Serial Story: अपने अपने सच- पहचान बनाने के लिए क्या फैसला लिया स्वर्णा की मां ने?

Serial Story: अपने अपने सच (भाग-3)

पूर्व कथा

अभी तक आप ने पढ़ा, स्वर्णा की जिंदगी में कई उतारचढ़ाव आए. उस की महत्त्वाकांक्षी मां की अपने पति से बनती नहीं थी. इसी कलह के कारण उस के पिता दूसरे शहर में अन्य स्त्री के साथ रहने लगे. फिर स्वर्णा की मां को भी दिल्ली के अस्पताल में नर्स की नौकरी मिल गई तो वे दोनों बूढ़ी दादी को छोड़ कर दिल्ली चली आईं. वहां का नया माहौल स्वर्णा को अजीब लगा और वह गुमसुम रहने लगी. धीरेधीरे उस की दोस्ती अपने जैसी गुमसुम रहने वाली लड़की लतिका से हो गई. लतिका एक दिन उसे अपने बंगले में ले गई जहां की शानोशौकत देख कर स्वर्णा दंग रह गई. वहां उस की मुलाकात लतिका की बीमार मां से हुई, तभी लतिका के पापा भी औफिस से लौट आए, जिन्हें देख स्वर्णा उन की ओर आकर्षित हुई. फिर जब वे स्वर्णा को गाड़ी में उस के घर छोड़ने आए तो अनजाने में उन का स्पर्श स्वर्णा को गुदगुदा गया.

अब आगे पढि़ए…

 

मेरा एक कमरे वाला घर आ गया तो उन्होंने स्वयं नीचे उतर कर मेरी तरफ की खिड़की खोली, ‘आओ, स्वर्णा…’ इतना सम्मान…

‘चाय नहीं लेंगे सर?’ मैं ने संकोच छोड़ आग्रह सा किया, ‘मां दरवाजे पर खड़ी हैं, उन से नहीं मिलेंगे…?’

वे सिर्फ मुसकराते रहे. फिर कभी आने को कह गाड़ी आगे बढ़ा ले गए.

लतिका के पापा को देख कर मां बहुत खुश हुईं और पूछ बैठीं, ‘कौन था यह आलीशान गाड़ी वाला?’

‘मेरी सहेली लतिका के पापा,’ मैं उत्साह से सराबोर थी, ‘मैं ने जिंदगी में ऐसा शानदार बंगला नहीं देखा मम्मी, जैसा इन का है…और पता है मम्मी, इन्होंने नाश्ते में मुझे क्याक्या खिलाया?’ इस तरह मां को मैं बहुत कुछ बता गई. पर उन की जांघ मेरी नंगी जांघ से सटी रही, मुझे यह छुअन अद्भुत लगी, इस बात को मैं ने छिपाए रखा और इस अनुभव को मैं गोल कर गई.

मैं सोच रही थी कि देर से आने के लिए मां मुझे जरूर डांटेंगी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, उलटे वे बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘चलो, बड़े लोगों के संपर्क में आ कर तुझे कुछ उठनेबैठने का ढंग आ जाएगा.’

उस के बाद कई बार लतिका के साथ मैं और उस के पापा रेस्तराओं में गए. किताबों के मेले में गए. किला और जू देखने गए. हर जगह वे जिद कर के कुछ न कुछ मुझे खरीदवा देते जिसे एक संकोच के साथ ही मैं घर ला पाती.

जीवन में अपने पापा का अभाव ऐसे में मुझे बेहद खलता. काश, लतिका की तरह मुझे भी पापा का लाड़प्यार मिला होता. मेरी मां अगर ऐसा न करतीं तो हम भी अपने पापा के साथ कितने खुश होते. दूसरे क्षण ही, मैं यह भी सोच जाती कि लतिका के पापा एक तरह से मेरे  भी तो पापा ही हुए. पापा जितनी ही उम्र होगी इन की. बस, व्यवहार बहुत अलग किस्म का है. एकदम लाड़प्यार भरा.

एक दिन मां ने खुश हो कर मुझे बताया, ‘ले, तेरी एक और इच्छा मैं पूरी कर रही हूं. हम जल्दी ही एक छोटे लेकिन अपने फ्लैट में जाने वाले हैं.’

‘फ्लैट और वह भी हमारा अपना… इतने पैसे कहां से आए आप के पास?’ मैं ने कुपित स्वर में मां से पूछा तो वे अचकचा गईं.

‘तुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?’ उन्होंने एक प्रकार से मुझे डांटा और कहा, ‘बस, कल तक उस फ्लैट में हमें पहुंचना है, इसलिए आज से ही अपना सामान ठीक से समेटना शुरू कर दे…लतिका के पापा ने तुझे ढेरों कपड़े ले दिए हैं…उन को ठीक से पैक करना…’

ये भी पढ़ें- Short Story: सायोनारा- क्या देव ने पिता के खिलाफ जाकर अंजू से शादी की?

एक दिन लतिका ने स्कूल में बताया,

‘हम लोग बाहर पिकनिक पर चलेंगे. पापा अपनी गाड़ी से हमें ले चलेंगे…खूब मजा करेंगे हम लोग…’

सुन कर मैं एकदम उत्साह और खुशी से उछल पड़ी, ‘लेकिन मम्मी पता नहीं तैयार होंगी मुझे कहीं भेजने को.’

‘उन्हें मना लेना,’ लतिका बोली, ‘कहना, मैं साथ चल रही हूं, पापा साथ होंगे फिर डर किस बात का…?’

