रईस दद्दा ने सौदामिनी के लालनपालन में कहीं कोताही नहीं की थी लेकिन अनुशासन में बंधी वह न ज्यादा पनप पाई न ही पढ़लिख पाई. मृदुल जैसा सच्चा प्रेमी मिला लेकिन छीन लिया गया. आदित्य के पल्ले से बांध दी गई जिस ने पत्नी होने का उसे अधिकार कभी दिया ही नहीं. सास ने घर की मानमर्यादा के नाम पर उस की जबान बंद कर दी. क्या सौदामिनी ने अपने साथ होते अन्याय के आगे हथियार डाल दिए?
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कोई एक बरस बाद राय साहब ने अपनी लाड़ली बेटी को पीहर बुलवा भेजा था. रोजरोज बेटी को मायके बुलाने के पक्ष में वे कतई नहीं थे. आदित्य के साथ सजीधजी सौदामिनी मायके आई तो राय साहब कृतकृत्य हो उठे. रुके नहीं थे आदित्य, बस औपचारिकता निभाई और चले गए. राय साहब ने भी कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी थी. धनदौलत की तुला पर बेटी की खुशियों को तोलने वाले दद्दा ने उस के अंतस में झांकने का प्रयत्न ही कब किया था? जितने दिन सौदामिनी पीहर में रही, अम्मा, बाबूजी रोज उसे बुलवा भेजते थे. वह कभी कुछ नहीं कहती थी. बस, अपने खयालों में खोई रहती. आखिर एक दिन अम्मा ने बहुत कुरेदा तो वह पानी से भरे पात्र सी छलक उठी, ‘मेरी इच्छाअनिच्छा, भावनाओं, संवेदनाओं को जाने बिना, क्या मेरे जीवन में ठुकराया जाना ही लिखा है, चाची? एक ने ठुकराया तो दूसरे के आंगन में जा पहुंची. अब आदित्य ने ठुकराया है तो कहां जाऊं?’
अम्मा और बाबूजी ने विचारविमर्श कर के एक बार दद्दा को बेटी के जीवन का सही चित्र दिखलाना चाहा था. वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बाद भी दद्दा न चौंके, न ही परेशान हुए. वैसे भी ब्याहता बिटिया को घर बिठा कर उन्हें समाज में अपनी बनीबनाई प्रतिष्ठा पर कालिख थोड़े ही पुतवानी थी. उन्होंने सौदामिनी को बहुत ही हलकेफुलके अंदाज में समझाया, ‘पुरुष तो स्वभाव से ही चंचल प्रकृति के होते हैं. हमारे जमाने में लोग मुजरों में जाया करते थे. अकसर रातें भी वहीं बिताते थे और घर की औरत को कानोंकान खबर नहीं होती थी. शुक्र कर बेटी, जो आदित्य ने अपने संबंध का सही चित्रण तेरे सामने किया है. अब यह तुझ पर निर्भर करता है कि तू किस तरह से उस को अपने पास लौटा कर लाती है.’
पिता द्वारा आदित्य का पक्ष लिया जाना उसे बुरा नहीं लगा था, बल्कि इस बात की तसल्ली दे गया था कि जैसे भी हो, उसे अपनी ससुराल में ही समझौता करना है.
समय धीरेधीरे सरकने लगा था. सौदामिनी को समय के साथ सबकुछ सहने की आदत सी पड़ने लगी थी. भीतर उठते विद्रोह का स्वर, कितना ही बवंडर मचाता, संस्कारों की मुहर उस के मौन को तोड़ने में बाधक सिद्ध होती.
इसी तरह 2 वर्ष बीत गए. सौदामिनी का हर संभव प्रयत्न व्यर्थ ही गया. आदित्य उस के पास लौट कर नहीं आए. स्नेह के पात्र की तरह आदमी घृणा के पात्र को एक नजर देखता अवश्य है, पर आदित्य के लिए उस की पत्नी मात्र एक मोम की गुडि़या थी, संवेदनाओं से कोसों दूर, हाड़मांस का एक पुतलाभर.
कभीकभी जीवन में इंसान को जब कोई विकल्प सामने नजर नहीं आता तो उस का सब्र सारी सीमाएं तोड़ कर ज्वालामुखी के लावे के समान बह निकलता है. ऐसा ही एक दिन सौदामिनी के साथ भी हुआ था. घर से बाहर जा रहे आदित्य का मार्ग रोक कर वह खड़ी हुई, ‘किस कुसूर की सजा आप मुझे दे रहे हैं? आखिर कब तक यों ही मुंह मोड़ कर मुझ से दूर भागते रहेंगे?’
‘सजा कुसूरवार को दी जाती है सौदामिनी, तुम ने तो कुसूर किया ही नहीं, तो फिर मैं तुम्हें कैसे सजा दे सकता हूं? मैं ने सुहागरात को ही तुम से स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि हमारा विवाह मात्र एक समझौता है. तुम चाहो तो यहां रहो, न चाहो तो कहीं भी जा सकती हो. मेरी ओर से तुम पूर्णरूप से स्वतंत्र हो.’
