छिछली होती सोच का नतीजा यह है कि आज किसी भी हिंदी, अंगरेजी अखबार या चैनल को खोल लें उस में ज्यादातर खबरें सैलिब्रिटीज के खाने, पहनने, बीच पर नहाने, एअरपोर्ट पर आनेजाने पर होती हैं. ऐश्वर्या राय, अभिषेक बच्चन और उन की बेटी आराध्य न्यूयौर्क से मुंबई आईं तो फोटोग्राफरों का हुजूम जमा था और जब ये फोटो इंस्टाग्राम पर डाले गए तो हजारों नहीं लाखों तक लाइक्स मिले.

शाहरुख खान के जन्मदिन के मौके पर उन के घर के सामने खड़ी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा. तमन्ना भाटिया और विजय का किसिंग फोटो इतना वायरल हुआ कि टाइम्स औफ इंडिया ने इस की पूरी खबर बना कर छाप दी और उस का औनलाइन वीडियो जम कर चला. दीया मिर्जा अपने पति वैभव और स्टैप डौटर समायरा के साथ दिखीं, यह इंडियन एक्सप्रैस के लिए खबर थी.

आखिर इस सब का मतलब क्या है? ये आम जिंदगी को किस तरह प्रभावित करते हैं कि इन सैलिब्रिटीज के कपड़ों पर, बोलने पर, रंग पर, फैशन पर समय और शक्ति बरबाद की जाए? तमाशा हरेक को अच्छा लगता है पर जब जिंदगी तमाशे में डूब जाए और हरकोई टिकटौक या इंस्टाग्राम की रील्स के लाइक्स गिनने शुरू कर दे तो साफ है कि जनता की सोच की शक्ति गहरे पानी में डूब चुकी है.

तमाशा उबाऊ मेहनती जिंदगी से राहत पाने के लिए अच्छा है पर इस के लिए अपना समय और मेहनत मोबाइलों पर लाइक्स डालने में लगा लेने वाली जनता को वे परेशानियां उठानी ही पड़ेंगी, जो आज दिख रही हैं. आज दुनियाभर में एक तरह की अशांति है. कोविड-19 का डर इतना नहीं रह गया जितना कि नौकरियां खोने का. पैसे की तंगी का, पतिपत्नी या प्रेमीप्रेमिका का भय है.

यह इसलिए है कि जिंदगी को जिस गंभीरता से जीना जरूरी है उसे हम भूलने लगे हैं. हमारी जिंदगी की डोर अब कुछ सितारों, कुछ सैलिब्रिटीज के हाथों में हो गई है. ऐसा नहीं है कि पहले सबकुछ अच्छा था. सदियों तक लोग राजाओं और देवीदेवताओं के गुलाम रहते थे और वे जो अत्याचार करते, अनाचार करते, सहते थे. इतिहास बारबार अकालों, बीमारियों, युद्धों से भरा है. दुनियाभर में विशाल किले और मंदिर, चर्च, मसजिदें हैं पर आम लोगों के घर अभी पिछले कुछ सौ साल पहले बनने शुरू हुए जब साइंस और तकनीक ने धर्म और राजाओं की थोपी सोच से मुक्ति दिलाई.

अफसोस कि कहीं पेले, कहीं विराट कोहली, कहीं अमिताभ, कहीं लेडी गागा की चर्चाएं लोगों को फिर बहकाने लगी हैं और शासक व धर्म भी उन की सहायता से जनता को बेवकूफ बनाए रखने में सफल हो रहे हैं. आज वैज्ञानिक व चिंतक सिर्फ दिखावटी मजदूर रह गए हैं. वे गुलामों की तरह के हैं. उन से ज्यादा नहीं. यह चुनना हरेक का अपना फैसला कि उस का आदर्श कोई तमाशबीन है या वह जो खोज करता है, सवालों के हल ढूंढ़ता है, निर्माण करता या करवाता है. आप का फैसला क्या है?

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