चपरासी एक स्लिप दे गया था. जब उस की निगाहें उस पर पड़ीं तो वह चौंक गया, ‘क्या वे ही होंगे जिन के बारे में वह सोच रहा है.’ उसे कुछ असमंजस सा हुआ. उस ने खिड़की से झांक कर देखने का प्रयास किया पर वहां से उसे कुछ नजर नहीं आया. वह अपनी सीट से उठा. उसे यों इस तरह उठता देख औफिस के कर्मचारी भी अपनीअपनी सीट से उठ खड़े हुए. वह तेजी से दरवाजे की ओर लपका. सामने रखी एक बैंच पर एक बुजुर्ग बैठे थे और शायद उस के बुलाने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

हालांकि वह उन्हें पहचान नहीं पा रहा था पर उसे जाने क्यों भरोसा सा हो गया था कि यह रामलाल काका ही होंगे. वह सालों से उन से मिला नहीं था. जब वह बहुत छोटा था तब पिताजी ने परिचय कराया था…

‘अक्षत, ये रामलालजी हैं. कहानियां और कविताएं वगैरह लिखते हैं और एक प्राइवेट स्कूल में गणित पढ़ाते हैं.’

मुझे आश्चर्य हुआ था कि भला गणित के शिक्षक कहानियां और कविताएं कैसे लिख सकते हैं. मैं ने उन्हें देखा. गोरा, गोल चेहरा, लंबा और बलिष्ठ शरीर, चेहरे पर तेज.

‘तुम इन से गणित पढ़ सकते हो,’ कहते हुए पिताजी ने काका की ओर देखा था जैसे स्वीकृति लेना चाह रहे हों. उन्होंने सहमति में केवल अपना सिर हिला दिया था. मेरे पिताजी मनसुख और रामलाल काका बचपन के मित्र थे. दोनों ने साथसाथ कालेज तक की पढ़ाई की थी. पढ़ाई के बाद मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में आ गए पर रामलाल काका प्रतिभाशाली होने के बाद भी नौकरी नहीं पा सके थे.

उन्हें एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापन का कार्य कर अपनी रोजीरोटी चलानी पड़ रही थी. वे गणित के बहुत अच्छे शिक्षक थे. उन के द्वारा पढ़ाया गया कोई भी छात्र गणित में कभी फेल नहीं होता था, यह बात मु?ो बाद में पता चली.

मैं इंजीनियर बनना चाहता था. इस कारण पिताजी के मना करने के बाद भी मैं ने गणित विषय ले लिया था पर कक्षाएं प्रारंभ होते ही मुझे लगने लगा था कि यह चुनाव मेरा गलत था. मुझे गणित समझ में आ ही नहीं रहा था. इस के लिए मैं क्लास के शिक्षक को दोषी मान सकता था. वे जो समझते मेरे ऊपर से निकल जाता.

तीसरी सैमेस्टर परीक्षा में जब मुझे गणित में बहुत कम अंक मिले तो मैं उदास हो गया. मुझे यों उदास देख कर एक दिन पिताजी ने प्यार से मुझे से पूछ ही लिया, वैसे तो मैं उन्हें कुछ भी बताना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उन्होंने तो मुझे मना किया था पर उन के प्यार से पूछने से मैं अपनी पीड़ा व्यक्त करने से नहीं रह सका.

पिताजी ने धैर्य के साथ सारी बात समझे और मुसकराते हुए रामलाल काका से गणित पढ़ने की सलाह दे दी. पिताजी मुझे खुद ले कर काका के पास आए थे. रामलाल काका ट्यूशन कभी नहीं पढ़ाते थे, इस कारण ही तो मुझे उन के पास जाने में हिचक हो रही थी पर वे पिताजी के बचपन के मित्र थे, यह जान कर मुझे भरोसा था कि वे मुझे मना नहीं करेंगे. हुआ भी ऐसा ही. मैं रोज उन के घर पढ़ने जाने लगा.

