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‘‘आजकल बच्चों की अपनी मरजी है... जहां मन हो करें. मेरी ही बेटी है पर मैं ही इस की गारंटी लेने को तैयार नहीं हूं. कल को ससुराल वालों को ही दहेज के नाम पर सूली पर लटका देगी. पति जरा सा नानुकर करेगा तो उसे भी पत्नी प्रताड़ना के कानून में फंसा देगी. जो अपने मांबाप की सगी नहीं वह पराए खून को दलदल में नहीं फंसाएगी, इस का क्या भरोसा? नफरत हो गई है मुझे मनु से. जरा भी प्यार नहीं रहा मेरे मन में इस लड़की के लिए. तुम भी इस की चालढाल पर परेशान हो न... कल को इस का पति भी होगा.

‘‘क्या यह लड़की घर बसाएगी जो बातबात पर अपने अधिकारों की बात करती है? गृहस्थी को सफल बनाने के लिए कई बार जबान होते हुए भी गूंगा बनना पड़ता है. सहना भी पड़ता है, कभी भी आती है कभीकभी, सदा एकजैसा तो नहीं रहता. ऊंचनीच सहनी पड़ती है और यह लड़की तो बातबात पर कानून का डंडा दिखाती है.’’

‘‘इतना कानून कहां से पढ़ लिया इस ने? कहीं वकीलों से दोस्ती ज्यादा तो नहीं बढ़ा ली? कानून तो हम भी जानते हैं बेटा, लेकिन यही कानून अगर बातबेबात गृहस्थी में घुस जाएगा तब क्या प्यार बना रहेगा पतिपत्नी में? पतिपत्नी के बीच किसी तीसरे का जो दखल होना ही नहीं चाहिए मांबाप तक को भी जरूरत पड़ने पर बोलना चाहिए कानून तो बहुत दूर की बात है. अधिकारों की बात करती है क्या अपने फर्जों के बारे में भी सोचा है इस ने? हमारे तो बेटे ने कभी इस जबान में हम से बात नहीं की जिस सुर में यह बोलती है. क्या चाहते हैं इस से? सिर्फ यही कि सलीके से रहे, मर्यादा में रहे, शालीनता से जीए... हमारे सिखाए सारे संस्कार इस ने पता नहीं किस गंदे पानी में बहा दिए.’’

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