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उस रात आदित्य का स्वर धीमा था, पर इतना धीमा भी नहीं था कि हवेली की दीवारों को न भेद सके. एक कमरे से दूसरे कमरे का फासला ही कितना था. दीवान साहब के कानों में आदित्य का एकएक शब्द पिघले सीसे के समान उतरता गया. अपना ही खून इतना बेगैरत हो सकता है? क्या उन की बहू परित्यक्ता का सा जीवन बिताती आई है? इस की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी.
उन्होंने पत्नी को बुला कर कई प्रश्न किए, पर कोई भी उत्तर संतोषजनक नहीं लगा था. तारिणी पूर्णरूप से बेटे की ही पक्षधर बनी रही थीं. दीवान साहब ने सौदामिनी को पीहर लौट जाने का सुझाव दिया था. वह वहां भी नहीं गई.
तब जीवन की हर समस्या की ओर व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाले दीवान साहब ने बहू को आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया. दबी, सहमी सौदामिनी के लिए यह प्रस्ताव अप्रत्याशित सा ही था. बस, यही सोचसोच कर कांपती रही थी कि बरसों पहले छोड़ी गई किताब और कलम पकड़ने में कहीं हाथ कांपे तो क्या करेगी?
पर दृढ़निश्चयी दीवान साहब के आगे उस की एक भी न चली. उधर तारिणी ने सुना, तो घर में हड़कंप मच गया. पूरी हवेली की व्यवस्था ही चरमरा कर रह गई थी. इतने बरसों बाद बहू को पोथी का ज्ञान करवाना क्या उचित था? पर पति के सामने उन की आवाज घुट कर रह गई.
सौदामिनी की मेहनत, लगन और निष्ठा रंग लाई. उस का मनोबल बढ़ा, व्यक्तित्व में निखार आया. अब लोग उस की तरफ खिंचे चले आते थे, आदित्य का स्थान अब गौण हो चला था.
पत्नी के इस परिवर्तन पर आदित्य परेशान हो उठा था. वैसे भी पुरुष, नारी को अपने ऊपर या अपने समकक्ष कब देखना चाहता है. यदि चाहेअनचाहे पत्नी या उस के संबंधियों के प्रयास से ऐसा हो भी जाता है तो पुरुष की हीनभावना उसे उग्र बना देती है. ऐसा ही यहां भी हुआ था जो थोड़ाबहुत मान पति के अधीनस्थ हो कर उसे मिल रहा था, वह भी छिनता चला गया. पर सौदामिनी रुकी नहीं, आगे ही बढ़ती गई.
अमेरिका में उस के पत्र मुझे नियमित रूप से मिलते रहे थे. मन में राहत सी महसूस होती.
उधर दीवान साहब की दशा दिनपरदिन गिरती चली गई. बहू का दुख घुन के समान उन के शरीर को खाता जा रहा था. हर समय वे खुद को सौदामिनी का दोषी समझते. उस का जीवन उन्हें मझधार में फंसी हुई उस नाव के समान लगता, जिस का कोई किनारा ही न हो. भारीभरकम शरीर जर्जरावस्था में पहुंचता गया, जबान तालू से चिपकती गई. एक दिन देखते ही देखते उन के प्राणपखेरू उड़ गए और सौदामिनी अकेली रह गई.
उस दिन उसे लगा, वह रिक्त हो गई है. ऐसा कोई था भी तो नहीं, जो उस के दुख को समझ पाता. जिस कंधे का सहारा ले कर वह आंसुओं के चंद कतरे बहा सकती थी, वह भी तो स्पंदनहीन पड़ा था.
पिता की मृत्यु के बाद आदित्य पूर्णरूप से आजाद हो गया था. तेरहवीं की रस्म के बाद ही सूजी को घर में ला कर वह मुक्ति पर्व मनाने लगा था. सूजी उस के दिल की स्वामिनी तो थी ही, पूरे घर की स्वामिनी भी बन बैठी. घर की पूर्ण व्यवस्था पर उस का ही वर्चस्व था.
संवेदनशील सौदामिनी विस्मित हो पति का रवैया निहारती रह गई.
आदित्य का व्यवहार धीरेधीरे उसे परेशान नहीं, संतुलित करता गया. उस में निर्णय लेने की शक्ति आ गई थी.
अपने आखिरी पत्र में उस ने मुझे लिखा था…
‘सारे रस्मोंरिवाजों के बंधनों को तोड़ कर एक दिन मैं आजाद हो जाऊंगी. नासूर बन गए जुड़ाव की लहूलुहान पीड़ा से तो मुक्ति का सुख ज्यादा आनंददायक होगा. लगता है, वह समय आ गया है. अगर जिंदा रही तो जरूर मिलूंगी.
तुम्हारी सौदामिनी.’
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उस के बाद वह कहां गई, मैं नहीं जानती थी. दद्दा को भी मैं ने कई पत्र लिखे थे, पर उन्होंने तो शायद दीवान साहब की मृत्यु के बाद बेटी की सुध ही नहीं ली थी. बेटी को अपनी चौखट से विदा कर के ही उन के कर्तव्य की इतिश्री हो गई थी.
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