हाथों में ब्रश पकड़ आरती अपने हुनर को निखारने में लगी थी जबकि उस की बड़ीछोटी बहनें बिगाड़ने में. पर मां ही थीं, जो उसे समझतीं तो वह फिर से बनाती. शादी के बाद पति का साथ मिला तो उस को इसी हुनर से नई पहचान मिली. क्या वह बड़ीछोटी बहनों द्वारा की गई शरारतों को भूल पाई… आरती ने पलट कर अपनी बड़ीछोटी बहनों की ओर देखा. किसी बात पर दोनों खिलखिला उठी थीं. बेमौसम बरसात की तरह यों उन का ठहाका लगाना आरती को भीतर तक छेद गया. ‘सोच क्या रही है, तू भी सुन ले हमारी योजना और इस में शामिल हो जा,’ बड़ी फुसफुसाई. ‘कैसी योजना?’

‘है कुछ,’ छोटी फुसफुसाई. आरती की निगाहें बरबस ओसारे पर बिछी तख्त पर जा टिकीं. दुग्धधवल चादर बिछी हुई है. उसे भ्रम हुआ जैसे अम्मा उस पर बैठी उसे बुला रही हैं, ‘आ बिटिया, बैठ मेरे पास.’ ‘क्या है अम्मा?’ ‘तू इतनी गुमसुम क्यों रहती है री, देख तो तेरी बड़ीछोटी बहनें कैसे सारा दिन चहकती रहती हैं.’ आरती हौले से मुसकरा दी. फिर तो अम्मा ऊंचनीच समझतीं और वह ‘हां…हूं’ में जवाब देती जाती. बड़ी बहन बाबूजी की लाड़ली थी, तो छोटी अम्मा की. आरती का व्यक्तित्व उन दोनों बहनों की शोखी तले दब सा गया था. वह चाह कर भी बड़ीछोटी की तरह न तो इठला पाती थी, न अपनी उचितअनुचित फरमाइशों से घर वालों को परेशान कर सकती थी. वह अपने मनोभावों को चित्रों द्वारा प्रकट करने लगी. हाथों में तूलिका पकड़ वह अपने चित्रों के संसार में खो जाती जहां न अम्मा का लाड़, न बाबूजी का संरक्षण, न बहनों का बेतुका प्रदर्शन और न ही भाई की जल्दबाजी.

रंगोंलकीरों में उस का पूरा संसार सन्निहित था. जो मिल जाता, पहन लेती, चौके में जो पकता, खा लेती. न तो कभी ठेले के पास खड़े हो कर किसी ने उसे चाट खाते देखा और न वह कभी छिपछिप कर सहेलियों के संग सिनेमा देखने गई. बड़ीछोटी बेटियों की ऊंटपटांग हरकतों से अम्मा झल्ला पड़तीं, ‘आखिर आरती भी हमारी ही बेटी है. हमें जरा सा भी परेशान नहीं करती और तुम दोनों जब देखो, कोई न कोई उत्पात मचाती रहती हो.’ ‘भोंदू है आरती, सिर्फ लकीरें खींच कर कोई काबिल नहीं बनता,’ बड़ी अपमान से तिलमिला उठती. ‘अम्मा, तुम भी किस का उदाहरण दे कर हमें छोटा बताती हो, उस घरघुस्सी का,’ छोटी भला कब पीछे रहने वाली थी. ‘वह भोंदू, मूर्ख है और तुम लोग…’ अम्मा देर तक भुनभुनाती रहतीं, जिस का परिणाम आरती को भुगतना पड़ता.

पता नहीं, कब बड़ीछोटी आंखों से इशारा करतीं, एकदूसरे के कानों में कुछ फुसकतीं और दूसरे दिन आरती के चित्रों का सत्यानाश हो गया होता. फटे कागज के बिखरे टुकड़े, लुढ़का रंगों का प्याला… ब्रश की ऐसी हालत कर दी गई होती कि वह दोबारा किसी काम का न रहे. बिलखती आरती अम्मा से फरियाद करती, ‘अम्मा, अम्मा, देखो मेरी पेंटिंग की हालत… मैं ने कितनी मेहनत से बनाई थी.’ ‘फिर से बना लेना. हाथ का हुनर भला कौन छीन सकता है,’ अम्मा आरती को दिलासा दे कर अपनी बड़ीछोटी बेटियों पर बरस पड़तीं, ‘यह कौन सा बहादुरी का काम किया तुम लोगों ने आरती को दुख पहुंचा कर.’ अम्मा देर तक भुनभुनाती रहतीं और बड़ीछोटी बेहयाई से कंधे उचकाती आरती को परेशान करने के लिए नई खोज में डूब जातीं. वहीं, वे दोनों आज आरती को किस योजना में शामिल होने का न्योता दे रही हैं,

