कितनी अजीब बात है न कि किसी की मौत की खबर लोगों में उस के प्रति कुछ तो संवेदना, दया के भाव जगाती है लेकिन जगत नारायण की मौत ने मानो सब को राहत की सांस दे दी थी. अजब मृत्यु थी उस की. पांडवपुरी कालोनी के रैजिडैंस वैलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष 75 वर्षीय सदानंद दुबेजी नहीं रहे. अचानक दिल का दौरा पड़ने से 2 दिन पहले निधन हो गया. सदा की तरह इस बार भी आयोजित शांतिसभा में पूरी कालोनी जुटी थी. दुबेजी की भलमनसाहत से सभी लोग परिचित थे. सभी एकएक कर के स्टेज पर आते और उन की फोटो पर फूलमाला चढ़ा कर उन के गुणगान में दो शब्द व्यक्त कर रहे थे.

कार्यक्रम समाप्त हुआ, तो सभी चलने को खड़े हुए कि तभी चौकीदार गोपी ने भागते हुए आ कर यह खबर दी कि बी नाइंटी सेवन फ्लैट वाले जगत नारायण 4 बजे नहीं रहे. सभी कदम ठिठक गए. भीड़ में सरगर्मी के साथ सभी चेहरों पर एक राहत की चमक आ गई. ‘‘अरे नहीं, वो नल्ला?’’ ‘‘सच में? क्या बात कर रहे हो.’’ ‘‘ऐसा क्या?’’ सभी तरहतरह से सवाल कर समाचार की प्रामाणिकता पर सत्य की मुहर लगवाना चाह रहे थे. लोगों के चेहरों पर संतोष छलक रहा था. ‘‘हांहां, सही में साब, वहीं से तो लौट रहा हूं. सुबह भाभीजी ने कहा तो भैयाजी लोगों के साथ क्रियाकर्म में गया. सब अभी लौटे हैं, उस ने अपनी चश्मदीद गवाही का पक्का प्रूफ दे दिया.

‘‘चलो, अच्छा हुआ. फांस कटी सब की.’’ ‘‘कालोनी की बला टली समझो.’’ ‘‘अपने परिवार वालों की भी नाक में दम कर रखा था कम्बख्त ने, ऐसा कोई आदमी होता है भला?’’ ‘‘तभी उस के परिवार का कोई दिख नहीं रहा यहां, वरना कोई न कोई तो जरूर आता. मानवधर्म और सुखदुख निभाने में उस के घर वाले कभी न चूकते.’’ सभी जगत नारायण से दुखी हृदय आज बेधड़क हो बोल उठे थे. वरना जगत जैसे लड़ाके के सामने कोई हिम्मत न जुटा पाता. अपने खिलाफ कुछ सुन भर लेता, तो खाट ही खड़ी कर देता सब की, उस की पत्नी नम्रता के लाख कहने पर भी वह किसी के मरने के बाद की शोकसभा आदि में कभी नहीं गया. नम्रता और उस के 3 बच्चे जगत से बिलकुल अलग थे. पास ही में अपने परिवार के साथ रहने वाली जगत की जुड़वां बहन कंचन अपने भाई से बिलकुल उलट थी.

अपने पति शील के साथ ऐसे मौके पर जरूर पहुंचती. ननदभाभी की एक ही कालोनी में रहते हुए भी, ऐसे ही कहीं बातें हो पातीं, क्योंकि जगत ने नम्रता को अपने घरवालों से बात करने पर भी पाबंदी लगा रखी थी. कहीं चोरीछिपे दोनों की मुलाकात देख लेता, तो दूर से ही दोनों को गालियां निकालना शुरू कर देता. पिछली बार हीरामल के निधन पर दोनों इकट्ठी हुई थीं. तभी लोगों को हीरामल का एकएक कर गुणगान करते देख नम्रता बोल उठी थी, ‘देख रही हो कंचन, भले आदमी को कितने लोग मरने के बाद भी याद करते हैं. तुम्हारे भैया तो तब भी उन्हें नहीं पूछते, उलटे गालियां ही निकालते हैं, इन के खयाल से तो इन के अलावा सारी दुनिया ही बदमाश है.’

