीई किट पहने होते हैं. समयसमय पर सैनिटाइज करते हैं, भाप लेते हैं.’’

आज के समाचार के अनुसार, ‘‘मैडिकल कालेज के कोरोना वार्ड के इंचार्ज डा. योगेश ने समस्त मैडिकल स्टाफ के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत करते हुए 15 दिन का ब्रेक लेने से लगातार इनकार करते रहे हैं. लगातार इलाज करते हुए आज उन का 100वां दिन है.’’

मुझेयोगेश पर बहुत गुस्सा आ रहा था, ‘‘इन जनाब को हीरो बनने का चसका लगा हुआ है.’’

मुझेसमझ नहीं आ रहा था कि अपने इन हीरो के लिए अपनी जान दूं या इन की जान ले लूं. योगेश यदि मेरे पास होते तो मैं उन के गालों को प्यार से ही सही पर काट लेती.

आज मैं ने अपने बाल धोए थे. सासससुर को पनीर के पकौड़े और चाय बनाने

के बाद नाइटगाउन में छत पर टहल रही थी. माटी की महक के साथ ठंडी हवा चल रही थी. लगता था आसपास कहीं मौनसूनपूर्व बारिश हुई है.

हवा का झंका गाउन को उड़ाता हुआ एक तरफ ले गया. हवा के तेज झंके मेरे कांख, वक्ष, कलाई, पेट, कूल्हों, कटि प्रदेश, जांघों और पिंडलियों को इस प्रकार सहला रहे थे जैसे योगेशजी की हथेली मुझेस्पर्श कर रही हो.

हवा के एक बेहद तेज झंके ने मुझेअनावृत कर दिया. मैं लगभग अर्द्धनग्न हो घूमतेघूमते मैं अपने पुरुष मित्र नीम के पौधे के पास आ गई. आज मुझेयह मुसकराता हुआ महसूस हो रहा था. मुझेलगता है कि इसे साथ रखने की मेरी योजना के चलते अब यह मुझ से खुश है. अफसोस कि लौकडाउन खुलते ही इस नीम के पौधे को भी मुझेयोगेश के साथ भेज देना होगा. हमारे घर में मां के आदेश का आंख बंद कर पालन जो किया जाता है.

मैं ने निश्चय किया कि योगेश के वापस आने के बाद एक बार फिर मां को समझने की कोशिश करूंगी कि पत्तियों की यह बढ़ी हुई कड़वाहट उस की खुशी का प्रतीक है. नीम की पहचान उस की कड़वाहट ही है न कि मिठास. यह नीम के पौधे के द्वारा अधिक लीमोनौयड  बनाने के कारण हुआ होगा. नीम अपने लीमोनौयड रसायन के कारण ही इतना उपयोगी है. नीम, लीमोनौयड के कारण ऐंटीऔक्सीडैंट का काम करता है, जिस से यह हानिकारक पदार्थों से मानवशरीर को मुक्त करता है. मेरी इन तर्कपूर्ण बातों को जान कर शायद सासूमां नीम का पौधा घर पर रखने को मान जाएं. यह सोचते हुए मैं ने अपने शयनकक्ष में प्रवेश किया और कलैंडर पर 105वें दिन को चिह्नित कर दिया.

108वां दिन, आज कूरियर से मेरा खिलौना, जीस्पौट, रेविट बाईब्रेटिंग डेल्डो आया था. पैकेट से निकाल कर बेसब्री से योगेश की वीडियो कौल का इंतजार करने लगी.

आज 111वां दिन, हमारे घर उत्सव जैसा माहौल था. मैं, मां और पापाजी घर के कोनेकोने को साफ कर रहे थे. शहर में कोरोना के गंभीर मरीज अब कम होने लगे थे. आईसीयू की वेटिंग खत्म हो गई थी. दोपहर में फोन आया था कि योगेशजी 2-4 दिनों में लौट रहे हैं.

मैं ने मन ही मन संकल्प किया कि योगेश के घर लौटने के बाद 1 हफ्ते तक मैं उन्हें अपना शरीर छूने नहीं दूंगी. हालांकि उन का पूरा खयाल रखूंगी, उन के पैर दबाऊंगी, उन के सिर की मालिश करूंगी, उन की हर फरमाइश पूरी करूंगी, लेकिन सैक्स नहीं करने दूंगी.

जब वे अपनी गलती 10 बार मानेंगे, 10 बार मुझेमनाएंगे तो ही उन्हें अपने कपड़े उतारने दूंगी.

शाम को फोन आया कि योगेशजी घर आने के बाद 5 दिनों तक घर के पीछे नौकर के लिए बने हुए कमरे में रहेंगे. उन से शारीरिक दूरी बना कर रखनी होगी, 5 दिन कोई भी उन के पास नहीं जाएगा. उन्होंने बताया कि शहर में कोरोना भले कम हुआ है, लेकिन कोरोना के खिलाफ जंग अभी खत्म नहीं हुई है.

125वें दिन योगेश से मेरा मिलन ठीक उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार मैं ने चाहा था. नीम का पेड़ थोड़ा जैलसी में मुरझ सा गया लग रहा था. कोविड में जो बीमार हुए उन्होंने तो बहुत सहा पर जिन्होंने अस्पतालों में उन की देखभाल की उन के बारे में उन की मेरी जैसी युवा नईनवेली पत्नियां ही जानती हैं.

स्केअर क्रो: क्यों सुभाष को याद कर बिलख पड़ी थी मीनाक्षी

सुभाष की कंजूसी की आदत के चलते पत्नी मीनाक्षी ही नहीं, बल्कि रिश्तेदार भी नाराज रहते, लेकिन उन की आंख बंद होते ही मायकेससुराल के लोग उन के घर की परिक्रमा करने लगे. और तब मीनाक्षी, सुभाष को याद कर बिलख पड़ी थी.

सुभाषजी की आत्मा की शांति केलिए आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में शास्त्रीजी का प्रवचन वहां बैठे सभी लोग ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने पौराणिक कथाओं को जोड़ कर अपने प्रवचन को काफी दिलचस्प बना दिया था.

मीनाक्षी चाह कर भी उस प्रवचन को ध्यान से नहीं सुन पा रही थी. अपने दिवंगत पति की माला पहनी तसवीर को देखतेदेखते उस का मन बारबार अतीत की यादों में खोता जा रहा था.

‘सुभाष की बहू चांद सी सुंदर और कितनी पढ़ीलिखी है. इस सिरफिरे की तो सचमुच लाटरी निकली है.’ लोगों के मुंह से निकली इस तरह की बातें मीनाक्षी के कानों में 32 साल पहले शादी के पंडाल में ही पड़ने लगी थीं.

लोग सुभाष को सिरफिरा क्यों बता रहे थे, इस का कारण मीनाक्षी की समझ में जल्दी ही आ गया था.

बढि़या पहनने और चटपटा खाने के अलावा उस के आरामपसंद पति को किसी अन्य बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी. न तरक्की कर के आगे बढ़ने की चाह, न कोई सपना, न कोई महत्त्वा- कांक्षा. हां, अपने अच्छे नैननक्श व प्रभावशाली कदकाठी का घमंड होने के साथसाथ उस में पति होने की अकड़ जरूर बहुत ज्यादा थी.

