0:00
12:24

मां की मृत्यु के बाद पिता जी बिल्कुल अकेले पड़ गये थे. कमरे में बैठे घर के एक कोने में बने मंदिर की ओर निहारते रहते थे. हालांकि पूरे जीवन नास्तिक रहे. कभी मंदिर नहीं गये. कभी कोई व्रत-त्योहार नहीं किया. मगर मां के जाने के बाद अपने पलंग पर बैठे मंदिर को ही निहारते रहते थे. अब पता नहीं मंदिर को निहारते थे या उसके सामने रोज सुबह घंटा भर बैठ कर पूजा करने वाली मां की छवि तलाशते थे.

पिता जी और मां के बीच कई बातें बिल्कुल जुदा थीं. मां जहां पूरी तरह आस्तिक थी, पिता जी बिल्कुल नास्तिक. मां जहां नहाए-धोए बगैर पानी भी मुंह में नहीं डालती थीं, वहीं पिता जी को बासी मुंह ही चाय चाहिए होती थी. लेकिन फिर भी दोनों में बड़ा दोस्ताना सा रिश्ता रहा. कभी झगड़ा, कभी प्यार. वे मां के साथ ही बोलते-बतियाते और कभी-कभी उन्हें गरियाने भी लगते थे कि बुढ़िया अब तुझसे कुछ नहीं होता. मां समझ जातीं कि बुड्ढे का फिर कुछ चटपटा खाने का मन हो आया है. अब जब तक कुछ न मिलेगा ऐसे ही भूखे शेर की तरह आंगन में चक्कर काटते रहेंगे और किसी न किसी बात पर गाली-गलौच करते रहेंगे. सीधे बोलना तो आता ही नहीं इन्हें. भुनभुनाती हुई मां छड़ी उठा कर धीरे-धीरे किचेन की ओर चल पड़तीं थीं. मां को किचेन की ओर जाता देख पिताजी की बेचैनी और बढ़ जाती. उनकी हरकतों को देखकर तब मैं सोचता था कि शायद उनको यह अच्छा नहीं लगता था कि इस बुढ़ापे में वो मां को इतना कष्ट दें, मगर चटोरी जीभ का क्या करें? मानती ही न थी. इसीलिए इतना तमाशा करते थे.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...