नए फ्लैट की एक चाबी मां के पास रहती थी, और दूसरी मेरे पास. हम लोग अपनेअपने वक्त पर आजादी के साथ नए घर में आजा सकते थे. मुझे देर होती तो, मां चिंता नहीं करती थीं, वे जानती थीं कि मेरे साथ लतिका होगी, या उस के पापा.

उस दिन अपने खयालों में खोई मैं ने धीरे से दरवाजा खोला तो एकदम चौंक सी गई. मां बिस्तर पर किसी के साथ सोई थीं. मैं एकदम हड़बड़ा कर अपने कमरे में चली गई. वहां देर तक थरथर कांपती रही. जो देखा क्या वह सच था? कहीं आंखों को धोखा तो नहीं हुआ था? मां के साथ कोई आदमी ही था या वे अकेली थीं?

लेकिन मां तो इस समय अस्पताल में होती हैं. यहां कैसे आ गईं? इस आदमी को इस से पहले तो कभी मां के साथ नहीं देखा. फिर…? अनजाने भय और आशंका ने मुझे जकड़ लिया. चुपचाप कांपती मैं देर तक कमरे में बैठी रही.

जब कमरे से बाहर निकली तो सामने मां एकदम सहज सी दिखीं. मुझे देख कर मुसकराईं, ‘आज तू स्कूल से जल्दी आ गई.’

‘हां, किसी की मौत हो गई तो स्कूल में छुट्टी हो गई.’

मैं उदास थी पर मां हंस रही थीं. मन हुआ पूछूं, कौन था वह? पर पूछने का साहस नहीं जुटा सकी.

‘कभीकभी ये आया करेंगे…’ मेज पर खाना लगाती हुई मां बोलीं. मैं समझ गई थी, मां उसी आदमी के बारे में कह रही हैं, ‘यह फ्लैट इन्होंने ही दिया है हमें…दिल्ली के बड़े बिल्डर हैं. बहुत अच्छे आदमी हैं.’

खाने के बाद मैं बोली, ‘मैं लतिका के साथ इन छुट्टियों में पहाड़ पर घूमने जाऊंगी…लतिका के पापा, मैं और लतिका…आप जाने देंगी?’ फिर कुछ सोच कर मैं बोली, ‘लतिका के पापा ने कहा है कि खर्चे की फिक्र न करूं मैं… लतिका के साथ होटल में रहूंगी. उस के पापा अलग कमरे में रहेंगे…गरम कपड़े वे ही खरीद देंगे.’

जाने क्यों यह सब सुन कर मां बहुत खुश हुईं और बोलीं, ‘बहुत अच्छे आदमी लगते हैं लतिका के पापा…एकदम लतिका की तरह ही तुझे प्यार करते हैं.’

मेरा मन हुआ कि मैं मां से अपने भीतर का सच उगल दूं… वे भले ही मुझे अपनी बेटी लतिका की तरह प्यार करते हों पर मुझे न जाने क्यों बहुत अच्छे लगते हैं… इतने अच्छे कि जी चाहता है उन्हें बांहों में भर कर सीने में भींच लूं.

हालांकि अपने इस निजी एहसास से मैं स्वयं झेंप जाती. मेरी रगों में गरम खून लावे की तरह धधकने लगता.

लतिका के पापा के साथ भेजने के लिए मां इतनी उतावली क्यों हो रही हैं? इसलिए तो नहीं कि पीछे उन्हें भी अकेले रहने का मौका मिलेगा और वह ‘बिल्डर’ मां के पास दिन में भी बेखटके आ सकेगा. यह सोचते ही मन में अजीब सी कसमसाहट हुई. पर मेरे पास उन्हें रोकने के लिए कोई तर्क नहीं था. कैसे रोकती?

लतिका के पापा लतिका और मुझे ले कर एक मौल में गए. गरम कपड़े खरीदवाए. मैं तो चुप ही रही. बड़े महंगे कपड़े थे…एकदम नए फैशन के.

‘तुम अपनी पसंद क्यों नहीं बतातीं, स्वर्णा…?’ लतिका के पापा ने जिन नजरों से मेरी ओर देखा, उस से मैं लाल पड़ गई, ‘आप की पसंद खुद ही बहुत अच्छी है…आप को जो ठीक लगे, ले दीजिए…’ कहती हुई मैं झेंप गई.

लतिका अपनी कोई खास ड्रैस पसंद करने जब दूसरी गैलरी में गई तो वे मौका पा कर नजदीक आ कर हौले से बोले, ‘मैं चाहता हूं कि तुम यह ड्रैस मेरे साथ एक दिन पहाड़ पर पहनो…पर लतिका को न दिखाना,’ ड्रैस देख कर मैं एकदम सकपका सी गई.

मन में आया, कहूं कि लतिका को न दिखाया तो पहाड़ पर पहन भी कैसे सकूंगी? वह तो साथ होगी…और वह साथ होगी तो देखेगी ही. फिर भी मैं ने चुपचाप एक बड़े बैग में वह ड्रैस रख ली.

मौल से वापसी के समय मैं लतिका और उस के पापा के बीच बैठी. मुझे उन का साथ बहुत अच्छा लग रहा था. एकदम गुनगुना, प्यार भरा, अपनत्व भरा और तनबदन महकादहका देने वाला.

लतिका चहक रही थी कि उस ने बहुत अच्छी ड्रैसें अपने लिए पसंद की हैं.