वे अपनी नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते थे. क्या मजाल जो घर में कोई काम उन की मरजी के खिलाफ हो जाए. क्लेश और झगड़ा कर के किसी की भी नाक में दम कर देना उन के बाएं हाथ का खेल था.

शादी के वक्त तो मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली मीनाक्षी की तनख्वाह उन्हीं के बराबर थी. फिर सिर्फ वही तरक्की करती चली गई. हर 2-3 साल बाद उस का प्रमोशन हो जाता. दूसरी तरफ स्कूल मास्टर सुभाषजी को पगार में होने वाली सालाना बढ़ोतरी से ज्यादा कुछ और नहीं चाहिए था और न ही मिला.

‘मेरे सामने कभी ऊंचा बोलने की कोशिश मत करना. अगर कभी मेरे सिर के ऊपर से रास्ता बनाने की कोशिश की तो 1 मिनट में नौकरी छुड़वा कर घर बिठा दूंगा,’ इस तरह की धमकी अपने से ज्यादा कमाने वाली मीनाक्षी को वे आएदिन जरूर दे देते थे.

मीनाक्षी उन से ज्यादा कमा रही है, इस कारण सुभाषजी रिश्तेदारों व परिचितों के सामने पत्नी को कुछ ज्यादा ही दबा कर रखने की कोशिश करते. अगर खराब मूड में हों तो चार लोगों के बीच पत्नी को अपमानित करने का भी वे मौका नहीं चूकते थे. ऐसा करने से उन की हीनभावना ज्यादा उभर कर सामने आती है, यह उन की समझ में कभी नहीं आया.

कमाया तो उन्होंने ज्यादा नहीं, पर घर में आते 1-1 रुपए का हिसाब वे ही रखते. कहीं भी जरूरत से ज्यादा खर्च करने की बात सुन कर उन के तेवर चढ़ जाते. उन के कंजूस स्वभाव के कारण दोनों के सामूहिक खाते में रकम तो तेजी से बढ़ती गई, पर घर के सदस्यों को कभी कोई ज्यादा खुशी नहीं मिल पाई. घर में सुखसुविधाओं की चीजें बढ़ती गईं पर हर चीज को खरीदने से पहले क्लेश होना लाजिमी था.

उन की शादी के 2 साल बाद बड़ा बेटा संजीव आ गया. मीनाक्षी के न चाहते हुए भी 2 साल बाद राजीव पैदा हो गया. सुभाष परिवार नियोजन के लिए किसी भी किस्म की जहमत उठाने को तैयार नहीं थे, इसलिए मीनाक्षी ने राजीव के होने के समय अपनी ही नसबंदी करा ली थी.

हर प्रमोशन के साथ आफिस में मीनाक्षी की जिम्मेदारियां बढ़ती चली गईं. उसे देर तक दफ्तर में रुकना पड़ जाता था. उस के लिए घर और आफिस की जिम्मेदारियां संभालना बहुत कठिन हो जाता अगर सुभाष ने घर संभालने में उस का पूरा हाथ  न बटाया होता. अपने पति के इस इकलौते गुण की तारीफ मीनाक्षी हर आएगए के सामने दिल से करती थी.

सुभाष ने घरगृहस्थी के काम निबटाने में अच्छी कुशलता हासिल कर ली थी. सुबह बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तैयार करने से ले कर उन्हें पढ़ाने, खाना खिलाने, कपड़े बदलवाने जैसे सभी काम वही करते थे. वे खाने के शौकीन तो थे ही, इसलिए धीरेधीरे उन्होंने कई स्वादिष्ठ चीजें बनाने में महारत हासिल कर ली थी.

बड़े हो रहे बच्चों को अनुशासन में रखने के लिए वे गुस्से का इस्तेमाल खूब करते. इस का यह फायदा तो जरूर हुआ कि दोनों बेटे हर परीक्षा में अधिकतर प्रथम आते, पर अपने पिता को देखते ही उन का सहम सा जाना मीनाक्षी को दुखी कर जाता था.

वह कभी इस बाबत सुभाष से कुछ कहती तो वे बड़े रूखे से लहजे में जवाब देते, ‘हम दोनों के खूनपसीने की कमाई को आजकल चल रही फैशन की अंधी दौड़ में बरबाद करने के सपने मैं अपने दोनों बेटों को कभी नहीं देखने दूंगा. तुम भी इस मामले में उन्हें किसी भी तरह की शह देने की कोशिश मत करना.’

संजीव और राजीव को छोटी उम्र में ही कुछ इस तरह के लैक्चर सुनने को मिलने लगे थे, ‘अगर तुम्हें कोई भी कीमती या खास चीज चाहिए तो पहले परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर लाओ और जो भी काम करने को दिया जाता है उसे जिम्मेदारी से निभाओ. इस घर में तुम्हें मुफ्त में कुछ नहीं मिलेगा और न लाड़प्यार से बिगाड़ा जाएगा, ये अच्छी तरह से समझ लो तुम दोनों.

‘ज्यादा दिखावा करना मूर्खतापूर्ण होने के साथसाथ बच्चों के अंदर गलत आदतें और संस्कार डालना है. हम ज्यादा दिखावा करेंगे तो दुनिया भर के मंगते हमारे घर में जमा होना शुरू हो जाएंगे. अपनी गांठ में पैसा बचा कर रखना समझदारी है. तुम अपने आफिस को संभालो और घर व बच्चों की चिंता मुझे करने दो. दुनियादारी की समझ है नहीं और चली हैं मुझे समझाने.’ ऐसे मौकों पर सुभाष गुस्सा हो कर मीनाक्षी की बोलती बंद कर देते थे.

सुभाष की तीखी जबान और कंजूसी की आदत के चलते घर के लोग ही नहीं, बल्कि हर रिश्तेदार भी उन से नाराज रहता था. तगड़े बैंक बैलेंस ने उन के अंदर किसी से कोई भी उलट या अपमानजनक बात कह देने का दुस्साहस पैदा कर दिया था.

एक बार मीनाक्षी के बड़े भैया ने 50 हजार रुपए अपने जीजाजी से मांगे थे. मीनाक्षी अपने भाई की सहायता करना चाहती थी पर सुभाष ने साफ इनकार कर दिया.

अपने भाई के दबाव में आ कर मीनाक्षी ने जब इस विषय पर कहनासुनना जारी रखा, तो एक दिन सुभाष ने अपने साले को ससुराल में ही जा कर भलाबुरा कह दिया था.

‘साले साहब, अपनी बहन को मेरी पीठ पीछे अगर किसी तरह की उलटी पट्टी पढ़ा कर मेरा माल खींचने की कोशिश की तो ठीक नहीं होगा. मेरा इतना कहना आप के लिए काफी होना चाहिए कि दूसरों से अपनी इज्जत कराना इनसान के अपने हाथ में होता है,’ सुभाष की इस धमकी का यह असर हुआ कि उन के साले ने करीब 5 साल तक उन के घर की दहलीज नहीं लांघी थी.

सुभाष के अपने छोटे भाई का बिजनेस हमेशा घाटे में चलता था. उसे अपने बड़े भाई से कोई आर्थिक सहायता मिली भी तो कर्जे के रूप में मिली और उसे 1-1 पाई लौटानी पड़ी थी. हर महीने अगर वह तय राशि लौटाने नहीं आता था तो सुभाषजी उस के घर पहुंच कर उसे डांटने और झगड़ा करने से नहीं चूकते थे.