‘नम्रता, भाई मत कहो. किसी से उस की बनी भी है आज तक? जब अम्माबाबूजी को नहीं छोड़ा. दोनों को जबान से मारमार कर हौस्पिटल पहुंचा दिया. खून के आंसू रोते थे वे दोनों, इस की वजह से. ‘शिव भैया और हम तीनों बहनें उस की शिकार हैं. समय की मारी तुम जाने कहां से पत्नी बन गई इस की. मैं तुम्हें पहले मिली होती तो तुम्हें इस से शादी के लिए मना ही कर देती. तुम्हारे सज्जन सीधेसादे पिता को इस ने धोखा दे कर तुम जैसी पढ़ीलिखी सिंपल लड़की से ब्याह रचा लिया, कि बस इसे ढोए जा रही हो आज तक. अरे कैंसर कोई पालता थोड़ी है, कटवा दिया जाता है. बच्चे भी कैसे निभा रहे हैं जंगली, घमंडी धोखेबाज बाप से. ‘क्या जिंदगी बना रखी है तुम सब की. कोई सोशललाइफ ही नहीं रहने दी तुम सब की. सब से लड़ाई ही कर डालता है. इस के संपर्क में आया कोई भी ऐसा नहीं होगा जिस से उस की तूतू मैंमैं न हुई हो. सब से पंगा लेना काम है इस का, फिर चाहे बच्चाबूढ़ाजवान कोई भी हो.

जब मरेगा तो कोई कंधा देने को आगे नहीं बढ़ेगा.’ सच ही तो था कामधाम कोई था नहीं उस के पास. फिर भी जाने किस अकड़ में रहता. सब से दोगुना पैसा वापस देने का झांसा दे कर टोपियां पहनाता रहता. वापस मांगने पर झगड़ा करता, मूल भी बड़ी मुश्किल से चुकाता. इसी से कोई भी उसे मुंह नहीं लगाना चाहता. पैसा जब तक कोई देता रहता तो दोस्त, वरना जानी दुश्मन. चाहे बहन की ससुराल का कोई हो, पड़ोसी, रिश्तेदार हो, पत्नी की जानपहचान का हो या बच्चों के फ्रैंड्स के पेरैंट्स. किसी से भी मांगने में उसे कोई झिझक न होती. यहां तक कि सब्जीवाले, प्रैसवाले, कालोनी के चौकीदार के आगे 10-20 रुपए के लिए भी उसे हाथ फैलाने में कोई शर्म न आती. बच्चे उस की हरकत से परेशान थे. नम्रता से कहते, ‘फार्म में पिता के व्यवसाय कालम में हमें यही डालना चाहिए लड़ना, झगड़ना टोपी पहनाना.’ ‘इन के कुहराम जिद और गालीगलौज से परेशान हो इन का झगड़ा सुलटाने चली जाती थी.