पहाड़ की यात्रा पर भी मैं लतिका और उस के पापा के बीच में ही बैठी. जाने क्यों ऐसा करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी. मैं हर समय उन के संग का सुख चाहती थी. आदमी का साथ, आदमी का कामुक स्पर्श कितना मादक होता है, उस का कैसा जादू भरा असर तन और मन पर होता है, इस का अनुभव जीवन में मैं पहली बार कर रही थी.

ये भी पढ़ें- Short Story: बंटी- क्या अंगरेजी मीडियम स्कूल दे पाया अच्छे संस्कार?

कहीं मन में गहरे यह भी चाह उठ रही थी कि काश, इस वक्त बस मैं होती और लतिका के पापा होते…

पहाड़ पर पहुंचतेपहुंचते लतिका को पता नहीं क्या हो गया कि उस का गला बैठ गया. शायद उसे सर्दी लग गई. माथा हलका गरम हो गया. होटल के कमरे में पहुंच कर पापा ने डाक्टर को बुला कर दिखाया तो डाक्टर ने फ्लू जैसा अंदेशा बता हमें डरा ही दिया. दवा दे कर लतिका को आराम करने के लिए कह दिया.

लतिका को अफसोस होने लगा कि इतने उत्साह के साथ वह पहाड़ पर आई और बीमार पड़ गई. वह बोली, ‘पर स्वर्णा, तू अपना मजा क्यों खराब करेगी? तू पापा के साथ घूमफिर… यहां सबकुछ देखने लायक है. पापा कई बार आ चुके हैं. तुझे सबकुछ बहुत अच्छी तरह घुमा देंगे…है न पापा…?’

 

लतिका आराम से रात भर सो सके इस के लिए डाक्टर ने उसे ऐसी दवा दे दी कि खाते ही वह नींद में बेसुध हो गई. मैं उस के पास पड़े सोफे पर बैठी रही और वहीं सोफे पर ही सोने के बारे में सोचने लगी कि कमरे का दरवाजा धीरे से खुला. लतिका के पापा थे. नजदीक आ कर बैठ गए. इधरउधर की बातों के बाद बोले, ‘लतिका सो गई?’ वे लगातार मेरी आंखों में देखे जा रहे थे. आदमी की निगाहों में ऐसा कौन सा सम्मोहन होता है कि लड़की का दिल उस के सीने से निकल कर आदमी के कदमों में जा गिरता है?

उन्होंने अपना एक हाथ बढ़ा कर मेरी कमर के इर्दगिर्द हौले से कसा और मुझे अपनी तरफ खींचा. मैं चाह कर भी उन्हें रोक न पाई. न जाने क्या हुआ कि मैं ने अपना सिर उन के कंधे पर रख दिया. वे देर तक मेरे बाल, मेरे गाल, मेरे होंठ, मेरी गरदन सहलाते रहे और फिर एकाएक उन्होंने झुक कर मेरी ठुड्डी ऊपर उठाई और मेरे नरमनरम होंठों का चुंबन ले लिया.

शायद यह मेरे अपनेआप को रोके रखने की अंतिम सीमा थी. उन के गले में बांहें डाल कर उन के सीने से सट कर मैं ने अपने चेहरे को छिपा लिया.

‘लतिका सोती रहेगी. तुम मेरे कमरे में चल सकती हो?’ उन्होंने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा.

मैं ने जवाब नहीं दिया. सिर्फ उठ कर उन के साथ चलने को तैयार हो गई.

पूरा गलियारा पार कर उन का कमरा था. उन्होंने मुझे सीधे अपने बिस्तर पर बैठा लिया और ताबड़तोड़ मेरे होंठ, मेरा माथा, मेरा सिर, मेरी गरदन, मेरी हथेलियां, मेरी उंगलियां चूमते चले गए और मैं उन्हें रोकना चाह कर भी नहीं रोक सकी.

धौंकनी की तरह चलती अपनी सांसों पर किसी तरह काबू पा कर अपना तपता चेहरा एकदम उन के नजदीक ले जा कर पूछा, ‘मुझे आप हमेशा इतना ही प्यार  करेंगे?’

‘मैं तो हैरान हूं जो इस उम्र में तुम्हारी जैसी कमसिन लड़की बांहों में भरने को मिल गई.’

उठ कर लतिका के पापा ने फूलदान में से गुलाब के कई फूल निकाले और मेरे पैरों में रखे.

अंतिम सीमा थी यह. रुक नहीं सकी फिर. उन्हें अपने साथ बिस्तर पर खींच लिया और बोली, ‘इतना मान मत दीजिए मुझे…इस काबिल नहीं हूं…अपने पांव की धूल को सिर पर जगह मत दीजिए…’

‘तुम्हारी जगह कहां है यह तुम क्या जानो मेरी जान,’ वे तड़प उठे. उन की थरथराती उंगलियों ने मेरे सारे कपड़े एकएक कर उतारने शुरू कर दिए और मैं अपनी आंखों को बंद किए लजाती- शरमाती, अपनी अनछुई काया को अपने हाथों से ढांपने का असफल प्रयास करती रही.

अपने साथ कंबल में दबोच लिया उन्होंने मुझे और मैं उन के सीने में समा कर अपना होश खो बैठी.

