सुबह से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. पड़ोस के दीपक व महेश ने तो मौर्निंग वाक पर ही मुझे बधाई दे दी थी. हम ने भी हंस कर उन की बधाइयों को स्वीकार किया था और साथ ही उन की आंखों में अपने प्रति कुछ जलन भी महसूस की थी. फिर तो जिसे पता चलता गया, वह आ कर बधाई देता गया. जो लोग आ न सके, उन्होंने फोन पर ही बधाई दे डाली. हम भी विनम्रता की मूर्ति बने सब से बधाइयां लिए जा रहे थे. तो आइए आप को भी मिल रही इन बधाइयों का कारण बता दें. दरअसल, कल शाम ही हमारी श्रीमतीजी हम से लड़झगड़ कर मायके चली गई थीं. हमारी 35 साल की शादी के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि वे हम से खफा हो मायके गईं. हां, यह बात और थी कि मुझे कई बार अपने ही घर से गृहनिकाला अवश्य दिया जा चुका था. खैर, इतनी बड़ी जीत की खुशी हम से अकेले बरदाश्त नहीं हो रही थी, तो रात को खानेपीने के दौर में ये बात महल्ले के ही राजीव के सामने हमारे मुंह से निकल गई. तभी से अब तक बधाइयों का अनवरत दौर चालू था.

पिछली रात उन बांहों की कैद से आजाद हम बड़ी मस्त नींद सोए थे. यह बात और है कि सुबह उठने के बाद हमें उन के हाथों से बनी चाय का लुत्फ न मिल पाया. पर जल्द ही अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए हम ने अपने मर्दाना हाथों से एक कड़क चाय बनाई, जो इत्तफाक से कुछ ज्यादा ही कड़क हो गई, बिलकुल हमारी बेगम साहिबा के मिजाज की तरह.

चाय पीतेपीते ही खयाल आया कि आखिर फेसबुक के मित्रों ने हमारा क्या बिगाड़ा है? उन से भी तो हमें यह खुशखबरी बांटनी चाहिए. हम ने कहीं सुन रखा था कि खुशियां बांटने से बढ़ती हैं तो अपनी खुशी बढ़ाने की गरज से हम ने यों ही चाय पीते हुए अपनी एक सैल्फी ले कर फेसबुक पर अपनी नई पोस्ट डाल दी. फिर तो साहब देखने वाला माहौल बन गया. लाइक पर लाइक, कमैंट्स पर कमैंट्स आते रहे. आज तक हमारी किसी भी पोस्ट पर इतने लाइक्स या कमैंट्स नहीं आए थे. हम खुशी से फूले न समा रहे थे. सुबह के 10 बज रहे थे. कामवाली बाई अपना काम खत्म कर के जा चुकी थी. अब जोरों से लगती भूख ने हमें घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि हमें खाना बनाने का हुनर तो कुदरत ने बख्शा ही नहीं था. यही वह एक कमी थी जिस का फायदा हर झगड़े में हमारी श्रीमतीजी उठाती थीं. हम ने भी तय कर लिया था, बाहर खा लेंगे, पर अब इस लड़ाई में घुटने नहीं टेकेंगे. घर से बाहर निकलते ही हमारा सामना प्रेमा से हो गया, जो इत्तफाक से बाहर अपने प्यासे पौधों को पानी पिला रही थीं. हमें देख कर वे कुछ इस अदा से मुसकराईं कि हमें पतझड़ के मौसम में बसंत बहार नजर आने लगी. प्रेमा अभी कुछ महीनों पहले ही हमारे महल्ले में आई हैं.

उन के बारे में ज्यादा कोई नहीं जानता. बस, इतना ही मालूम था, 2 शादीशुदा बेटे विदेश में रहते हैं, और वे यहां अकेली. उम्र 55 से ऊपर, पर अभी भी बला की खूबसूरत नजर आती थीं. महल्ले के सभी यारों ने कभी न कभी उन की तारीफ में कुछ नगमे अवश्य सुनाए थे. खुद हम भी कहां कम थे, 62 की उम्र में भी दिल जवां था हमारा. उन की एक नजर हम पर भी कभी पड़े, इस हेतु हम ने बड़े जतन किए थे, पर आज श्रीमतीजी के हमारे साथ न होने से शायद हमारा समय चमक गया था. आज उन की इस मुसकान पर हम ठिठक कर रह गए…

नमस्ते मिहिर साहब, कहां जा रहे हैं? उन के पूछने पर जैसे हमारी तंद्रा टूटी.

