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न जाने मैं कितनी बार मानसी का लिखा मेल पढ़ चुकी थी. हर बार नजर 2 लाइनों पर आ कर ठहर जाती, जिन में उस ने शुभेंदु से तलाक लेने की बात की थी.

20 साल तक विवाह की मजबूत डोर में बंधी जिंदगी जीतेजीते पतिपत्नी एकदूसरे की आदत बन जाते हैं. एकदूसरे के अनुसार ढल जाते हैं. फिर अलग होने का प्रश्न ही कहां उठता है. पर सचाई उन 2 लाइनों के रूप में मेरे सामने था. कैसे भरोसा करूं, समझ नहीं पा रही थी. सब कुछ झूठ सा लग रहा था.

कुछ भी हो मनु मेरी सब से प्रिय सखी थी. पहली बार हम दोनों एक संगीत समारोह में मिले थे. उसे संगीत से बेहद पे्रम था और मेरी तो दुनिया ही संगीत है. मानसी नाम बड़ा लगता था, इसलिए मैं उसे घर के नाम से पुकारने लगी थी. पहले मानसीजी, फिर मानसी और बाद में वह मनु हो गई. हमारे बीच कोई दुरावछिपाव नहीं था. यहां तक कि अपने जीवन में शुभेंदु के आने और उन से जुड़े तमाम प्रेमप्रसंगों को भी वह मुझ से शेयर कर लिया करती थी.

एक दिन उस ने शुभेंदु से मेरा परिचय भी करवाया था, ‘‘बसु, ये मेरे बौस...सीनियर आर्किटैक्ट शुभेंदु और मेरे....’’

उस का वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं ने नमस्कार किया.

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‘‘आप वसुधाजी... मनु से आप के बारे में इतना सुन चुका हूं कि आप की पूरी जन्मपत्री मेरे पास है.’’

उन का यों परिहास करना अच्छा लगा था. लंबे, आकर्षक शुभेंदु से मिल कर पलभर को सखी के प्रति जलन का भाव जागा था. पर दूसरे ही पल यह संतुष्टि का भाव भी बना था कि मनु जैसी युवती के लिए शुभेंदु के अलावा और कोई अयोग्य वर हो ही नहीं सकता था. कुदरत ने उसे रूप भी तो खूब बख्शा था. छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी तीखी पलकों से ढकी आंखें, काले घने बाल और गुलाबी अधरों पर छलकती मोहक हंसी, जो सहज ही किसी को अपनी ओर खींच लेती थी.

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