आखिर कब तक: मनु ने शुभेंदु की ऐसी कौन सी करतूत जान ली

Serial Story: आखिर कब तक (भाग-1)

न जाने मैं कितनी बार मानसी का लिखा मेल पढ़ चुकी थी. हर बार नजर 2 लाइनों पर आ कर ठहर जाती, जिन में उस ने शुभेंदु से तलाक लेने की बात की थी.

20 साल तक विवाह की मजबूत डोर में बंधी जिंदगी जीतेजीते पतिपत्नी एकदूसरे की आदत बन जाते हैं. एकदूसरे के अनुसार ढल जाते हैं. फिर अलग होने का प्रश्न ही कहां उठता है. पर सचाई उन 2 लाइनों के रूप में मेरे सामने था. कैसे भरोसा करूं, समझ नहीं पा रही थी. सब कुछ झूठ सा लग रहा था.

कुछ भी हो मनु मेरी सब से प्रिय सखी थी. पहली बार हम दोनों एक संगीत समारोह में मिले थे. उसे संगीत से बेहद पे्रम था और मेरी तो दुनिया ही संगीत है. मानसी नाम बड़ा लगता था, इसलिए मैं उसे घर के नाम से पुकारने लगी थी. पहले मानसीजी, फिर मानसी और बाद में वह मनु हो गई. हमारे बीच कोई दुरावछिपाव नहीं था. यहां तक कि अपने जीवन में शुभेंदु के आने और उन से जुड़े तमाम प्रेमप्रसंगों को भी वह मुझ से शेयर कर लिया करती थी.

एक दिन उस ने शुभेंदु से मेरा परिचय भी करवाया था, ‘‘बसु, ये मेरे बौस…सीनियर आर्किटैक्ट शुभेंदु और मेरे….’’

उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं ने नमस्कार किया.

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‘‘आप वसुधाजी… मनु से आप के बारे में इतना सुन चुका हूं कि आप की पूरी जन्मपत्री मेरे पास है.’’

उन का यों परिहास करना अच्छा लगा था. लंबे, आकर्षक शुभेंदु से मिल कर पलभर को सखी के प्रति जलन का भाव जागा था. पर दूसरे ही पल यह संतुष्टि का भाव भी बना था कि मनु जैसी युवती के लिए शुभेंदु के अलावा और कोई अयोग्य वर हो ही नहीं सकता था. कुदरत ने उसे रूप भी तो खूब बख्शा था. छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी तीखी पलकों से ढकी आंखें, काले घने बाल और गुलाबी अधरों पर छलकती मोहक हंसी, जो सहज ही किसी को अपनी ओर खींच लेती थी.

‘‘मैं अकसर उसे चिढ़ाती, मनु तू इतनी दुबलीपतली कमसिन सी है कि फूंक मारूं तो मक्खी की तरह उड़ जाए. क्या रोब पड़ता होगा तेरा औफिस में?’’

‘‘चल, हट. एक दिन औफिस आ कर देख ले. गस खा कर गिर जाएगी मेरा रुतबा देख कर.’’

‘‘अच्छा यह बता तेरे बौस तुझे लाइननहीं मारते?’’

‘‘नहीं, वे बहुत ही सज्जन इंसान हैं. उन का व्यवहार बहुत अच्छा है. काम को भी बहुत अच्छी तरह समझाते हैं. तारीफ करने में माहिर.’’

‘‘मैं नहीं मानती. एक सुंदर लड़की बगल में बैठी हो और वह लाइन न मारे.’’

सवाल ही नहीं उठता. मैं लड़का होती तो, कब का उड़ा ले जाती तुझे.

ब्याह के बाद मनु अकसर मुझे अपने घर ले जाती थी. इस में मेरा कोई श्रेय नहीं था. उन लोगों का मीठामीठा सा आमंत्रण भी रहता था. शुभेंदु का आग्रह मनु से भी अधिक रहता था. शुभेंदु की वाकपटुता का कोई सानी नहीं था. वे बात को ऐसे कहते, जैसे एक विषय को उन्होंने अपने भीतर से निकाला हो. मैं और मनु दोनों मूक श्रोता की तरह वे जो कहते उसे सुनते रहते.

