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कहानी- कृष्ण कांत

जि लाधीश राहुल की कार झांसी शहर की गलियों को पार करते हुए शहर के बाहर एक पुराने मंदिर के पास जा कर रुक गई. जिलाधीश की मां कार से उतर कर मंदिर की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

‘‘मां, तेरा सुहाग बना रहे,’’ पहली सीढ़ी पर बैठे हुए भिखारी ने कहा.

सरिता की आंखों में आंसू आ गए. उस ने 1 रुपए का सिक्का उस के कटोरे में डाला और सोचने लगी, कहां होगा सदाशिव?

सरिता को 15 साल पहले की अपनी जिंदगी का वह सब से कलुषित दिन याद आ गया जब दोनों बच्चे राशि व राहुल 8वीं9वीं में पढ़ते थे और वह खुद एक निजी स्कूल में पढ़ाती थी. पति सदाशिव एक फैक्टरी में भंडार प्रभारी थे. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. एक दिन वह स्कूल से घर आई तो बच्चे उदास बैठे थे.

‘क्या हुआ बेटा?’

‘मां, पिताजी अभी तक नहीं आए.’

सरिता ने बच्चों को ढाढ़स बंधाया कि पिताजी किसी जरूरी काम की वजह से रुक गए होंगे. जब एकडेढ़ घंटा गुजर गया और सदाशिव नहीं आए तो उस ने राशि को घनश्याम अंकल के घर पता करने भेजा. घनश्याम सदाशिव की फैक्टरी में ही काम करते थे.

कुछ समय बाद राशि वापस आई तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस ने आते ही कहा, ‘मां, पिताजी को आज चोरी के अपराध में फैक्टरी से निकाल दिया गया है.’

‘यह सच नहीं हो सकता. तुम्हारे पिता को फंसाया गया है.’

‘घनश्याम चाचा भी यही कह रहे थे. परंतु पिताजी घर क्यों नहीं आए?’ राशि ने कहा.

रात भर पूरा परिवार जागता रहा. दूसरे दिन बच्चों को स्कूल भेजने के बाद सरिता सदाशिव की फैक्टरी पहुंची तो उसे हर जगह अपमान का घूंट ही पीना पड़ा. वहां जा कर सिर्फ इतना पता चल सका कि भंडार से काफी सामान गायब पाया गया है. भंडार प्रभारी होने के नाते सदाशिव को दोषी करार दिया गया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

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