जी, बस कुछ नहीं, श्रीमतीजी घर पर नहीं हैं, तो बे्रकफास्ट करने किसी रेस्तरां…

‘‘आइए चाय पी लीजिए, मैं कुछ गरमगरम बना देती हूं,’’ मेरी बात को बीच में ही उन्होंने काटते हुए कहा. एक भिखारी को अचानक ही रुपयों से भरा सूटकेस मिल जाए, हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही हो रही थी. हम ने एक बार भी मना किए बगैर उन के इस नेह निमंत्रण को स्वीकार कर लिया. चायनाश्ते के दौरान जब कभी हमारी निगाह मिलती, दिल की धड़कनें बढ़ती हुई प्रतीत होतीं. चाय के साथ गरमगरम पकौडि़यों संग उन की मीठीमीठी बातें. अच्छा हुआ हमें डाइबिटीज नहीं थी, वरना शुगर लैवल बढ़ते देर न लगती. इस दौरान उन्होंने अपनी मेड सर्वैंट से हमारी फोटो भी क्लिक करवाई, इस समय को यादगार बनाने के लिए.

हमारी खुशी का ठिकाना न था. घर आ कर हमें अपना खाली मकान भी गुलजार लगने लगा. श्रीमतीजी के मायके जाने की असल खुशी तो हमें आज हो रही थी. कुछ आराम करने के बाद हम ने अपना फेसबुक खोला, तो उस में प्रेमा की फ्रैंड रिक्वैस्ट देख कर हम फूले न समाए. उन के हमारी फ्रैंड लिस्ट में जुड़ने से जाने कितनों के दिल टूटने वाले थे.

खैर, शाम को जब पार्क में घूमते समय हम ने यह बात अपने दोस्तों को बताई, तो आश्चर्य से भरे उन के चेहरे उस वक्त देखने काबिल थे. कइयों ने उसी समय हम से अपनी पत्नी से लड़नेझगड़ने के नुस्खे उन्हें भी सिखा देने की रिक्वैस्ट की. हम महल्ले के हीरो बन चुके थे. रात का खाना प्रकाश के घर से आ चुका था. खाना खा कर बिस्तर पर लेटते ही हमें नींद ने आ घेरा, रातभर सपनों में भी हम प्रेमा के संग प्रेमालाप में व्यस्त रहे. अगली सुबह फ्रैश हो कर चाय पीतेपीते हम ने पूरे दिन का प्रोग्राम बनाया, जिस में प्रेमा के साथ शाम को घूमने का प्रोग्राम भी शामिल था. यह सोच कर कि मौर्निंग वाक पर जाते समय ही प्रेमा को निमंत्रण दे देना चाहिए, हम ने तैयार हो कर दरवाजे की तरफ पहला कदम बढ़ाया ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी. इतनी सुबह कौन होगा? हम ने दरवाजा खोला. दरवाजा खोलते ही हम गश खा कर गिरतेगिरते बचे, सामने हमारी श्रीमतीजी अपना सूटकेस लिए खड़ी थीं. हम ने कुछ हकलाते हुए कहा, ‘‘तुम इस वक्त यहां?’’

‘‘क्यों अपने ही घर आने के लिए हमें वक्त देखना पड़ेगा क्या?’’ श्रीमतीजी ने अपनी जलती हुई निगाहों से मुझे घूरते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, यह बात नहीं है, तुम कुछ गुस्से में गई थीं न, इसलिए…’’ हम ने उन्हें याद दिलाना चाहा.

‘‘सुना है, आसपड़ोसी तुम्हारा बहुत खयाल रख रहे हैं,’’ श्रीमतीजी के तेवर हमें ठीक नहीं लग रहे थे.

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम आ गईं. तुम्हारे बिना यह घर हमें काटने को दौड़ रहा था,’’ हम ने मुसकराना चाहा.