मेरे जीवन में चमत्कारी परिवर्तन दूसरे तो महसूस कर ही रहे थे, मैं स्वयं भी महसूस करने लगा था. मेरा बहुत सारा समय अब काका के घर में ही गुजरने लगा था. मैं उन के परिवार का एक हिस्सा बन गया था. उन्होंने शादी नहीं की थी, इस कारण वे अकेले ही रहते थे. स्वयं खाना बनाते और घर के सारे काम करते. काका से मैं गणित की बारीकियां तो सीख ही रहा था, साथ ही, जीवन की बारीकियों को भी सीखने का अवसर मुझे मिल रहा था.

काका बहुत ही सुलझे हुए इंसान थे. ‘न काहू से दोस्ती और न काहू से बैर’ की कहावत का जीवंत प्रमाण थे वे. शायद इसी कारण समाज में उन की बहुत इज्जत भी थी. लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे और सम्मान भी देते थे. उन की दिनचर्या बहुत सीमित थी. वे स्कूल के अलावा घर से केवल शाम को ही निकलते थे, सब्जी वगैरह लेने. इस के अलावा वे पूरे समय घर पर ही रहते थे. वे अकसर कहानियां या कविता लिखते नजर आते.

‘काका इन कहानियों के लिखने से समाज नहीं बदलता. आप कुछ और लिखा करिए,’ एक दिन मैं बोल पड़ा.

‘मैं समाज को बदलने के लिए और उन्हें सिखाने के लिए कहानियां नहीं लिखता हूं. मैं अपने सुख के लिए कहानियां लिखता हूं. किसी को पसंद आए या न आए.’

मैं चुप हो जाता. पहले मैं सोचता था कि यह मेरा विषय नहीं है, इसलिए न तो मैं उन की लिखी कहानी पढ़ता और न ही उन में रुचि लेता पर कहते हैं न कि संगत का असर आखिर पड़ ही जाता है, इसलिए मुझे भी पड़ गया. एक दिन जब काका सब्जी लेने बाजार गए थे, मैं बोर हो रहा था. मैं ने यों ही उन की अधूरी कहानी उठा ली और पढ़ता चला गया था.

कहानी मुझे कुछकुछ उन के जीवन परिचय का बोध कराती सी महसूस हुई थी. वह एक प्रणय गाथा थी. किन्ही कारणों से नायिका की शादी कहीं और हो जाती है. नायक शादी नहीं करता. चूंकि कहानी अधूरी थी, इसलिए आगे का विवरण जानने के लिए मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी.

मैं ने यह जाहिर नहीं होने दिया था कि मैं ने कहानी को पढ़ा है. काकाजी की यह कहानी 2-3 दिनों में पूरी हो गई थी. अवसर निकाल कर मैं ने शेष भाग पढ़ा था.

नायिका की एक संतान है. वह विधवा हो जाती है. उस का बेटा उच्च शिक्षा ले कर अमेरिका चला जाता है. यहां नायिका अकेली रह जाती है. उस के परिवार के लोग उस पर अत्याचार करते हैं और उसे घर से निकाल देते हैं. वह एक वृद्धाश्रम में रहने लगती है. कहानी अभी भी अधूरी सी ही लगी पर काकाजी ने कहानी में जिस तरह की वेदना का समावेश किया था उसे पढ़ने वाले की आंखें नम हुए बगैर नहीं रह पाती थीं. आंखें तो मेरी भी नम हो गई थीं. यह शब्दों का ही चमत्कार नहीं हो सकता था, शायद आपबीती थी. तभी तो इतना बेहतर लेखन हो पाया था. मैं ने काकाजी को बता दिया था कि मैं ने उन की कहानी को पढ़ा है और कुछ प्रश्न मेरे दिमाग में घूम रहे हैं. काकाजी नाखुश नहीं हुए थे.

‘देखो, कहानी समसामयिक है, इसलिए तुम्हारे प्रश्नों का जवाब देना जरूरी नहीं है. पर तुम्हारी जिज्ञासा को दबाना भी उचित नहीं है, इसलिए पूछ सकते हो,’ काकाजी के चेहरे पर हलकी सी वेदना दिखाई दे रही थी.

‘कहानी पढ़ कर मुझे लगा कि शायद आप इन घटनाक्रम के गवाह हैं.’ वे मौन रहे.

