भारत में फांसी हमेशा से ही विवादों की फांस रही है. आलम यह है कि लंबी कानूनी प्रक्रियाओं व दांवपेचों से गुजर कर अपराधियों को फांसी की सजा तो सुना दी जाती है पर इन्हें फंदे तक पहुंचते पहुंचते अरसा बीत जाता है. इस दरम्यान भारत समेत तमाम मुल्कों में आम आदमी की मेहनत की कमाई का पैसा मृत्युदंड के अपराधियों पर शाही तरीके से खर्च होता है.

16 दिसंबर, 2012  को दिल्ली में हुए गैंगरेप के मुख्य आरोपी राम सिंह ने 11 मार्च, 2013 को देश की सब से सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में फंदे से झूल कर आत्महत्या कर ली. उसे फांसी पर लटकना ही था क्योंकि उस ने अपराध ही ऐसा किया था. अगर यह घटना न हुई होती तो कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से उसे फांसी होने में न जाने और कितने साल लग जाते. उस के आनेजाने, खानेपीने और सुरक्षा के नाम पर लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते.

राम सिंह की मौत से कुछ समय पहले मुंबई हमले में दोषी मोहम्मद अजमल आमिर कसाब और संसद पर आतंकवादी हमले से जुड़े अफजल गुरू को फांसी दी गई. आतंकवाद पीडि़तों को देर से मिले इस न्याय ने खुशी व बड़ी राहत तो दी पर मानवाधिकारों की दुहाई देने वालों ने इस पर रोष जताया.

दरअसल, मृत्युदंड आज फिर विवाद का विषय बन गया है. एक तरफ दुनिया के ज्यादातर मुल्कों को सजा के तौर पर मृत्युदंड नामंजूर है, वहीं यह भी सच है कि विश्व की 60 प्रतिशत जनसंख्या उन देशों में रहती है जहां के कानून इस दंड को स्वीकारते हैं. लेकिन इन देशों में भी कानूनन मान्य होने के बावजूद मृत्युदंड सदैव ही एक ज्वलंत प्रश्न रहा है.

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