कालेधन की समस्या के निबटान का जो चमत्कार कुछ लोग सोच रहे हैं, वह एकदम बेबुनियाद है. देश में करों से बचाया गया कालाधन कर दे कर बचाए गए धन की तरह है और फर्क यह है कि उस पर कर कम दिया गया. अधिकतम आयकर 30% है पर आमतौर व्यापारियों को अगर लाभ हो तो भी 15-20% के बराबर का कर देना होता है. कंपनियां ही पूरा 30% देती ही हैं. भारत में कृषि उत्पादन और कृषि आय वैसे ही आयकर व दूसरे करों से मुक्त हैं.

काले धन को भी पूरी तरह कमाना पड़ता है और उस में उतनी ही मेहनत लगती है जितनी सफेद टैक्स दिए गए कर में लगती है. इसलिए यह कहना कि काले धन से लोग ऐयाशी करते हैं गलत है.

जिन की आय किसी भी कारण से ज्यादा है वे बड़ी गाडि़यों, भव्य शादियों, विदेश यात्राओं, महलनुमा मकानों पर खर्च करते हैं और ज्यादातर हिस्सा उस में टैक्स दिए गए पैसे का ही होता है.

काले धन की जरूरत आम लोगों को इसलिए होती है कि वे अपना हिसाबकिताब रखना नहीं जानते या उन्हें आता ही नहीं. वे तो अपनी कापी में या अपने मन में पूरा हिसाब रख लेते हैं. किस से कितना लेना है कितना देना है, उस के लिए उन्हें लैजर कैश बुक, कंप्यूटर की जरूरत नहीं है. सरकार उन्हें ये जबरन थोप रही है. उन का काम बढ़ा रही है. खर्च बढ़ा रही है.

काले धन को बुरा मानने वाले कम नहीं हैं पर वे बुरा मानने वाले खुद जेब में काला धन लिए घूमते हैं और काला धन इस्तेमाल करने वालों के यहां काम करते हैं, उन का सामान खरीदते हैं.

यह मामला उन पापियों का है जो लूट का कुछ पैसा मंदिरों में दे कर अपने को पाप मुक्त समझ लेते हैं. काले धन के घोड़ों पर सवार हो कर आई सरकार काले धन को समाप्त करना नहीं चाहती, वह चमत्कार के चक्कर में है जिस से गरीब जनता की वाहवाही लूट सके और धन्ना सेठों, आतंकवादियों और देशद्रोहियों की आड़ में विरोधियों को पटकनी दे सके.

इस देश का एक हिस्सा अमीरों या अपने से ज्यादा खुशहालों से इतना चिढ़ा रहता है कि वह अपनी झोपड़ी भी जलाने को तैयार है यदि उस की आग से बराबर के महल का कुछ हिस्सा भी जल जाए. नोटबंदी देश की अर्थव्यवस्था की दिल की नाडि़यों में कितनी ही रुकावटें पैदा कर देगी. देश का दिल वैसे ही कमजोर है. लेकिन यह मरेगा तो नहीं पर घिसटता, सिसकता रहेगा. 

 

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