पर अब तो तय कर लिया, कोई इन्हें पीटे, तो भी नहीं जाऊंगी,’ नम्रता ने कहा. ‘बिलकुल ठीक, न इस के साथ जाने की जरूरत है न कोईर् पैसा देने की. झूठा एक नंबर का. गाता फिरता है कि कंपनी में इंजीनियर था, पैसा नहीं दिया उन लोगों ने तो उन की नौकरी को लात मार के चला आया. कहां का इंजीनियर, बड़ी मुश्किल से 12वीं पास की थी. अम्मा ने किसी तरह सिफारिश कर इसे कालेज में ऐडमिशन दिलाया था. 6 महीने में ही भाग छूटा वहां से, पर इस के सामने कौन कुछ कहे. सड़क पर ही लड़ने बैठ जाएगा. दिमाग का शातिर और गजब का आत्मविश्वासी. ‘देखदेख कर ठेकेदारी के गुर सीख गया. अपने को इंजीनियर बता कर ठेके पर काम हथिया लेता पर खुद की घपलेबाजी के चलते मेजर पेमेंट अटक जाती. फिर उन्हें गालियां बकता फिरता, ‘छोड़ूंगा नहीं सालों को, सीबीआई, कोर्ट, पुलिस सब में मेरी पहचान है. गौड कैन नौट बी चीटेड, उस का पसंदीदा डायलौग. पर सब से बड़ा चीटर तो वह खुद है. हम बहनें तो 10 सालों से इसे राखी तक नहीं बांधतीं, भैया दूज का टीका तो दूर की बात. तुम ने तो देखा ही है. ‘अरे उधर देखो नम्रता, वहां बैठा जगत कुछ खा रहा था. कोई मरे चाहे जिए, जन्म का भुक्खड़. फिर हमें साथ देख लिया तो हम दोनों की शामत. लड़ने ससुराल तक पहुंच जाएगा, नजरें बहुत तेज हैं शैतान की.

चलो बाय.’ कंचन कह कर चली गई थी. नम्रता और कंचन के इस वार्त्तालाप को अभी महीनाभर ही तो हुआ होगा कि कंचन के जगत के प्रति कहे हृदय उद्गार लोगों के मुख से सही में श्रद्धांजलि सुमन के रूप में निकल रहे थे. ‘‘हां भई, हां, सही खबर है. आज सुबह तड़के ही उस नामुराद, नामाकूल जगत ने आखिरी सांस छोड़ी. बड़ा बेवकूफ बनाया था उस ने सब को,’’ सिद्दीकी साहब ने यह कहा तो ललितजी मजे लेते हुए बोल उठे, ‘‘चलो अच्छा हुआ, बड़ा कहता फिरता था ब्रह्म मुहूर्त में पैदा हुआ हूं, कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. ब्रह्म मुहूर्त ने ही उसे मार डाला.’’ ‘‘कलेजे विच ठंड पै गई, मैनु इत्ता दुखी कीता इत्ता कि पुच्छो न. साडे वास्ते तो वडी चंगी गल हैगी,’’ गुरमीत साहब मुसकरा पड़े. जगत के घर से तीसरे घर में रहने वाले मिस्टर गौरव हैरान थे, बताने लगे, ‘‘अरे, कल ही तो शाम को देखा था उसे, गालियां निकालते, लंगड़ाते हुए अपने गेट में घुस रहा था. आंखों के नीचे बड़े काले निशान देख कर लग रहा था कि फिर कहीं से पिट कर आया है. उस की हालत देख कर मुझे हंसी आ रही थी, लेकिन कैसे पूछे कोई, कौन मुंह लगे, सोच मैं अंदर हो लिया.’’ ‘‘समझ नहीं आ रहा परिवार वालों को शोक संवदेना दें या बधाई,’

’ गणेश मुसकराते हुए बोले थे. ‘‘अजब संयोग हुआ, कहां नम्रता बिटिया कालेज की लैक्चरार, इतनी पढ़ीलिखी, समझदार, एक संभ्रांत परिवार से और कहां यह स्वभाव से उद्दंड, गंवार. जगत लगता ही नहीं था उस का पति किसी भी ऐंगल से. बिटिया के मांबाप तो पहले ही इस गम में चल बसे.’’ ‘‘नम्रता बहन की वजह से तीनों बच्चे पढ़ाई के साथसाथ संस्कारों में भी अच्छे निकल गए. बेटी स्टेट बैंक में पीओ हो गई, बेटा आस्तिक आईएस में सलैक्ट हो कर ट्रेनिंग पर जा रहा है, छोटी बेटी आराध्या बीटेक के आखिरी साल में पहुंच गई है,’’ ललितजी बोले थे. ‘‘बगैर उचित सुखसुविधाओं के, उस के आएदिन कुहराम के बीच बच्चों की मेहनत, काबिलीयत और नम्रता भाभी की मेहनत का फल है. वरना उस ने तो अपनी तरफ से बच्चे को लफडि़या बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी, पढ़ने नहीं देता उन को. कहता, इतना दिमाग खपाने की क्या जरूरत है, पैसे दे कर आराम से पास करा दूंगा,’’ गौरव ने टिप्पणी की. ‘‘वह तो कहो बापदादा का घर है, वरना तो जो कमाई बताता वह उस की लड़ाई के मारे हमेशा अटकी ही पड़ी रही.