एक दिन हम तीनों टीवी देखते हुए खाना खा रहे थे. खाना खत्म हुआ तो शुभेंदु हम तीनों की प्लेट किचन में रख आए.  मैं ने मजाक में कहा, ‘‘शुभेंदु, आप दूसरों का बहुत ध्यान रखते हैं.’’

वे एक विजयी मुसकान चेहरे पर लिए बोले, ‘‘वसुधाजी, जो इंसान दूसरों का आदर नहीं करता वह अपनी इज्जत क्या करेगा? उसे तो इज्जत की परिभाषा भी मालूम नहीं होगी. जिसे स्त्रियों की इज्जत करना नहीं आता उन से मुझे घृणा होती है.’’

शुभेंदु भाषण की टोन में बोल रहे थे. उन का बोलना भाषण नहीं लग रहा था. सचाई, ईमानदारी, और इंसानियत का तकाजा लग रहा था.

मैं ने देखा मनु कुछ नहीं बोली, हाथ धोने अंदर चली गई. मैं भी उस के पीछेपीछे चली गई. बोली, ‘‘मनु, जूठी प्लेटें उठाना बहुत बड़ी बात है. तूने शुभेंदु को थैंक्स भी नहीं कहा?’’

‘‘वसु, जिंदगी औपचारिकताओं से नहीं जी जाती. जीने के लिए एक साफसुथरी स्फटिक सी शिला पैरों के नीचे होनी चाहिए. वरना आदमी फिसलन से औंधे मुंह गिरता है.’’

‘‘वाह रे, इतनी बड़ीबड़ी बातें कहां से सीखीं?’’

उस ने मुसकरा कर विषय बदल दिया, ‘‘वसु, शादी को कब तक टालती रहेगी?’’

‘‘क्या करूं कोई मेरी पसंद का मिलता ही नहीं है?’’

‘‘तेरी पसंद क्या है. जरा मैं भी तो सुनूं?’’

न जाने किस अनजानेपन में मैं झट से बोल पड़ी, शुभेंदु जैसा.

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मनु के चेहरे पर सन्नाटे की लकीरें सी खिंच गईं. वह कुछ बोली नहीं. मैं ने ही उस के गले में बांहें डाल कर उस का डर दूर किया, ‘‘मनु, डर गई क्या?’’ मैं शुभेंदु को तुझ से नहीं छीनूंगी. तेरी गृहस्थी में आग नहीं लगाऊंगी.’’

‘‘एक बात याद रखना परदे पर उभरने वाला दृश्य जितना सुलक्षण और सौंदर्यशाली होता है, उन के पीछे उतने ही घिनौने रास्ते होते हैं.’’

‘‘क्या बात है मनु… तेरी यह भाषा कहीं गहरे चोट करती है.’’

‘‘मुझे मनु पर बहुत गुस्सा आ रहा था कि ये औरतें हमेशा अपने पतियों की बुराई ही क्यों करती हैं? मनु भी मुझे उन बेअकल औरतों की कतार में बैठी दिखी. हैरानी तो मुझे उस दिन हुई कि मैं अपनी आंखों पर कैसे सम्मोहन का परदा डाले हुए थी. एक दिन यह सम्मोहन परदे को चीरता हुआ बिखर गया. शुभेंदु मेरे ही सामने मनु पर बिफर रहे थे, जबकि वे बड़े गुमान से कहते थे कि आदमी की शालीनता उस की भाषा में होती है.’’

‘‘बराबरी तो हर समय करती हैं तुम औरतें, लेकिन अकल जरा भी नहीं है…’’

वे भुनभुना रहे थे. भूल गए थे कि मैं वहां बैठी हूं. उन का यह रूप मैं ने पहली बार देखा था. मैं हैरान सी कभी शुभेंदु को देखती तो कभी मनु को.

शुभेंदु, इतना गुस्सा, इतनी सी बात पर? आज चाटर्ड बस नहीं आई थी, इसलिए तुम्हारी गाड़ी ले गई, मनु ने धीरे से कहा. सुन कर शुभेंदु का पारा 1 डिग्री और चढ़ गया, ‘‘तुम इसे छोटी सी बात कह रही हो? समझदारी भी कोई चीज होती है. पेट्रोल की कीमतें आसमान छू रही हैं और इन्हें ऐयाशी सूझ रही है.’’

