तलाक के एक मामले में जिस में पति ने पत्नी से छुटकारा पाने के लिए बेटी के डीएनए टैस्ट तक की मांग कर डाली थी कि वह उस की अपनी बेटी नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी से ज्यादा मानवीय फैसला कर के समस्या को सुलझा दिया. उच्च न्यायालय में भी पति ने पत्नी से अलगाव के बाद यह मामला उठाया था पर उच्च न्यायालय ने इनकार कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट में भी इस मामले पर डीएनए टैस्ट की मांग को ठुकरा दिया गया पर पति पत्नी का तलाक मंजूर कर लिया गया.

दोनों अब अपनीअपनी जिंदगी जिएंगे. न कोई गुजारा खर्च, न बेटी को पालने का खर्च, न पति को बेटी से मिलने का हक, न बेटी को पिता की संपत्ति में हक यानी संबंध पूरी तरह से अलग.

लड़ते झगड़ते पतिपत्नी का यह हल सब से सही है और चाहे किसी भी धर्म के पतिपत्नी हों, कानून ऐसा ही होना चाहिए और यह अलगाव देने का हक सब से निचली अदालत को हो और वहां से अपील का हक भी न हो.

अगर मामला अदालत में चला गया तो चाहे गलत कोई भी हो, दुनिया की कोई भी ताकत पतिपत्नी को फिर से एक बिस्तर पर एकदूसरे की बांहों में सोने को मजबूर नहीं कर सकती. बच्चों की खातिर अगर अदालतें तलाक देने में देर लगाएं या इनकार करें तो यह भी बच्चों पर अन्याय है. पिता या मां अगर किसी और को चाहने लगें या एकदूसरे से घृणा करने लगें तो पैसा या कानूनी हक बेकार हो जाता है. विवाद की चक्की में बच्चे पिसते हैं तो यह एक दुर्घटना समझा जाना चाहिए जिस में बैठे लोग न गाड़ी चला रहे थे न कोई गलत काम कर रहे थे. बच्चे मातापिता के गलत फैसलों के शिकार होते हैं तो होने दें, क्योंकि तलाक को रोक कर अदालतें बच्चों का भला नहीं कर सकतीं.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला तिहरे तलाक के मामले में भी आदर्श है. जब मुसलिम पति पत्नी को तलाक देना चाहता है तो कैसे दिया जाए, उस का क्या अर्थ रह जाता है?

धार्मिक कानून कुछ भी कहता रहे, तलाक तो होगा ही. तिहरा या ट्रिपल नहीं तो किसी और ढंग से. समान व्यक्तिगत कानून इस तलाक को नहीं रोक सकता. पतिपत्नी में झगड़ा हो तो काजी कुछ नहीं कर सकता. 2-3 पेशियों के बाद अदालत पहुंचे हर युगल को ही नहीं, हर पति या पत्नी को तलाक मिल जाना चाहिए. उस पतिपत्नी को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा यही अफसोस की बात है.

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