‘‘मधुकर, रूपाली कहां है?’’ विनीलाजी ने पूछा. वे मधुकर की कार की आवाज सुन कर बाहर चली आई थीं. मधुकर के अंदर आने की प्रतीक्षा भी नहीं की थी उन्होंने.

‘‘कहां है मतलब? घर में ही होना चाहिए उसे,’’ मधुकर चकित स्वर में बोला.

‘‘लो और सुनो, सुबह तुम्हारे साथ ही तो गई थी, होना भी तुम्हारे साथ ही चाहिए था. मैं ने सोचा, तुम दोनों ने कहीं घूमनेफिरने का कार्यक्रम बनाया है. यद्यपि तुम ने हमें सूचना देने की आवश्यकता भी नहीं समझी.’’

‘‘मां, हमारा कोई कार्यक्रम नहीं था. रूपाली को कुछ खरीदारी करनी थी. मैं ने सोचा कि शौपिंग कर के वह घर लौट आई होगी,’’ मधुकर चिंतित हो उठा.

‘‘रूपाली तो दूसरे परिवार से आई है, पर तुम्हें क्या हुआ है? इस घर के नियम, कायदे तुम तो अच्छी तरह जानते हो.’’

‘‘कौन से नियम, कायदे, मां?’’ मधुकर ने प्रश्नवाचक मुद्रा बनाई.

‘‘यही कि घर से बाहर जाते समय यदि

तुम लोगों का अहं बड़ों से अनुमति लेने की औपचारिकता नहीं निभाना चाहता तो न सही, कम से कम सूचित कर के तो जा सकते हो. सुबह

9 बजे घर से निकली है रूपाली. कम से कम फोन तो कर सकती थी कि कहां गई है और घर कब तक लौटेगी,’’ विनीलाजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘सौरी, मां, भविष्य में हम ध्यान रखेंगे. मैं अभी पता लगाता हूं…’’

मधुकर ने रूपाली का नंबर मिलाया और उस का स्वर सुनते ही बरस पड़ा, ‘‘कहां हो तुम? सुबह 9 बजे से घर से निकली हो. अभी आफिस से घर पहुंचा हूं और तुम गायब हो. मां बहुत क्रोधित हैं. तुरंत घर चली आओ.’’

‘‘अरे वाह, कह दिया घर चली आओ. मैं ने तो सोचा था कि तुम आफिस से सीधे यहां मुझे लेने आओगे.’’

‘‘कहां लेने आऊंगा तुम्हें? मुझे तो यह भी पता नहीं कि तुम हो कहां.’’

‘‘मैं कहां होऊंगी, इतना तो तुम स्वयं भी सोच सकते हो. अपने मायके में हूं मैं. और कहां जाऊंगी.’’

‘‘फिर से अपने मायके में? तुम तो शौपिंग करने गई थीं, उस के बाद अपने घर आना चाहिए था,’’ मधुकर क्रोधित हो उठा.

‘‘क्यों नाराज होते हो. आज मेरे पापा का जन्मदिन है. उन के लिए उपहार खरीदने ही तो गई थी,’’ रूपाली रोंआसे स्वर में बोली.

वह अपने अभिनय और अदाओं से अपना काम निकलवाने और दूसरों को प्रभावित करने में अत्यंत कुशल थी.

लेकिन उस ने जो नहीं बताया था वह यह कि उस ने उपहार केवल अपने पापा के लिए ही नहीं, अपनी मम्मी, भाईभाभी और उन के प्यारे से 5 वर्षीय पुत्र रिंकी के लिए भी खरीदे थे. साथ ही बड़ा सा केक, मिठाई, नमकीन आदि ले कर वह अपने पापा का जन्मदिन मनाने के इरादे से अपने घर पहुंची थी और फिर सभी उपहार अपने मम्मीपापा, भाईभाभी के समक्ष फैला दिए थे.

उपहार देख कर मायके वालों ने उत्साह नहीं दिखाया तो रूपाली को निराशा हुई.

‘‘इतना सब खर्च करने की क्या आवश्यकता थी, रूपाली? तुम तो जानती हो कि मैं जन्मदिन मनाने की औपचारिकता में विश्वास नहीं रखता. क्या तुम ने कभी मुझे जन्मदिन मनाते देखा है?’’