‘‘शुभेंदु, आज मेरी कंपनी हैड के साथ मीटिंग थी. समय पर पहुंचना जरूरी था.’’

‘‘तो 7 बजे तक बिस्तर पर पड़े रहने की क्या जरूरत थी? जल्दी उठती.’’

लेकिन इस बार मनु ने कोई जवाबदेही नहीं की. मनु ने चुपचाप मेरा हाथ पकड़ा और फिर हम घर से बाहर निकल आईं.

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Serial Story: आखिर कब तक (भाग-2)

‘‘मनु, तू अपनी गाड़ी क्यों नहीं खरीद लेती? बेकार की चिकचिक से बच जाएगी. आजकल सभी कंपनियां ईएमआई की सुविधा देती हैं.’’

‘‘कितनी गाडि़यों की ईएमआई भरूंगी मैं वसु. फिलहाल, घर खर्च से ले कर मकान का किराया सब मेरी पगार से चल रहा है.’’

‘‘क्यों शुभेंदु की पगार भी तो अच्छीखासी होगी. इतने बड़े पद पर हैं?’’

‘‘उन्होंने अपनी कंपनी से रिजाइन कर दिया है. अच्छा अब बहुत हो गई बातें, चल कोल्ड कौफी विद आईसक्रीम ले कर आते हैं. शुभेंदु को बहुत पसंद है. मैं ने अमानत मौल में एक सुंदर सी शर्ट भी देखी है वह भी खरीदनी है मुझे. चल जल्दी कर,’’ वह सहज हो रही थी.

‘‘किस के लिए शर्ट?’’

‘‘शुभेंदु के लिए. खुश हो जाएंगे.’’

‘‘खुश हो जाएंगे मतलब. उन की खुशी का तुझे इतना खयाल है?’’

‘‘और क्या? आखिर वे मेरे पति हैं. मैं उन से प्यार करती हूं,’’ वह खिलखिला रही थी.

‘‘और वह शुभेंदु का गुस्सा,’’ मैं ने उसे याद दिलाया.

‘‘छोड़ यार, रात गई बात गई. शादीशुदा जिंदगी में ये सब चलता ही रहता है.’’

‘‘मगर शुभेंदु ऐसे होंगे, मैं सोच भी नहीं सकती. उन की वे बड़ीबड़ी बातें…’’

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‘‘आजकल शुभेंदु की चिड़चिड़ाहट कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. एक तरफ जौब की परेशानी तो दूसरी तरफ मेरी पै्रगनैंसी. 5 महीने बाद मेरी डिलिवरी है. कहीं न कहीं तो अपना फ्रस्ट्रेशन उतारना ही है न?’’ वह अब भी शुभेंदु का पक्ष ले रही थी.

देखते ही देखते 5 महीने बीत गए. इस बीच मेरा रिश्ता पलाश से तय हो गया. मनु मेरी सगाई पर नहीं आ पाई थी. न ही शुभेंदु आए.

उस दिन उस ने अस्पताल में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था.

नामकरण वाले दिन मैं उस से मिलने गई तो वह फूटफूट कर कर रो पड़ी, ‘‘आज फुरसत मिली तुझे. एक बार आ कर देख तो लेती. तेरी मनु अस्पताल में अकेली किस तरह प्रसवपीड़ा से छटपटा रही थी… और कुछ नहीं तो… कम से कम… मौरल सपोर्ट तो दे ही सकती थी.’’

मैं उस के आंसू पोंछती रही, दिलासा देती रही. थोड़ी शांत हुई तो मैं ने पूछा, ‘‘शुभेंदु कहां थे उस दिन?’’

पति की बात चलते ही उस के चेहरे से भावुकता के भाव एकदम लोप हो गए. पहले से धीमी आवाज को और दबा कर तटस्थ भाव से बोली, ‘‘एक इंटरव्यू के सिलसिले में वरसोवा गए थे. वसु आजकल मार्केट का बुरा हाल है. कामना कर उन्हें नौकरी मिल जाए. अभी तक हम 2 थे. अब साइना और विराम भी आ गए हैं. दिन ब दिन खर्चे बढ़ेंगे. पहले स्कूल, फिर कालेज… फिर शादी.’’

