संसार भर के सागरों में की जाने वाली क्रूज? यात्राओं में अलास्का की क्रूज सब से अधिक मनोहारी और रोमांचकारी मानी जाती है. इस यात्रा हेतु सिल्विया और मोहन 2 दिन पहले कनाडा के वैंकूवर नगर के बंदरगाह से नौर्वेजियन क्रूज लाइन के शिप पर सवार हुए थे.

क्रूज 7 दिन का था और शिप आज प्रात: जूनो नगर में आ कर रुका था. उन्होंने शिप पर ओशन व्यू कमरा बुक कराया था, जिस की खिड़की से दूरदूर तक लहराता सागर और यदाकदा ऊंचेऊंचे वृक्षों की हरीतिमा से आच्छादित द्वीपों का मंत्रमुग्धकारी बियाबान दिखाई देता था. यद्यपि इस प्रेमी युगल को पारस्परिक संग के दौरान किसी अन्य मुग्धकारी उत्तेजक की आवश्यकता नहीं थी, तथापि क्रूज शिप का मोहक वातावरण और महासागर का सम्मोहन अद्वितीय कैमिस्ट्री के जनक थे.

दोनों पृथ्वी पर स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर रहे थे. जूनो अलास्का प्रांत की राजधानी है. अलास्का प्रांत की आबादी अधिक नहीं है, परंतु अलास्का की राजधानी होने के कारण यह नगर महासागर के किनारे बसा एक बड़ा कसबा सा है. शिप से उतर कर उन्होंने एक बस पकड़ ली.

उन्होंने 2 घंटे में कसबा व बाजार देख लिया. उन्हें यह देख कर आश्चर्य हुआ था कि बाजार में कुछ दुकानें गहनों की थीं जिन में अधिकांश के मालिक मुंबई के मूल निवासी थे.समयाभाव के कारण वे रोपवे और सी प्लेन की राइड पर नहीं गए.

तत्पश्चात वे मेंडेनहौल ग्लेशियर देखने और व्हेलवाच के लिए बोट से चल दिए. उस बोट में 2 ही हिंदीभाषी पर्यटक थे. शेष में अधिकांश इंग्लिश बोलने वाले अथवा अलास्का की आदिमजातियों की भाषा वाले थे, जिन में मुख्यतया ट्लिंगिट भाषा बोलने वाले थे.

अत: उसे और सिल्विया को आपस में कुछ भी बोलने और चुहलबाजी करने का निर्बाध अवसर उपलब्ध था. दोनों अन्यों की उपस्थिति से अनभिज्ञ रह कर इस अद्भुत यात्रा का आनंद ले रहे थे और जीवनिर्जीव सब पर हिंदी में अच्छीबुरी टिप्पणी कर के हंसते रहे थे.

मेंडेनहौल ग्लेशियर देख कर सिल्विया तो जैसे पागल हो रही थी. उस के और ग्लेशियर के बीच तट के निकट के सागर का एक भाग था. ग्लेशियर सागर के उस भाग के पार स्थित पर्वत से निकल रहा था. वह सुदूर पर्वत से निकल कर हिम की एक विस्तृत नदी की भांति चल कर सागर में समा रहा था. ऊपर से खिसक कर आई हिम सागर किनारे आ कर रुक जाती थी और वहां विशाल हिमखंड के रूप में परिवर्तित हो जाती थी जैसे सागर में कूदने के पूर्व उस की गहराई की थाह लेना चाह रही हो.

कुछकुछ अंतराल के पश्चात सागर किनारे स्थित शिलाखंड पीछे से आने वाली हिम के दबाव से भयंकर गरजना के साथ टूटता था और टुकड़ों में बिखर कर समुद्र में तैरने लगता था.हिमशिला टूटते समय सहस्रों पक्षी उस के नीचे से अपने प्राण बचाने को चिचिया कर निकलते थे. सिल्विया और मोहन यह देख कर हैरान थे कि उन पक्षियों ने सागर किनारे जमी उस हिमशिला के नीचे कुछ अंदर जा कर अपनी कालोनी बसा रखी थी.

हिमखंड के टूटने से उत्पन्न गरजना और जल का उछाल थम जाने पर वे पक्षी उस के नीचे बनी अपनी कालोनी में पुन: चले जाते थे. हिम के टूटे हुए खंड सागर में आइसबर्ग बन कर तैरने लगते थे.सिल्विया और मोहन जहां खड़े थे, वहां से बाईं ओर सागर में दूर तक वे आइसबर्ग दिखाई देते थे. उन के दाहिनी ओर एक पहाड़ी थी, जिस के ऊपर से एक झरना बह रहा था.

उस का आकर्षण सिल्विया को खींचने लगा और वह उस के किनारेकिनारे ऊपर दूर तक जाने लगी. मोहन भी उस के पीछेपीछे चलता गया.एकांत पा कर सिल्विया मोहन से सट गई और बोली, ‘‘मोहन, मेरा मन तो यहीं खो जाने को हो रहा है.’’पता नहीं क्यों तभी मोहन के मन में किसी अनहोनी की आशंका व्याप्त हो गई, परंतु मोहन ने सिल्विया को बांहों में भर लिया और उसे एक चुंबन दिया.

