बिहार में तालीम को मुफ्तखोरी में फंसा कर रख दिया गया है. हर सरकार स्कूलों और पढ़ाईलिखाई के बरगद को जड़ से दुरुस्त करने के बजाय उस की शाखाओं व पत्तों का रंगरोगन कर के ही अपनी जवाबदेही का पूरा होना मान लेती है. स्कूलों में बच्चों की हाजिरी अच्छी हो, इस के लिए सरकार कभी बच्चों को दोपहर का खाना खिलाती है तो कभी स्कूल ड्रैस बांटती है. लड़कियों को स्कूल जाने के लिए मुफ्त में साइकिल बांटने की योजना भी चलाई जा रही है. कभी सरकार ने यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि सरकारी स्कूलों में मास्टर हैं या नहीं? मास्टर स्कूल आते हैं या नहीं? ब्लैकबोर्ड और चौक हैं या नहीं? स्कूलों में बैंच और टेबल दुरुस्त हैं या नहीं?

इस साल मैट्रिक की परीक्षा में आधे से ज्यादा स्टूडैंट फेल हो गए तो उस के बाद से लगातार राज्य की तालीम सिस्टम पर सवाल उठ रहे हैं. पिछले साल कुल 15 लाख 47 हजार 83 छात्रों ने मैट्रिक की परीक्षा में हिस्सा लिया. इस में 8 लाख 32 हजार 332 लड़के और 7 लाख 14 हजार 751 लड़कियां थीं. इस में से कुल 46.66 फीसदी छात्र ही पास हो सके. लड़कों में कुल 54.44 फीसदी और लड़कियों में 37.61 फीसदी ही कामयाब हो सके. 10.86 फीसदी फर्स्ट डिवीजन, 25.46 फीसदी सैकंड डिवीजन और 10.32 फीसदी थर्ड डिवीजन से पास हुए. इस के अलावा 0.009 फीसदी छात्र जैसेतैसे केवल पास होने लायक अंक ला सके.

इतने खराब नतीजों के बाद भी अफसोस करने और अपनी खामियों को दूर करने के बजाय शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी यह कहते हुए अपनी पीठ थपथपाने में मशगूल हैं कि नकल रोकने की वजह से ही नतीजे खराब हुए हैं.

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