‘मुझे इतना ही प्यार करोगी, स्वर्णा? ऐेसे ही देहसुख दोगी?’ वे बोले, ‘हालांकि शुरू में मुझे अजीब लग रहा था…मेरी बेटी लतिका की सहेली हो, उसी की हमउम्र. मन में बहुत संकोच हो रहा था, पर जब तुम्हारी आंखों में भी अपने लिए चाहत देखी तो हौसला हुआ और मैं ने तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ा दिया…’

‘जीवन में पिता का अभाव बहुत गहरे अनुभव किया है, सर…हमेशा हसरत रही कि कोई पिता जैसा व्यक्ति मेरे जीवन में भी हो जो मेरी हर इच्छा, चाहत को पूरी करे…मेरी परवा एक संरक्षक की तरह करे और मैं उस की बांहों में अपना सर्वस्व भूल जाऊं…खो जाऊं…मुझे गहरी सुरक्षा का एहसास हो…और आप की वे बांहें जब मेरी तरफ उठीं तो मैं उन में समा गई.’

‘जानती हो स्वर्णा…मुझे पत्नी का सुख पिछले कई साल से नहीं मिला,’ वे मुझे अपनी बांहों में कसे चूमते रहे. मेरे बाल कानों पर टांकते रहे, ‘पैसे की कमी नहीं है. चाहता तो बाजार में एक से एक कमसिन लड़कियां आजकल मिल जाती हैं…पर मन नहीं हुआ. बहुत बड़ा एहसान है मुझ पर तुम्हारा कि तुम्हारी जैसी लड़की मुझे मन से मिली…यह एहसान मैं ताजिंदगी नहीं भुला सकूंगा…’

ये भी पढ़ें- Short Story: वे 20 दिन- क्या राजेश से शादी करना चाहती थी रश्मि?

वे मेरे सीने के उभारों से खेलते रहे. मैं इठलाती, हंसती उन की तरफ ताकती रही. वे बोले, ‘लतिका 2 साल की थी जब पत्नी को दिल की बीमारी ने जकड़ लिया. डाक्टर ने मना कर दिया…शारीरिक संबंध मत बनाना. उस से उत्तेजना उत्पन्न होगी. बिस्तर पर ही मर जाएगी…इसलिए भयवश उसे तब से छुआ तक नहीं…और…स्वर्णा…कोई आदमी बिना औरत के जिस्म को पाए कब तक अपने को रोके रख सकता है? एक विश्वामित्र ही क्यों…अनेक कई विश्वामित्र होंगे दुनिया में जो औरत की आंच से मोम की तरह पिघल कर बहे होंगे.’

‘औरत भी तो आदमी की देह की आंच से ऐसे ही पिघल कर बहने लगती है जैसे मैं बहकती हुई बह गई…पागल बनी,’ हंसने लगी मैं.

बस, इस के बाद मैं ने उन के सीने में मुंह छिपा लिया और आराम से निश्ंिचत हो सोने लगी. उन की मजबूत बांहें मुझे कसती रहीं. निचोड़ती रहीं. भींचभींच कर पीसती रहीं और मुझे लगता रहा जैसे कोई सलमान खान जैसा हृष्टपुष्ट जवान हीरो मुझे अपनी मांसल बांहों में चिडि़या के बच्चे की तरह दबोचे है.

काफी रात गए आंख खुली तो बोली, ‘अब आप मुझे अपने कमरे में जाने दीजिए. लतिका जाग गई तो क्या सोचेगी?’

‘ठीक है. जाओ, पर याद रखना, अब हर रात हमारी ऐसे ही बीते…और मौका मिलते ही तुम बिना मेरी प्रतीक्षा किए मेरे पास चली आना…’ ढिठाई से हंसने लगे तो मैं ने झुक कर उन के होंठ चूम लिए, ‘गुड नाइट, सर.’

3 दिन की योजना बना कर आए थे. पूरे 2 दिन तो लतिका बिस्तर पर ही पड़ी रही. मजबूरन उस के पापा के साथ मैं अकेली ही घूमने गई. और घूमी क्या… सच तो यह है कि आदमी का पूरा सुख लेने की चाहत ने मुझे बाहर के नजारे देखने ही नहीं दिए. हर वक्त मन में होता, वे बांहों में कस लें, चूम लें. वे मेरे बाल सहलाएं. गाल सहला कर मेरे रसीले होंठ पी डालें.

तीसरे दिन लतिका किसी तरह साथ चली पर ऐसे स्थानों पर ही जहां उसे ज्यादा चढ़नाउतरना नहीं पड़े. वह जल्दी थक कर बैठ जाती थी. हम लोग मजे करते किसी ऐसे एकांत में पहुंच जाते जहां से वह दिखाई न देती और हम एकदूसरे की बांहों में खो जाते.

हंस दिए लतिका के पापा, ‘तुम्हें नहीं लगता स्वर्णा कि हम लोग यहां हनीमून पर आए हैं और तुम मेरी बीवी हो.’

वापस लौटने पर मां ने मुझे बहुत गहरी नजरों से एक बार ऊपर से नीचे तक देखा तो मैं सिहर सी गई. क्या देख रही हैं मां? कहीं सबकुछ जान तो नहीं लेंगी? बहुत तेज नाक है उन की. जहां कोई गंध नहीं होती वहां भी गंध सूंघ लेने में माहिर…

‘ऐसे क्या देख रही हैं आप?’ न जाने क्यों झेंपती हुई हंस दी.

