ये शख्स राजस्थान का है. मजदूरी के लिए गुजरात गया था. उसे क्या पता था कि इधर को रोना आएगा, तभी कोरोना आ जाएगा. पत्नी के पैर में फ्रैक्चर आया तो इस मेहनतकश युवक को रोना आ गया लेकिन इससे पहले कि पत्नी ठीक होती, कोरोना ने देश में दस्तक दे दी.

‘बचाव ही उपाय है’ के ब्रह्मास्त्र को दागते हुए प्रधानमंत्री जी ने पहले एक दिन का जनता कर्फ्यू मांगा और तत्पश्चात कोरोना के अदृश्य महादैत्य से निपटने के लिए पूरे देश में आवाजाही पर ताला लगा. राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए तीन दिन पहले इक्कीस दिन के लॉकडाउन की घोषणा कर डाली. सावचेत भी कर दिया कि इसे कर्फ्यू ही समझें.

कोरोना महामारी मामूली नहीं है. जिन विकसित और स्वास्थ्य सेवाओं में अव्वल राष्ट्रों ने इसे हल्के में लिया, वे अमेरिका, इटली, स्पेन, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देश आज  हर रोज हो रही सेकडों मौतों और हजारों की शक्ल में बढ़ रही संक्रमित लोगों की संख्या को लेकर बेहद चिंतित हैं. ब्रिटेन में प्रिंस चार्ल्स के बाद खुद प्रधानमंत्री बोरिश जॉनसन का कोरोना की चपेट में आ जाना साफ जाहिर करता है कि मौजूदा विपत्ति में कोई भी व्यक्ति अपनी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता है. ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री द्वारा बचाव ही उपाय के शिविर से लॉकडाउन का ब्रह्मास्त्र दागना किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं है. केन्द्र हो या राज्य सरकार, सभी बेहतर से बेहतर मुकाबले के लिए तैयारी कर रही हैं.

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योध्दा मैदान में डटे हुए हैं. अपनी जान पर खेलकर हमें और आपको उस खतरनाक वॉयरस से बचा रहे उन सभी जांबाज योद्धाओं के लिए दिल से सैल्यूट तो बनता ही है. हमें स्वास्थ्य सेवा, पुलिस, सेना और प्रशासनिक पदों पर आसीन रहकर दिन रात सेवाएं दे रहे उन तमाम अधिकारियों और कर्मचारियों का ह्रदय से आभार व्यक्त करना चाहिए, जो हमें घरों में मूंदकर (ताकि हम जिंदा रह सकें) खुली आंखों से दिखाई नहीं देने वाले इस खतरनाक महादैत्य से मुकाबले के लिए मैदान में डटे हुए हैं.

हमारे जीवन को कोरोना की आंच से बचाने के लिए सुरक्षा कवच बनीं सरकारों और सरकारी नुमाइंदों की मंशा पर हमें कोई शंका नहीं है लेकिन 21 दिन का लॉकडाउन करने से पहले कहीं ना कहीं और किसी छोटे या बड़े स्तर पर एक बड़ी चूक अवश्य हुई है. हमारे देश के  लाखों-करोड़ों लोग परिवार के भरण पोषण के लिए गांव और देहात की पगडंडियों से निकल बड़े शहरों और महानगरों में डेरा जमाए बैठे. लाखों की तादाद में तो पूरा परिवार ही पेट में जलती भूख की आग को मिटाने के लिए शहरों की शरण में पहुंचा. दुख इस बात का है कि ना तो केन्द्र ने और ना ही राज्य सरकारों ने लॉकडाउन से पहले इन लाखों करोड़ों आप्रवासियों के लिए कोई कार्ययोजना तैयार नहीं की.

इस बड़ी चूक की अनगिनत तश्वीरें आज शहरों और महानगरों से निकलने वाली प्रत्येक सड़क पर दिखाई दे रही हैं. ह्रदय को झंझोड़ने वाली इन तश्वीरों से पल-प्रतिपल रिस रहे दर्द की फिलवक्त कोई दवा भी नजर नहीं आ रही है. यातायात के तमाम साधन बंद और सड़कें सूनी हैं. ऐसे में खाली जेब और रीते पेट के चलते गुजरात से राजस्थान तक सेकडों किलोमीटर की दूरी तय करके उस मजदूर को अपनी पत्नी को कंधे पर लादकर लाने के लिए मजबूर कर दिया है. वह जीना चाहता है. वह ही क्यों, घर छोडकर बाहर गया भूख से बेवश और विवश हरेक मजदूर इन विषम परिस्थितियों में अपने घर जाना चाहता है. यहां भूख से मरने के बजाय टूटकर, थक हारकर अपने घर-परिवार के बीच उसे देह त्यागना मंजूर है.

इसीलिए दिल्ली में मजूरी करने वाले एक व्यक्ति ने मजूरी के पैसों से साइकिल का जुगाड़ किया. साइकिल के फ्रेम में गद्दी नुमा कपड़ा बांधा (ताकि जिगर के टुकड़े को रास्ते में तकलीफ ना हो) और दुधमुंहे बच्चे को महारानी लक्ष्मीबाई की मानिंद पीठ बना फ्रेम से जुडे हैंडिल से कपड़े के जरिए कसकर बांध दिया. पैडल मारने से पहले पत्नी को पीछे करियर पर बिठाया और चल पड़ा, अपने घर की ओर. वह चाहता कि यदि वह मरे तो उसका अंतिम संस्कार लावारिसों की तरह नहीं हो.

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ये दृश्य सिर्फ़ वानगी हैं. असल तश्वीर अत्यंत भयावह और डरावनी हैं. इधर को ‘रोना’, उधर कोरोना से ग्रसित ये लाखों करोड़ों लोग सड़कों पर बेतहाशा चले जा रहे हैं. मंजिल कितनी दूर है, इसकी किसी को फ्रिक नहीं हैं. रास्ते में कहीं पुलिस के बेरहम डंडे तो कहीं पुलिस का आतिथ्य मिलता है. भोजन भी और सोने और थकान मिटाने का साधन भी. अब आप ही बताएं कि इधर को ‘रोना’ और उधर ‘कोरोना’ का स्थाई इलाज क्या है?

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