परिवार को सड़क पर ही ले आता. बिटिया और बच्चों ने बड़ी ज्यादती बरदाश्त की इस की. अच्छा हुआ गया. बेचारों को चैन की सांस तो आएगी,’’ कह कर गणेश मुसकराए. ‘‘इसलिए, अब तय रहा शोकसंवेदना का कोई औचित्य नहीं. हम सब एकत्रित जरूर हैं लेकिन उस के प्रति अपनीअपनी भड़ास निकालने के लिए,’’ कह कर सोमनाथ मुसकराए थे. ‘‘अंकल, आप वहीं से बैठेबैठे कुछ बोलिए, जगत के पिता आप के अच्छे मित्रों में से थे,’’ सोमनाथ मिस्टर अखिलेश के पास अपना माइक ले आए थे. ‘‘अरे, जब वह छोटा था तब भी सब की नाक में दम कर रखा था उस ने. स्कूल, कालोनी में अकसर मारपिटाई कर के चला आता. टीचरों से भी पंगे लेता. कभी उन के बालों में च्यूइंगम तो कभी सीट पर उलटी कील ठोंक आता. उस से बेहद तंग आ कर पिता बद्री नारायण अपनी कच्ची गृहस्थी छोड़ कर चल बसे. पर 10-12 साल के जगत को कोई दर्द नहीं, उलटे सब से बोलता फिरता, ‘मर गए न, बड़ा टोकते थे खेलने से रोकेंगे और मना करें.’ एक साहित्यकार के बेटे ने जाने कहां से ये शब्द सीख लिए थे. ‘‘गुस्से के मारे उन की अंतिम विदाई में उन्हें अंतिम समय देखा तक नहीं और अंदर ही बैठा रहा, बाहर ही नहीं आया.

मां रमा रोतीपीटती ही रह गई थी. पहले मंदबुद्धि बड़े लड़के के बाद 2 लड़कियां, फिर जगत, 5वीं फिर एक लड़की. जगत के जन्म पर तो बड़ा जश्न मना. बड़ी उम्मीद थी उस से. पर जैसेजैसे बड़ा होता गया, कांटे की झाडि़यों सा सब को और दुखी करता गया.’’ अखिलेश अंकल बताए जा रहे थे. अखिलेश अंकल की बातें सुन कर कंचन बोल उठी, ‘‘आज मैं भी जरूर कुछ कहूंगी. अम्मा जब तक जिंदा थीं, आएदिन के अपने झगड़े से उन्हें परेशान कर रखा था उस ने. सब से लड़ताझगड़ता और मां बेचारी झगड़े सुलटाती माफी ही मांगती रहतीं. बाबूजी के दफ्तर में अम्मा को क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. कम तनख्वाह से सारे बच्चों की परवरिश के साथ जगत की नितनई फरमाइशें करतीं लेकिन जब पूरी कर पाना संभव न हो पाता तो जगत उन की अचार की बरनी में थूक आता, आटे के कनस्तर में पानी, तो कभी प्रैस किए कपड़े फर्श पर और उन का चश्मा कड़ेदान में पड़े मिलते. ऊंची पढ़ीलिखी नम्रता से धोखे से शादी कर ली, बच्चे पढ़ाई में अच्छे निकल गए. वैसे वह तो सभी को अंगूठाछाप, दोटके का कह कर पंगे लेता रहता. उस के बच्चों पर दया आती,’’ अपनी बात कह कर कंचन ने माइक शील को दे दिया.