सुभाषजी की कंजूसी का यह फायदा हुआ कि उन्होंने बड़ी जल्दी 200 गज के प्लाट पर एकमंजिला मकान बनवा लिया था. मकान बनवाने के 2 साल बाद कार भी ले ली थी. अपने दोनों बेटों को इंजीनियर बनाने में किसी आर्थिक कठिनाई का सामना उन्हें नहीं करना पड़ा था.

मीनाक्षी मन मार कर उन के साथ जी रही थी. उस का घूमनेफिरने और लोगों से मिलनेजुलने का शौक अपने पति के आलसी व तीखे स्वभाव के कारण कभी पूरा नहीं हो सका था. उसे हमेशा लगता था कि वह अपने पति के अजीबोगरीब व्यक्तित्व के कारण अपनी सहेलियों व सहयोगियों के सामने शर्मिंदा होती है.

शास्त्रीजी ने जब पगड़ी की रस्म शुरू करने की घोषणा की तो मीनाक्षी झटके से अतीत की यादों से निकल आई थी.

कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद कई औरतें विदा लेते हुए मीनाक्षी के गले लग कर रोईं, पर मीनाक्षी को एक बार भी दिल से रोना नहीं आया. जीवनसाथी हमेशा के लिए साथ छोड़ कर चला गया है, यह तथ्य उसे बहुत ज्यादा पीड़ा नहीं पहुंचा रहा था. उसे लग रहा था कि किसी के भी दिल में अपनी जगह न बना पाने वाला इनसान अपनी पत्नी के दिल से भी खुद को दूर रखने में सफल रहा था.

सब मेहमानों के चले जाने के बाद घर के करीबी लोग रह गए थे. रात 10 बजे के करीब वह अपने कमरे में आराम करने को लेटी ही थी कि उस के बड़े भैया मिलने आ पहुंचे.

‘‘मीनू, तुम्हें जो भी इकट्ठा मिला है या मिलेगा, उसे संभाल कर रखना जरूरी है. मैं अपने अकाउंटेंट को कल ही यहां भेज देता हूं. वह बैंक और बीमे आदि के सारे कागज देख लेगा,’’ बड़े भैया ने फौरन काम की बात करनी शुरू कर दी थी.

‘‘अभी मेरा दिमाग बिलकुल काम नहीं कर रहा है, भैया. उसे कुछ दिन बाद भेज देना,’’ थकी हुई मीनाक्षी को न जाने क्यों उन का इस वक्त रुपएपैसों की बात करना अच्छा नहीं लगा था.

‘‘वह रविवार को आ जाएगा. बड़े भाई के होते हुए तुम्हें किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है,’’ बड़े भैया ने उस के सिर पर हाथ रख कर हौसला बंधाया और फिर कमरे से बाहर चले गए थे.

उन के जाते ही मीनाक्षी का देवर सचिन उस की इजाजत ले कर कमरे के अंदर आ गया.

सामने पड़ी कुरसी पर बैठने के बाद सचिन ने संजीदा लहजे में बोलना शुरू किया, ‘‘भाभी, अब इस घर में अकेले रहने में बहुत समस्याएं आएंगी. अगर रातबिरात किसी तरह की जरूरत पड़ी तो आप किसे पुकारोगी?’’

‘‘हमारे पड़ोसी अच्छे हैं और…’’

‘‘भाभी, पड़ोसी पड़ोसी होते हैं,’’ सचिन ने आवेश भरे लहजे में उसे टोक दिया, ‘‘वे अपनों की जगह कभी नहीं ले सकते हैं. आप मेरी एक सलाह मानोगी?’’

‘‘कैसी सलाह?’’

‘‘सीमा और मैं यहां आप के पास आ कर रहना शुरू कर देते हैं. संजीव और राजीव बाहर नौकरी कर रहे हैं और मुझे नहीं लगता कि वे कभी सैटल होने के लिए यहां लौटेंगे. मैं छत पर 2 कमरों का सैट अपने खर्चे से बनवा देता हूं. हमारे यहां आ कर साथ रहने से आप को सहारा हो जाएगा. हमारे बच्चों के स्कूल यहां से बहुत पास में हैं, सो यहां शिफ्ट करने में हमारा फायदा भी है.’’

‘‘मैं संजीव और राजीव से सलाह कर के तुम्हें जवाब देती हूं,’’ सिर में तेज दर्द शुरू हो जाने के कारण मीनाक्षी को बोलने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘आप अपनों का सहारा मिलने की बात पर जोर दोगी, तो वे कमरे बनवाने की बात जरूर मान जाएंगे,’’ उन्हें ऐसी सलाह दे कर सचिन बाहर चला गया था.

सचिन चाचा के जाते ही उस के दोनों बेटे संजीव और राजीव एकसाथ कमरे में आ गए थे. दोनों ही टैंशन और हिचकिचाहट का शिकार बने नजर आ रहे थे.

‘‘तुम दोनों मुझ से कोई खास बात करने आए हो न?’’ मीनाक्षी ने यह सवाल पूछ कर उन्हें अपने मन की बात फौरन कह देने की सुविधा उपलब्ध करा दी थी.

‘‘मम्मी, अब आप के यहां अकेले रहने की कोई तुक नहीं है. हम दोनों को लगता है कि अब इस मकान को बेच कर आप को हमारे साथ रहना शुरू कर देना चाहिए,’’ कहते हुए राजीव भावुक हो उठा.

‘‘अब आफिस में और ज्यादा खटने की जरूरत भी नहीं है. आप जल्दी रिटायरमैंट लेने की अरजी दे डालो,’’ यह सलाह संजीव ने दी.

‘‘अभी तो मेरी सर्विस के 2 साल बचे हैं. शायद 1 और प्रमोशन भी मिल…’’

‘‘मम्मी, अब प्रमोशन के बदले आप को अपनी सेहत का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए. पूना में मेरे घर के पीछे खाली जमीन पड़ी है. उस की देखभाल कर आप अपना बागबानी का शौक पूरा करो और अपना ब्लड प्रैशर भी ठीक रखो.’’

‘‘आप को यह जगह छोड़ कर अब हमारे पास रहना शुरू करना ही पड़ेगा,’’ संजीव ने जब दबाव बनाने को अपने मुंह से निकले हरेक शब्द पर बहुत जोर डाला तो मीनाक्षी मन ही मन खीज उठी थी.

कुछ पल सोचविचार में खोए रहने के बाद वह झटके से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘चलो, ड्राइंगरूम में एकसाथ बैठ कर कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर फैसला कर लेते हैं.’’

वे दोनों बड़ी अनिच्छा से उस के पीछे ड्राइंगरूम की तरफ चल पड़े थे. मीनाक्षी ने ड्राइंगरूम की तरफ जाते हुए अपने भाई, देवर और देवरानी को भी साथ ले लिया था.

जब सब लोग बैठ गए तो मीनाक्षी ने खड़ेखड़े ही बोलना शुरू किया, ‘‘इस में कोई शक नहीं कि आप सब लोग मेरे करीबी भी हैं और शुभचिंतक भी, पर फिर भी मैं एक बात आप सभी से कहना चाहती हूं. यह अच्छी बात है कि आप सब को मेरे सुखदुख की चिंता है, पर यह भी समझ लें कि उन के जाने के बाद मैं कमजोर और असहाय नहीं हो गई हूं. जहां तक मेरा मार्गदर्शन करने की बात है तो जब मैं आंख बंद करती हूं तो वे मुझे हर उलझन को सुलझाने की सलाह देते नजर आने लगते हैं.

