लेखिका- पूजा अरोरा

आजसारिका बहुत उदास थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने बिखरते घर को कैसे संभाले? चाय का कप ले कर बालकनी में खड़ी हो गई और अतीत के सागर में गोते लगाने लगी...

उस का विवाहित जीवन बहुत खुशमय बीत रहा था. विशाल उस का पति एक खुशमिजाज व्यक्ति था. 2 प्यारेप्यारे बेटों की मां थी सारिका. सबकुछ बहुत अच्छे से चल रहा था. मगर कहते हैं न खुशियों को ग्रहण लगते देर नहीं लगती. ऐसा ही सारिका के साथ हुआ.

अचानक एक दिन विशाल दफ्तर से आ कर गुमसुम बैठ गया तो सारिका ने पूछा, ‘‘क्या हुआ विशाल ऐसे चुप क्यों बैठे हो?’’

‘‘दफ्तर में कर्मचारियों की छंटनी हो रही है और उस में मेरा नाम भी शामिल है,’’ विशाल ने धीमी आवाज में जवाब दिया.

‘‘अरे ऐसा कैसे हो सकता है? तुम तो इतने पुराने और परिश्रमी कर्मचारी हो, दफ्तर के?’’ सारिका गुस्से में बोली.

‘‘यह प्राइवेट नौकरी है और यहां सब हो सकता है और तुम्हें आजकल के दफ्तरों में होने वाली राजनीति के बारे में पता नहीं शायद,’’ विशाल ने उत्तर दिया.

और सच में 3 महीने का नोटिस दे कर विशाल और अनेक कर्मचारियों को मंदी के चलते नौकरी से निकाल दिया गया. एक मध्यवर्गीय परिवार जिस में सिर्फ एक ही सदस्य कमाता हो उस की रोजीरोटी छिन जाने की पीड़ा एक भुग्तभोगी ही समझ सकता है.

उम्र के इस दौर में जहां विशाल 40 वर्ष को पार कर चुका था, अनुभव होने के बावजूद उस की सारी कोशिशें बेकार जा रही थीं. पूरे 2 महीने भटकने के बाद भी हताशा ही हाथ लगी.

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