‘‘अरे, इतनी दूर कहां पहुंच गई तू बसु? शुभेंदु उच्च शिक्षित हैं, अनुभवी भी. उन्हें जौब मिल जाएगी.’’

हम बातें कर ही रहे थे कि शुभेंदु हाथ में गरमगरम समोसे की प्लेटें और कलाकंद का डब्बा हाथ में ले कर हाजिर हुए. उन्होंने फरमाइश की, ‘‘वसुधाजी, आप को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर बहुत सुना है. आप यहां भी कुछ सुनाइए. खुशी का मौका है?’’

‘‘अभी यहां? न हारमोनियम, न तानपुरा…’’ मैं ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ… तभी तो तुम्हारी आवाज अपने असली रूप में आएगी.’’

असली शब्द मेरे मस्तिष्क दिमाग में लगातार वर्षा की बूंदों की तरह टपटप कर उठा था. मनु ने एक बार कहा था कि असलियत क्या है वसु. तुझे इस का एहसास भी नहीं हो सकता.’’

मनु ने भी आग्रह किया तो मैं मना नहीं कर सकी. आंखें बंद कर के एक ठुमरी शुरू कर दी. कमरे में सिर्फ मेरी आवाज थी. उन दोनों की सांसों की भी कोई आवाज वातावरण में नहीं थी. गाना खत्म होने पर शुभेंदु वाहवाह कर उठे थे. अचानक उठ कर उन्होंने मुझे आलिंगन में ले लिया और गालों पर हलका सा एक चुंबन भी अंकित कर दिया. मैं हैरान रह गई. पर उसी समय मनु ने भी शुभेंदु की नकल कर दी. उन की दृष्टि में बात सामान्य हो गई. पर उसी समय मेरे अंतस में एक फांस सी चुभ गई शुभेंदु के प्रति, उन के व्यवहार के प्रति, चरित्र के प्रति.

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कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि मनु जरूरत की चीजें खरीदने के लिए भी अपने हाथ रोक लेती, यहां तक कि बच्चों के खिलौने और कपड़ों की शौपिंग तक भी टाल जाती.

उन दिनों ‘बेबी केयर’ में सेल लगी थी. मैं ने उसे अपने साथ चलने के लिए कहा. सोचा, इसी बहाने से विराम और साइना के लिए कुछ खरीद लूंगी. मनु भी शौपिंग कर लेगी. बच्चों को मैं ने कुछ भी नहीं दिया था.

शुभेंदु नहीं मानेंगे, वह साफ टाल गई.

‘‘पर तू खुद भी तो कमाती है मनु? एटीएम से पैसे निकाल और अपनी मरजी का कुछ भी खरीद ले.’’

‘‘मेरे सारे कार्ड उन के पास हैं. उन से पूछे बिना मैं एक रूमाल तक नहीं खरीदती.’’

‘‘क्यों, मना करते हैं क्या?’’

‘‘नहीं, मुझे लगता है, इस से उन के अहं को संतुष्टि मिलती है.’’

जैसेजैसे शादी की तारीख निकट

आती जा रही थी मेरी मसरूफियत भी बढ़ती जा रही थी. शादी के बाद मैं पलाश के साथ कैलिफोर्निया शिफ्ट होने वाली थी. मां और भाभी मेहमानों की आवभगत की तैयारी में जुटी थीं. कार्डों को छपवाने और बंटवाने का जिम्मा मुझ पर और भैया पर था.

समय कम था, इसलिए अपने निकटस्थ मित्रों, परिजनों को छोड़ कर औरों को औनलाइन कार्ड भेज दिए. मनु से मिले हुए काफी दिन हो गए थे. प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुझे 2 दिन के लिए मुंबई भी जाना था. सोचा उन सब से मिलती हुई, कार्ड देती मैं एअरपोर्ट निकल जाऊंगी.

