एक सवाल हमेशा चिंतन करने वालों को परेशान करता है कि  क्या इंसान मूलतया अच्छा प्राणी है जो परिवेश और परिस्थिति के वशीभूत हो, बुरा हो जाता है, या इंसान मूलतया बुरा प्राणी है जो मजबूरीवश अच्छाई का चोला धारण करता है? आखिर सच क्या है?

येल यूनिवर्सिटी की अगर मानें तो व्यक्ति मूलतया अच्छा प्राणी है जिस पर कई कारकों के काम करने से उस में परिवर्तन नजर आता है, जो कभी अच्छा तो कभी बुरा भी हो सकता है.

निभा के 2 बेटे आपस में किसी खिलौने के लिए लड़ रहे थे. टीवी पर एक कार्टून शो चल रहा था. शो में एक बच्चा एक डरावना कार्टून कैरेक्टर से बचने के लिए पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करता है, मगर बारबार गिरने को होता है. दोनों बच्चों की नजर जब उस पर पड़ी तो दोनों ही बच्चे मना रहे थे कि वह किसी तरह बच जाए. उन का खिलौने पर से ध्यान हट गया था. यह छोटा सा उदाहरण हम ने बच्चों का इसलिए दिया कि बचपना इंसान का शुरुआती दौर है और बच्चे अपने मूल स्वभाव में हैं. बच्चों पर किसी भी तरह के परिवेश और परिस्थितिजन्य प्रभाव के पहले की, यह विवेचना है.

जैसेजैसे बच्चा बड़ा होता जाता है उस में अपने आसपास के लोगों और परिस्थितियों का बड़ा प्रभाव पड़ने लगता है. इस प्रभाव के रहते हुए भी कई लोग अच्छे स्वरूप में रहते हैं, और दूसरों की सेवा व सहायता के लिए हमेशा तत्पर दिखते हैं. इन्हीं सेवाभावी तत्पर लोगों की जिंदगी में जब झांका गया तो सामने आया कि ये अपनी सेवा और सहायता के बाद ज्यादातर सेवा प्राप्त करने वालों से असंतुष्ट और दुखी थे. अधिकांश लोगों ने इन की सेवा और सहायता का नाजायज फायदा उठाया और इन का शोषण किया. कइयों ने इन के किए का एहसान मानना या जताना जरूरी नहीं समझा.

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