16 दिसंबर को निर्भया कांड की चौथी बरसी थी पर लगता नहीं है कि भारत की जनता ने इस कांड से कुछ सीखा हो. एक बेबस लड़की का चलती बस में जिस दरिंदगी से रेप किया गया और उस के साथी को पीटा गया वह कोई पहली बार नहीं हुआ पर पहले की दरिंदगियां इस तरह सुर्खियां नहीं बनी थीं पर अब लगता है यह अमानवीयता तो हमारे चरित्र का हिस्सा है, हमारी संस्कृति है, हमारा ढंग है.

शारीरिक अनाचार व अत्याचार पुरुषों को भी भोगना पड़ता है. हमारे दलितों, चोरों, आरोपियों, निचली जातियों वालों, मजदूरों, बच्चों को कभी किसी बहाने से तो कभी केवल पाश्विक आनंद के लिए सताया, मारापीटा, जख्मी करा जाता है पर उन पर सामाजिक ठप्पा नहीं लगता. निर्भया कांड ने यह साबित करा था कि रेप पीडि़ता को केवल शारीरिक जख्म ही नहीं सहने पड़ते, उस के चरित्र पर गुनहगार होने का दाग भी लग जाता है और तब और अब में कोई असर हुआ हो ऐसा नहीं लगता.

रेप आज भी ऐसा ही एक अपराध है, जिस में अपराधी शिकार होता है और उसे दंड भोगना होता है, जबकि बलात्कारी 4-5 साल या कई बार उस से भी कम समय की जेल काट कर मुक्त हो जाता है. यह तो नहीं मालूम कि बलात्कारी को परिवार वापस लेता है या नहीं पर उस के मन में कोई अपराधभाव होता होगा ऐसा कम लगता है, क्योंकि ज्यादातर बलात्कारी सीना चौड़ा कर के ही चलते हैं. वे तरहतरह की दलीलों से अपने अपराध या अपनी सजा को कम कराते हैं. पीडि़ता का दर्द सामाजिक ज्यादा होता है, शारीरिक कम. शारीरिक कष्ट जो उस ने बलात्कार के दौरान सहा कुछ दिनों का होता है.

सैक्स संबंधों में पतिपत्नी, प्रेमीप्रेमिका या वेश्याओं के साथ परपीड़न सुख के लिए हिंसा आम है और कुछ हद तक उस में पीडि़ता को एतराज नहीं होता. ऐसा पोर्न बहुप्रचलित है, जिस में युवतियों के साथ जबरदस्ती दिखाई जाती है जबकि उसे शूट करते हुए सहमति होती है. दुख तो सामाजिक है कि पीडि़ता को दोषी मान लिया जाता है और बहुत सी युवतियों को यह बात छिपा कर रखनी होती है. समाज यह कहने से बाज नहीं आता कि पूरे किस्से में कहीं न कहीं गलती लड़की की ही होगी.

यही मानसिकता बदली जानी जरूरी है पर यह तब तक न होगा जब तक धर्म और कानून की सोच में व्यापक बदलाव नहीं आएगा. अविवाहिता के नाम के आगे कुमारी लिखने का अर्थ क्या है? उसे क्यों बारबार यह कहने को मजबूर किया जाए कि उस ने सैक्स संबंध नहीं बनाए? सैक्स संबंध बनाने के लिए शीलभंग शब्द का इस्तेमाल क्यों किया जाता है? बलात्कार के मामले में सैक्स के आदी होने की बात क्यों परखी जाती है? टू फिंगर टैस्ट क्यों होता है?

इन सवालों को उठाने की जगह तथाकथित दोषी को फांसी पर लटकाने या उस का अंग काटने की मांग की जाती है जबकि दोनों अपराध होने के बाद ही हो सकते हैं, पहले नहीं. अगर युवती को यह भरोसा हो कि समाज उस के पीछे खड़ा है तो वह बलात्कारी का मुकाबला करेगी और अगर बलात्कार हो गया तो उसी तरह सिर उठा कर कानून का दरवाजा खटखटाएगी जैसा किसी भी मारपीट के मामले में पुरुष करता है. लोगों की सहानुभूति होगी पीडि़त के प्रति. उस से अनकंफर्टेबल सवाल नहीं पूछे जाएंगे.

अगर समाज की सोच न बदले तो 16 दिसंबर को हर साल मनाने का कोई अर्थ नहीं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...