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देर तक फोन की घंटी बजती रही और उधर से कोई उत्तर नहीं मिला. फिर मैं ने कई बार फोन किया और हर बार यही हाल रहा. मेरी घबराहट स्वाभाविक थी. तरहतरह के कुविचारों ने मन में डेरा डाल लिया. पड़ोस में रहने वाली कविता आंटी को फोन किया तो उन का भी यही उत्तर था कि घर पर शायद कोई नहीं है. मेरी आंखों मेें आंसू आ गए. पापा तो कभी कहीं जाते नहीं थे. मेरी हालत देख कर राहुल बोले, ‘‘तुम घबराओ नहीं. थोड़ी देर में फिर से फोन करना. नहीं तो कुछ और सोचते हैं.’’ ‘‘मेरा दिल बैठा जा रहा है राहुल,’’ मैं ने कहा. ‘‘थोड़ा धीरज रखो, मानसी,’’ कह कर राहुल मेज पर अखबार रख कर बोले, ‘‘हम इतनी दूर हैं कि चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे और पापा यहां आना नहीं चाहते, तुम वहां जा नहीं सकतीं...’’ ‘‘तो उन को ऐसी ही हालत में छोड़ दें,’’ मैं सुबक पड़ी, ‘‘जानते हो, पापा को कुछ भी नहीं आता है. बाजार से आते ही पर्स टेबल पर छोड़ देते हैं. अलमारी में भी चाबियां लगी छोड़ देते हैं. अभी पिछले दिनों उन्होंने नई महरी रखी है...कहीं उस ने तो कुछ...आजकल अकेले रह रहे वृद्ध इन वारदातों का ही निशाना बन रहे हैं.’’ इतने में फोन की घंटी बजी. पापा की आवाज सुनी तो थोड़ी राहत महसूस हुई, मैं ने कहा, ‘‘कहां चले गए थे आप पापा, मैं बहुत घबरा गई थी.’’ ‘‘तू इतनी चिंता क्यों करती है, बेटी. मैं एकदम ठीक हूं.

तेरी मम्मी आज के दिन अनाथाश्रम के बच्चों को वस्त्र दान करती थी सो उस का वह काम पूरा करने चला गया था.’’ ‘‘पापा, आप एक मोबाइल ले लो. कम से कम चिंता तो नहीं रहेगी न,’’ मैं ने सुझाव दिया. ‘‘इस उम्र में मोबाइल,’’ कहतेकहते पापा हंस पड़े, ‘‘तू मेरी चिंता छोड़ दे बस.’’ दिन बीतते गए. उन की जिंदगी उन के सिद्धांतों और समझौतों के बीच टिक कर रह गई. मैं लगातार पापा के संपर्क में बनी रही. मुझे इस बात का एहसास हो गया कि वह लगातार सेहत के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं. अंगरेजी दवाओं के वह खिलाफ थे इसलिए जो देसी दवाओं का ज्ञान मुझे मां से विरासत में मिला था मैं उन्हें बता देती. कभी उन को आराम आ जाता तो कभी वह चुप्पी साध लेते. एक दिन सुबह कविता आंटी ने फोन पर बताया कि पापा सीढि़यों से फिसल गए हैं. अभी पापा को वह अस्पताल छोड़ कर आई हैं. एक दिन वह डाक्टरों की देखरेख में ही रहेंगे. शायद फ्रैक्चर हो. ‘‘उन के साथ कोई है?’’ मैं ने चिंतित होते हुए पूछा.

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