‘3 दिन में ही तू एकदम औरत बन कर लौटी है स्वर्णा,’ वे हंस दीं, ‘लग रहा है, टूर पर नहीं गई थी, हनीमून पर गई थी लतिका के पिता के साथ…’

‘नहीं, मम्मी, वह बात नहीं…’ हकला गई मैं. फिर मेरी नजरें अपने फ्लैट में वह सब ढूंढ़ने लगीं जो मां से गलती से छूट गया होगा, उस आदमी…उस बिल्डर के साथ रहते हुए…रात को और दिन को भी. पीछे कोई रोकटोक तो थी नहीं…मुझ से कह रही हैं कि मैं लड़की से एकदम औरत बन कर लौटी हूं और वे खुद क्या बन गई होंगी इस बीच…?

2 दिन भी लतिका के पापा से बिना मिले बिताना मेरे लिए कठिन हो गया. मन हर वक्त चाहता कि किसी बहाने उन के पास पहुंच जाऊं. उन की बांहों में समा जाऊं…क्या एक बार प्यास जागने पर हर औरत की यही दशा होती है?

4 दिन बाद मैं खुद ही लतिका से बोली, ‘आज तेरे घर चलूंगी.’

एक बार पैनी नजरों से लतिका ने मुझे देखा, ‘क्यों…? क्या पापा की याद सता रही है?’ और एकदम हंस पड़ी.

‘कैसे हैं पापा…?’ यह पूछते ही मेरी सांस की गति तेज हो गई.

‘शाम को संग चल कर खुद देख लेना…फिर वही तुझे तेरे घर पहुंचा देंगे…’ और लतिका ने मुझे मोबाइल फोन पकड़ाया, ‘पापा ने दिया है तेरे लिए. कहा है, जब मन करे, उन से बात कर लिया कर.’

लतिका के साथ उस के घर पहुंची तो उस के पापा वहीं थे. लतिका की मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी. डाक्टर आए हुए थे. दवा दे रहे थे. लतिका उन के पास चली गई.

ये भी पढ़ें- एक डाली के फूल: किसके आने से बदली हमशक्ल ज्योति और नलिनी की जिंदगी?

मैं अकेली लौबी में छूट गई. ऐसा अकेलापन मुझे अपनी अवहेलना-सा प्रतीत हुआ. लगा, सब मुझे अनदेखा कर रहे हैं, मैं अनचाहे वहां मौजूद हूं. उठ कर जाने की सोचने लगी कि लतिका के पापा डाक्टरों को छोड़ने के लिए बाहर निकले.

वापस आए तो मेरी तरफ देख कर पहले की तरह मुसकराए नहीं. गंभीर बने रहे.

‘क्या मम्मी की तबीयत ज्यादा गड़बड़ है?’ मैं ने पूछा.

‘अपनी मां से जा कर पूछना?’ लतिका के पापा कठोर स्वर में बोले, ‘यहां आईं और लतिका की मम्मी से न जाने क्याक्या कह गईं. मैं सामने पड़ा तो सीधे सौदे पर उतर आईं…मुझे नहीं पता था, वे अपनी बेटी का सौदा मुझ से करेंगी…धंधा करती हैं क्या? घर में चकला खोल कर बैठ जाओ तुम लोग… खूब आमदनी होगी मांबेटी की. दोनों अभी जवान हो, पूरी दिल्ली लूट लो…’

बोलते चले गए लतिका के पापा. मैं हड़बड़ा कर उठी और बिना कुछ और आगे सुने, उन के बंगले से बाहर भाग आई…जो आटो मिल गया, उसी में बैठ कर घर आई.

मां सामने पड़ गईं तो एकदम अपनी सारी किताबें उन के ऊपर फेंक कर मार दीं, ‘आप लतिका की मम्मी से मिलने गई थीं?’

‘हां, गई थी. तेरी तरह और तेरे बाप की तरह बेवकूफ नहीं हूं मैं,’ मां भी गुस्से से बोलीं, ‘मुफ्त में बूढ़े बिलौटे को अपनी मलाई चाटने दूं, यह कच्ची गोली मैं नहीं खेलती, समझी…मुझे इस मलाई की कीमत चाहिए…बिना मोल तो आजकल शुद्ध हवा और पानी तक नहीं मिलता…तू तो जवान होती लड़की है…वह खूसट मुझे बिना कुछ दिए मेरा खजाना लूटेगा? हरगिज नहीं.’

यह मेरी ही मां हैं? फटीफटी आंखों से उन के तमतमाए चेहरे की तरफ कुछ पल देखती रही…फिर न जाने क्या सोच कर घर छोड़ कर बाहर निकल आई. निकल तो आई पर बाहर आ कर सोचने लगी कि अब जाऊं कहां? दिल्ली है यह. एक से एक दुराचारी, दुष्ट, हत्यारे और बलात्कारी सड़कों पर घात लगाए डोल रहे हैं.

कुछ सोच कर पापा को फोन लगाया तो पता चला कि उन का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया है. जिस ने फोन उठाया था उसी से पापा का नया नंबर मिला था. पापा का फोन देर से लगा. दूसरी ओर से हलो होते ही मैं सुबक उठी, ‘पापा…मैं बहुत अकेली रह गई हूं. कोई नहीं है अब मेरे साथ…प्लीज, मुझे अपने पास बुला लीजिए,’ और पापा ने इनकार नहीं किया. यहां, उन के पास आ गई.

Serial Story: अपने अपने सच (भाग-1)

नगर के दैनिक अखबार ‘बदलती दुनिया’ का मैं रविवासरीय संस्करण तैयार करता हूं. नववर्ष विशेषांक के लिए मैं ने अखबार में अनेक बार विज्ञापन दे कर अच्छी कहानियों और लेखों को आमंत्रित किया था. खासतौर से नई पीढ़ी से अपेक्षा की थी कि वे इस बदलते समय और बदलती दुनिया में नई सदी में क्या आशाआकांक्षाएं रखते हैं, उन की चाहतें क्या हैं, उन के सपने क्या हैं आदि पर अपनी बात खुल कर कहें. चाहें तो उन का नाम गुप्त भी रखा जा सकता है.

