नोटबंदी के कारण देशभर के करोड़ों लोग दिनों नहीं, सप्ताहों तक अपने ही कमाए पैसे लेने के लिए बैंकों और एटीएमों के सामने कतारों में खड़े रहे पर कहीं लंबीचौड़ी विद्रोह की वारदातें नहीं हुईं. नरेंद्र मोदी चाहे उसे नोटबंदी पर सहमति कह लें पर यह असल में एक डरपोक, कमजोर, बिखरे, मंदबुद्घि, अंधविश्वासी, स्वार्थी और भाग्यवादी समाज का लक्षण है. यह समाज आज ही नहीं, सदियों से ऐसा ही रहा है और हमेशा मुट्ठीभर आकाओं के आगे देश की बहुसंख्या नतमस्तक होती रही है.

यह गुण भारतीय समाज में ही हो, ऐसा नहीं. कमोबेश हर देश, हर समाज ऐसा ही होता है. बड़ों का या ताकतवरों का हुक्म मानना हर समाज बचपन से सिखाता है. हर संकट का पहला मुकाबला संघर्ष नहीं, पलायन ही होता है. आदमी अपने ऊपर हुए अकारण आक्रमण का मुकाबला तब करता है जब उस के पास भागने की जगह न हो.

गांधी ने 1915 से ले कर 1947 तक भारत की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन चलाए पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देश की, तब की 30 करोड़, जनता कब एकसाथ जनविद्रोह में खड़ी हुई? इतिहासकार बताते हैं कि इस देश में कभी भी एकसाथ 20,000 से ज्यादा ब्रिटिश गोरे नहीं रहे पर वे 30 करोड़ लोगों को हांकने में सफल रहे थे. इस का अर्थ यह नहीं, कि लोग ब्रिटिश शासन का समर्थन करते थे. असल में न उन के पास हिम्मत थी ब्रिटिश आक्रमणकारियों के सामने खड़ा होने की, न जरूरत.

उस से पहले यही बात मुसलिम आक्रमणकारियों के साथ हुई. ऐसा ही शकों, हूणों, ग्रीकों के साथ भी हुआ. अपने हिंदू राजाओं के खिलाफ बगावत के सुबूत भी बहुत कम हैं.

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