15 August Special: 1947 में जिन्होंने भुगता दुनिया का सबसे बड़ा विस्थापन कहानी उन रिफ्यूजियों की….!

उनके बारे में अनगिनत कहानियां हैं. ज्यादातर सच, कुछ झूठी और बहुत सारी काल्पनिक. उन पर अब तक लाखों लेख लिखे जा चुके हैं,हजारों  कहानियाँ छप चुकी हैं. सैकड़ों उपन्यास, दर्जनों फिल्में, बीसियों धारवाहिक और उनके अनगिनत जुबानी किस्से लोगों ने सुन रखे हैं. फिर भी लगता है उनका दर्द अभी भी पूरी तरह से बयां नहीं हुआ. हो भी नहीं सकता. आज भी किसी बूढ़े रिफ्यूजी को कुरेद दीजिये तो उसकी आपबीती आपको रुला देगी. विस्थापन के इतिहास में भारत-पाक बंटवारे के की कहानी सबसे त्रासद है. यह मानव इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन था. दोनों तरफ के 1 करोड़ 60 लाख से ज्यादा लोग इससे सीधे-सीधे प्रभावित हुए थे. विभिन्न दस्तावेजों के मुताबिक़ 15 लाख से ज्यादा लोग मारे गए थे. लाखों लोग हमेशा के लिए अपाहिज हो गए थे. इस बंटवारे से जहाँ 1.20 करोड़ हिंदू तात्कालिक पूर्वी पाकिस्तान या मौजूदा बांग्लादेश में दोयम दर्जे के नागरिक बन जाने को मजबूर हो गए थे वहीं  4 करोड़ से ज्यादा भारत में रह गए मुसलमानों को भी अतिरिक्त डर के साथ जीना पड़ा.

भारत और पाकिस्तान के इतिहास में यह वैसी ही त्रासदी है जैसे पोलैंड और हंगरी के खाते में पहला और दूसरा विश्व-युद्ध. किसी को नहीं लगता था कि विभाजन हो ही जाएगा. यहाँ तक कि जिन्ना को भी. पाकिस्तान बनने के बाद उन्होंने एक बार मीडिया वालों के सामने और कहते हैं एक बार नेहरू से बात करते हुए भी यह कहा था. भले बाद में लोगों ने इसे जिन्ना का मजाक समझा हो मगर हकीकत यही थी की कि लोगों के साथ-साथ नेताओं को भी आखिरी तक लगता था कि शायद बंटवारा नहीं होगा. अंत आते आते बात बन ही जायेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अंततः बंटवारा हो ही गया. जिसकी सबसे वजनदार दस्तक फरवरी 1938 में ऐसा न चाहने वाले लोगों ने तब सुनी जब महात्मा गाँधी और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच विभाजन को रोकने वाली बातचीत बिना किसी नतीजे के खत्म हो गयी.

गांधी-जिन्ना बैठक के बेनतीजा हो जाने या नाकामयाब हो जाने के बाद ही साल 1938 के अंत और 1939 की शुरुआत में मुस्लिम लीग ने “मुसलमानों के उत्पीड़न” की जाँच के लिए एक समिति बनाई. इस समिति ने मानों विभाजन की आशंकित कहानी में जान डाल दी. यह विभाजन की सबसे मजबूत कड़ी साबित हुई. इसी के बाद 23 मार्च 1940 का वह दिन आया, जब मुस्लिम लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में पकिस्तान को लेकर एक प्रस्ताव रखा. यह प्रस्ताव पाकिस्तान की तरफ कदम बढाने का पहला ठोस व दस्तावेजी कदम था. अगर वास्तव में हमारे राजनेता मुस्लिम लीग को लेकर खुशफहमी का शिकार न होकर दूरदर्शी होते तो इसे ठोस रूप न लेने देते. जिन्ना-गांधी की बातचीत के कई और दौरों की कोशिश करते तो यह कदम रुक जाता जिसके बाद मुस्लिम लीग वालों के लिए पाकिस्तान हासिल करना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया.

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इसी प्रस्ताव को बाद में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ के नाम से जाना गया. इसके तहत एक पूरी तरह आजाद मुस्लिम देश बनाए जाने का प्रस्ताव रखा गया. ठीक उन्हीं दिनों भारत स्थित ब्रिटिश वायसराय लिनलिथगो ने अगस्त प्रस्ताव की घोषणा की. जिसे कांग्रेस और लीग दोनों ने एक जैसे तर्कों के साथ खारिज कर दिया जो इस बात का सबूत था कि अब भी दोनों कई बातों पर एक जैसी राय रखते थे यानी उनके बीच सहमति की गुंजाइश थी. हालाँकि जब कांग्रेस ने उन्हीं दिनों अंग्रेजी शासन के खिलाफ असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया तो मुस्लिम लीग ने साथ तो नहीं दिया, लेकिन विरोध भी नहीं किया. जो एक किस्म से अंग्रेजों की खिलाफत ही थी. 11 मार्च 1942 को ब्रिटिश संसद में घोषणा की गई कि इंग्लैंड के प्रसिद्ध समाजवादी नेता सर स्टिफर्ड क्रिप्स को जल्द ही नए सुझावों के साथ भारत भेजा जाएगा जो राजनीतिक सुधारों के लिए भारतीय नेताओं से बातचीत करेंगे. घोषणा के मुताबिक 22-23 मार्च 1942 को सर स्टिफर्ड क्रिप्स दिल्ली आए. उन्होंने भारतीय नेताओं से लंबी बातचीत की और 30 मार्च को क्रिप्स प्रस्ताव प्रकाशित हुआ.