‘इस कहानी के नायक में आप की छवि नजर आ रही है, ऐसा सोचना मेरी गलती है,’ मैं ने काकाजी के चेहरे की ओर नजर गड़ा ली थी. उन के चेहरे पर अतीत में खो जाने के भाव नजर आने लगे थे मानो वे अपने जीवन के अतीत के पन्ने उलट रहे हों.

काकाजी ने गहरी सांस ली थी, ‘वैसे तो मैं तुम को बोल सकता हूं कि यह सही नहीं है, पर मैं ऐसा नहीं बोलूंगा. तुम ने कहानी को वाकई ध्यान से पढ़ा है, इस कारण ही यह प्रश्न तुम्हारे ध्यान में आया. हां, यह सच है. कहानी का बहुत सारा भाग मेरा अपना ही है.’

‘नायक और नायिका भी?’

‘हां…’ हम दोनों मौन हो गए थे.

काकाजी ने उस दिन फिर और कोई बात नहीं की. दूसरे दिन मैं ने ही बात छेड़ी थी, ‘‘वह कहानी प्रकाशन के लिए भेज दी क्या?’’

‘नहीं, वह प्रकाशन के लिए नहीं लिखी,’ उन्होंने संक्षिप्त सा जबाब दिया था.

‘काकाजी, आप ने उन के कारण ही शादी नहीं की क्या?’ वे मौन बने रहे.

‘पर इस से नुकसान तो आप का ही हुआ न,’ मैं आज उन का अतीत जान लेना चाहता था.

‘प्यार में नुकसान और फायदा नहीं देखा जाता, बेटा.’

‘जिस जीवन को आप बेहतर ढंग से जी सकते थे, वह तो अधूरा ही रह गया न और इधर नायिका का जीवन बहुत अच्छा भले ही न रहा हो पर आप के जीवन से अच्छा रहा,’’ वे मौन बने रहे.

‘‘मेरे जीवन का निर्णय मैं ने लिया है. उसे तराजू में तोल कर नहीं देखा जा सकता,’ काकाजी की आंखों में आंसू की बूंदें नजर आने लगी थीं.

हम ने फिर और कोई बात नहीं की पर अब चूंकि बातों का सिलसिला शुरू हो गया था, इस कारण काकाजी ने टुकड़ोंटुकड़ों में मुझे सारी दास्तां सुना दी थी.

कालेज के दिनों उन के प्यार का सिलसिला प्रारंभ हुआ था. रेणू नाम था उस का. सांवली रंगत पर मनमोहक छवि, बड़ीबड़ी आंखें और काले व लंबे घने बाल. पढ़ने में भी बहुत होशियार. उन्होंने ही उस से पहले बात की थी. उन्हें कुछ नोट्स की जरूरत थी और वे सिर्फ रेणू के पास थे. काकाजी अभावों में पढ़ाई कर रहे थे. किताबें खरीदने की गुंजाइश नहीं थी.

उन्हें नोट्स चाहिए थे ताकि वे उसे ही पढ़ कर परीक्षा की तैयारी कर सकें. साथियों का मानना था कि रेणू बेहद घमंडी लड़की है और वह उन्हें नोट्स नहीं देगी. निराश तो वे भी थे पर उन के पास इस के अलावा और कोई विकल्प था भी नहीं. उन्होंने डरतेडरते रेणू से नोट्स देने का अनुरोध किया था. रेणू ने बगैर किसी आनाकानी के उन्हें नोट्स दे भी दिए थे. उन्हें और उन के साथियों को वाकई आश्चर्य हुआ था. रेणू शायद उन की आवश्यकताओं से परिचित थी, इस कारण वह उन्हें पुस्तकों से ले कर कौपीपेन तक की मदद करने लगी थी. संपर्क बढ़ा और प्यार की कसमों पर आ गया.