तभी यात्रियों की बोट पर वापसी का अलार्म बज गया और वे जल्दीजल्दी बोट पर वापस आ गए.बोट यात्रियों को व्हेल, सी लायन, सामन मछली, बोल्ड ईगिल आदि जीवधारियों को दिखाने हेतु गहरे समुद्र की ओर चल दी. व्हेलों के निवास के क्षेत्र में जब बोट पहुंची और यात्रियों ने उन की उछलकूद तथा श्वास के साथ पानी के फुहारे छोड़ने के दृश्यों का आनंद लेना प्रारंभ किया, तभी उन की बोट नीचे से एक भीषण ठोकर खा कर उछली और उलट गई. किसी यात्री को संभलने का अवसर नहीं मिला.

कोई डूब रहा था तो कोई तैर रहा था.कुछ यात्री बोट को पकड़ने उस की ओरतैरे भी, परंतु बोट अपने नीचे फंसी व्हेल केसाथ गहरे समुद्र में खिंची जा रही थी. सिल्विया और मोहन ने पानी में बहती लाइफ जैकेट पकड़ कर पहन ली और बोट से समुद्र में गिरे एकचप्पू को पकड़ कर पानी के ऊपर रुके हुए थे. पानी बेहद ठंडा था. थोड़ी देर में चीखपुकार कम हो गई. कुछ यात्री डूब गए थे और कुछ अशक्त हो रहे थे.मोहन और सिल्विया भी शिथिल होने लगे थे.

ऐसे में दोनों के मन एकदूसरे पर केंद्रित हो गए थे. मोहन एकटक सिल्विया की आंखों में देखे जा रहा था. सिल्विया भी उसे अपलक देख रही थी. दोनों के मानस एकदूसरे को ऐसे आत्मसात कर रहे थे कि किसी के होंठ हिलें न हिलें, दूसरा उस के मन की भाषा पढ़ लेता था.दिन ढल रहा था और मोहन का मन आशानिराशा के भंवर में डूबनेउतराने लगा था.

व्याकुलता पर नियंत्रण रखने हेतु वह सिल्विया से प्रथम मिलन की घटना को वर्णित करने लगा था और सिल्विया होंठों पर स्मितरेखा उभार कर तन्मयता से सुनने लगी थी. ‘‘सिल्विया, तुम से प्रथम मिलन में ही मैं सम?ा गया था कि तुम जीवन के विषय में निर्द्वंद्व सोच वाली, साहसी और नटखट स्वभाव की हो. मैं तभी से तुम्हारी इस अदा पर फिदा हो गया था.

उस दिन तुम होटल के कौरीडोर में मोबाइल कान में दबाए किसी से बात करती हुई निकल रही थीं, तभी मैं कमरे से निकल रहा था और तुम मुझ से टकरा गई थीं और तुम्हारे मुंह से अनायास निकल गया था कि ओह, आई एम सौरी. मैं भी अपने उच्छृंखल स्वभाव के वशीभूत हो बोल पड़ा था कि यू आर वैल्कम. तुम नहले पर दहला धर देने में माहिर थीं और बिना किसी झिझक के मेरी ओर बढ़ कर मुझे से फिर टकरा कर बोली थीं कि देन टेक इट. इस पर हम दोनों बेसाख्ता हंस दिए थे और यही बन गया था हमारी अंतरंग दोस्ती का सबब. ‘‘फिर मैं ने तपाक से हाथ बढ़ा कर कहा था कि आई एम मोहन,’’ तुम ने अविलंब हाथ बढ़ा कर अपना नाम बताया था.

मैं तुम्हारे हाथ को सामान्य से अधिक देर तक अपने हाथ में लिए रहा था और तुम ने भी हाथ वापस खींचने का कोई उपक्रम नहीं किया था. तुम्हारे जाते समय मैं ने केवल शरारत हेतु एक आंख मारते हुए पूछ लिया था कि सो, व्हेयर आर वी मीटिंग दिस ईविनिंग ऐट एट पी. एम.? और तुम ने उत्तर दिया था कि औफकोर्स, इन योर रूम.‘‘शाम होने पर मैं तुम्हारे आने हेतु जितना उत्सुक था, उतना आश्वस्त नहीं था.

तुम्हारे आने और न आने की आशानिराशा के काले में झलता हुआ मैं काफी पहले से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था, जब अपने वादे के अनुसार तुम ने ठीक 8 बजे मेरे कमरे की घंटी बजा दी थी. घंटी सुनते ही मैं ने लपक कर दरवाजा खोला था और तुम को देख कर प्रसन्नता के आवेग में आगापीछा सोचे बिना तुम्हें बांहों में भर कर बोला था कि ओह सिल्विया. लंबे बिछोह के उपरांत मिलने वाले प्रेमी की भांति तुम ने भी मुझे बांहों में समेट लिया था.