‘‘मेरे हित को ध्यान में रख कर आप सभी के द्वारा दी गई सारी सलाह और सुझावों के बारे में मैं एक ही बात कहना चाहूंगी. मुझ से कुछ कराने की सलाह देने से पहले आप सब यह जरूर सोचें कि अगर वे जिंदा होते तो आप की सलाह को ले कर उन की क्या प्रतिक्रिया होती.

‘‘मैं आप सब से साफसाफ कह देना चाहती हूं कि जो काम वे अपने सामने नहीं होने देते, उसे मेरे ऊपर दबाव डाल कर कराने की कोशिश न करें. वे किसी हालत में अपना पैसा किसी और को संभालने के लिए नहीं देते…न इस मकान के ऊपर 2 कमरों का सैट किसी को बनाने देते और न ही इस मकान को बेच कर अपने बेटों के पास रहने जाते.

‘‘अगर अब भी आप लोगों के पास मेरे हित का कोई ऐसा सुझाव बचता है जो उन्हें भी मान्य होता, तो कल सुबह उसे आप मुझे अवश्य बताएं. इस वक्त मैं बहुत थक गई हूं और सोना चाहती हूं. आप सब भी आराम करें. गुड नाइट.’’

एक नजर उन सभी करीबी लोगों के नाराज चेहरों पर डाल कर मीनाक्षी अपने कमरे की तरफ चल पड़ी थी. अपने दिवंगत पति के बारे में इस वक्त वह नए ढंग से सोच रही थी. उसे वे बहुत ज्यादा याद आ रहे थे.

मीनाक्षी के जेहन में एक चित्र जो बारबार उभर रहा था, वह खेतों में लगाए गए स्केअर क्रो का था. उस डरावनी सी शक्ल और बिना शरीर वाले पुतले को हवा से हिलताडुलता देख कर पक्षी खेत की फसल को नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं.

कमरे में पहुंचने के बाद अपने ‘स्केअर क्रो’ को याद कर वह पहली बार बिलखबिलख कर रो पड़ी थी.

जैसा भी था, था तो: क्या हुआ था सुनंदा के साथ

एकएककर लगभग सभी मेहमान जा चुके थे. बस सुनंदा की रमा मामी रुकी थीं. वे भी कल सुबह चली ही जाएंगी. रमा मामी से उसे शुरू से विशेष स्नेह रहा है. मामा की मृत्यु के बाद भी रमा ने सब से वैसा ही स्नेह और सम्मानभरा रिश्ता रखा है जैसा मामा के सामने था. मामी अपने विवाहित बेटे के साथ सहारनपुर में रहती हैं. अब भी रमा मामी ने ही आलोक की मृत्यु के समाचार सुनने से ले कर आज सब मेहमानों के जाने तक सब संभाल रखा था.

आलोक के भाईबहन आधुनिक व्यस्त जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर जितनी देर भी आ पाए, सुनंदा को उन से कोई गिलाशिकवा है भी नहीं. आलोक का जाना तय था. यह तो 1 महीने से उस के हौस्पिटल में रहने से समझ तो आ ही रहा था पर जैसा कि इंसान मृत्यु को चुनौती देने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देता है पर जीत थोड़े ही कभी पाता है, वैसे ही सुनंदा ने रातदिन आलोक के स्वस्थ होने की आशा में पलपल बिता दिया था.

अंतिम दिनों में ही पता चला था कि आलोक कैंसर की चपेट में है और लास्ट स्टेज है. उन के दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि मां का मुंह ही देखते रहते थे. समझ गए थे कि मां ऐसे ही परेशान नहीं हैं, इस बार कुछ होने ही वाला है और हो भी तो गया था.

आलोक को गए 2 सप्ताह हो चुके हैं. सुनंदा ने बच्चों के कमरे में झांका. रात के 11 बज रहे थे. रमा ने दोनों बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया था.

रमा ने कहा था, ‘‘बच्चो, कल से स्कूल जाना… पढ़ने में मन लगाना. मम्मी का ध्यान भी रखना और मेहनत करना. सुनंदा अपनी परेशानी जल्दी नहीं कहेगी पर तुम लोग अब उस का ध्यान जरूर रखना.’’

उन के स्कूल के सामान की व्यवस्था बच्चों के साथ मिल कर रमा ने देख ली थी.

रमा जब सुनंदा के कमरे में आई तो देखा, सुनंदा आरामकुरसी पर आंखें बंद किए लेटी सी थी. आहट पर सुनंदा ने आंखें खोलीं. रमा वहीं उस के पास बैठते हुए कहने लगी, ‘‘सुनंदा,

कल सुबह मैं चली जाऊंगी, तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां, मामी, बोलो न.’’

‘‘तुम ने आलोक के रहते हुए भी क्याक्या झेला है, मुझ से कुछ भी छिपा नहीं है, सब जानती हूं. यह तो अच्छा रहा कि तुम अपने पैरों पर खड़ी थी. आज प्रिंसिपल हो, अपनी और बच्चों की, घर की जिम्मेदारी पहले भी तुम ही उठा रही थी, अब भी तुम ही उठाओगी, पर जैसा भी था, आदमी तो था,’’ कहतेकहते रमा की आवाज में नमी आ गई, गला भी रूंध सा गया.

सुनंदा ने बस गरदन हिलाई, हां में या न में, उसे खुद ही पता नहीं चला.

मामी ने उस के सिर पर हाथ फेर कहा, ‘‘चलो, अब सो जाओ. कल स्कूल जाओगी?’’

‘‘हां, आप के जाने के बाद चली

जाऊंगी, बहुत काम इकट्ठा हो गया होगा,

आप आती रहना.’’

‘‘हां, जरूर.’’

रमा के जाने के बाद सुनंदा उठ कर बैड पर लेट गई, ‘आदमी तो था’ भाभी के इन शब्दों पर अंदर से मन कहीं अटक गया. आंखें तो बंद थीं पर मन ही मन अतीत की परत दर परत खुलने लगी.

सुनंदा को अपने विवाह के पिछले 20 बरस आंखों के आगे इतना स्पष्ट दिखे कि उन्हें महसूस करते ही उस ने अपने माथे पर पसीना सा महसूस किया.

विवाह के कुछ दिनों बाद ही उस ने अनुभव कर लिया था कि मातापिता ने बेटी को बोझ मानते हुए जितना जल्दी यह बोझ कैसे भी उतर जाए की चाह में एक निहायत कामचोर व्यक्ति के पल्ले उसे बांध दिया है. सुनंदा ने गर्ल्स स्कूल में नौकरी अपनी योग्यता के दम पर हासिल की थी और आज वह प्रिंसिपल के पद तक पहुंच गई है. दोनों बच्चों के जन्म के बाद तो वही जैसे पुरुष थी घर के लिए. आलोक उस के समझाने पर अगर कोई काम शुरू भी करता तो जल्द ही काम में कमियां निकाल उसे छोड़ देता. उसे घर में रहना, सुनंदा की तनख्वाह की पाईपाई का हिसाब रखना ही आता था.