‘‘कुछ शब्द ऐसे रिश्तेदार को क्या कहूं. मेरे घर में तो घर, मेरी बहनों की ससुराल में भी पैसे मांगमांग कर डकार गया. कुछ पूछो तो कहता, ‘कैसे भूखेनंगे लोग हैं जराजरा से पैसों के लिए मरे जा रहे हैं. भिखारी कहीं के. चोरी का धंधा करते हो, सब को सीबीआई, क्राइम ब्रांच में पकड़वा दूंगा. बचोगे नहीं,’ उसी के अंदाज में कहने की कोशिश करते हुए शील ने कहा. उस के बाद कई लोगों ने मन का गुस्सा निकाला. सीधेसादे सुधीर साहब बोल उठे, ‘‘मुझ से पहले मेरा न्यूजपेपर उठा ले जाता. उस दिन पकड़ लिया, ‘क्या ताकझांक करता रहता है घर में?’ तो कहने लगा, ‘अपनी बीवी का थोबड़ा तुझ से तो देखा जाता नहीं, मैं क्या देखूंगा.’ ‘‘मैं पेपर उस के हाथों से छीनते हुए बोला, ‘अपना पेपर खरीद कर पढ़ा कर.’ तो कहता ‘मेरे पेपर में कोई दूसरी खबर छपेगी?’ मैं उसे देखता रह जाता.’’ कह कर वे हंस पड़े. अपनी भड़ास निकाल कर उन का दर्द कुछ कम हो चला था. ‘‘अजीब झक्की था जगत. मेरी बेटी की शादी में आया तो सड़क से भिखारियों की टोली को भी साथ ले आया. बरात आने को थी, प्लेटें सजासजा कर भिखारियों को देने लगा. मना किया तो हम पर ही चिल्लाने लगा, ‘8-10 प्लेटों में क्या भिखारी हो जाओगे.

आने दो बरातियों को, देखूं कौन रोकता है?’ ‘‘जी कर रहा था सुनाऊं उस को पर मौके की नजाकत समझ कर चुप रहना मुनासिब समझा.’’ उस दिन न कह पाने का मलाल आज खत्म हुआ था, जगत के फूफा रविकांत का और अपनी बात कह कर वह मुसकरा उठे थे. गंगाधर ने हंसते हुए अपनी घड़ी की ओर अचानक देखा और फिर बोले, ‘‘भाइयो और बहनो, शायद सब अब अपनेअपने मन को हलका महसूस कर रहे होंगे, हृदय को शांति मिल गई हो, तो सभा विसर्जित करते हैं.’’ सभी ने सहमति जाहिर की और एकएक कर खड़े होने लगे थे कि लगभग भागता हुआ चौकीदार गोपी आ गया. उस के पीछे दोतीन और आदमी थे. जिन के हाथों में चायपानी का सामान था. ‘‘सुनीता भाभीजी जो जगत के घर के बराबर में रहती हैं, ने सब के लिए चाय, नमकीन बिस्कुट व समोसे भिजवाए हैं. मुझे इस के लिए पैसे दे गई थीं कि समय से सब को जरूर पहुंचा देना. पर ताजा बनवाने व लाने में जरूर थोड़ी देर हो गई. सारा सामान माखन हलवाई से गरमागरम लाया हूं.’’ गोपी अपने बंदों के साथ सब को परोस कर साथियों संग खुद भी खाने लगा. ‘‘भई वाह, कमाल है, न बाहर किसी को न घर में किसी को अफसोस. उलटे राहत ही राहत सब ओर. ऐसी श्रद्धांजलि तो न पहले कभी देखी न सुनी हो.’’