काकाजी तो अकेले जीव थे. उन के न तो कोई आगे था और न पीछे. उन्होंने जब अपनी आंखें खोली थीं तो केवल मां को ही पाया था. मां भी ज्यादा दिन उन का साथ नहीं निभा सकीं और एक दिन उन की मृत्यु हो गई. काकाजी अकेले रह गए. काकाजी का अनाथ होना उन के प्यार के लिए भारी पड़ गया. रेणू के पिताजी ने रेणू के भारी विरोध के बावजूद उस की शादी कहीं और करा दी. रेणू के दूर चले जाने के बाद काकाजी के जीवन का महकता फलसफा खत्म हो गया था .

काकाजी गांव वापस आ गए और नए सिरे से अपनी दिनचर्या को बनाने में जुट गए. कहानी सुनातेसुनाते कई बार काकाजी फूटफूट कर रोए थे. मैं ने उन को बच्चों जैसा रोते देखा था. शायद वे बहुत दिनों से अपने दर्द को अपने सीने में समेटे थे. मैं ने उन को जी भर रोने दिया था. इस के बाद हमारे बीच इस विषय को ले कर फिर कभी कोई बात नहीं हुई.

मैं उन के पास नियमित गणित पढ़ने जाता और वे पूरी मेहनत के साथ मुझे पढ़ाते भी. उन की पढ़ाई के कारण मेरा गणित बहुत अच्छा हो गया था. उन्होंने मुझे इंग्लिश विषय की पढ़ाई भी कराई.

काकाजी की मदद से मेरा इंजीनियर बनने का स्वप्न पूरा हो गया था पर मैं ज्यादा दिन इंजीनियर न रह कर आईएएस में सलैक्ट हो गया और कलैक्टर बन कर यहां पदस्थ हो गया था. लगभग 10 सालों का समय यों ही व्यतीत हो गया था. इन सालों में मैं काकाजी से फिर नहीं मिल पाया था. मैं 1-2 बार जब भी गांव गया, काकाजी से मिलने का प्रयास किया. पर काकाजी गांव में नहीं मिले.

कलैक्टर का पदभार ग्रहण करने के पहले भी मैं गांव गया था. तभी पता चला था कि काकाजी तो कहीं गए हैं और तब से यहां लौटे ही नहीं. उन के घर पर ताला पड़ा है. गांव के लोग नहीं जानते थे कि आखिर काकाजी चले कहां गए. आज जब अचानक उन की स्लिप चपरासी ले कर आया तो गुम हो चुका पूरा परिदृश्य सामने आ खड़ा हुआ. औफिस के बाहर मिलने आने वालों के लिए लगी बैंच पर वे बैठे थे, सिर झुकाए और कुछ सोचते हुए से.

मैं पूरी तरह तय नहीं कर पा रहा था पर मुझे लग रहा था कि वे ही हैं. बैंच पर और भी कुछ लोग बैठे थे जो मुझ से मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. मुझे इस तरह भाग कर आता देख सभी चौंक गए थे. बैंच पर बैठे लोग उठ खड़े हुए पर काकाजी यों ही बैठे रहे. उन का ध्यान इस ओर नहीं था.

मैं ने ही आवाज लगाई थी, ‘‘काकाजी…’’ वे चौंक गए. उन्होंने यहांवहां देखा भी पर समझ नहीं पाए कि आवाज कौन लगा रहा है. बाकी लोगों को खड़ा हुआ देख कर वे भी खड़े हो गए. उन्होंने मुझे देखा अवश्य पर वे पहचान नहीं पाए थे.

मैं ने फिर से आवाज लगाई, ‘‘काकाजी,’’ उन की निगाह सीधे मुझ से जा टकराई. यह तो तय हो चुका था कि वे काकाजी ही थे. मैं ने दौड़ कर उन को अपनी बांहों में भर लिया था.

‘‘काकाजी, नहीं पहचाना? मैं मनसुखजी का बेटा. आप ने मुझे गणित पढ़ाई थी, ‘‘काकाजी के चेहरे पर पहचान के भाव उभर आए थे.

‘‘अरे अक्षत,’’ अब की बार उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया था.

औफिस के रिटायररूम के सोफे पर वे इत्मीनान के साथ बैठे थे और मैं सामने वाली कुरसी पर बैठा हुआ उन के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था. चपरासी के हाथों से पानी ले कर वे एक ही घूंट में पी गए थे.