आलोक को गांव में रह रहे अपने मातापिता से न कोई लगाव था, न भाईबहन से, क्योंकि वे सब उसे कुछ काम कर मेहनत करने की सलाह देते थे और वह उन से दूर ही रहता था. सब उसे कामकाजी पत्नी के सुपुर्द कर जैसे निश्चिंत हो गए थे. कुछ साल पहले आलोक के मातापिता भी नहीं रहे थे. सुनंदा का भी अब कोई अपना नहीं था.

सुनंदा कई बार सोचती कि इस से अच्छा तो वह कहीं अविवाहित ही जी लेती पर जब बच्चों का मुंह देखती तो इस विचार को जल्द ही दिल से दूर कर देती.

आलोक ने कई बार सुनंदा की जमापूंजी से, लोन से कई बार काम शुरू भी किया जिस में हमेशा नुकसान ही हुआ और अब सुनंदा की रहीसही जमापूंजी भी आलोक के इलाज में खत्म हो चुकी थी. घर देखना है, बच्चों का कैरियर बनाना है, कल से स्कूल जा कर पैडिंग पड़ा काम देखना है. आलोक था तब भी सब काम वही देखती थी, अब भी उसे ही देखने हैं, नया क्या है? सोचतेसोचते उस की आंख लग ही गई. काफी लंबे समय से थका तनमन भी तो आराम मांग रहा था.

अगले दिन रमा चली गई. सुनंदा ने बच्चों को स्कूल भेजते हुए बहुत कुछ

समझाया. बच्चे समझदार थे. सुनंदा भी स्कूल के लिए तैयार होने लगी. शामली की इस कालोनी की दूरी स्कूल से पैदल 20 मिनट की ही थी. आलोक उसे स्कूटर पर छोड़ आता था. आज

घर की गैलरी में खड़े स्कूटर को देख कर सुनंदा के कदम तो ठिठके पर वह रुकी नहीं, पैदल ही बढ़ गई. रिकशा लेने का मन ही नहीं हुआ. सोचा, थोड़ा चलना हो जाएगा. इतने दिन घर में शोक प्रकट करने आनेजाने वालों के साथ बैठी ही रही थी. औफिस में भी जा कर बैठना ही है. आज देर भी होगी आने में. बच्चों के लिए रमा ने याद से घर की चाबियां भी अलग से बनवा दी थीं.

स्कूल पहुंच कर वह अपने औफिस में बैठी ही थी कि 1-1 कर के टीचर्स, बाकी सहयोगी उस से मिलने आते रहे. सब शोक प्रकट करने घर आ चुके थे पर आज भी सब उस के पास आते रहे. वह गंभीर ही थी, फिर कई काम देखे. परीक्षा आने वाली थी. वाइस प्रिंसिपल गीता को बुला कर उस से काफी विचारविमर्श करती रही.

मन बीचबीच में बच्चों की तरफ भाग रहा था. घर पहुंच गए होंगे? रखा हुआ खाना खा लिया होगा होगा? गरम किया होगा या नहीं? अंदर से दरवाजा तो बंद कर लिया होगा न? जमाना बहुत खराब है. बच्चों के पास अभी मोबाइल नहीं था. आलोक बच्चों के पास फोन होने का पक्षधर नहीं था. बच्चे भी जिद्दी नहीं थे. फिर उस ने लैंडलाइन पर फोन किया. बच्चे आ चुके थे. उन से बात कर के सुनंदा को तसल्ली हुई, फिर वह अपने ही काम में व्यस्त रही.

सुनंदा जब घर पहुंची, बच्चों की आंख लग गई थी. उस की आहट से बच्चे उठ बैठे और उस से लिपट गए. सुनंदा ने दोनों को बांहों में भर लिया, ‘‘तुम लोग ठीक हो न?’’

आलोक के जाने के बाद तीनों के स्कूल का पहला दिन था. शाश्वत ने उदासी से कहा, ‘‘ठीक हैं मम्मी, पर पापा के बिना अच्छा नहीं लग रहा कुछ.’’

सिद्धि भी सुबक उठी, ‘‘पापा की बहुत याद आ रही है मम्मी.’’

‘‘हां, बेटा,’’ कहते हुए सुनंदा ने बच्चों को बहुत प्यार किया. उन के साथ ही बैठ कर स्कूल की बातें करने लगी पर घूमफिर कर बच्चे इसी विषय पर आ रहे थे, ‘‘आज सब पूछ रहे थे पापा के बारे में.’’

‘‘टीचर्स भी पूछ रही थीं, मम्मी.’’

‘‘घर अच्छा नहीं लग रहा न, मम्मी?’’

हां में गरदन हिलाती रही सुनंदा. तीनों अपनेअपने रूटीन में धीरेधीरे व्यस्त होते चले गए. समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. आलोक के बारे में तीनों अकसर बातें करने बैठ जाते. किसी की भी आंख भरती तो विषय बदल कर उसे हंसाने की कोशिश शुरू हो जाती.

एक दिन सुनंदा औफिस में व्यस्त थी. सिद्धि का उस के मोबाइल पर फोन आया, ‘‘मम्मी, उमेश अंकल आए हैं.’’

सुनंदा का माथा ठनका, ‘‘क्यों आए हैं?’’

‘‘पता नहीं मम्मी, मैं ने तो उन्हें पानी पिलाया… वे बस मेरे साथ ही बातें किए जा रहे हैं…कुछ काम तो नहीं लग रहा है.’’

‘‘शाश्वत कहां है?’’

‘‘सो रहा है.’’

‘‘ओह, उठा दो उसे फौरन.’’

‘‘पर वह उठाने पर गुस्सा करेगा.’’

‘‘उठाओ और उसे कहो इस अंकल के पास वही बैठे और तुम अपने रूम में होमवर्क कर लो. इसे चायवाय पूछने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मम्मी.’’

उमेश के आने की बात सुन कर सुनंदा बहुत परेशान हो गई. आलोक उमेश को बिलकुल पसंद नहीं करता था. उमेश था तो आलोक का पुराना दोस्त पर बेहद चरित्रहीन. आलोक उसे हमेशा घर के बाहर ही रखता था.

उसने सुनंदा को उमेश की चरित्रहीनता के सारे किस्से सुनाए हुए थे. सिद्धि बड़ी हो रही है, अकेली है. सुनंदा को आज चैन नहीं आ रहा था. उमेश उस के घर में बैठा हुआ है. उमेश कई बच्चियों के साथ कुकर्म करते हुए पकड़ा गया था. उस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी थी.

सुनंदा गीता तो बुला कर बोली, ‘‘बहुत जरूरी काम है, जाना पड़ेगा, हो सकेगा तो लौट आऊंगी,’’ कह कर निकलने लगी तो गीता ने सम्मानपूर्वक कहा, ‘‘आप जाइए, मैम. मैं संभाल लूंगी. आप को दोबारा आने की परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक्यू गीता,’’ कहते हुए सुनंदा अपना पर्स उठा कर स्कूल से निकल गई, रिक्शा पकड़ घर पहुंची.

उमेश शाश्वत के साथ बैठा था. शाश्वत के माथे पर नींद से उठाए जाने पर झुंझलाहट थी. उमेश उसे देख कर चौंक गया, ‘‘अरे भाभी, आप इस समय कैसे आ गईं?’’

काफी कटु और गंभीर स्वर में सुनंदा ने कहा, ‘‘आप बताइए, आप इस समय यहां क्यों आए?’’

‘‘बस, ऐसे ही, सोचा आप लोगों के हालचाल ले लूं.’’