‘‘आप विश्वास नहीं करते न सही पर मैं तो आप का जन्मदिन धूमधाम से मनाना चाहती हूं. पर देख रही हूं कि आजकल आप लोगों को मेरा यहां आना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘कैसी बातें करती है, बेटी? तू तो हमें प्राणों से भी प्यारी है. पर कुछ अन्य बातों का भी खयाल रखना पड़ता है,’’ उस के पापा हरदयालजी ने उसे सीने से लगा लिया था. उस ने अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘ऐसी किन बातों का खयाल रखना पड़ता है, पापा?’’ रूपाली ने पूछा. इस से पहले कि पापा कुछ कह पाते, मधुकर का फोन आ गया था.

फोन पर मधुकर का स्वर सुनते ही वह सकपका गई थी. उस के स्वर से ही रूपाली को उस के क्रोध का आभास हो गया था. पर हरदयालजी के जन्मदिन की बात सुन कर वह शांत हो गया था.

‘‘तुम ने बताया नहीं था कि पापा का

जन्मदिन है आज? जरा फोन दो उन्हें, मैं भी बधाई दे दूं,’’ रूपाली ने फोन उन्हें पकड़ा दिया.

‘‘रूपाली आई है, तुम भी आ जाते तो अच्छा लगता,’’ जन्मदिन की बधाई स्वीकार कर धन्यवाद देते हुए हरदयालजी बोले.

‘‘क्षमा करिए, पापा, आज नहीं आ सकूंगा. अभी आफिस से आया हूं. कल इंस्पैक्शन है. बहुत सा काम घर ले कर आया हूं. फिर कभी आऊंगा, फुरसत से.’’

‘‘ठीक है. हम वृद्धों का जन्मदिन मनाने का समय कहां है तुम युवाओं के पास,’’ हरदयालजी हंसे.

‘‘ऐसा मत कहिए, पापा. रूपाली ने पहले कहा होता तो मैं अवश्य आता. भैया से कहिएगा कि रूपाली को घर छोड़ दें,’’ मधुकर ने स्वर को भरसक मीठा बनाने का प्रयास किया था. पर हरदयालजी ने उस के स्वर की कटुता को फोन पर भी अनुभव किया था.

हरदयालजी ने केक काटा था. रूपाली की भाभी ने कुछ अन्य पकवान बना लिए थे और रूपाली और उस के भाई रतन ने मिल कर हरदयालजी के जन्मदिन को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

‘‘रतन बेटे, रूपाली को उस के घर छोड़ आओ और देर करना ठीक नहीं है.’’

‘‘15-20 मिनट रुकिए, मैं जरा बाजार तक जा कर आता हूं,’’ कह कर रतन बाहर निकल गया और रूपाली अपने मातापिता से बातचीत में व्यस्त हो गई.

तभी रिंकी, उस का 5 वर्षीय भतीजा उस का हाथ पकड़ कर खींचने लगा.

‘‘क्या है, रिंकी? कहां ले जा रहा है बूआ को?’’ हरदयालजी ने प्रश्न किया था.

‘‘दादाजी, बूआजी को मम्मी बुला रही हैं.’’

‘‘क्या बात है भाभी? आप मुझे बुला रही थीं? वहीं आ जातीं न,’’ रूपाली हैरान थी.

‘‘जो कुछ मैं तुम से कहना चाहती हूं, रूपाली, वह मां और पापा के सामने कहना संभव नहीं हो सकेगा,’’ उस की भाभी रिया बोली.

‘‘ऐसी भी क्या बात है, भाभी?’’

‘‘पहली बात तो यह कि तुम जो उपहार

अपने भैया और मेरे लिए लाई हो मैं नहीं रख सकती, रिंकी का उपहार मैं ने रख लिया है.’’

‘‘क्यों भाभी?’’

‘‘मैं तुम से बड़ी हूं, रूपाली, जो कहूंगी तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगी. आशा है तुम मेरी बात का बुरा नहीं मानोगी.’’

‘‘आप की बात का बुरा मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. आप ने तो सदा मुझे अपनी सगी बहन जैसा दुलार दिया है.’’

‘‘तो सुनो, रूपाली, तुम्हारी नईनई शादी हुई है. अब वही तुम्हारा परिवार है. नए वातावरण में हर किसी को अपना स्थान बनाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है. इस तरह हर दूसरे दिन तुम्हारा यहां आना उन्हें शायद ही अच्छा लगे.’’

‘‘मैं समझ गई, भाभी. यह साड़ी मैं ने आप के लिए बड़े चाव से खरीदी थी. इसे तो आप रख लीजिए.’’