सभी के चेहरों की मंदमंद हंसी धीरेधीरे ठहाकों में बदलने लगी थी. जिस की गूंज पंडाल से बाहर तक आने लगी. अगले दिन सुबह हर रोज की तरह नम्रता उठ बैठी. जगत का हल्ला सुबह शुरू जो हो जाता था. आज शांति थी. बगल में सोए बच्चों को देखा. आज सालों बाद उन्हें इतनी गहरी नींद आईर् थी. वह परदा सरका कर विंडो से बाहर देखने लगी. इतना मुक्त, इतना हलका महसूस कर रही थी वह कि उसे यकीन नहीं हुआ. जो पड़ोसी उन के घर से कन्नी काटते निकलते थे, आज सुबह वे सब आराम से खड़े थे. द्य बाल बाल बचे मेरे पिताजी वकील थे. बहुत दिन किराए के घर में रहने के बाद मकान के लिए लोन ले कर उन्होंने खुद का मकान बनवाया. मकान छोटा था किंतु सुंदर और अच्छा बना था. ग्राउंडफ्लोर पूरा बन गया था. किंतु ऊपर छत खुली थी. रेलिंग आदि भी नहीं लगी थी. छत के दोनों कोनों पर 4-5 सरिए 3-4 फुट ऊंचे छोड़ दिए गए थे, ताकि ऊपर पिलर के सहारे फर्स्टफ्लोर बन सके. कुछ महीने किराए के मकान में रहने के बाद हम सब अपने मकान में जब आए तो सब की खुशी का ठिकाना नहीं था.

कुछ महीने बाद दीवाली आई. हम ने बच्चों से घर के कोनेकोने में दीया रखने को कहा. मैं थाली में दीए ले कर छत पर रखने के लिए गई. दीए रखने में मैं इतनी मशगूल थी कि मुझे पता ही नहीं चला कि छत का किनारा कब आ गया. अचानक एक पैर नीचे चला गया. गिरतेगिरते मैं ने सरिया पकड़ लिया और जोरजोर से चिल्लाने लगी. किंतु दीवाली के शोरशराबे में किसी ने मेरी आवाज नहीं सुनी. इतने में पड़ोस का एक बच्चा अपनी छत पर दीया रखने आया. मुझे इस हालत में देख वह सरपट नीचे भागा और सब को बताया. आननफानन बांस की सीढ़ी लगाई गई. नीचे से मुझे ऊपर की तरफ पुश कर रहे थे. ऊपर भी लोग मुझे धीरेधीरे उठा रहे थे. किसी तरह काफी मशक्कत के बाद मुझे ऊपर उठा लिया गया. ईंट और सीमेंट की वजह से पीठ और पैर आदि में तमाम खरोचें आ गई थीं.

उस दिन मैं मरतेमरते बालबल बची. वह दीवाली मुझे जीवनभर याद रहेगी. पुष्पा श्रीवास्तवा (सर्वश्रेष्ठ) बात तब की है जब मेरा बड़ा बेटा 3 साल का था और मैं दूसरी बार मां बनने वाली थी. मेरा 8वां महीना चल रहा था. हम देररात 12 बजे किसी रिश्तेदार के घर से वापस घर कार से जा रहे थे. कार मेरे पति चला रहे थे कि तभी सड़क के डिवाइडर को फांद कर एक गाड़ी तेजी से हमारी गाड़ी से आ टकराई. हमें समझ नहीं आया कि हुआ क्या है. गाड़ी साइड से पूरी तरह पिचक गई लेकिन मुझे और बेटे को कोई चोट नहीं लगी. पर झटका बहुत जोर का लगा. कुछ भी अनहोनी हो सकती थी क्योंकि प्रैग्नैंट थी. लेकिन बालबाल बच गई. आज भी वह ऐक्सिडैंट याद कर सिहर जाती हूं.

ये भी पढ़ें- अपराजिता: क्या कम हुआ रूपा मामी का अहंकार

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...