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लेखक-रमाकांत मिश्र एवं रेखा मिश्र

फिर हम काफी समय तक चुप रहे. कार में भर उठी उदासी को दूर करने के मकसद से मैं ने पूछ लिया, ‘‘आप कुछ कर रही हैं क्या?’’

‘‘हां, टाइम काटने के लिए एक बुटीक खोला है.’’

‘‘सचमुच? कहां पर?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘हजरतगंज में.’’

‘‘अप्सरा तो नहीं?’’ मैं ने ममता की ओर देखा.

‘‘जी’’, उस ने सिर हिला कर कहा.

अप्सरा 2 वर्ष पहले ही शुरू हुआ था और आज की तारीख में लखनऊ में फैशनपसंदों की पहली पसंद है.

‘‘अप्सरा तो लखनऊ की शान है.’’

‘‘लोगों की मेहरबानी है?’’

‘‘लालाजी कैसे हैं?’’

‘‘ठीक ही हैं’’, ममता के स्वर में गहरी निराशा थी.

‘‘क्या बात है?’’ मैं पूछे बिना न रह सका.

ममता मौन रही. जैसे सोच रही हो कि इस बारे में कुछ बात करे या नहीं. आखिरकार, उस ने मौन तोड़ा, ‘‘आप तो जानते ही हैं कि पापाजी मुझ से क्या चाहते हैं. अब कहते तो कुछ नहीं लेकिन मैं जानती हूं कि दिनोंदिन मेरी चिंता में घुलते जा रहे हैं,’’ उस की आवाज नम हो गई.

मुझे समझ में नहीं आया कि क्या कहूं.

‘‘कभीकभी तो लगता है कि उन का कहना न मान कर मैं गलती कर रही हूं,’’ थोड़ी देर के बाद ममता ने कहा.

मैं बहुत कुछ कहना चाहता था, लेकिन सही मौका नहीं मिल पा रहा था. मैं एक द्वंद्व में फंस गया था. एक ओर मेरी भावनाएं थीं, तो दूसरी ओर मेरे अनुभव. शायद ममता के मन में भी ऐसा ही कुछ चल रहा था. हम कुछ कह नहीं पा रहे थे. मैं खामोशी से कार चलाता जा रहा था.

नजीबाबाद आ गया था. यहां की चाय मशहूर है. मैं ने एक घूंट गले में उतार कर बात शुरू की.

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