लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

3बार घंटी बजाने पर भी दरवाजा नहीं खुला तो मोनिका थोड़ा परेशान हुई  क्या बात है, जो कुहू दरवाजा नहीं खोल रही है. उसी ने तो फोन कर के बुलाया था कि मोनिका आ जा, आज मैं फ्री हूं. उमंग कंपनी टूर पर मुंबई गया है. बैठ कर कुछ देर गप्पें मारेंगे.

मैं यहां असम में पति के कार्यालय में काम करने वाले सहकर्मियों की पत्नियों के अलावा किसी और को नहीं जानती थी और कुहू को देखो, उस के जानने वालों की कमी नहीं थी. अपनी बातें कहने के लिए उस के पास दोस्त ही दोस्त थे.

मोनिका और कुहू ने बनारस यूनिवर्सिटी के होस्टल के एक कमरे में 3 साल एकसाथ बिताए थे, इसलिए एकदूसरे पर पूरा विश्वास था. जो

3 साल एक कमरे में एकसाथ रहेगा, वह पक्का मित्र होगा ही. मोनिका और कुहू भी पक्की मित्र थीं. शादी के बाद दोनों फोन और ईमेल से लगातार जुड़ी रहीं. बाद में जब मोनिका के पति की नियुक्ति भी असम में उसी शहर में हो गई, जहां कुहू भी उमंग के साथ रह रही थी, तो...

मोनिका इतना ही सोच पाई थी कि उस के विचारों में विराम लगाते हुए कुहू ने दरवाजा खोला तो उस के चेहरे पर मुसकान खिली थी. मोनिका का हाथ पकड़ कर अंदर खींचते हुए कुहू ने कहा, ‘‘अरे, कब आई तुम? लगता है कई बार बैल बजानी पड़ी होगी. मैं बैडरूम में थी, इसलिए सुनाई नहीं पड़ा.’’

कुहू के चेहरे पर भले मुसकान खिली थी, पर उस की आवाज से मोनिका को समझते देर नहीं लगी कि वह खूब रोई है. उस के चेहरे पर थोड़ी उदासी के साथ एक निश्चित भाव भी था.

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