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लेखक- श्रीप्रकाश

मानसी कहती रही, ‘किसी औरत के लिए पहला प्यार भुला पाना कितना मुश्किल होता है, शायद तुम सोच भी नहीं सकते हो. वह भी तुम्हारा अचानक चले जाना...कितनी पीड़ा हुई मुझे...क्या तुम्हें इस का रंचमात्र भी गिला है?’ ‘मानसी, परिस्थिति ही ऐसी आ गई कि मुझे एकाएक चेन्नई नौकरी ज्वाइन करने जाना पड़ा. फिर भी मैं ने अपनी बहन कविता से कह दिया था कि वह तुम्हें मेरे बारे में सबकुछ बता दे.’ थोड़ी देर बाद राज ने सन्नाटा तोड़ा, ‘मानसी, एक बात कहूं. क्या हम फिर से नई जिंदगी नहीं शुरू कर सकते?’ राज के इस अप्रत्याशित फैसले ने मानसी को झकझोर कर रख दिया. वह खामोश बैठी अपने अतीत को खंगालने लगी तो उसे लगा कि उस के ससुराल वाले क्षुद्र मानसिकता के हैं. सास आएदिन छोटीछोटी बातों के लिए उसे जलील करती रहती हैं, वहीं ससुर को उन की गुलामी से ही फुर्सत नहीं. कौन पति होगा जो बीवी की कमाई खाते हुए लज्जा का अनुभव न करता हो.

‘क्या सोचने लगीं,’ राज ने तंद्रा तोड़ी. ‘मैं सोच कर बताऊंगी,’ मानसी उठ कर जाने लगी तो राज बोला, ‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’ आज मानसी का आफिस में मन नहीं लग रहा था. ऐसे में उस की अंतरंग सहेली अचला ने उस का मन टटोला तो उस के सब्र का बांध टूट गया. उस ने राज से मुलाकात व उस के प्रस्ताव की बातें अचला को बता दीं. ‘तेरा प्यार तो मिल जाएगा पर तेरी 3 साल की बेटी का क्या होगा? क्या वह अपने पिता को भुला पाएगी? क्या राज को सहज अपना पिता मान लेगी?’ इस सवाल को सुन कर मानसी सोच में पड़ गई.  ‘आज तुम भावावेश में फैसला ले रही हो. कल राज कहे कि चांदनी नाजायज औलाद है तब. तब तो तुम न उधर की रहोगी न इधर की,’ अचला समझाते हुए बोली.

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