‘‘आगे से आप हालचाल के लिए परेशान न हों, हम ठीक हैं.’’

‘‘अरे भाभी, दोस्त था मेरा. मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है. बच्चे वैसे काफी समझदार हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप आगे से तकलीफ न उठाएं.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं तो आता रहूंगा, आप मुझे पराया न समझें.’’

सुनंदा के कड़े तेवर देख कर उमेश उस समय हाथ जोड़ कर बाहर निकल गया. सुनंदा सोफे पर ढह सी गई. सिद्धि भी मां की आवाज सुन कर अपने रूम से निकल कर आ गई थी. सुनंदा ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और कहने लगी, ‘‘बच्चो, जमाना बहुत खराब है. आगे से अगर मैं घर पर न होंऊ तो किसी के लिए भी दरवाजा न खोलना, इस आदमी के लिए तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘ठीक है, मम्मी. हम ध्यान रखेंगे,’’ कह सिद्धि फिर सुनंदा के लिए चाय बनाने चली गई.

सुनंदा शाम को घर का सामान लेने मार्केट के लिए निकल गई. सारा सामान आलोक ही लाता था. छोटी जगह थी, कई लोग जानपहचान के मिलते चले गए. एक पड़ोसिन भी मिल गई. हालचाल पूछने के बाद कहने लगी, ‘‘आप ने तो हमेशा बाहर की लाइफ ही ऐंजौय की. अब तो आप पर घर के भी काम आ गए होंगे, आप को भी अब दालसब्जी का आइडिया हो जाएगा.’’

बात सुनंदा का दिल दुखा गई. वह लाइफ ऐंजौय कर रही थी अब तक? घरबाहर के कामों के लिए जीवनभर मशीन ही बनी रही. हम औरतें ही क्यों औरतों का दिल दुखाने में पीछे नहीं हटतीं?

पड़ोसी जगदीश भी सब्जी के ठेले पर मिल गए. सुनंदा को ऊपर से नीचे तक चमकती आंखों से देख मुसकराए, ‘‘बड़ी मैंटेंड हैं आप भाभीजी.’’

सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी फिर जबरदस्ती उस के हाथ से थैला लेते हुए उस का हाथ छू लिया.

सुनंदा के तनमन में क्रोध की एक ज्वाला सी धधक उठी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘आप की हैल्प कर रहा हूं, भाभीजी.’’

‘‘मैंने आप से हैल्प मांगी क्या?’’

‘‘मांगी नहीं तो क्या हुआ? पड़ोसी हूं, मेरा भी कुछ फर्ज है. चलिए, आप को घर तक छोड़ आता हूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए. यहां मुझे अभी और भी काम है,’’ कह कर सुनंदा ने अपना थैला वापस झपटा और बाकी का समान लेने इधरउधर हो गई.

मन अजीब से गुस्से से भर उठा था. घर आ कर सामान रख अपने बैडरूम में जा कर आंखें बंद कर लेट गई. दोनों बच्चे टीवी में कुछ देख रहे थे. सुनंदा का दिल मिश्रित भावों से भर उठा था. माथे पर हाथ रखे सुनंदा ने अपनी कनपटियों तक बहते आंसुओं की नमी को चुपचाप ही महसूस किया. धीरेधीरे इस नमी का वेग बढ़ता जा रहा था.

आज, अभी, आलोक की याद शिद्दत से आने लगी. जब तक आलोक था तीनों के इर्दगिर्द एक सुरक्षा का घेरा तो था. एक आलोक के जाते ही वह कितनी असुरक्षा से चिंतित रहने लगी थी. उस ने तो हमेशा यही महसूस किया था कि इस पति से उसे क्या मिला? कुछ नहीं. वही तो सालों से कमा कर घर चला रही थी.

आज लगा पैसे जरूर वह कमा रही थी पर जो आलोक के रहने पर जीवन में था, आज नहीं है. ‘जैसा भी था आदमी तो था’ रमा भाभी के ये शब्द याद आए तो पहली बार सुनंदा की आलोक की याद में इतनी तेज सिसकियों से कमरा गूंज उठा.

वनवास: क्या सिया को आसानी से तलाक मिल गया?

बाहर ड्राइंगरूम में नितिन की जोरजोर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी, “मैं क्या पागल हूं, बेवकूफ हूं, जो पिछले 5 सालों से मुकदमे पर पैसा फूंक रहा हूं. और सिया पीछे से राघव
के साथ प्रेम की पींगें बढ़ा रही है.”

तभी नितिन की मम्मी बोली, “बेटा, पिछले 5 सालों से तो वनवास भुगत रही है तेरी बहन. जाने दे, अब अगर उसे जाना है…”

नितिन क्रोधित होते हुए बोला, “पहले किसने रोका था?”

सिया अंदर कमरे में बैठेबैठे घबरा रही थी. उस ने फैसला तो ले लिया था, पर क्या यह उस के लिए सही साबित होगा, उसे खुद पता नही था.

सिया 28 वर्ष की एक आम सी नवयुवती थी. 5 वर्ष पहले उस की शादी आईटी इंजीनियर राघव से हुई थी.

सिया के पिता की बहुत पहले ही मृत्यु हो गई थी. सिया के बड़े भाई नितिन और रौनक ने ही सिया के लिए राघव को चुना था. जब राघव सिया को देखने आया था, तो दुबलापतला राघव सिया को थोड़ा अटपटा लगा था. राघव और सिया के बीच कोई बातचीत नहीं हुई थी. सिया की बड़ीबड़ी आंखें और शर्मीली मुसकान राघव के दिल को दीवाना बना गई थी.

राघव ने रिश्ते के लिए हां कर दी थी. मम्मी सिया की किस्मत की तारीफ करते नहीं थक रही थी. एक सिंपल ग्रेजुएट को इतना पढ़ालिखा पति जो मिल गया था.

सिया को विवाह के समय भी लग रहा था कि उस का ससुराल पक्ष अधिक खुश नही है. सिया को लगा, शायद राघव के घर वालों को उन की आशा के अनुरूप उपहार नहीं मिले थे.

जब सिया जयमाला लिए राघव की तरफ जा रही थी, तभी उस के कानों में ताईजी की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी, ‘अरे, लड़का तो बौना है और इतना पतला जैसे कोई बच्चा हो.’

राघव वास्तव में सिया के बराबर ही था और सिया भी कौन सी लंबी थी. 5 फीट की हाइट जहां सिया
का कद छोटा दर्शाता था, वहीं राघव का 5 फीट का कद उसे एकदम से बौना सा दिख रहा था.

जूते छुपाई की रस्म के समय चचेरी बहन पीहू बोली, “अरे, जीजाजी के जूतों में तो शायद हील होगी. बड़े ध्यान से देखना पड़ेगा.”

यह लतीफा जहां सिया को शर्मसार कर गया था, वहीं राघव का चेहरा अपमान से
लाल हो गया था.

जब सिया विदा हो कर राघव के घर आई, तो वहां का माहौल काफी तनावग्रस्त लग रहा था. उड़तीउड़ती बातें सिया के कानों में भी पहुंची थीं कि उस के दोनों बड़े भाइयों ने उन्हें धोखा दिया है. अच्छी शादी की बोल कर अपनी मामूली सी पढ़ीलिखी बहन उन के पल्ले बांध दी थी.