इसे आरती का निश्चल हृदय खूब समझता है. अम्मा की तेरहवीं हुए अभी 2 दिन भी नहीं बीते, नातेरिश्तेदार एकएक कर चले गए. सिर्फ बच गए हैं हम पांचों भाईबहन. ‘‘भाभी, मैं कल जाऊंगी,’’ आरती ने रोटी खाते हुए कहा. ‘‘दोचार दिन और रुक जातीं.’’ ‘‘नहीं भाभी, वहां बच्चे अकेले हैं. आनाजाना लगा ही रहेगा.’’ जिस घर में उस का जन्म हुआ, पलीबढ़ी, जवान हुई, सपनों ने उड़ान भरी, वहां से निकल जाना ही उचित है. पता नहीं, बहनें कौन से कुचक्र में भागीदार बनने पर मजबूर करें. वह थकीहारी अपने आशियाने लौटी, तो पति सुदर्शन और दोनों प्यारे बच्चे उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. ‘‘सब कुशलमंगल तो है न. नहाधो कर फ्रैश हो जाओ. मैं ने डिनर तैयार कर लिया है.’’ पति का स्नेह, बच्चों का ‘मम्मा, मम्मा’ करते लिपटना…

वह सारी कड़वाहटें भूल गई. ‘‘यह तुम्हारे लिए…’’ ‘‘क्या है लिफाफे में…’’ ‘‘स्वतंत्रता दिवस पर बनाई गई तुम्हारी पेंटिंग, पोस्टर को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है. बुलाहट है दिल्ली के लालकिले पर पुरस्कार के लिए, उसी का निमंत्रणपत्र है.’’ ‘‘मम्मा, हम भी चलेंगे लालकिला देखने,’’ बच्चे मचल उठे. ‘‘अरे, हम सभी चलेंगे. चलने की तैयारी करो,’’ पति के उल्लासमय आह्वान पर आरती का दुखी हृदय खुशियों से भर उठा. जिस हुनर को मायके में हंसी का पात्र बनाया गया, वही पुरुषार्थी पति का सहयोग पा कर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान बना रहा है. ‘मां, यह तुम्हारा प्यार है शायद जिस ने मु?ो कभी भी कमजोर पड़ने न दिया, अपने मार्ग से भटका न सका और जिस की वजह से मेरा जनून मेरी ताकत बना…’ मन ही मन सोचती आरती का भावुक होना स्वाभाविक था. आरती का मन पाखी पुरानी यादों में खो गया

… खामोश, काम से काम रखने वाली आरती को अपने सहकर्मी के विनम्र, सुल?ो हुए साहसी स्वभाव ने आकर्षित कर लिया. अनाथ यश का प्रस्ताव, ‘मुझ से विवाह करोगी?’ ‘मां से बात करनी पड़ेगी,’ कहती हुई आरती ने नजरें झका लीं. उस ने डरतेडरते मां से बात की, ‘मां, यश आप से मिलना चाहता है. मेरा सहकर्मी है.’ ‘किसलिए,’ अनुभवी मां की आंखें चौड़ी हो गईं. यश की सज्जनता को देख परिवार प्रभावित हुआ, किंतु विजातीय विवाह की अनुमति नहीं, ‘लोग क्या कहेंगे…’ बहनों ने घर सिर पर उठा लिया, ‘विवाह में खर्च कौन करेगा…’ इस बार आरती ने दिल से काम लिया. कोर्ट में विवाह कर दूल्हे के संग मां का आशीर्वाद लेने पहुंची. तब सब ने मुंह मोड़ लिया किंतु मां के मुख से निकला, ‘सदा सुहागन रहो.’ बचपन से ही आरती को पेंटिंग, कढ़ाईसिलाई के अलावा रचनात्मक कार्यों में अभिरुचि थी. पति का साथ पा कर उस ने अपनी प्रतिभा को निखारना शुरू किया.

उस की खूबसूरत डिजाइन के परिधानों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया. मांग बढ़ने लगी. इसी बीच वह 2 बच्चों की मां बनी. ससुराल में कोई था नहीं और मायके से कोई उम्मीद नहीं. इधर, बुटीक का काम चल निकला. नौकरी पहले ही छोड़ चुकी थी वह. अब पति ने भी अपना पूरा समय बुटीक को देना शुरू कर दिया. एक कमरे के व्यवसाय से प्रारंभ बुटीक का कारोबार आज शहर के बीच में है. आज उस की आमदनी हजारों में है. 4 कारीगर रखे हुए हैं. जब भी मां की याद आती, आरती उन से मिल आती, रुपएपैसे से उन की मदद करती. मां को अपने पास ला कर सेवासुश्रुषा करती.

मां के दिल से यही दुआ निकलती, ‘तुम्हें दुनियाजहान की सारी खुशियां मिलें.’ उसे भाईभाभी से कोई शिकायत नहीं थी किंतु बहनों को अपनी कामयाबी की भनक तक नहीं लगने दी. आरती को उन के खुराफाती दिमाग और कुटिल चालों की छाया तक अपने संसार पर गवारा नहीं थी. उसी धैर्य और हुनर का परिणाम है कि आज उसे पुरस्कृत किया जा रहा है… उस ने मन ही मन मृत मां को धन्यवाद दिया. सुखसंतोष से वह पुलकित हो उठी.

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