‘‘बलात्कार का अपराध मूलतया पीडि़ता के मानव अधिकारों पर आघात है. यह उस के व्यक्तित्व पर आघात है. यह उस के व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्र अस्तित्व पर स्थायी अंकुश लगा देता है. सभ्य समाज में हरेक को दूसरे व्यक्ति की अस्मिता का आदर करने का कर्तव्य है और किसी को भी दूसरे के शारीरिक क्षेत्र में अतिक्रमण का अधिकार नहीं है. ऐसा करना मात्र एक अपराध ही नहीं है, यह पीडि़ता के मस्तिष्क पर जख्म भी छोड़ जाता है. जो इस तरह के (बलात्कार के) अपराध करता है वह इंडियन पीनल कोड के अंतर्गत तो दंडनीय है ही, वह पीडि़ता के बराबरी के अधिकार और व्यक्तिगत पहचान के अधिकार पर भी चोट पहुंचाता है, जो पीडि़ता के कानूनी ही नहीं संवैधानिक अधिकार भी हैं.’’

ये शब्द हैं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश दीपक मिश्रा के, जिन्होंने पंजाब के एक मामले में भानजी के साथ मामा व उस के सहयोगी द्वारा बलात्कार करने पर अपराधी मानने के फैसले व सजा कम करने की अपील को ठुकराते हुए कहे. आरोपी अदालत में यह कहते हुए नहीं आए कि बलात्कार रंजिश में हुआ. वे यह कह रहे थे कि 2000 के आसपास जब यह गुनाह रिपोर्ट किया गया था, तब पीडि़ता 16 साल से ऊपर की थी जबकि पीडि़ता के पिता का कहना था कि वह 14 साल से कम की थी.सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को गंभीरता से लिया कि लड़की के प्यार व विश्वास का दुरुपयोग उस के मामा ने ही किया जिस पर लड़की बेझिझक विश्वास कर सकती थी. यह अकेला मामला नहीं है. घरेलू बलात्कारों की संख्या देश में कहीं ज्यादा है बजाय निर्भया या उबर जैसे कांडों के. असल में घर में बलात्कार करने के बाद बच निकलने की आदत ही मर्दों को शेर बना डालती है और वे हर किसी पर जोरआजमाइश करने लगते हैं.

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