जब घर पहुंची तो मनु अपने कमरे में लेटी थी. उसे तेज बुखार था. बच्चे सो रहे थे. शुभेंदु, ड्राइंगरूम में टीवी देख रहे थे.

मेरा लैपटौप बैग देख कर बोले, ‘‘कहां जाने की तैयारी है?’’

‘‘मुंबई जाना है, उस के बाद 20 दिन का अवकाश,’’ मैं अपने ही खयालों में खोई हुई थी.

‘‘मैं कौफी लाता हूं.’’

‘‘आप बैठिए. मैं बढि़या कौफी बनाती हूं. कह में किचन में चली गई.’’

मैं किचन में जा कर कौफी घोट रही थी कि शुभेंदु ने पीछे से आ कर मुझे अपनी बांहों में घेर लिया. कप और चम्मच हाथ में लिए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर बोले, ‘‘ऐसे नहीं, ऐसे घोटी जाती है कौफी.’’

उन के मजाक को पूर्णतया हंसी में उड़ा कर उन की बांहों के नीचे से मैं बाहर निकल आई. लेकिन यह शुभेंदु का मजाक नहीं था. उन की आंखों में पहली बार मैं ने कुछ देखा था, जो एक मित्र की आंखों में नहीं, एक पुरुष का स्त्री को देख कर उपजता है.

‘‘शुभेंदु बिहेव योर सैल्फ,’’ मैं उन का बड़प्पन भूल गई. उन के लिए मेरे मन में जो आदरसम्मान की भावना थी वह धुएं की तरह उड़ गई. उस की जगह घृणा पनप उठी. मैं चीख पड़ी, ‘‘मैं सब मनु को बताऊंगी.’’

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लेकिन शुभेंदु ढीठता से हंस रहे थे. मैं अपने मन की उथलपुथल से पिस रही थी. क्या करूं? मनु को सब बता दूं? सुन कर वह सहन भी कर सकेगी. पता नहीं उस की प्रतिक्रिया कैसी होगी. एक अच्छी मित्रता के टूटने का अवसाद दिल पर भारी पड़ने लगा था.

आगे पढें- मनु सब जानती थी. वह…

Serial Story: आखिर कब तक (भाग-3)

मगर मनु सब जानती थी. वह यह भी जानती थी कि शुभेंदु वरसोवा में किसी कंसलटैंट से नहीं, रूपा नाम की एक टीचर से मिलने जाते हैं.

‘‘मैं उन की पत्नी हूं. उन को बाहर और भीतर से जानती हूं. मैं ने तुझ से कहा तो था. वास्तविकता क्या है. तुझे इस का एहसास भी नहीं हो सकता.’’

‘‘पर मनु, तू ऐसी दोहरी जिंदगी कैसे जी लेती है, मैं समझ नहीं पा रही हूं,’’ सबकुछ जानते हुए उस जहर को अपने गले से कैसे उतार रही है.’’

‘‘वसु ये मजबूरियां… औरत के लिए 2 ही रास्ते हैं, या तो चुप रह कर घर की शांति हर कीमत पर खरीदती रहे या फिर काट ले खुद को इन सब से. पर वह अकेले जी भी कहां पाती है?’’

‘‘मैं तो नहीं मानती… तू पढ़ीलिखी है. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी है. छोड़ दे शुभेंदु को.’’

‘‘और अपने बच्चों को उसी वंचित बचपन की तृष्णा भुगतने दूं, जो मैं ने भुगती थी? वसु चिडि़या भी अपने बच्चों की देखभाल तब तक करती है जब तक ये उड़ना नहीं सीख जाते. मेरे मातापिता ने तो आज तक मेरी सुध ही नहीं ली. जिस उम्र में लड़कियां गुड्डेगुडि़यों के ब्याह रचाती हैं, मैं ने उस उम्र में दरदर की ठोकरें खाई हैं. कई बार मन विचलित हुआ था. यदि मुझे पाल नहीं सकते थे तो जन्म ही क्यों दिया था? नहींनहीं… मैं शुभेंदु से कभी तलाक नहीं लूंगी… मैं ने अपनी नियति से समझौता कर लिया है.’’

