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लेखक-रत्नेश कुमार

उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.

रास्ते में पड़े पत्थरों को देख कर खयाल आया कि चुपके से एक पत्थर उठा कर उस का सिर तोड़ दूं. कमाल का लड़का था, जब साथ में इतनी सुंदर लड़की हो तो थोड़ाबहुत भाव देने में उस का क्या चला जाता. मेरा मन खूंखार होने लगा.

‘‘चलिए, थोड़ा रक्तदान कर दिया जाए?’’ रक्तदान का चलताफिरता शिविर देख कर मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैं बस, थोड़ा सा कष्ट उसे भी देना चाहती थी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘चलिए, आप न सही मगर मैं रक्तदान करना चाहती हूं,’’ मुझे उसे नीचा दिखाने का अवसर मिल गया.

‘‘आप हो आइए, मैं इधर ही इंतजार करता हूं,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

मैं इतनी आसानी से मानने वाली नहीं थी. उसे लगभग जबरदस्ती ले कर गाड़ी तक पहुंची. नामपता लिख कर जब नर्स ने सूई निकाली तो मेरी सारी बहादुरी ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी बहादुर थी ही नहीं. पलभर के लिए इच्छा हुई कि चुपचाप खिसक लूं मगर मैं उसे दर्द का एहसास कराना चाहती थी.

किसी तरह खुद को बहलाफुसला कर लेट गई. खुद का खून देखने का शौक कभी रहा नहीं इसलिए नर्स की विपरीत दिशा में देखने लगी. गाड़ी में ज्यादा जगह न होने की वजह से वह बिलकुल पास ही खड़ा था. चेहरे पर ऐसी लकीरें थीं जैसे कोई उस के दिल में सूई चुभो रहा हो.

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