अभिनेता आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘बधाई हो’ की सफलता  ने आयुष्मान खुराना की पिछली फिल्मों ‘विकी डोनर’ व ‘बरेली की बर्फी’ की तरह लीक से हट कर मगर साधारण लोगों की जिंदगियों पर बेस होने के कारण सफल हुई है. विज्ञापन फिल्में बनाने वाले अमित शर्मा ने इस फिल्म में वास्तविकता दिखाई है और यही वजह है कि थोड़ा टेढ़ा विषय होने पर भी उस ने क्व100 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया और बड़ी उम्र की औरतों को मां बनने के लिए एक रास्ता खोल दिया.

परिवार नियोजन से पहले बच्चे जब चाहे, हो जाते थे. जब पहला बच्चा 14-15 साल की उम्र में हो रहा हो तो आखिरी 40-45 वर्ष की उम्र में होना बड़ी बात नहीं थी और उसी समय पहले बच्चे का बच्चा भी हो सकता था. अब जब बच्चों की शादियां 30 के आसपास होने लगी हैं और परिवार नियोजन के तरीके आसान हैं, तो देर से होने वाले बच्चे पर आंखभौं चढ़ती हैं.

मामला देर से हुए बच्चे का उतना नहीं. ‘बधाई हो’ आम मध्यम परिवारों के रहनसहन की कहानी बयां करती है जो जगह की कमी, बंधीबंधाई सामाजिक मान्यताओं, पड़ोसियों के दखल के बीच जीते हैं. अमित शर्मा ने दिल्ली के जंगपुरा इलाके में बचपन बिताया और उसी महौल को उन्होंने फिल्म में उकेरा. इसीलिए फिल्म में बनावटीपन कम है. दर्शकों को इस तरह की फिल्में अच्छी लगती हैं क्योंकि ऐसी फिल्में आसपास घूमती हैं और बिना भारीभरकम प्रचार के चल जाती हैं.

हमारे यहां धार्मिक कहानियों का बोलबाला रहा है और इसीलिए हर दूसरी फिल्म में काल्पनिक सैटों, सुपरहीरो के सुपर कारनामे, मेकअप से पुती हीरोइनें होती हैं. हम असल में रामलीलाओं के आदी हैं जिन में जंगल में भी सीताएं सोने का मुकुट लगाए घूमती हैं. उन्हें देखतेदेखते हमारी तार्किक शक्ति जवाब दे चुकी है और ‘बधाई हो’ जैसी फिल्म के टिपिकल मध्यम परिवार का दर्शन पचता नहीं है.

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