‘‘आप यहां कैसे, काकाजी?’’

‘‘तुम, यहां के कलैक्टर हो? जब नाम सुना था तब कुछ पहचाना सा जरूर लगा था पर तुम तो इंजीनियर…’’

‘‘हां, बन गया था. आप ने ही तो मुझे बनवाया था. फिर आईएएस में सिलैक्शन हो गया और मैं कलैक्टर बन गया.’’ उन्होंने मेरा चेहरा अपने हाथों में ले लिया.

‘‘आप यहां कैसे, मैं ने तो आप को गांव में कितना ढूंढ़ा?’’

‘‘मैं यहां आ गया था. रेणू को मेरी जरूरत थी,’’ उन्होंने कुछ सकुचाते हुए बोला था.

मेरे दिमाग में काकाजी की कहानी की नायिका ‘रेणू’ सामने आ गई. उन्होंने ही बोला, ‘‘रेणू को उस के परिवार के लोग सता रहे थे. मैं ने बताया था न?’’

‘‘हां, पर यह तो बहुत पुरानी बात है.’’

‘‘वह अकेली पड़ गई थी. उसे एक सहारा चाहिए था.’’

‘‘उन्होंने आप को बुलाया था?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ही आ गया था.’’

‘‘यों इस तरह गांव में किसी को बताए बगैर?’’

‘‘सोचा था कि उस की समस्या दूर कर के जल्दी लोट जाऊंगा पर…’’

‘‘क्या आप उस के साथ ही रह रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं ने यहां एक कमरा ले लिया है.’’

‘‘और… वो… उन्हें भी तो घर से निकाल दिया था…’’

दरअसल, मेरे दिमाग में ढेरों प्रश्न आजा रहे थे.

‘‘हां, वह वृद्धाश्रम में रह रही है.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘यहां अदालत में उन का केस चल रहा है.’’

वे मुझे आप कहने लगे थे, शायद उन्हें याद आया कि मैं यहां का कलैक्टर हूं.

‘‘काकाजी, यह ‘आप’ क्यों लगा रहे

हैं, आप?’’

‘‘वह… बेटा, अब तुम इतने बड़े पद पर हो…’’

‘‘तो?’’

‘‘देखो अक्षत, रेणू का केस सुलझा दो. यह मेरे ऊपर तुम्हारा बड़ा एहसान होगा,’’ कहतेकहते काकाजी ने मेरे सामने हाथ जोड़ लिए.

कमरे में पूरी तरह निस्तब्धता छा चुकी थी. काकाजी की आंखों से आंसू बह रहे थे. वे रेणू के लिए दुखी थे. वह रेणू जिस के कारण काकाजी ने विवाह तक नहीं किया था और सारी उम्र यों ही अकेले गुजार दी थी. मैं ने काकाजी को ध्यान से देखा. वे इन

10 सालों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए थे. चेहरे की लालिमा जा चुकी थी उस पर उदासी ने स्थायी डेरा जमा लिया था. बाल सफेद हो चुके थे और बोलने में हांफने भी लगे थे.

 

औफिस के कोने में लगे कैक्टस के पौधे को वे बड़े ध्यान से देख रहे थे और मैं उन्हें. उन का सारा जीवन रेणू के लिए समर्पित हो चुका था. आज भी वे रेणू के लिए ही संघर्ष कर रहे थे.

‘‘काकाजी, मैं केस की फाइल पढ़ं ूगा और जल्दी ही फैसला दे दूंगा,’’ मैं उन्हें झूठा आश्वासन नहीं देना चाह रहा था.

‘‘केस तो तुम को मालूम ही है न, मैं ने बताया था, ’’काकाजी ने आशाभरी निगाहों से मुझे देखा.

‘‘हां, आप ने बताया था पर फाइल देखनी पड़ेगी तब ही तो कुछ समझ पाऊंगा न,’’ मैं उन के चेहरे की बेबसी को पढ़ रहा था पर मैं भी मजबूर था. यों बगैर केस को पढ़े कुछ कह नहीं पा रहा था.

