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अजय शायद उस की असहजता को समझ गया था. अत: वह दूसरे सोफे पर बैठ गया. फिर शुरू हुआ बीती बातों का लंबा सिलसिला... कितनी ही पुरानी यादें झरोखों से झांक गईं... कितने ही पल स्मृतियों में आए और चले गए... कभी दोनों खुल कर हंसे तो कभी आंखें नम हुईं... थोड़ी ही देर में दोनों सहज हो गए.

2 बार कौफी पीने के बाद पूर्णिमा ने कहा, ‘‘भूख लगी है... लंच नहीं करवाओगे?’’

‘‘यहीं रूम में करोगी या डाइनिंग हौल में चलें?’’ अजय ने पूछा और फिर पूर्णिमा की इच्छा पर वहीं रूम में खाना और्डर कर दिया. लंच के बाद फिर से बातें... बातें... और बहुत सी बातें...

‘‘अच्छा अजय, अब मैं चलती हूं... बहुत अच्छा लगा तुम से मिल कर. आई होप कि अब तुम अपनेआप को मेरे लिए परेशान नहीं करोगे,’’ पूर्णिमा ने टाइम देखा. शाम होने को थी.

‘‘एक बार गले नहीं मिलोगी,’’ अजय ने याचक दृष्टि से उस की तरफ देखा. न जाने क्या था उन आंखों में कि पूर्णिमा सम्मोहित सी उस की बांहों में समा गई.

अजय ने उसे अपने बाहुपाश में कस लिया और धीरे से अपने गरम होंठ उस के कान के नीचे गरदन पर लगा दिए. फिर उस का मुंह घुमा कर बेताबी से होंठ चूमने लगा. पूर्णिमा पिघलती जा रही थी. अजय ने उसे बांहों में उठाया और बिस्तर पर ले आया. पूर्णिमा चाह कर भी कोई विरोध नहीं कर पा रही थी. अजय के हाथ उस के ब्लाउज के बटनों से खेलने लगे.

तभी उस का मोबाइल बज उठा. पूर्णिमा जैसे नींद से जागी. अजय ने उसे फिर से अपनी ओर खींचना चाहा, मगर अब तक पूर्णिमा का सम्मोहन टूट चुका था. उस ने लपक कर फोन उठाया. फोन रवि का था. पूर्णिमा ने अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाते हुए रवि से बात की और उसे अपनी कुशलता के लिए आश्वस्त किया.

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