राघव की मम्मी अपनी देवरानी से कह रही थीं, ‘अरे राघव के तो बहुत अच्छेअच्छे पैसे वाले रिश्ते आ रहे थे. बस, थोड़ा कद ही तो छोटा है, नहीं तो लाखों में एक है मेरा बेटा.

‘अरे, मैं क्या अपने बेटे के लिए ऐसी लड़की ले कर आती, जो साधारण ग्रेजुएट हो.’

सिया अपने आंसू जज्ब करे बैठी थी. उसे नहीं पता था कि असलियत क्या है. क्या सच में उस के भाइयों ने
ऐसा किया होगा?

रात में राघव भी सिया से बड़ी रुखाई से पेश आया. उस ने सिया को आंख उठा कर देखा भी नहीं. दूध पीने के बाद राघव सिया से बोला, “जब मैं तुम्हें बौना या अजूबा लगता था, तो किसने कहा था मुझ से विवाह करने के लिए?”

सिया की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. वह हकलाते हुए बोली, “क्या लड़की की कभी राय पूछी जाती है?”

राघव व्यंग्य करते हुए बोला,”तो तुम हकलाती भी हो. जाहिर है, तभी तुम्हारा परिवार तुम्हारे लिए वर खोज नहीं रहा था, बल्कि खरीद रहा था. पर, दाम भी कहां चुकाया उन्होंने मेरा पूरा?”

सिया बोली, “आप अपना गुस्सा मुझ पर क्यों उतार रहे हैं?”

राघव चिढ़ते हुए बोला, “महारानी, तो फिर मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की तुम ने? किसी लंबे लड़के को खरीद लेते.”

सिया को समझ नहीं आ रहा था कि क्यों राघव उस से ऐसी बात कर रहा है?
जब अधिक और कुछ समझ नहीं आया, तो वह रोने लगी और राघव तकिया उठा कर बराबर में चादर तान कर सो गया था.

सुबह सिया की बड़ी ननद पूजा मीठी मुसकान के साथ चाय की ट्रे ले कर आई और सिया की जवाफूल सी
लाल आंख देख कर सकपका गई.

बस सिया से पूजा इतना ही बोल पाई, “थोड़ा सब्र रखो सिया. सबकुछ ठीक हो जाएगा.”

मगर, सबकुछ ठीक कहां हो पाया था. पगफेरे के लिए जब सिया के भाई नितिन और रौनक आए, तो बात
बहुत बढ़ गई थी.

पूजा ने ही सिया को बताया कि राघव को इस बात का गुस्सा था कि उस के मातापिता ने ही उस से झूठ
बोला था कि सिया ग्रेजुएट जरूर है, मगर वह सिविल सर्विस की तैयारी कर रही है.

राघव को विवाह के दिन
ही पता चला था कि सिया एक घरेलू लड़की है और राघव के परिवार ने अच्छी शादी की एवज में सिया को
चुना था.

सिया की सास कल्पना सिया के परिवार वालों को धोखेबाज और भी ना जाने क्याक्या बोल रही थी. वहीं सिया का भाई नितिन बोला, “आप ने अच्छी शादी कही थी, तो हम ने बजट से बढ़ कर खर्च किया था. आप को अगर कैश चाहिए था, तो मुंह खोल कर बोल देते. हम जेवर, कपड़े पर कम खर्च करते.”

इस पर राघव बोला, “बहन के लिए दूल्हा खरीदने से अच्छा आप उसे ढंग से पढ़ालिखा देते. कम से कम ऐसे मोलतोल तो न करना पड़ता.”

बहरहाल, सिया अपने ससुराल से खोटे सिक्के की तरह वापस भेज दी गई थी.

दोनों भाभियों ने लैक्चर देने आरंभ कर दिए थे. पहले ही पढ़ाई में दिल लगाया होता तो ये नौबत नहीं आती.

सिया कोई अनपढ़ नहीं थी. मगर, उस के पास कोई ऐसी प्रोफेशनल डिगरी नहीं थी, जिस के बलबूते पर उसे
नौकरी मिल सके. ग्रेजुएशन के बाद सिया ने बेकरी, टैक्सटाइल डिजाइनिंग, बेसिक मेकअप जैसे कोर्स अवश्य किए थे. मगर उस के पास कोई ऐसा डिप्लोमा या डिगरी नहीं थी.

सिया को आए हुए 2 महीने बीत गए थे. वह चुपचाप अपने कमरे में घुसी रहती थी. नितिन और रौनक ने
सिया की नामर्जी के बावजूद राघव के ऊपर भरणपोषण, घरेलू हिंसा और तलाक का मुकदमा दायर कर दिया था.

दोनो भाभियों ने भी अपने पति की हां में हां मिलाते हुए कहा, “ये तो राघव को करना ही पड़ेगा. सिया को उस रूखे और पत्थरदिल इनसान से कुछ नहीं चाहिए था, मगर वो मजबूर थी.”

सिया मन ही मन सोचती, ‘कम से कम एक बार राघव उस से बात तो कर लेता, मगर नहीं. उस ने तो अपनेआप ही उसे मुजरिम करार कर के फैसला सुना दिया था. वह भी उस अपराध के लिए, जो कभी उस ने किया ही नहीं था.’

कोर्ट में केस चल रहा था, हर तारीख के बाद अगली तारीख दे दी जाती थी. भाइयों का जोश और गुस्सा
दोनो ही कम हो गए थे. उधर भाभियों ने भी धीरेधीरे अपने काम सिया की तरफ खिसकाने शुरू कर दिए
थे.

सिया की मां की चिंता बढ़ती जा रही थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उन के बाद सिया का क्या होगा? वो बेटों पर इल्जाम लगाती कि उन्हें रिश्ते से पहले ही खुल कर बात करनी चाहिए थी. बेटे अपनी सफाई में कहते, “मां सबकुछ तो आप से पूछ कर ही किया था. अब आप हमें ही दोषी ठहरा रही हो.

सिया को लगता, मानो उस के कारण ही घर के वातावरण में तनाव रचबस गया है.

ऐसे ही एक दिन सिया के
कारण सिया की भाभी और मां में तूतूमैंमैं हो गई थी.
सिया ने ना जाने क्या सोचते हुए फेसबुक पर राघव को मैसेज कर दिया था, ‘मुझे आप से मिलना है. मैं केस के बारे में कुछ डिस्कस करना चाहती हूं.’

सिया ने एक घंटे बाद देखा कि राघव ने अब तक भी मैसेज नहीं पढ़ा था. उसे लगा शायद वो फेसबुक पर
अधिक आता नही है. तभी उधर से मैसेज आया कि ठीक है, संडे में मिल लेते हैं. टाइम तुम बता देना.

सिया ने मैसेज भेजा, दोपहर 12 बजे रंगोली रेस्तरां में मिलते हैं.’

राघव ने कहा, ‘ठीक है.

सिया ने मैसेज भेजा, ‘और ये मेरा नंबर सेव कर लेना. अगर ढूंढ़ने में दिक्कत हो, तो फोन कर लेना.’

सिया ने कह तो दिया था, मगर अब उसे डर लग रहा था. वह मन ही मन सोच रही थी कि अगर राघव अपने घर वालों के साथ आया, तो उस की अच्छी फजीहत हो जाएगी.

