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शाम के नारंगी रंग, स्याह रंग ले चुके थे. आकाश में तारों का झुरमुट झिलमिलाने लगा था, पर रंजन नहीं आया. अकेली बैठी कविता फोन की ओर देख रही थी. तभी फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, कविता, राघव बोल रहा हूं, कैसी हो? और रंजन कहां है?’’

‘‘वह तो अब तक आफिस से नहीं लौटे.’’

‘‘चलो, आता ही होगा, तुम अपना और रंजन का खयाल रखना.’’

‘‘जी,’’ कहते हुए कविता ने फोन रख दिया.

न चाहते हुए भी कविता दोनों भाइयों की तुलना कर बैठी, कितना फर्क है दोनों में. एक नदी सा शांत तो दूसरा सागर सा गरजता हुआ. मेरी शादी रंजन से नहीं राघव से हुई होती तो...वह चौंक पड़ी, यह कैसा अजीब विचार आ गया उस के मन में और क्यों?

तभी रंजन घर में दाखिल हुआ. कविता ने घड़ी की ओर देखा तो रात के 10 बज चुके थे.

‘‘कविता, मुझे खाना दे दो, मैं बहुत थक गया हूं, सोना चाहता हूं.’’

कविता ने चौंक कर कहा, ‘‘मैं ने तो खाना बनाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों...’’ रंजन ने पूछा.

‘‘तुम्हीं तो कह कर गए थे न कि खाना मत बनाना, कहीं बाहर चलेंगे.’’

‘‘ओह, मुझे तो इस का ध्यान ही नहीं रहा...आज तो मैं इतना थका हूं कि कहीं जाना नहीं हो सकता. चलो, तुम जल्दी से मेरे लिए कुछ बना दो,’’ इतना कह कर रंजन कमरे की ओर बढ़ गया और कविता अपना होंठ काट कर रसोई में चली गई.

एक सप्ताह में ही कविता अकेलेपन से घबरा उठी. रंजन रोज घर से जल्दी जाता और बहुत देर से वापस आता. कभी थकान से चूर हो कर सो जाता तो कभी अपने शरीर की जरूरत पूरी कर के. जब यह सब कविता के लिए असहाय हो जाता तो वह अनायास ही राघव की यादों में खो जाती. राघव ने उस से कहा था कि जब बहुत परेशान हो और किसी काम में मन न लगे तो वह करो जो तुम्हें सब से अच्छा लगता हो, यह तुम्हें मन और तन की सारी परेशानियों से मुक्त कर देगा. वह यही करती और सारीसारी शाम नाचते हुए बिता देती थी.

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