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मां इस जानकारी से संतुष्ट हो गई थीं. कंप्यूटर के इस युग में फोटो का आदानप्रदान कुछ ही घंटों में हो गया था. शीघ्र ही संबंध को स्वीकृति दे दी गई. प्रोजेक्ट समाप्त होते ही मैं स्वप्निल के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. मम्मीपापा का विश्वास देखते ही बनता था. बारबार कहते, हमारे घर लक्ष्मी आ रही है. एकएक दिन यहां पर सब के लिए एक युग के समान प्रतीत हो रहा था. आकांक्षाएं, उम्मीदें आसमान छू रही थीं. कब वह दिन आए और मम्मीपापा बहू का मुंह देखें.

भैया की जिज्ञासा उन की बातों से स्पष्ट थी. प्रत्यक्षत: कुछ नहीं पूछते थे पर जब भी अपर्णा का प्रसंग छिड़ता, उन की आंखों में चमक उभर आती. बारबार कहते, ‘जाओ, बाजार से खरीदारी कर के आओ.’

अपर्णा के गोरे रंग पर क्या फबेगा, यह सोच कर साडि़यां ली जातीं. हीरेमोती के सेट लेते हुए मुझे भी कीमती साड़ी व जड़ाऊ सेट पापा ने दिलवाया था.

ब्याह से ठीक एक माह पूर्व भारद्वाज परिवार ने लखनऊ पहुंचने की सूचना दी थी. हवाई अड्डे पहुंचने से पहले मां का फोन आया. बोलीं, ‘मैं, अपनी बहू को पहचानूंगी कैसे?’

‘हवाई जहाज से जो सब से सुंदर लड़की उतरेगी, समझ लेना वही तुम्हारी बहू है.’

अपर्णा और उस के परिवारजनों से मिल कर मां धन्य हो उठी थीं. ब्याह की काफी तैयारियां तो पहले ही हो चुकी थीं. रहीसही कसर अपर्णा के परिजनों से मिल कर पूरी हो गई.

घर लौट कर मैं ने भैया को टटोला था, ‘कैसी लगी हमारी अपर्णा?’

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