फिर मैं ने अपनी सांसों को सामान्य करते हुए तुम्हें कुरसी पर बैठा दिया था और स्वयं सामने की कुरसी पर बैठ गया था. कुछ क्षण तक हम दोनों में एक प्रश्नवाचक सा मौन व्याप्त रहा था. फिर उसे तोड़ते हुए मैं सहज हो कर अपना परिचय देने लगा था कि सिल्विया, मैं मोहन मूल रूप से नैनीताल के एक गांव का रहने वाला हूं. मेरे मातापिता और छोटी बहन पहाड़ पर ही रहते हैं.

आजकल दिल्ली में टी.सी.एस. में जौब करता हूं. उसी सिलसिले में कोच्चि आया हूं. अभी 1 सप्ताह तक और यहां रुकना है. फिर कुछ रुक कर चुहल करने के अंदाज में आगे जोड़ा था कि और मैं निबट कुंआरा हूं.’’इतना बोलने के श्रम से मोहन हांफ गया था और एक निरीह सी दृष्टि से सिल्विया को देखने लगा था. तब सिल्विया बोल पड़ी, ‘‘मुझे सब याद है मोहन. मैं ने अपना परिचय देते हुए कहा था कि मैं सिल्विया मूलरूप से कोच्चि की ही रहने वाली हूं और इसी होटल में असिस्टैंट मैनेजर के पद पर कार्यरत हूं.

मेरे मातापिता बग इस दुनिया में नहीं हैं, परंतु उन की प्रेमकथा यहां अभी तक प्रचलित है. मेरी माता जेन का जन्म फ्रांस में हुआ था. वे अपनी युवावस्था में फ्रांस से भ्रमण हेतु यहां आई थीं. उन्हें समुद्र से बहुत लगाव था. मेरे पिता शंकर एक छोटी सी यात्री बोट के चालक थे और उस के मालिक भी.एक दिन जब मौसम काफी खराब था, तब मेरी मां उन की नाव के पास आई थीं और पिता से समुद्र में घूमने की जिद करने लगी थीं. वे पूरी नाव का भाड़ा देने को कह रही थीं.

पिता ने मौसम का हवाला दे कर पहले तो मना किया परंतु सुंदर गोरी महिला की जिद के आगे उन का हृदय पिघल गया. आखिरकार वे अविवाहित नौजवान थे और जिंदादिल भी.‘‘पिता की आशंका के अनुसार नाव के समुद्र में कुछ दूरी तक पहुंचतेपहुंचते तूफान आ गया और नाव को उलट कर बहा ले गया. पिता कुशल तैराक थे और अपनी जान पर खेल कर मां को बचा कर किनारे ले आए.

मां बेहोश थीं और उन का पताठिकाना न जानने के कारण पिता उन्हें अपने घर ले आए. देर रात्रि में होश आने पर मां ने अपने को उन के द्वारा लिपटाए हुए और अश्रु बहाते हुए पाया. वह लजाई तो अवश्य परंतु अलग होने के बजाय उन से और जोर से लिपट गईं और फिर सदैव के लिए उन की हो कर कोच्चि में ही रुक गई थीं.’’सिल्विया के सांस लेने हेतु रुकते ही मोहन बोल पड़ा, ‘‘उसी ढंग से तुम उस दिन होटल के कमरे में मुझ से लिपट गई थीं और सदैव के लिए मेरी हो कर रह गई थीं.

फिर मैं दिल्ली की अपनी जौब छोड़ कर कोच्चिवासी हो गया था.’’ यह सुन कर सिल्विया हलदी सा मुसकरा दी थी. फिर वह बोली, ‘‘तुम ने मुझे जिंदगी में वह सब दिया है, जिस की मुझे चाह थी. हम ने कितनी तूफानी जिंदगी जी है? कितनी बार हम आंधीपानी के तूफानों, वीरान जंगलों और पहाड़ों के जानलेवा झंझवातों में फंसते रहे हैं और हर बार तुम हम दोनों को जीवित बाहर निकालते रहे हो,’’ फिर कुछ आशंकित हो कर प्रश्न किया, ‘‘क्या आज नहीं बचाओगे मेरे मोहन?’’मोहन ने सिल्विया को आश्वस्त करने हेतु कह दिया, ‘‘बचाऊंगा, अवश्य बचाऊंगा मेरी मोहिनी,’’ परंतु उस के शब्दों में वह आत्मविश्वास नहीं था, जो उस के सामान्य स्वभाव में रहता था.

दिन में तो मोहन और सिल्विया एकदूसरे से प्रेमालाप करते रहे थे, परंतु अंधेरा हो जाने और किसी प्रकार की सहायता आती न दिखाई देने पर उन के मन में निराशा व्याप्त हो गई.तब मोहन ने आगे बढ़ कर सिल्विया को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया और उस के मुख से अनायास निकला, ‘‘मेरी सिल्विया, क्षमा करना.’’सिल्विया की पथराई सी आंखों के कोरों से मात्र अश्रु ढलका था. दूसरे दिन जूनो से आई एक रैस्क्यू बोट को एक हिंदुस्तानी युवक तथा एक गोरी युवती के बांहों में जकड़े शरीर लहरों पर तैरते मिले थे.

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