बाबा सनातन के सामने बैठा बद्दूराम अपने बाहर निकले दांतों से टपकती लार पोंछता हुआ हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘हम तो धन्य हो गए बाबाजी. आप की उदारता और करुणा अनंत है, तभी तो हम कमेटी के मैंबर हैं और आप की छाया में बैठे हैं.’’

‘‘छाया तो हम पर महायोगी की है, जो 25 साल से लोगों की भलाई के लिए तप कर रहे हैं. साईं के सौ खेल हैं, भाई. उन्हीं की कृपा से यह महायज्ञ कराया जा रहा है और यह तुम्हारी किस्मत है कि तुम यज्ञ के कुंड में पवित्र लकडि़यां डालोगे.’’

‘‘इसी बात से तो आप का अपने भक्तों के प्रति लगाव साबित होता है.’’

यह सुन कर बाबा सनातन ने घमंड का शहद फिर चखा. ऐसे अंधभक्तों को अपने सामने इस तरह झुका देख कर बाबा सनातन का मन शहद से भरभर जाता है. इस शहद की डायबिटीज से घमंड का जन्म होता है, जो हमेशा के लिए उस के चेहरे से चिपका रहता है.

‘‘और हां, बद्दूराम, ‘एकता महायज्ञ’ की गंगा में हम महर्षि मिथ्यानंद के हाथों से तुम्हारा नाम शुद्ध कर के ‘दलित बंधु राम’ की उपाधि देंगे.’’

‘‘बैकुंठ पा लिया बाबाजी. मुक्ति का द्वार महायोगी परशुराम के जन्मदाता ही दिखा सकते हैं...मैं इस काबिल कहां कि आप को गुरुदक्षिणा दे सकूं, पर प्रभु, आप के लिए यह एकलव्य अपनी बीसों उंगलियां कटाने को तैयार है,’’ बद्दूराम शहद में केसर मिलाता हुआ बोला.

‘‘यज्ञ कामयाब हो तो मन की सभी मुरादें पूरी होती हैं. अगर चलोगे नहीं तो मंजिल तक कैसे पहुंचोगे. इस यज्ञ में तुम भी अपनी हिस्सेदारी दिखाओ. नीयत की बरकत से हो सकता है कि खुश हो कर महायोगी तुम्हारा भी भला कर दें.’’

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