‘‘सही अवसर देख कर यह साड़ी तुम मधुकर की मां को भेंट कर देना, उन्हें अच्छा लगेगा. हम सब तुम से भलीभांति परिचित हैं, रूपाली. पर ससुराल में तुम्हारे नए संबंध बने हैं. उन्हें प्रगाढ़ करने के लिए तुम्हें प्रयत्न

करना पड़ेगा.’’

‘‘आप ने मुझे ठीक से समझा नहीं है, भाभी. मैं वहां भी सब को यथोचित सम्मान देती हूं पर आप सब से मिलने को मेरा मन तड़पता रहता है. इसीलिए अवसर मिलते ही दौड़ी चली आती हूं. हर पल मांपापा की याद मुझे व्याकुल करती है, भाभी. उन को समय से दवा देना, उन के स्वास्थ्य का खयाल रखना, कौन करेगा, भाभी? यह सब मैं ही तो किया करती थी,’’ रूपाली सिसकने लगी.

‘‘मैं ने तुम्हें दुखी कर दिया, रूपाली. तुम्हारी जैसी ननद और बहन पाना तो सौभाग्य की बात है पर अब अपने लिए सोचो, रूपाली. हम सब तुम्हारी सुखी गृहस्थी देखना चाहते हैं. इसीलिए तुम्हें समझाने का यत्न कर रही थीं मांपापा की चिंता करने को मैं हूं न.’’

‘‘यह क्यों नहीं कहतीं भाभी कि अब मेरा आना आप को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘गलती से भी ऐसी बात मुंह से नहीं निकालना, रूपाली. अकसर महिलाओं से ही ऐसी आशा की जाती है कि वे जिस परिवार से

20-25 वर्षों तक जुड़ी रही हैं उसे एक झटके से भूल जाएं. पर चिंता क्यों करती हो, जब मन हो, फोन कर सकती हो. मोबाइल है न तुम्हारे पास. जब मेरा विवाह हुआ था तब तो यह सुविधा भी नहीं थी. प्रियजनों से बात करने को तरस जाती थी मैं.’’

भाभी का भर्राया स्वर सुन कर चौंक गई थी रूपाली. अपनों से दूर होने की त्रासदी भोगने वाली वह अकेली नहीं है. यह तो उस जैसी हर युवती की व्यथा है पर अब वह स्वयं को इस परिवर्तन के लिए तैयार करेगी. भावुकता में बह कर सब के उपहास का पात्र नहीं बनेगी.

उस की विचारधारा तो समुद्र की तरह अविरल बहती रहती पर तभी रतन भैया लौट आए थे. वे मिठाइयों के डब्बे, मेवा, नमकीन, उस के, मधुकर तथा परिवार के अन्य सदस्यों के लिए उपहार लाए थे.

‘‘इतना खर्च करने की क्या जरूरत थी, भैया?’’ रूपाली संकोच से घिर गई थी.

‘‘यह बेकार का खर्च नहीं है, पगली.

यह तो तेरे भैया के स्नेह का प्रतीक है. जब

भी इन वस्तुओं को देखोगी. भैया को याद

कर लोगी.’’

शीघ्र ही उपहारों के साथ रूपाली को ले कर रतन उस के घर पहुंचे.

‘‘यह सब क्या है, रूपाली? इस तरह बिना बताए घर से चले जाना कहां की समझदारी है. पूरे दिन चिंता के कारण हमारा बुरा हाल था,’’ रूपाली को देख कर विनीलाजी स्वयं पर संयम न रख सकीं.

‘‘भूल हो गई रूपाली से, आंटी. आज पापा

का जन्मदिन था. हर्ष के अतिरेक में आप को सूचित करना भूल गई. आज क्षमा कर दें, आगे से ऐसा नहीं होगा,’’ रतन ने रूपाली की ओर से क्षमा मांगी.

‘‘यह क्या भले घर की बहूबेटियों के लक्षण हैं? कभी सहेली के यहां चली जाती है, कभी मायके जा बैठती है. रतन बेटे, बुरा मत मानना, मैं ने रूपाली और अपनी बेटी में कभी कोई अंतर नहीं समझा पर गलती के लिए टोकना ही पड़ता है.’’

‘‘अब बस करो, मां. मैं समझा दूंगा रूपाली को. रतन भैया को चायपानी के लिए तो पूछो,’’ मधुकर ने हस्तक्षेप किया.