‘‘जी, मेरा नाम स्वर्णा है…’’ 16-17 साल की एक युवा होती, सुंदर सांचे में ढली, तीखे नाकनक्श वाली लड़की मेरी मेज के सामने आ खड़ी हुई.

‘‘कहिए?’’ मेज पर फैली ढेरों रचनाओं पर से नजरें हटा कर मैं उस की ओर देखने लगा.

‘‘अपनी कहानी ‘बदलती दुनिया’ को नववर्ष विशेषांक में छपने के लिए देने आई हूं,’’ कहते हुए उस ने अपने कंधे पर लटके बैग से एक लिफाफा निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया.

‘‘बैठें, प्लीज,’’ मैं ने सामने रखी कुरसी की तरफ इशारा किया. वह लड़की बैठ गई पर उस के चेहरे पर असमंजस बना रहा. वह बैठी तो भी मेरी ओर देखती रही. लिफाफे से निकाल कर कहानी पर एक सरसरी नजर डाली. गनीमत थी कि कहानी पृष्ठ के एक ओर ही लिखी गई थी वरना उसे वापस दे कर एक तरफ लिखने को कहना पड़ता.

संपादक होने के नाते कहानी को ले कर मेरी कुछ अपनी मान्यताएं हैं. पता नहीं इस लड़की ने उन बातों का खयाल कहानी में रखा है या नहीं. मेरी समझ से कहानी आदमी के भीतर रहने वाले आदमी को सामने लाने वाली होनी चाहिए. यदि कोई कहानी ऐसा नहीं करती तो मात्र घटनात्मक कहानी पाठकों का मनोरंजन तो कर सकती है पर मनुष्य को समझने में उस की मदद नहीं कर सकती.

‘‘अखबार में प्रकाशित विज्ञापन में कहानी के कुछ निश्चित विषय दिए गए थे. क्या मैं पूछ सकता हूं कि आप की यह कहानी किस विषय पर है?’’ मैं ने उस लड़की से जानने के लिए सवाल किया.

‘‘यह कहानी अपनी उम्र की लड़कियों पर मैं ने केंद्रित की है. इस उम्र में हमें तमाम आकर्षण, इच्छा, आकांक्षाएं, चाहतें घेरे रहती हैं और इन सब में सब से प्रमुख होती है किसी का प्यार पाने की आकांक्षा. इस कहानी में मेरी उम्र की एक लड़की है, जो अपने पिता की आयु के व्यक्ति को प्यार करने लगती है…हालांकि उस व्यक्ति की लड़की उस की सहेली है, उस के साथ पढ़ती है…उस की पत्नी जीवित है, पर…’’ कहतेकहते रुक कर वह मेरी ओर प्रतिक्रिया के लिए देखने लगी.

‘‘आप को नहीं लगता कि ऐसा प्यार जिस में आयु का भारी अंतर हो, जिस का प्रेमी पहले से ही विवाहित और एक किशोर उम्र की लड़की का पिता हो, बहुत बेतुका और हास्यास्पद होता है?’’ मैं मुसकराया. असल में मैं लेखिका के दिल व दिमाग को टटोलना चाहता था. समझना चाहता हूं कि इस उम्र की लड़कियां ऐसे बेसिरपैर के प्यार में पड़ कर क्यों अपना सर्वस्व गंवाती हैं.

‘‘सर, मेरा खयाल है…’’ वह अनजान लड़की बोली, ‘‘प्यार में न कुछ बेतुका होता है, न हास्यास्पद. छिपछिप कर किया गया प्यार तो सचमुच सब से अधिक आनंददायक होता है…उस में जो थ्रिल, जो धुकधुकी, जो अनिश्चितता होती है उस के बराबर तो संसार का कोई आनंद नहीं हो सकता.

ये भी पढ़ें- Short Story: मेरा प्यार था वह- प्रेमी को भूल जब मेघा ने की शादी

‘‘मेरा खयाल है कि लोग गलत सोचते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ आदमी की प्यार पाने की भूख और आकांक्षा कम हो जाती है. सच तो यह है कि उम्र से प्यार का कुछ लेनादेना नहीं है. वह किसी भी उम्र में, किसी भी वक्त और किसी भी व्यक्ति से हो सकता है. प्रेम कोई गणित का सवाल नहीं होता, जहां 2+2 मिल कर 4 ही होंगे. प्यार कोई उपभोक्ता सामग्री नहीं है कि बाजार गए और किलो 2 किलो खरीद कर ले आए…’’

वह लड़की जिस समझदारी और तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात कह रही थी, मुझे अच्छा लगा.

अच्छा इसलिए लग रहा था कि आज की पीढ़ी एकदम नकारा, नाकाबिल और सबकुछ कुछ समय में ही हासिल कर लेने के लिए उचितअनुचित, नैतिक- अनैतिक जैसे पचड़ों में नहीं पड़ती. वह जो चाहती है उसे हासिल करने के लिए कुछ भी कर गुजरती है.

‘‘ठीक है, अगर आप की कहानी अच्छी हुई तो जरूर छापूंगा,’’ मैं ने बात खत्म कर उसे जाने का संकेत दिया. असल में मेज पर बहुत काम बाकी था और विशेषांक निकालने में वक्त बहुत कम बचा था.

