साहित्यिक कृतियों को सेल्यूलाइड के परदे पर उतारते समय फिल्मकार किस तरह उसकी हत्या कर देते हैं,इसका जीता जागता नमूना है राहत काजमी की फिल्म ‘‘मंटोस्तान’’. देश के बंटवारे की पृष्ठभूमि पर सआदत हसन मंटो लिखित चार रोंगटे खड़े कर देने वाली विवादास्पद कहानियों ‘‘ठंडा गोश्त’’, ‘‘खोल दो’’, ‘‘आखिरी सैल्यूट’’ और ‘‘असाइनमेंट’’ को मिलाकर फिल्मकार राहत काजमी ने फिल्म ‘‘मंटोस्तान’’ की पटकथा लिखी है. लेकिन जिन्होंने सआदत हसन मंटों व उनकी कहानियों को पढ़ा है, उन्हें पूरी फिल्म देखने के बाद अहसास होता है कि साहित्यिक कृतियों के साथ पूरा न्याय करने में फिल्मकार विफल रहा है.
फिल्म की कहानियां उन रातों के बारे में है, जो कि हमेशा सिसकियों में ही लिपटी रहती हैं. फिल्म की शुरुआत देश के बंटवारे और पं.जवाहर लाल नेहरू की आवाज के अलावा हिंदुओं द्वारा मुस्लिमों और मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं की मारकाट के दृश्यों के साथ होती है. कहानी पंजाब में है, इसलिए सिख और मुस्लिम ही आमने सामने हैं. बहू बेटियों की इज्जत सरेआम लूटी जा रही है. चारों तरफ डर का माहौल है. लोग अपने घरों से निकलने से डर रहे हैं. पर ईश्वर सिंह (सोएब निकस शाह) जैसे लोग विपत्ति में घिरे लोगों के घर के अंदर घुसकर उनकी हत्या कर उनके गहने व जेवर लूट रहा है. तो उसकी पत्नी कुलवंत कौर (सोनल सहगल) ऐसे जेवर पहनकर खुशहोती है, पर जब उसका पति उसे धोखा देकर एक लाश के साथ संभोग करता है, तो इस सच को जानकर वह अपने पति की हत्या कर देती है.
एक कहानी उस मुस्लिम जज (वीरेंद्र सक्सेना) की है, जिसे भरोसा है कि उनका सिख दोस्त उनके घर जरुर ईदी देने आएगा. ईदी देने के लिए जज के दोस्त का बेटा आता है, पर वह अपने सिख साथियों से इस परिवार की रक्षा करने में असमर्थ नजर आता है. उधर सीमा पर भारत पाकिस्तान की सेना डटी हुई है. इनके बीच बातचीत हो रही है कि यह क्या हो गया. तभी पता चलता है कि भारतीय सैनिक राम सिंह का दोस्त जुल्फार (राहत काजमी) पाकिस्तानी सैनिक है. दोनों के बीच बातचीत होती है. बातचीत में ही गोली चल जाती है और अनजाने में राम सिंह मारा जाता है. चौथी कहानी एक मुस्लिम पिता (रघुवीर यादव) की है, जिनकी बेटी के साथ वही सिख बलात्कार करते हैं, जिन्होंने उसे ढूंढ़ कर लाने का वादा किया था.
फिल्मकार ने चारों कहानियों को फिल्म में एक दूसरे के समानांतर चलाया है, इससे दर्शक फिल्म के साथ जुड़ नहीं पाता है और चारों कहानियों का प्रभाव नहीं पड़ता. पटकथा लेखक की कमजोरी के चलते कहानियों का सही ढंग से फिल्म में रूपांतरण नहीं हो सका. फिल्म में विभाजन की त्रासदी व दर्द, तात्कालिक घटनाओं से उपजे विषाद व भय उभर नही पाता है. यह पटकथा लेखक और निर्देशक की कमजोरी का नतीजा है. अन्यथा मंटों की कहानियां पढ़ते समय यह सब इंसान को झकझोर देता है. पाठक के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. पर यह सब पाठ्य का दृश्य श्राव्य माध्यम में अनुवाद करते समय खो गया. फिल्म जब क्लायमेक्स में पहुंचती है, तो तकनीक और शब्दों की ताकत दोनों ही निर्देशक की पहुंच से दूर हो चुके होते हैं.
जहां तक अभिनय का सवाल है, तो फिल्म में लगभग सभी नौसीखिए कलाकार हैं. जिनसे इस तरह की कहानी के पात्रों के साथ न्याय किए जाने की उम्मीद करना ही बेकार है. फिल्म में वीरेंद्र सक्सेना ने ठीक ठाक अभिनय किया है. रघुबीर यादव भी अपने किरदार के साथ न्याय नहीं कर पाएं. सोनल सहगल और सोएब शाह ने निराश ही किया है. फिल्म में एक मृत शरीर यानी कि लाश के साथ संभोग करने का अहसास होने पर जिस तरह की क्रिया व प्रतिक्रिया तथा भाव ईश्वर सिंह के चेहरे पर आने चाहिए थे, उसे सोएब शाह बिलकुल नहीं ला पाए. कुछ लोकेशन अच्छी हैं. कैमरामैन के काम को भी सराहा नहीं जा सकता.
128 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘मंटोस्तान’’ का निर्माण ‘‘राहत काजमी फिल्मस’’, ‘‘तारिक खान प्रोडक्शन’’ और आदित्य प्रताप सिंह इंटरटेनमेंट ने मिलकर किया है. लेखक व निर्देशक राहत काजमी हैं. फिल्म के कलाकार हैं-रघुवीर यादव, वीरेंद्र सक्सेना, सोनल सहगल, सोएब निकस शाह, रैन बसानेट, राहत काजमी व अन्य.