तभी मधुकर की छोटी बहन संगीता ने चायनाश्ता लगा दिया. अब तक विनीलाजी

का क्रोध भी शांत हो गया था. मधुकर के पिता आदित्य बाबू रतन से वार्त्तालाप में लीन हो गए.

‘‘अपने पापा को हमारी शुभकामनाएं भी देना, बेटे,’’ रतन चलने लगा तो आदित्य बाबू और विनीलाजी ने वातावरण को सामान्य करने का प्रयत्न किया.

रतन के जाते ही रूपाली के आंसुओं

का बांध टूट गया. वह देर तक फफक कर रोती रही.

‘‘यदि तुम्हारा रोने का कार्यक्रम समाप्त हो गया हो तो मैं कुछ कहूं,’’ रूपाली को धीरेधीरे शांत होते देख कर मधुकर ने प्रश्न किया.

‘‘अब भी कुछ कसर रह गई हो

तो कह डालो,’’ रूपाली सुबकते हुए बोली.

‘‘मुझे कुछ शौपिंग करनी है,

यही कह कर तुमघर से निकली थीं फिर अचानक अपने घर क्यों पहुंच गईं?’’

‘‘पापा का जन्मदिन था. वहां चली गई तो

क्या हो गया?’’

‘‘ठीक है, पर जब तुम ने यह निर्णय लिया तो मुझे या मां को सूचित करना चाहिए था या नहीं?’’

‘‘मैं क्या तुम लोगों की कैदी हूं कि अपनी इच्छा से कहीं आजा नहीं सकती?’’

‘‘रूपाली, अब तुम हमारे घर की सदस्या हो और तुम्हारे व्यवहार से हमारे परिवार की गरिमा और मानसम्मान जुड़े हुए हैं. तुम मांपापा की आशा, आकांक्षाओं का केंद्रबिंदु हो. तुम ने न केवल उन्हें, बल्कि स्वयं अपने परिवार को भी बहुत दुख पहुंचाया है. मैं भविष्य में इस घटना की पुनरावृत्ति नहीं चाहता.’’

‘‘तुम मुझे धमकी दे रहे हो?’’

‘‘यही समझ लो. सप्ताह में 3 दिन वहां जा कर पड़े रहने में तुम्हें कुछ अजीब नहीं लगता तो मुझे कुछ नहीं कहना,’’ तर्कवितर्क धीरेधीरे उग्रता की सीमा छूने लगा था.

‘‘उन लोगों पर उपकार करने नहीं जाती मैं. मेरे जाने से उन्हें असुविधा होती है, यह तो समझ में आता है. पर तुम्हें बुरा लगता है, यह मेरी समझ से परे है. आज भी देखो, रतन भैया ने कितना कुछ दिया है.’’

रूपाली लपक कर रतन द्वारा दिए गए उपहार उठा लाई. ढेर सारी मिठाई, मेवा, फल, नमकीन और घर के सदस्यों के लिए वस्त्र आदि देख कर मधुकर चकित रह गया.

‘‘रूपाली, तुम क्याक्या उपहार ले कर गई थीं वहां?’’

‘‘मां की साड़ी, पापा के लिए जैकेट, भैया और रिंकी के लिए उपहार तथा भाभी के लिए साड़ी.’’

‘‘ये उपहार नहीं थे, रूपाली, यह ऐसा बोझ तुम ने उन के सिर पर डाल दिया था जिस का प्रतिदान आवश्यक था. अत: रतन भैया को बदले में तुम्हें देने के लिए यह सब खरीदना पड़ा. दया करो उन पर और हम पर भी.’’

‘‘रतन भैया इन छोटेमोटे खर्चों की चिंता नहीं करते.’’

‘‘रूपाली, तुम्हारे छोटे भाई रमन और बहन रमोला की पढ़ाई का खर्च वे ही उठा रहे हैं. पापा की पैंशन में यह सारा खर्च नहीं उठाया जा सकता. तुम्हारे विवाह में भी सारा भार उन्हीं के कंधों पर था. तुम्हें नहीं लगता कि अब तुम्हें अधिक समझदारी से काम लेना चाहिए?’’

रूपाली चुप रह गई. भाभी ने उस के द्वारा उपहार में दी साड़ी नहीं ली, यह सोच कर वह पुन: व्यथित हो गई. शायद भाभी इसी बहाने अपनी बात कहना चाहती थीं.

हर तरफ से वही सब के निशाने पर है. वह भी कुछ ऐसा करेगी कि किसी को उंगली उठाने का अवसर न मिले.