कैलिफोर्निया में बराबर उस के मेल मिलते रहते थे मुझे. कई बार फोन पर भी बात हुई, लेकिन शुभेंदु से तलाक लेने की बात उस ने कभी नहीं की. फिर ऐसा क्या घटा जो वज्र जैसी छाती को चीर गया. बच्चों की खातिर कराहते वैवाहिक बंधन का निर्वहन करने का दम भरने वाली मनु स्वयं कैसा कठोर निर्णय ले बैठी? क्या पतिपत्नी का जुड़ाव नासूर बन कर ऐसी लहूलुहान पीड़ा दे गया कि अब दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह गया था.

अचानक टैक्सी रुकने की आवाज ने मुझे ऊहापोह की यात्रा से लौट आने के लिए विवश कर दिया. मेल पर भेजे पते को खोजती हुई मैं सही स्थान पर पहुंच गई थी.

दिल्ली के एक पौश इलाके में स्थित बहुमंजिला इमारत में उस का सुंदर सा फ्लैट था. घर की सजावट देख कर लगा उस के पास जीविका के सभी साधन हैं. किसी की दया की मुहताज नहीं है वह. टेबल पर लगे फाइलों के ढेर, बारबार बजती फोन की घंटी उस की मसरूफियत के साफ परिचायक थे.

कुछ ही देर में मनु मेरे सामने थी. उसे आलिंगन में ले कर उस के माथे को चूम लिया मैं ने… उस की आंखों से आंसू बहने लगे. आंसू दांपत्य की टूटन और उस से उत्पन्न हताशा के सूचक थे या किसी अपने करीबी से मिलने की खुशी में तनमन भिगो गए थे, नहीं जान पाई थी. 20 साल के इस अंतराल में बहुत कुछ दरक गया था. सबकुछ पूछने ही तो आई थी उस के पास.

काफी समय इधरउधर की बातों में ही निकल गया. कभी वह पलाश के बारे में पूछती कभी मेरे बेटे सुहास के विषय में. मैं कनखियों से उस के दिव्यरूप को निहार रही थी. वही गौर वर्ण, मृगनयनी सी आंखें… कुल मिला कर अभी भी किसी पुरुष को आकर्षित कर सकती थी. वही मृदुभाषिता, वही सौम्य व्यवहार कुछ भी तो नहीं बदला था. उस की मांग का सिंदूर, कलाइयों में खनकती लाल चूडि़यां और माथे पर लाल बिंदिया देख कर मन शंकित हो उठा था. ये निशानियां तो पति के वजूद की सूचक हैं. फिर मेल.

मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने में ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. उस का शांत चेहरा सहसा कठोर हो गया. होंठों पर जबरन बनावटी मुसकान बिखेरती मनु धीमे स्वर में बोली, ‘‘वसु, बचपन में एक पोंगा पंडित की कहानी पढ़ी थी, जिस ने वरदान के महत्त्व को न समझ कर उसे व्यर्थ ही खो दिया था. कहानी का अंत कुछ इस प्रकार से था कि दान सदा सुपात्र को ही देना चाहिए. वरना देने वाले और पाने वाले दोनों का ही कल्याण नहीं होता.’’

‘‘लेकिन, यहां इस कहानी का क्या मतलब है?’’

‘‘शुभेंदु वह पात्र नहीं था, जो मेरे प्रेम, समर्पण, त्याग और निष्ठा को समझ पाता.’’

‘‘लेकिन, तूने तो उसे मन से अपनाया था.’’

‘‘लोग तो पत्थर को पूजते हैं. लेकिन मैं ने जीतेजागते इंसान को पूजा था. समझ में नहीं आता, ऐसी क्या कमी रह गई मेरी पूजा में, जो जीताजागता इंसान पत्थर निकला,’’ वह आंखों से शून्य में ताकती रही.

‘‘जाने दे मनु, जो तेरे योग्य ही नहीं था उसे खोने का दुख क्यों?’’

मैं ने उसे सांत्वना देने के लिए कहा. मगर वह अपने में ही खोई बोलती रही. ‘‘शुभेंदु ने कभी पैसा नहीं कमाया. मैं चुप रही. मेरे शरीर को जागीर समझ कर पीड़ा दी. मैं अपने होंठ सिले रही. मेरी कमाई को अपनी रखैल पर लुटाते रहे. मैं ने उफ तक नहीं की कि लोगों को अगर भनक भी लग गई कि लड़की का पिता बदचलन है, तो साइना की शादी में अड़चन पड़ेगी.

