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लेखक- आर केशवन

जया का मन रहरह कर विद्रोह कर रहा था. उसे लगा कि अब तक जिम्मेदारियों के निर्वाह में शायद वही सब से अधिक योगदान दिए जा रही थी. गणेश तो मासिक आय ला कर बस उस के हाथ में धर देता और निजात पा जाता. दफ्तर जाते हुए वह रास्ते भर इन्हीं घटनाक्रमों पर विचार करती रही. उसे लग रहा था कि स्त्री जाति के साथ इतना अन्याय शायद ही किसी और देश में होता हो.

दोपहर को जब वह लंच के लिए उठने लगी तो फोन की घंटी बज उठी. दूसरी ओर सहेली पद्मा थी. वह भी गंगा के काम पर न आने से परेशान थी. जैसेतैसे संक्षेप में जया ने उसे गंगा की समस्या बयान की तो पद्मा तैश में आ गई, ‘‘उस राक्षस को तो जिंदा गाड़ देना चाहिए. मैं तो कहती हूं कि हम उसे पुलिस में पकड़वा देते हैं. बेचारी गंगा को कुछ दिन तो राहत मिलेगी. उस से भी अच्छा होगा यदि हम उसे तलाक दिलवा कर छुड़वा लें. गंगा के लिए हम सबकुछ सोच लेंगे. एक टेलरिंग यूनिट खोल देंगे,’’ पद्मा फोन पर लगातार बोले जा रही थी.

पद्मा के पति ने नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश प्राप्त कर लिया था और घर से ही ‘कंसलटेंसी’ का काम कर रहे थे. न तो पद्मा को काम वाली का अभाव इतनी बुरी तरह खलता था, न ही उसे इस बात की चिंता?थी कि सिंक में पड़े बर्तनों को कौन साफ करेगा. पति घर के काम में पद्मा का पूरापूरा हाथ बंटाते थे. वह भी निश्चिंत हो अपने दफ्तर के काम में लगी रहती. वह आला दर्जे की पत्रकार थी. बढि़या बंगला, ऐशोआराम और फिर बैठेबिठाए घर में एक अदद पति मैनसर्वेंट हो तो भला पद्मा को कौन सी दिक्कत होगी.

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