‘‘एक निवेदन मानें तो करूं आप से,’’ वह सकुचाती हुई कुरसी से उठी.

‘‘कहिए?’’ मैं प्रश्नवाचक नजरों से उस की ओर देखने लगा.

‘‘कहानी के साथ मैं ने अपना असली नाम नहीं लिखा है. असल में मैं नहीं चाहती कि लोग पढ़ कर जान जाएं कि यह कहानी मैं ने लिखी है. आप इस कहानी को यदि ठीक पाएं और छापने का फैसला करें तो कृपया मेरा पता भी न छापें. पते से भी लोग समझ सकते हैं कि मेरी लिखी कहानी है,’’ इस के बाद कुछ हिचक के साथ सिर झुका कर वह बोली, ‘‘सर, यह मेरी आपबीती है…एक प्रकार से सत्यकथा…आत्मकथा नहीं कहूंगी क्योंकि इस में जीवन की बहुत सी बातें मैं ने नहीं कहीं जबकि लेखक आत्मकथा में शायद सबकुछ लिखते हों…’’

‘‘ठीक है, पर एक समस्या आएगी…’’ मैं ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘यदि इस कहानी में कोई हिस्सा मुझे उचित न लगा, उसे संशोधित करना चाहा या आप से ही उसे ठीक कराना चाहा तो संपर्क कैसे हो सकेगा? कहानी में आप ने पता दिया है पर फोन नंबर आदि कुछ नहीं है…हो सकता है, आप तक जाने का मेरे पास समय न हो या मैं एक लड़की से मिलने जाना ही न चाहूं… खासकर उस लड़की से जिस से मेरा कोई खास परिचय अभी नहीं हुआ है…’’

मुसकरा दी वह, ‘‘आप, बहुत चालाक हैं. इसी बहाने आप मुझ से संपर्क बनाए रखना चाहेंगे…’’ उस की मुसकान एकदम गुलाब के फूल का खिलना प्रतीत हुई.

‘‘सही पकड़ा आप ने,’’ मैं ढीठता से हंस दिया, ‘‘असल में मैं चाहूंगा कि भले ही आप के नकली नाम से कहानियां जाएं पर अकसर हमारे अखबार में रविवासरीय अंक में आप जैसी अच्छी लेखिका की कहानियां जाती रहें…इस के लिए आप से संपर्क रखना जरूरी है और मुझे निश्चित ही आप के यहां, आप के घर पर, आप से मिलने में असुविधा होगी…यह छोटा और कस्बाई शहर है…बात का बतंगड़ बनते यहां देर नहीं लगेगी…’’

‘‘धन्यवाद. एक लड़की के लिए आप इतने संवेदनशील हैं कि उस के बदनाम होने से आप को कष्ट होगा…’’ वह बेबाकी से हंस दी. बहुत प्यारी हंसी थी उस की. कुछ पल तक अपलक ताकता रहा उस की ओर. उस ने अपना मोबाइल नंबर नोट करा दिया और असली नाम भी बता दिया.

प्रिया : मां

बेटी स्वर्णा को ले कर मैं यहां से दूर, दिल्ली या उस जैसे किसी भी महानगर जाना चाहती हूं. स्वर्णा के पिता यानी मेरे पति लोचन ने तो मुझे बहुत पहले छोड़ दिया था. वे अपनी नई पत्नी के साथ मेरठ में रहते हैं. जब उन्हें मेरा कोई खयाल नहीं है, न मेरी बेटी स्वर्णा का तो मैं ही उन के पीछे क्यों विधवाओं जैसी जिंदगी गुजारूं? हालांकि मेरी सास यहीं रहेंगी. अपना पुश्तैनी घर वे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगी. पति लोचन अपनी मां के लिए हर महीने खर्च भेजते रहते हैं जबकि मेरा और मेरी बेटी का कभी हालचाल भी नहीं पूछते.

गनीमत रही कि मैं एक प्रशिक्षित नर्स थी. पति के छोड़ कर चले जाने के बाद मैं ने फिर से अस्पताल में नौकरी शुरू कर दी, जिस से मेरी रोजीरोटी चलती रही. मेरी सास मानती हैं कि लोचन मेरे खराब स्वभाव के कारण ही मुझे छोड़ कर गया है जबकि मैं समझती हूं, लोचन जैसे आदमी से कोई भी समझदार औरत हरगिज नहीं निभा सकती.

ये भी पढ़ें- दाहिनी आंख: अनहोनी की आशंका ने बनाया अंधविश्वास का डर

सास कहती हैं कि औरत को जीवन चलाने के लिए कम और गम दोनों खाने चाहिए. उन का खयाल है कि मैं बहुत जिद्दी, बददिमाग और बदजबान औरत हूं. सिर्फ सुंदर होना ही औरत का कोई खास गुण नहीं होता, उसे मधुरभाषी, कोमलहृदया, व्यवहारकुशल और पति- समर्पिता भी होना चाहिए. उन की नजरों में मेरा पढ़ालिखा और नौकरी करने योग्य होना ऐसा अवगुण है जिस के चलते ही मैं ने उन के बेटे के साथ निभाव नहीं किया है.