कभी सिया सोचती कि वह वहां जाएगी ही नही. कभी सिया को लगता, अगर राघव उस के मैसेज का स्क्रीन शाट उस के भाइयों को भेज दे, तो ना जाने क्या होगा.

शनिवार की पूरी रात सिया करवट बदलती रही. रविवार में उस ने घर वालों को कह दिया था कि वह एक सहेली
के घर जा रही है लंच पर.

जब सिया तैयार होने लगी, तो उसे समझ ना आया कि वो क्या पहने? पहले मेहरून रंग का पहना तो उसे बेहद तेज रंग लगा, फिर सफेद रंग पहना तो लगा कि कहीं राघव ऐसा न सोचे कि वो उसे खोने का शौक मना रही है. फिर बहुत सोचसमझ कर सिया ने हलके आसमानी रंग का कुरता पहना, साथ में चांदी की बालियां, काली छोटी सी बिंदी और हलका सा मेकअप जो सिया को सौम्यता प्रदान कर रहा था.

जब सिया रंगोली रेस्तरां पहुंची तो राघव पहले से ही बैठा था. सिया को देखते ही वह खड़ा हो गया.

सिया मुसकराते हुए उस के पास आई. दोनों 5 मिनट तक चुपचाप बैठे रहे. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे आरंभ करें?

तभी वेटर ने आ कर मौन को तोड़ा और मेनू कार्ड दे दिया. राघव ने सिया से कहा कि तुम और्डर कर दो.

सिया ने वेजिटेबल इडली और कोल्ड कौफी और्डर कर दी थी.

राघव गला खंखारते हुए बोला, “आगे क्या सोचा है?”

सिया बोली, “पता नहीं. पहले बहुतकुछ सोचा करती थी, अब कुछ नहीं सोचती हूं.”

राघव बोला, “देखो, हम चाहे कागजों पर ही सही, अभी भी पतिपत्नी ही हैं. तुम्हारे भाइयों ने जो मुझ पर मुकदमे दर्ज किए हैं, सब झूठ हैं.

“क्या तुम्हें बुरा नहीं लगता कि वे मुझे बेवजह परेशान कर रहे हैं. उन के कारण मेरी अच्छीखासी नौकरी चली गई है.”

सिया बोली, “राघव, मैं क्या करूं? मेरे भाई ही हैं, जो मेरे साथ खड़े हैं.”

राघव बोला, “तुम्हारे साथ नहीं, अपने अहंकार के साथ खड़े हैं.”

सिया बोली, “कोई तो सहारा चाहिए मुझे?”

राघव आक्रोश में बोला, क्यों? अपाहिज हो क्या? अच्छीखासी हो, दिखती भी ठीकठाक हो.”

सिया बोली, “पर, तुम्हारी तरह पढ़ीलिखी नहीं हूं कि कोई नौकरी कर सकूं.”

राघव बोला, “ग्रेजुएट हो. कुछ न कुछ तो कर सकती हो. मैं ने तो सुना था कि तुम बेहद प्रतिभाशाली हो.”

सिया ने कहा, “मैं ने बेकरी, मेकअप इत्यादि के कोर्स कर रखे हैं, पर इस से मुझे क्या नौकरी मिलेगी?”

राघव ने कहा, “सिया बचपन से मैं अपने छोटे कद के कारण इतना हीनभावना से भर गया था कि पढ़ाई के
अलावा अपने को आगे रखने का मुझे कोई और रास्ता नजर नहीं आया.

“मैं तो बस एक पढ़ीलिखी, प्यार करने वाली साथी चाहता था, मगर मेरे परिवार वालों ने और तुम्हारे परिवार वालों ने मेरी जिंदगी को बरबाद कर दिया है.”

सिया बोली, “तुम सही कह रहे हो, मेरी जिंदगी तो आबाद है.”

राघव बोला, “तुम्हारे साथ तुम्हारा परिवार तो है. मेरे साथ तो कोई भी नहीं है. बिलकुल अकेला पड़ गया हूं. दोस्तों के बीच मजाक बन कर रह गया हूं.

“सब को लगता है कि मेरे छोटे कद के कारण मेरी बीवी भी मुझे छोड़ कर चली गई है.”

सिया बोली, “ये बिलकुल झूठ है. मैं तो पूरे ड्रामा में कठपुतली हूं.”

राघव बोला, “क्यों? हां सिया, उठो और अपने लिए खड़ी होना सीखो.”

जब सिया के घर से फोन आया, तो दोनों को समय का अंदाजा हुआ.

उस मुलाकात के बाद सिया और राघव की अकसर बात होने लगी थी.

सिया को राघव में एक अच्छा दोस्त मिल गया था, वहीं राघव को लगा कि वो सिया के बारे में कितना गलत था.

सिया के पास भले ही इंजीनियरिंग की डिगरी नहीं थी, पर वो बेहद टैलेंटेड थी.

राघव की सलाह पर सिया ने घर से ही बेकिंग क्लासेस शुरू कर दी थी. इनकम कम थी, पर आत्मसम्मान
अधिक था. सिया को ये विश्वास हो गया था कि वो एक स्वतंत्र जीवन जी सकती है. परजीवी की तरह उसे किसी और के सहारे की आवश्यकता नहीं है.

सिया का मन राघव के प्रति झुका जा रहा था, मगर उसे अच्छे से पता था कि वो राघव के लायक नहीं है. उधर राघव जितना सिया से मिलता उतना ही उस की तरफ खिंचा जा रहा था.

राघव ने एक दिन सिया को मैसज किया और लंच के लिए बुलाया. लंच करते हुए राघव हंसते हुए बोला, “सिया, घर पर क्या बोल कर आती हो?”

सिया शर्माते हुए बोली, “सहेली के यहां जा रही हूं.”

राघव फिर थोड़ा रुक कर बोला, “क्या वापस इस रिश्ते को एक मौका देना चाहती हो, अगर तुम्हें ठीक लगे. मैं तुम्हारे बारे में गलत था. तुम बेहद जहीन और टैलेंटेड लड़की हो. क्या मेरी जिंदगी की साथी बनना पसंद करोगी?”

सिया बोली, “राघव, मगर, जो मेरे भाइयों ने केस कर रखा है?”

राघव बोला, “तुम अगर तैयार हो तो बाकी सब मैं संभाल लूंगा.”

सिया ने अपनी मम्मी को जब यह बात बताई, तो वे बोलीं, “तुझे विश्वास है कि राघव तेरा साथ देगा. अभी तो तेरे भाई तेरे साथ खड़े हैं. बाद में अगर कुछ ऊंचनीच हुई तो तू खुद जिम्मेदार है.”

सिया ने फैसला ले लिया था. पहले घर वालों ने बिना उस से पूछे राघव को उस के लिए चुना था. आज उस ने राघव को अपने लिए चुना था.

यह बात सुनते ही सिया के दोनों भाई भड़क उठे थे. मगर, सिया टस से मस नहीं हुई थी.

राघव का परिवार भी इस बात के लिए तैयार नहीं था.
मगर राघव ने किसी की परवाह नहीं की और सिया के घर पहुंच गया था.

दोनों भाइयों के आगे हाथ जोड़ते हुए राघव बोला, “मेरी गलती थी कि मैं ने सिया से बिना बात करे उसे घर भेज दिया था.

“हम दोनों पिछले 5 सालों से वनवास झेल रहे हैं. आज आप मेरी सिया को विदा कर दीजिए, ताकि हम वनवास से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकें.”

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