दिनः रोज की ही तरह.

सफरः नई दिल्ली के निर्माण विहार मैट्रो स्टेशन से झंडेवालान मैट्रो स्टेशन तक.

मैट्रो स्टेटसः खचाखच यात्रियों से भरी हुई.

निर्माण विहार के बाद अगला मैट्रो स्टेशन लक्ष्मी नगर आते ही मैट्रो पर सवार सभी यात्री (अधिकांश जो ट्रेन के दरवाजे के नजदीक खड़े हैं.) दहशत में पीछे की ओर भागने की कोशिश करते हैं. कोई किनारा ढूंढ़ता है, तो कोई सहारा. सभी के चेहरों पर बाहर खड़ी भीड़ के धक्केमुक्के का खौफ बखूबी देखा जा सकता है.

गेट खुलता है और बाहर का हुजूम कुछ इस कदर मैट्रो के अंदर घुसता है कि मानो भूचाल आ गया हो. बच्चे, बूढ़े और महिलाओं की चीखें एकाएक कोच में गूंजने लगती हैं. कुछ मजनू टाइप दिलफेंक लड़के भीड़ की आड़ में ही अपनी बेहुदा करतूतों को अंजाम देने में लग जाते हैं. इसी बीच एक महिला की चीख से सभी का ध्यान उस की ओर हो जाता है.

महिलाः गंवार कहीं की दिखता नहीं है, किसी के कपड़े फट रहे हैं?

महिला के इतना कहते ही पुरुषों की आंखे 2 इंच बाहर निकल आती हैं और कुछ के तो कैमरे भी औन हो जाते हैं. भई, कपड़े फट गए और वो एक महिला के, तो सैल्फी तो बनती ही है...

महिला (रोआंसे स्वर में): अब औफिस कैसे जाउंगी?

दूसरी महिला: चिल्लाने से क्या होगा? क्यों घुस रही थी भीड़ में. तितली बन कर आने को किसने कहा था. अपने कपड़े संभाल लेती, तो न फटते.

महिला (गुस्से से आगबबूला हो कर):  तू नहीं घुसी न भीड़ में, तेरे लिए रैड कारपेट बिछाया गया था.

दोनों महिलाओं के बीच वाकयुद्घ यों ही चलता रहा. अगला स्टेशन आया और फिर अगला. मैं झंडेवालान मैट्रो स्टेशन पर उतर गई. मगर पूरे रास्ते यह सवाल मेरे मन में कौंधता रहा कि यदि मेरे कपड़े फट जाते तो क्या होता? औफिस देर से पहुंचती तो बौस की फटकार सुनती और लीव लेती तो सैलरी कट जाती. लेकिन सबक तो मुझे भी मिल ही चुका था. उसी वक्त ठान ली मन में कि समय से 15 मिनट पहले मैट्रो स्टेशन पहुंच जाउंगी लेकिन भागमभाग में कपड़े फड़वाने का जोखिम...न न कभी नहीं.

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