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लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत

अब ऐसा नहीं होगा. मां, मैं आप का सहारा बनूंगी और आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी. मन में यह संकल्प कर मैं ने मां की डायरी यथावत अलमारी में रख दी. हमेशा से बिलकुल अलग मैं मां का हर बोझ कम करना चाहती थी. इसलिए छत पर सूखे हुए कपड़े उतारने गई तो ट्रक की आवाज सुन कर मैं चौंकी. पर देखा तो पड़ोस के घर में सामान उतर रहा था. होगा कोई, यह सोच कर कपड़े ले कर मैं नीचे आ गई.

अपने कमरे में कपड़े रख कर मैं पलटी ही थी कि कालबेल बजी. साढे़ 5 बज गए, मां ही होंगी यह सोच कर दरवाजे की ओर बढ़ी. दरवाजा खोला तो सामने मां की उम्र के व्यक्ति खड़े थे.

‘‘नमस्ते बेटा, मैं डा. सिद्धांत हूं. मैं ने आप का पड़ोस वाला घर खरीदा है. क्या आप के पास 5 सौ रुपए के खुले होंगे,’’ उन के इस प्रश्न पर मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और थोड़ी देर में उन्हें 100-100 के 5 नोट ला कर दे दिए. इस पहले परिचय के बाद अब डा. सिद्धांत से हर सुबह मेरी मुलाकात कालिज जाते हुए होती. मैं उन्हें नमस्ते करती और वह मुसकरा कर कहते, ‘‘खुश रहो बेटा.’’

मैं अब पहले वाली इरा नहीं रही थी. मेरी मां, मेरे जीवन का केंद्रबिंदु बन गई थीं. उन के आफिस से लौटने से पहले मैं हर हालत में कालिज से लौट आती और मां के आते ही चाय बना कर लाती. जब वह खाना बनातीं तो उन के साथ किचन में उन का हाथ बंटाती. मेरा यह व्यवहार शुरू में मां को अटपटा जरूर लगा और उन्होंने 1-2 बार पूछा भी, ‘‘इरा, क्या बात है, कालिज से जल्दी आ जाती हो, किसी दोस्त से झगड़ा हो गया है क्या?’’ मां के इस सवाल पर मैं सिर्फ मुसकरा कर रह जाती.

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