कांग्रेस ने क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों को सिरे से खारिज कर दिया. अब भी मुस्लिम लीग अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस के साथ ही थी, यह अलग बात है कि बयानबाजी में अब लीग कांग्रेस से अपनी दुश्मनी दिखाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती थी. गाँधी और जिन्ना ने सितंबर 1944 में पाकिस्तान की मांग पर फिर बातचीत शुरू की जिसकी इस बार भी बैठक के पहले न तो कोई ठोस भूमिका बनाई गयी और न ही पोस्ट डिस्कशन के बारे में कुछ अनुमान लगाया गया. बहुत कैजुअल बातचीत शुरू हुई कुछ इस अंदाज में जैसे दोनों पक्षों को पहले से ही पता हो कि यह तो टूटनी ही है. गांधी-जिन्ना बैठकों को लेकर अगर गंभीरता से होम वर्क किया गया होता तो शायद बंटवारा रुक जाता. जिन्ना अपनी कामयाबियों से अब उत्साहित हो गए थे और उन्हें पाकिस्तान पहले चाहिए था आजादी बाद में. दरअसल उन्हें टूट रही वार्ताओं के बीच कांग्रेस में न दिखने वाली बेचैनियों ने हौसला भर दिया था.

जिन्ना बुद्धिमान व्यक्ति थे वह समझ गए थे कि कांग्रेस ने मन ही मन पाकिस्तान को मान्यता दे दी है. क्योंकि गांधी 5 सालों से उसी टेक में अटके थे कि पहले आजादी मिल जाए फिर हिंदू बहुमत वाली अस्थायी सरकार,मुसलमानों की पहचान सुरक्षित रखने का ठोस आश्वासन दे. जाहिर है इस बातचीत में रचनात्मकता का अभाव था. नतीजतन 1946 में मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन की योजना से खुद को अलग कर लिया और आंदोलन छेड़ दिया इसी के बाद से बाद देश भर में मारकाट शुरू हो गई और बंटवारा रोकना करीब-करीब असम्भव हो गया. त्रासद बंटवारे का खौफनाक टेलर तब के कलकत्ता में 16 से 18 अगस्त 1946 के बीच दिखा जब ‘ग्रेट कैलकटा किलिंग्स’ हुई. इस त्रासद घटना में 4000 से ज्यादा लोग मारे गए. हजारों घायल हुए और लगभग एक लाख लोग बेघर हुए.

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इसी हिंसा की आग पूर्वी बंगाल के नोआखाली जिले और बिहार तक फैली. आजादी वाले साल की शुरुआत बिलकुल बेरौनक और खौफ से भरी थी. 28-29 जनवरी1947 की एक लंबी मीटिंग के बाद मुस्लिम लीग ने संविधान सभा को भंग करने की मांग की और एक हफ्ते बाद ही पंजाब में भी सांप्रदायिक हिंसा शुरू हो गई. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने घोषणा की कि ब्रिटेन जून 1948 तक भारत छोड़ देगा और लॉर्ड माउंटबेटन वायसराय का पद संभालेंगे. 24 मार्च को लॉर्ड माउंटबेटन ने वायसराय  और गवर्नर जनरल के पद की शपथ ली. 15 अप्रैल को गांधी और जिन्ना ने मिलकर आम लोगों से हिंसा और अव्यवस्था से दूर रहने की अपील की. अब तक गांधीजी जी भी बंटवारे को नियति मान चुके थे. 2 जून को माउंटबेटन ने भारतीय नेताओं से विभाजन की योजना पर बात की और 3 जून को नेहरू, जिन्ना और सिख समुदाय के प्रतिनिधि बलदेव सिंह ने ऑल इंडिया रेडियो के प्रसारण में इस योजना के बारे में जानकारी दी.

आखिरकार 14 अगस्त को एक नया मुल्क पाकिस्तान बन गया. भारत का बंटवारा हो गया. आजादी देने के नाम पर अंग्रेज अपने षड्यंत्र में कारगर हो गए और दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा मानव विस्थापन इस उपमहाद्वीप को विरासत के रूप में सौंप दिया. जिसे आज भी दोनों देश आजादी के बोझ के रूप में ढो रहे हैं.

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