काकाजी के चेहरे पर भाव आजा रहे थे. मुझ से मिलने के बाद उन्हें उम्मीद हो गई थी कि रेणू के केस का फैसला आज ही हो जाएगा और वह उन के पक्ष में ही रहेगा पर मेरी ओर से ऐसा कोई आश्वासन न मिल पाने से वे फिर से हताश नजर आने लगे थे.

‘‘काकाजी, आप भरोसा रखें, मैं बहुत जल्दी फाइल देख लूंगा,’’ मैं उन्हें आश्वस्त करना चाह रहा था.

 

काकाजी थके कदमों से बाहर चले गए थे. वे 2-3 दिन बाद मुझे मेरे औफिस के सामने बैठे दिखे थे. चपरासी को भेज कर मैं ने उन्हें अंदर बुला लिया था. उन के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी. काम की व्यस्तता के कारण फाइल नहीं देख पाया था. मैं मौन रहा. चपरासी ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया, ‘‘काकाजी, कुछ खाएंगे क्या?’’ मैं  उन से बोल नहीं पा रहा था कि मैं फाइल नहीं देख पाया हूं पर काकाजी समझ गए थे. वे बगैर कुछ बोले औफिस से निकल गए थे.

फाइल का पूरा अध्ययन मैं ने कर लिया था. यह तो समझ में आ ही गया था कि रेणूजी के साथ अन्याय हुआ है पर फाइल में लगे कागज रेणूजी के खिलाफ थे. दरअसल, रेणू को उन के पिताजी ने एक मकान शादी के समय दिया था. शादी के बाद जब तक हालात अच्छे रहते आए तब तक रेणू ने कभी उस मकान के बारे में जानने और समझने की जरूरत नहीं समझ. उन के पति यह बता दिया था कि उसे किराए पर उठा रखा है पर जब रेणू की अपने ससुराल में अनबन हो गई और उन्हें अपने पति का घर छोड़ना पड़ा तब अपने पिताजी द्वारा दिए गए मकान का ध्यान आया.

उन्होंने अपने पति से अपना मकान मांगा ताकि वे रह सकें पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया. रेणू ने मकान में कब्जा दिलाए जाने के लिए एक आवेदन कलैक्टर की कोर्ट में लगा दिया. रेणू को नहीं मालूम था कि उन के पति ने वह मकान अपने नाम करा लिया है. कागजों और दस्तावेजों के विपरीत जा कर मैं फैसला दे नहीं सकता था. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं काकाजी से क्या बोलूंगा.

वृद्धाश्राम के एक कार्यक्रम में मैं ने पहली बार रेणूजी को देखा था. आश्रम की ओर से पुष्पगुच्छ भेंट किया था उन्होंने मुझे. तब तक तो मैं समझ नहीं पाया था कि यही रेणूजी हैं पर कार्यक्रम के बाद जब मैं लौटने लगा था तो गेट पर काकाजी ने हाथ दे कर मेरी गाड़ी को रोका था. उन के साथ रेणूजी भी थीं. ‘‘अक्षत, मैं और रेणू गांव जा रहे हैं. हम ने फैसला कर लिया है कि हम दोनों वहीं साथ में रहेंगे,’’ काकाजी के बूढ़े चेहरे पर लालिमा नजर आ रही थी. मैं ने रेणूजी को पहली बार नख से सिर तक देखा था. बुजुर्गियत से ज्यादा उन के चेहरे पर परेशानी के निशान थे पर वे बहुत खूबसूरत रही होंगी, यह साफ झलक रहा था.

‘‘सुनो बेटा, अब हमें तुम्हारे फैसले से भी कुछ लेनादेना नहीं है. जो लगे, वह कर देना.’’ उन्होंने रेणू का हाथ अपने हाथों में ले लिया था.

‘‘तुम ने मेरी अधूरी कहानी पढ़ी थी न. वह आज पूरी हुई,’’ काकाजी के कदमों में नौजवानों जैसी फुरती दिखाई दे रही थी. काकाजी के ओ?ाल होते ही मेरी निगाह आश्रम के गेट पर कांटों के बीच खिले गुलाब पर जा टिकी.

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