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“मैं तो कहती हूं तुम ही फोन कर लो, अकड़ में क्यों हो? रिश्ते टूटने में ज्यादा देर नहीं लगती बेटा, पर जुड़ने में वर्षों लग जाते हैं..." सुमन के लिए चाय ले कर आईं उस की मां शांतिजी बोलीं। वे उसे समझाने लगीं,“पति की 2 बातें सुन ही लेगी तो क्या चला जाएगा? और झगड़ा किस पतिपत्नी के बीच नहीं होता बताओ तो...”शांति की बातों पर हामी भरते हुए भाई दीपक कहने लगा कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. जरूर इस की भी गलती रही होगी.

मां और भाई की बातों पर सुमन का मन झल्ला पड़ा कि इन्हें कैसे समझाएं कि वहां उस के साथ क्याक्या बीत रहा था. बिना किसी गलती के वह सजा काट रही थी और क्या वह यहां अपनी मरजी से आई है? नहीं, बल्कि उसे भगाया गया। तो क्या वह इतनी गिरीपड़ी औरत है कि फिर उस दरवाजे पर अपनी नाक रगड़ने जाए?

“बोल न, बोलती क्यों नहीं, क्या तेरी गलती नहीं थी?” शांति ने जब फिर वही बात दोहराई तो सुमन तिलमिला उठी.

“हां हां हां... सारी गलती मेरी ही है. आप सब की नजरों में आज भी मैं ही गलत हूं और वह इंसान जो आएदिन मुझ पर जुल्म ढाता रहता था, वह सही..." बोलतेबोलते सुमन की आंखों से भरभरा कर आंसू टपकने लगे,“अगर मैं आप सब के लिए बोझ बन चुकी हूं तो चली जाती हूं यहां से भी,” कह कर वह बाथरूम में चली गई.

मन तो कर रहा था उस का अभी इसी वक्त खुद को खत्म कर ले, क्योंकि कोई नहीं है जो उस की बात समझ सके या उसे ढांढ़स दे सके, बल्कि सब के सब उसे ही दोष देने में लगे हैं. सोचा था कम से कम मां तो जरूर समझेंगी उसे, पर वह भी उस में ही दोष निकाल रही हैं. चाहती हैं फिर से जा कर पति के पैरों में वह गिर पड़े. लेकिन अब उस से यह नहीं होगा, क्योंकि बहुत सह लिया उस ने उस का अत्याचार.

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