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स्वर्णिमा खिड़की के पास खड़ी हो बाहर लौन में काम करते माली को देखने लगी. उस का छोटा सा खूबसूरत लौन माली की बेइंतहा मेहनत, देखभाल व ईमानदारी की कहानी कह रहा था. वह कहीं भी अपने काम में कोताही नहीं बरतता है…बड़े प्यार, बड़ी कोशिश, कड़ी मेहनत से एकएक पौधे को सहेजता है, खादपानी डालता है, देखभाल करता है.

गमलों में उगे पौधे जब बड़े हो कर अपनी सीमाओं से बाहर जाने के लिए अपनी टहनियां फैलाने लगते हैं, तो उन की काटछांट कर उन्हें फिर गमले की सीमाओं में रहने के लिए मजबूर कर देता है. उस ने ध्यान से उस पौधे को देखा जो आकारप्रकार का बड़ा होने के बावजूद छोटे गमले में लगा था. छोटे गमले में पूरी देखभाल व साजसंभाल के बाद भी कभीकभी वह मुरझाने लग जाता था.

माली उस की विशेष देखभाल करता है. थोड़ा और ज्यादा काटछांट करता है, अधिक खादपानी डालता है और वह फिर हराभरा हो जाता है. कुछ समय बाद वह फिर मुरझाने लगता. माली फिर उस की विशेष देखभाल करने में जुट जाता. पर उस को पूरा विकसित कर देने के बारे में माली नहीं सोचता. नहीं सोच पाता वह यह कि यदि उसे उस पौधे को गमले की सीमाओं में बांध कर ही रखना है तो बड़े गमले में लगा दे या फिर जमीन पर लगा कर पूरा पेड़ बनने का मौका दे. यदि उस पौधे को उस की विस्तृत सीमाएं मिल जाएं तो वह अपनी टहनियां चारों तरफ फैला कर हराभरा व पुष्पपल्लवित हो जाएगा.

लेकिन शायद माली नहीं चाहता कि उस का लगाया पौधा आकारप्रकार में इतना बड़ा हो जाए कि उस पर सब की नजर पडे़ और उसे उस की छाया में बैठना पड़े. एक लंबी सांस खींच कर स्वर्णिमा खिड़की से हट कर वापस अपनी जगह पर बैठ गई और उस लिफाफे को देखने लगी जो कुछ दिनों पहले डाक से आया था.

वह कविता लिखती थी स्कूलकालेज के जमाने से, अपने मनोभावों को जाहिर करने का यह माध्यम था उस के पास, अपनी कविताओं के शब्दों में खोती तो उसे किसी बात का ध्यान न रहता. उस की कविताएं राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छपती थीं और कुछ कविताएं उस की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं. साहित्यिक पत्रिकाओं में छपी उस की कविताएं साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा पा चुके लोगों की नजरों में भी आ जाती थीं.

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उस का कवि हृदय, कोमल भावनाएं और हर बात का मासूम पक्ष देखने की कला अकसर उस के पति वीरेन के विपरीत स्वभाव से टकरा कर चूरचूर हो जाते. वीरेन को कविता लिखना खाली दिमाग की उपज लगती. किताबों का संगसाथ उसे नहीं सुहाता था. शहर में हो रहे कवि सम्मेलनों में वह जाना चाहती तो वीरेन यह कह कर ना कर देता, ‘क्या करोगी वहां जा कर, बहुत देर हो जाती है ऐसे आयोजनों में…ये फालतू लोगों के काम हैं…तुम्हें कविता लिखने का इतना ही शौक है तो घर में बैठ कर लिखो.’

उस के लिए ये सब खाली दिमाग व फालतू लोगों की बातें थीं. जब कभी बाहर के लोग स्वर्णिमा की तारीफ करते तो वीरेन को कोई फर्क नहीं पड़ता. उस के लिए तो घर की मुरगी दाल बराबर थी. कहने को सबकुछ था उस के पास. बेटी इसी साल मैडिकल के इम्तिहान में पास हो कर कानपुर मैडिकल कालेज में पढ़ाई करने चली गई थी. वीरेन की अच्छी नौकरी थी. एक पति के रूप में उस ने कभी उस के लिए कोई कमी नहीं की. पर पता नहीं उस के हृदय की छटपटाहट खत्म क्यों नहीं होती थी, क्या कुछ था जिसे पाना अभी बाकी था. कौन सा फलक था जहां उसे पहुंचना था.

उसे हमेशा लगता कि वीरेन ने भी एक कुशल माली की तरह उसे अपनी बनाई सीमाओं में कैद किया हुआ है. उस से आगे उस के लिए कोई दुनिया नहीं है. उस से आगे वह अपनी सोच का दायरा नहीं बढ़ा सकती. जबजब वह अपनी टहनियों को फैलाने की कोशिश करती, वीरेन एक कुशल माली की तरह काटछांट कर उसे उस की सीमा में रहने के लिए बाध्य कर देता.