‘‘तभी तो दूसरों के घर अपना गम भुलाने गए थे तुम, है न?’’ श्रीमतीजी प्रश्न पर प्रश्न किए जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हारे लिए मस्त चाय बनाता हूं,’’ कहते हुए हम वहां से खिसक लिए. चाय पीते वक्त भी श्रीमतीजी की तीखी निगाहें हम पर ही टिकी थीं. कुछ देर बाद वे उठ कर घर के कामों पर नजर दौड़ाने लगीं. और हम अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ाने लगे इस बात पर कि आखिर श्रीमतीजी इतनी जल्दी वापस क्यों आ गईं? हमारा पूर्व निर्धारित पूरा प्रोग्राम चौपट हो चुका था. फिर भी हमें तसल्ली थी कि कम से कम उन्हें हमारी कारगुजारियों के बारे में पता तो नहीं चला. अब हम ने मोबाइल पर अपने फेसबुक की अपडेट्स लेनी चाही, तो ये देख कर चौंक गए कि प्रेमाजी ने कल सुबह के नाश्ते की तसवीर फेसबुक पर डाल कर मुझे टैग किया हुआ था, यह लिख कर कि ‘हसीं सुबह की चाय का लुत्फ एक नए दोस्त के साथ’ और श्रीमतीजी ने न केवल उसे लाइक किया था, बल्कि कमैंट भी लिखा था. अब हमें उन के तुरंत लौट आने और उन की तीखी निगाहों का कारण समझ में आ गया. इस बात के लिए उन्हें क्या सफाई देंगे, इस बात पर सोच ही रहे थे कि दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई. श्रीमतीजी ने दरवाजा खोला, तो सामने प्रेमा हमारी ही उम्र के एक अनजान व्यक्ति के साथ नजर आईं.

‘‘हाय स्वीटी,’’ उन्होंने मुसकरा कर मेरी श्रीमतीजी को गले से लगाते हुए कहा.

‘‘आओ प्रेमा, आओ,’’ श्रीमतीजी उन्हें अंदर लाते हुए बोलीं.

नमस्ते जीजाजी, प्रेमा ने मेरी ओर मधुर मुसकान बिखेरते हुए कहा.

‘जीजाजी, यह शब्द हम पर हथौड़े की भांति पड़ा. मगर फिर भी हम अपनेआप को संभालने में कामयाब रहे. तभी श्रीमतीजी ने प्रेमा के साथ आए आगंतुक का परिचय कराते हुए कहा, ‘ये हैं डा. अनिवनाश जैन, प्रेमा के पति.’

‘‘जी हां, और पिछले कुछ महीनों से मुझ से झगड़ कर अपने मायके यानी मेरे सासससुर के पास रह रहे थे. और आज आप के कारण ही हम दोबारा एक हो पाए हैं. आप का बहुतबहुत धन्यवाद, जीजाजी,’’ कह कर प्रेमा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

‘‘हां मिहिर, प्रेमा मेरी कालेज की सहेली है. कुछ महीनों पहले जब यहां शिफ्ट हुई, तब एक बार अचानक ही हमारी मुलाकात हो गई और बातोंबातों में उस ने बताया कि अविनाश से किसी बात को ले कर उस की काफी कहासुनी हो गई है, और इसीलिए वह अकेली रह रही है. और तभी हमारे दिमाग में यह प्लान आया और मैं जानबूझ कर तुम से लड़ कर मायके चली गई क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे सामने तो तुम इस के पास जाने से रहे,’’ कह कर श्रीमतीजी बेसाख्ता हंस पड़ीं. उन के साथ प्रेमा और अविनाश भी मुसकराने लगे.

ओह, तो इस का मतलब है हमें मुरगा बनाया गया. अब शुरू से आखिर तक की सारी कहानी हमारी समझ में आ चुकी थी. श्रीमतीजी का यों लड़ कर मायके जाना, प्रेमा का प्यार जताना, हमारी फोटो फेसबुक पर डालना ताकि उसे देख अविनाश वापस आ जाए. मतलब जिसे हम अपनी जीत समझ रहे थे. वह मात्र एक भ्रम था. ‘‘लेकिन अगर अविनाश अभी वापस नहीं आते?’’

हमारे इस प्रश्न पर श्रीमतीजी मुसकुराते हुए बोलीं, ‘‘तो यह नाटक कुछ दिनों और चलता. मैं मायके से अभी वापस नहीं आती.’’

अब हमारे पास सिवा मुसकराने के और कोई चारा नहीं था. मन ही मन इस बात की तसल्ली थी कि प्रेमा के संग प्यार की पींगें न सही, साली के रूप में आधी घरवाली मिलने का संतोष तो है.

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