क्या सैंसर बोर्ड का काम अब धर्म के ठेकेदारों के बुला कर उन्हें फिल्में दिखाना भर रह गया है? क्या उस की अपनी यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि फिल्मों से क्या हटाएं क्या रहने दें, का फैसला वह खुद करे? बौलीवुड हो या हौलीवुड हर जगह अभी तक फिल्मों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माध्यम माना जाता रहा है, लेकिन जैसे ही बात धर्म आधारित फिल्मों की आती है, भगवाधारियों व मुल्लाओं को लगने लगता है कि अब उन के धर्म पर संकट आने वाला है. ताजा विवाद परेश रावल और नसीरुद्दीन शाह की फिल्म ‘धर्म संकट में’ को ले कर है. सैंसर बोर्ड ने इस फिल्म की स्क्रीनिंग के लिए धर्मगुरुओं को बुलाया है. एक मौलवी और एक पंडित यह तय करेंगे कि इस फिल्म से उन के धर्म पर कोई प्रहार तो नहीं होगा. मतलब सैंसर बोर्ड का काम अब धर्म के ठेकेदार देखेंगे और तय करेंगे कि उन की धर्म की दुकानदारी पर कोई खतरा तो नहीं होगा.

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि इस तरह अंधविश्वास और कुरीतियों पर चोट करने वाली फिल्म पर विवाद उठा. इस के पहले परेश रावल की फिल्म ‘ओएमजी’ और राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘पीके’, जिस में धर्म के नाम पर धंधा करने वालों पर करारी चोट की गई थी,पर काफी होहल्ला हुआ था. इन धर्मगुरुओं की लल्लोचप्पो करने में सैंसर बोर्ड ही नहीं इंड्रस्ट्री के लोग भी लगे हुए हैं. तभी तो ‘पीके’ फिल्म पर बढ़ते विवाद के बाद विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी सफाई देने के लिए कई धर्मगुरुओं की शरण में जाते दिखे. सैंसर बोर्ड की इस नई पहल की आलोचना करते हुए परेश रावल कहते हैं कि किसी फिल्म को सर्टिफिकेट देने के लिए धर्मगुरुओं को बुलाया जाना बेहद खतरनाक संकेत है. इस से समाज में अच्छा संदेश नहीं जाएगा.

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