रतन वापस पहुंचा तो घर में सभी व्यग्रता से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे.

‘‘क्या हुआ? रूपाली के यहां सब ठीक तो है?’’ रतन को देखते ही उस की मां ने प्रश्न किया.

‘‘ठीक समझो तो सब ठीक है पर आंटी

बहुत नाराज थीं. घर में किसी को बताए बिना ही चली आई थी रूपाली. वे कह रही थीं कि यह क्या भले घर की बहूबेटियों के लक्षण हैं?’’

‘‘उत्तर में तुम ने क्या कहा?’’ हरदयालजी ने प्रश्न किया.

‘‘मैं ने तो चटपट क्षमा मांग ली और कह दिया कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा. उन के घर के झगड़े में मैं क्यों फंसूं. यह समस्या तो रूपाली को ही सुलझाने दो.’’

‘‘मैं ने तो रिया से कहा था कि रूपाली को

समझाए. हम तो ठहरे मातापिता, बेटी को अपने ही घर आने से रोक भी नहीं सकते,’’ रतन की मम्मी दुखी स्वर में बोलीं.

‘‘बड़ा कठिन काम सौंपा था आप ने मम्मी. मैं तो रूपाली की भावभंगिमा से ही समझ गई थी. मेरी बात उसे बहुत बुरी लगी थी,’’ रिया दुखी स्वर में बोली.

‘‘कोई बात नहीं, रिया. सब ठीक हो

जाएगा. रूपाली अपने घर में व्यवस्थित हो

जाए तो हम सब क्षमा मांग लेंगे उस से,’’ हरदयालजी बोले.

रात भर ऊहापोह में बिता कर रूपाली सुबह

उठी तो भैया द्वारा दिए गए उपहार उस

का मुंह चिढ़ा रहे थे. किसी ने उन को खोला

तक नहीं था.

रूपाली सारे उपहार ले कर विनीलाजी के पास पहुंची.

‘‘मम्मी, यह सब कल भैया दे गए थे,’’ वह किसी प्रकार बोली.

विनीलाजी ने एक गहरी दृष्टि उपहारों पर डाल कर लंबी नि:श्वास ली थी.

‘‘रूपाली, तुम्हारा अपने परिवार से लगाव स्वाभाविक है, बेटी, पर हमारे दोनों परिवारों

का नया बना संबंध अभी बहुत नाजुक स्थिति में है. इसे बहुत सावधानी से सींचना पड़ता

है. तुम अब केवल उस घर की बेटी ही नहीं, इस घर की बहू भी हो. उपहार लेनादेना भी उचित समय और उचित स्थान पर ही अच्छा लगता है. नहीं तो यह अनावश्यक बोझ बन जाता है.’’

‘‘मैं समझती हूं, मम्मी. मैं भावना

के आवेग में बह गई थी. अब कभी आप को शिकायत का अवसर नहीं दूंगी,’’ रूपाली क्षमायाचनापूर्ण स्वर में बोली.

‘‘यह हुई न बात. अब जरा मुसकरा

दे. उदासी के बादल इस चांद से मुखड़े पर जरा भी नहीं जंचते. कभी कोई समस्या हो तो हम से पूछ लेना. हम संबंधों को निभाने के विशेषज्ञ हैं. तुम्हारी हर समस्या को चुटकियों में सुलझा

देंगे,’’ विनीलाजी नाटकीय अंदाज में बोल कर हंस दीं.

लगभग 2 माह बाद, रूपाली स्नानघर से

निकली ही थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो,’’ रूपाली ने फोन कान से लगाया.

‘‘अरे भाभी, कहिए, आज मेरी याद कैसे आ गई?’’

‘‘ताना दे रही हो, रूपाली? अब तक नाराज हो?’’

‘‘नहीं भाभी, आप से नाराज होने का तो

प्रश्न ही नहीं उठता. मैं आभारी हूं कि आप ने मुझे सही राह दिखाई, जो स्वयं मेरे मम्मीपापा भी नहीं कर सके.’’

‘‘तो कब आ रही हो मिलने, सभी को तुम्हारी याद आ रही है?’’

‘‘मम्मी से पूछ कर बताऊंगी. तब तक आप भी यहां का एकाध चक्कर लगा ही डालिए,’’ रूपाली बोली.

पता नहीं रूपाली के स्वर में व्यंग्य था या कोरा आग्रह पर रिया मुसकराई फिर चेहरे पर असीम संतोष के भाव तैर गए.

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