उसे ताज्जुब होता कि बेटी की तरक्की व शिक्षा के लिए इतना खुला दिमाग रखने वाला वीरेन, पत्नी को ले कर एक रूढि़वादी पुरुष क्यों बन जाता है. वह लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी. देहरादून में एक कवि सम्मेलन का आयोजन होने जा रहा था, जिस में कई जानेमाने कविकवयित्रियां शिरकत कर रहे थे और उसे भी उस आयोजन में शिरकत करने का मौका मिला था.

पर उसे मालूम था कि जो वीरेन उसे शहर में होने वाले आयोजनों में नहीं जाने देता, क्या वह उसे देहरादून जाने देगा. जबकि देहरादून चंडीगढ़ से कुछ ज्यादा दूर नहीं था. पर वह अकेली कभी गई ही नहीं, वीरेन ने कभी जाने ही नहीं दिया. वीरेन न आसानी से खुद कहीं जाता था न उसे जाने देता था.

वीरेन की तरफ से हमेशा न सुनने की आदी हो गई थी वह, इसलिए खुद ही सोच कर सबकुछ दरकिनार कर देती. वीरेन से ऐसी बात करने की कोशिश भी न करती. पर पता नहीं आज उस का मन इतना आंदोलित क्यों हो रहा था, क्यों हृदय तट?बंध तोड़ने को बेचैन सा हो रहा था.

हमेशा ही तो वीरेन की मानी है उस ने, हर कर्तव्य पूरे किए. कहीं पर भी कभी कमी नहीं आने दी. अपना शौक भी बचे हुए समय में पूरा किया. क्या ऐसा ही निकल जाएगा सारा जीवन. कभी अपने मन का नहीं कर पाएगी. और फिर ऐसा भी क्या कर लेगी, क्या कुछ गलत कर लेगी. इसी उधेड़बुन में वह बहुत देर तक बैठी रही.

कुछ दिनों से शहर में पुस्तक मेला लगा हुआ था. वह भी जाने की सोच रही थी. उस दिन वीरेन के औफिस जाने के बाद वह तैयार हो कर पुस्तक मेले में चली गई. किताबें देखना, किताबों से घिरे रहना उसे हमेशा सुकून देता था.

मेले में वह एक स्टौल से दूसरे स्टौल पर अपनी पसंद की कुछ किताबें ढूंढ़ रही थी. एक स्टौल पर प्रसिद्ध कवि व कवयित्रियों के कविता संकलन देख कर वह ठिठक कर किताबें पलटने लगी.

‘‘स्वर्णिमा,’’ एकाएक अपना नाम सुन कर उस ने सामने देखा तो कुछ खुशी, कुछ ताज्जुब से सामने खड़े राघव को देख कर चौंक गई.

‘‘राघव, तुम यहां? हां, लेकिन तुम यहां नहीं होंगे तो कौन होगा,’’ स्वर्णिमा हंस कर बोली, ‘‘अभी भी कागजकलमदवात का साथ नहीं छूटा, रोटीकपड़ामकान के चक्कर में…’’

‘‘क्यों, तुम्हारा छूट गया क्या,’’ राघव भी हंस पड़ा, ‘‘लगता तो नहीं वरना पुस्तक मेले में कविता संकलन के पृष्ठ पलटते न दिखती.’’

‘‘मैं तो चंडीगढ़ में ही रहती हूं, पर तुम दिल्ली से चंडीगढ़ में कैसे?’’

‘‘हां, बस औफिस के काम से आया था एक दिन के लिए. मेरी भी किताबें लगी हैं ‘किशोर पब्लिकेशन हाउस’ के स्टौल पर. फोन पर बताया था उन्होंने, इसलिए समय निकाल कर यहां आ गया.’’

‘‘किताबें?’’ स्वर्णिमा खुशी से बोली, ‘‘मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम्हारे उपन्यास भी छप चुके हैं और वह भी इतने बडे़ पब्लिकेशन हाउस से. पर किस नाम से लिख रहे हो?’’

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‘‘किस नाम से, क्या मतलब… विवेक दत्त के नाम से ही लिख रहा हूं.’’

‘‘ओह, मैं ने कभी ध्यान क्यों नहीं दिया. पता होता तो किताबें पढ़ती तुम्हारी.’’

‘‘तुम ने ध्यान ही कब दिया,’’ अपनी ही बोली गई बात को अपनी हंसी में छिपाता हुआ राघव बोला.

आगे पढ़ें- स्वर्णिमा ने राघव की बात को…

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