टीवी से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता इरफान खान को काफी संघर्ष के बाद पहचान मिली. नैशनल स्कूल औफ ड्रामा में ऐक्टिंग सीख कर मुंबई आए, मगर उन का चेहरा चौकलेटी हीरो जैसा नहीं था. लेकिन अभिनय करने की दृढ़ इच्छा ही उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही. उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी. फिर एक समय ऐसा आया जब उन्होंने एक के बाद एक कई टीवी शो किए. ‘चाणक्य’, ‘भारत एक खोज’, ‘सारा जहां हमारा’, ‘बनेगी अपनी बात’ आदि कई धारावाहिकों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया. 1990 में बनी फिल्म ‘दृष्टि’ के जरीए इरफान खान ने हिंदी फिल्मों में अपनी पहचान बनाई. गोविंद निहलानी की इस फिल्म में उन के साथ डिंपल कपाडि़या थीं. उन के अभिनय को सराहना तो मिली, पर काम अधिक नहीं मिला, क्योंकि इरफान अपनी पसंद के अनुसार ही फिल्में चुनते हैं. 2003 की फिल्म ‘हासिल’ के जरीए वे चर्चा में आए. नकारात्मक भूमिका ने उन्हें कई पुरस्कार दिलवाए.
वे हमेशा अलगअलग भूमिका निभाना पसंद करते हैं. एक जैसी भूमिका में वे मानते हैं कि कलाकार की कला मर जाती है. फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के लिए उन्हें नैशनल अवार्ड मिला. बौलीवुड के अलावा इरफान हौलीवुड में भी पदार्पण कर चुके हैं. अंगरेजी अच्छी न आने के बावजूद उन्होंने कई सफल हौलीवुड फिल्में कीं. आज उन का नाम सफल कलाकारों में गिना जाता है. उन की ‘पीकू’ फिल्म भी सफल रही.
पेश हैं, इरफान खान से हुई मुलाकात के कुछ खास अंश :
‘पीकू’ को चुनने की वजह क्या थी?
मुझे पता था यह फिल्म दर्शकों को पसंद आएगी. पितापुत्री के संबंधों पर आधारित यह फिल्म हर व्यक्ति को जुड़ने पर बाध्य करती है. दर्शक इस फिल्म को सालों याद रखेंगे. इस के अलावा पहली बार अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण, मौसमी चटर्जी और निर्देशक सुजीत सरकार के साथ काम करने का मौका मिला. मेरे लिए यह यादगार फिल्म है.
फिल्म की चुनौती क्या थी?
इस की राइटिंग ऐसी है कि जो आप कह रहे हैं वह उस का अर्थ नहीं है. जो नहीं कहा गया है वही जरूरी है. उसे अभिनय से समझाया गया है. लाइन या संवाद पर मैं डिपैंड नहीं रह सकता. फिल्म में दीपिका और मेरी कैमिस्ट्री स्ट्राइक करना सब से बड़ी चुनौती थी. रोमांटिक सीन करने में दीपिका जितनी परिपक्व हैं मैं उतना नहीं हूं. इस फिल्म को करते समय पहली बार लगा कि शूटिंग खत्म क्यों हुई.
इस की वजह क्या थी?
मैं जब ड्रामा स्कूल में पढ़ता था तो उस में जरूरी पाठ था कि आप वह काम करें, जो पसंद हो. लेकिन अब तक ऐसा नहीं लगा था. इस फिल्म में मजा इस बात से था कि अमिताभजी इस में मुख्य थे. हमेशा बेसब्री रहती कि कब हम सैट पर पहुंचें और बच्चनजी की लाइनें सुनें. उन का भाषा ज्ञान, संवाद बहुत ही उम्दा होते.
सिनेमा का दौर इतने सालों में कितना बदला है?
फिल्मों का घटनाक्रम हर 10 साल बाद बदल जाता है. दर्शक भी बदलते रहते हैं. मौडल ढूंढ़ने पड़ते हैं. फिल्मों में विभिन्नता बढ़ रही है. आजकल हर तरह की फिल्में चलती हैं. दर्शकों की मांग होती है कि अलग तरह की फिल्में बनाई जाएं.
आप किस तरह की फिल्मों में काम करना अधिक पसंद करते हैं?
सब से पहले निर्देशक, फिर कहानी में मेरे लिए क्या भूमिका है, क्या नया है, फिल्म किनकिन लोगों को इंगेज करेगी आदि सब देखता हूं. ‘लंचबौक्स’ फिल्म की एक छोटी सी कहानी ने मुझे झकझोर दिया. एक ऐसी लवस्टोरी है, जिस में एकदूसरे को देखे बिना ही गहरा रोमांस होता है. दर्शक हर बार कुछ नया देखना चाहते हैं और मैं कहानी में यही ढूंढ़ता हूं.
अपनी कामयाबी का श्रेय किसे देते हैं?
परिवार का सहयोग सब से ऊपर होता है. इस के अलावा नियति, कर्म, माहौल, टाइमिंग आदि सब कुछ जरूरी होता है.
हौलीवुड में काम करने का अनुभव कैसा है रहा?
बौलीवुड में कहानी स्टार के आसपास घूमती है जबकि हौलीवुड में सब स्टोरी के आसपास घूमते हैं. सैंटर पौइंट स्टोरी होती है, स्टार नहीं. अभी मैं हौलीवुड की ‘जुरासिक वर्ल्ड’ कर रहा हूं. इस में मैं पार्क के मालिक की भूमिका निभा रहा हूं. उस के और बहुत सारे व्यवसाय हैं. साथ में पार्क को भी संभालता है. इस के ऐडवैंचर सब नए हैं. वास्तव में यह चकित करने वाली फिल्म होगी.