‘‘विराम और साइना पिता के संबंध में कई प्रश्न पूछते. उन के अनर्गल वाक्यों के मर्म को समझने की चेष्टा करते. मैं बड़ी ही सतर्कता से उत्तर देती उन के प्रश्नों के. उन के मन में मैं ने पिता का ऐसा रूप साकार किया कि आदरणीय हो उठे थे उन के मन में. शायद कोई भी महिला अपने पति का अनादर अपने बेटी या बेटे से नहीं करवाना चाहती.

‘‘कई संभ्रांत परिवारों से मुझे आमंत्रण मिलते. आखिर मेरा भी कोई वजूद है और फिर प्रतिष्ठा, मान, यश, धन सबकुछ तो था मेरे पास. लेकिन जी नहीं करता था कहीं जाने का. लोग पति से संबंधित प्रश्न पूछते, तो क्या उत्तर देती उन्हें? मेरा पति, मुफ्त की रोटियां तोड़ने वाला एक आलसी पुरुष है या एक शक्की, क्रोधी, चरित्रहीन व्यक्ति के रूप में परिचय देती.

‘‘एक कुशल योद्धा की तरह मैं ने हर कर्त्तव्य का पालन किया और फिर मैं ने तो एक सभ्य, सुसंस्कृत और शिक्षित व्यक्ति से ब्याह किया था और उस ने असभ्यता की हर सीमा का उल्लंघन किया. मेरी अनमोल धरोहर मेरे बच्चों तक को छल से मुझ से दूर कर दिया.

‘‘शुभेंदु के मन में मेरे लिए घृणा थी, प्यार नहीं, नीचा दिखाने की चाहत थी. एकतरफा संबंध था हमारा. संबंध भी नहीं समझौता कहो इसे?’’

‘‘आजकल शुभेंदु कहां है?’’

‘‘कुछ दिन पहले तक तो रूपा के घर पर ही था. बच्चे सिंगापुर चले गए तो उस की रहीसही शर्म और मर्यादा भी समाप्त हो गई. रूपा की मौत के बाद वह आया था मेरे पास. मेरे पैर पकड़ कर बोला कि तुम मेरे अंधेरे जीवन की चांदनी हो. एक ऐसी चांदनी, जो सीखचों में कैद रही. अब तुम मेरे जीवन को अपनी चांदनी से नहला कर मेरे गुनाह माफ कर दो.’’

‘‘मैं चुप रही तो, शुभेंदु ने फिर से हाथ जोड़ कर विनती की कि इस बुढ़ापे के प्रभात में तुम्हें छोड़ कर मेरा अब कोईर् सहारा नहीं. आंखों की रोशनी कम हो गई है. अंधा हो जाऊंगा.

‘‘तब मैं ने कहा कि शुभेंदु, संध्या के धूमिल पहर में कोई सवेरे का वरदान मांगे, तो यह उस की भूल है. तुम्हें बहुत देर से होश आया है. मुझे इन रंगीन और झूठी बातों से बहुत दूर रहना है समझे. मुझे बहकाना बंद करो. मेरी आंखों की पट्टी खुल चुकी है.’’

मनु की तरह ऐसी कई औरतें हैं, जो समय रहते गलत बात का विरोध नहीं कर पातीं. पता नहीं क्यों? शायद मन में छिपा डर कोई कदम उठाते समय फैल कर उन की शक्ति को कम कर देता है या फिर संस्कारगत दब्बूपना जागृत हो कर उस की समग्र सोचनेसमझने की ताकत कम कर देता है. काश, मनु ने भी इस सच को समझा होता तो आने वाली कई समस्याओं से छुटकारा पा लेती.

मनु के स्वर में छिपी पीड़ा मुझे गहरे तक कचोट गई. तेज डग भरती, मन ही मन कामना करती मैं उठ खड़ी हुई कि सुखद हो इस आत्मविश्वासी नारी की एकाकी यात्रा.

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