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उन के जाने के बाद मेरा क्रोध पति पर उतरा, ‘‘आप ही बांध लेना इसे, मुझे नहीं पहनना इसे.’’ ‘‘अरे बाबा, 2-3 सौ रुपए की साड़ी होगी, किसी बहाने कीमत चुका देंगे. तुम तो बिना वजह अड़ ही जाती हो. इतने प्यार से कोई कुछ दे तो दिल नहीं तोड़ना चाहिए.’’

‘‘यह प्यारव्यार सब दिखावा है. आप से कर्ज लिया है न उन्होंने, उसी का बदला उतार रहे होंगे.’’ ‘‘50 हजार रुपए में न बिकने वाला क्या 2-3 सौ रुपए की साड़ी में बिक जाएगा? पगली, मैं ने दुनिया देखी है, प्यार की खुशबू की मुझे पहचान है.’’

मैं निरुत्तर हो गई. परंतु मन में दबा अविश्वास मुझे इस भाव में उबार नहीं पाया कि वास्तव में कोई बिना मतलब भी हम से मिल सकता है. वह साड़ी अटैची में कहीं नीचे रख दी, ताकि न वह मुझे दिखाई दे और न ही मेरा जी जले. समय बीतता रहा और इसी बीच ढेर सारे कड़वे सत्य मेरे स्वभाव पर हावी होते रहे. बेरुखी और सभी को अविश्वास से देखना कभी मेरी प्रकृति में शामिल नहीं था. मगर मेरे आसपास जो घट रहा था, उस से एक तल्खी सी हर समय मेरी जबान पर रहने लगी. मेरे भीतर और बाहर शीतयुद्ध सा चलता रहता. भीतर का संवेदनशील मन बाहर के संवेदनहीन थपेड़ों से सदा ही हार जाता. धीरेधीरे मैं बीमार सी भी रहने लगी, वैसे कोई रोग नहीं था, मगर कुछ तो था, जो दीमक की तरह चेतना को कचोट और चाट रहा था.

एक सुबह जब मेरी आंख अस्पताल में खुली तो हैरान रह गई. घबराए से पति पास बैठे थे. मैं हड़बड़ा कर उठने लगी, मगर शरीर ने साथ ही नहीं दिया.

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