सच सिर्फ मैं जानती हूं. असल में मैं ने शादी से पहले बड़े अस्पतालों में नौकरी की थी. एक से एक सुंदर डाक्टरों के संपर्क में रही हूं. उन की निजी जिंदगी को नजदीक से देखा व जाना है. उन में अपने काम के प्रति कितनी लगन है, कितनी मेहनत करते हैं वे चार पैसे कमाने के लिए. काबिल डाक्टर 4-5 अस्पतालों के संपर्क में रहते हैं. हर जगह मरीजों को देखते हैं. कहीं औपरेशन कर रहे हैं, कहीं सलाहकार बने हुए हैं, अपना अस्पताल भी चला रहे हैं और सुबहशाम अपने घर भी मरीजों को वक्त दे रहे हैं. आगे और आगे बढ़ने के लिए निरंतर नई किताबें पढ़ना, सेमिनारों में जाना, बड़े और कुशल डाक्टरों के संपर्क में रहना…

एक हमारे पति लोचन हैं, जिस मामूली नौकरी में एक बार लग गए, बस लग गए. बैल की तरह सिर झुकाए चुपचाप उसी जुए को खींचे जा रहे हैं. उन में कुछ नया करने का कोई हौसला नहीं, उत्साह नहीं, निष्प्राण जिंदगी जीने का क्या मतलब हुआ? जीवन में तनिक भी जोखिम उठाने की कोशिश नहीं करते. कोई नया कोर्स, नया कामधंधा करने का भी मन नहीं बनाते.

आरामतलब इतने कि घर आते ही कपड़े बदलेंगे, तहमत पहन बिस्तर पर पड़ जाएंगे. पता नहीं कितनी नींद आती है उन्हें. तुरंत सो जाएंगे. न टीवी देखना, न घर के किसी अन्य काम में मदद करना. बाजार भी जाऊं तो मैं, घर का सामान भी लाऊं तो मैं.

इन बातों से ही मुझे चिढ़ होती थी. झगड़े भी इन्हीं बातों को ले कर होते थे. मेरे मुंह से निकल जाता था, ‘आप जैसा आलसी दुनिया में दूसरा आदमी नहीं होगा.’

‘आलसी ही क्यों, निखट्टू भी कह दो…नाकारा और मूरख भी कह दो,’ वे उबल पड़ते.

सास बीच में आ जातीं, ‘ऐसी औरत मैं ने आज तक नहीं देखी जो घर में आते ही अपने आदमी को फाड़ खाने के लिए दौड़ती है बदजात…’

‘आप बीच में मत बोलिए, मांजी,’ मैं कुपित होती, ‘मैं ऐसे आदमी को बहुत दिन नहीं झेल सकती. आज हर आदमी दूसरों के हक छीनने लगा है, दूसरों के पेट पर लात मार कर अपने लिए चीजें हासिल कर रहा है…पर ये महाशय हैं कीड़े- मकोड़ों की तरह इस दड़बे में पड़े जी रहे हैं.’

रोजरोज की इस चकचक का भी कोई नतीजा नहीं निकला. उन की आदतें नहीं बदलीं. घर में वैसे ही अभाव बने रहे. आखिर मैं ने एक अस्पताल में नर्स की नौकरी शुरू कर दी. नौकरी शुरू की तो उन्हें अपना अपमान लगने लगा. वे रोज सुनाने लगे कि कमाने की धौंस जमाना चाहती है. आखिर, क्लेश यहां तक बढ़ा कि वे घर छोड़ कर चले गए.

घर छोड़ने का उन्हें बहाना भी मिल गया, दफ्तर की नौकरी में उन का दूसरी जगह तबादला हो गया. मां से बोले, ‘यह औरत तो तुम्हें रोटी देगी नहीं…मैं हर महीने तुम्हें पैसे भेजता रहूंगा. इस के भरोसे रहीं तो भूखी मरोगी.’

बाद में पता चला कि तबादला तो एक बहाना था. दरअसल, उन्हें अपने साथ काम करने वाली एक नवयौवना पसंद आ गई थी. दोनों में इश्क कुछ इतना गहरा हुआ कि वे साथ रहने की योजना बना कर मेरठ जा बसे. मैं चाहती तो उन का जीना हराम कर देती. सरकारी नौकरी थी. बिना पहली पत्नी को तलाक दिए वे दूसरी शादी कैसे कर सकते थे? पर मुझे खुद ऐसे गैरजिम्मेदार आदमी से छुटकारा चाहिए था.

ये भी पढ़ें- Short Story: धमाका- शेफाली से रुचि की मुलाकात के बाद क्या हुआ?

मुझे तो आश्चर्य इस बात का था कि ऐसे बेकार आदमी को भी कोई नवेली लड़की घास डाल रही थी. क्या आदमियों का इतना टोटा है कि ऐसे आलसी पर भी वह लट्टू हो गई.

आगे पढ़ें- पता नहीं क्यों मेरी बेटी दिनोदिन उद्दंड होती जा रही थी. उसे भी..

Serial Story: अपने अपने सच (भाग-2)

अपनी बेटी से मैं अकसर कहने लगी थी, ‘आदमी पर नहीं, पैसों पर भरोसा करना बेटी. आदमी धोखा दे सकता है पर बैंक में जमा पैसा हमें कभी धोखा नहीं देता.’

पता नहीं क्यों मेरी बेटी दिनोदिन उद्दंड होती जा रही थी. उसे भी अपने बाप की तरह मेरे चरित्र पर संदेह होने लगा था. हो सकता है उस की यह सोच इसलिए बनी हो कि मेरी सास मुझे अकसर कुलच्छनी कहा करती थीं. जलीकटी सुनाने पर आतीं तो जबान पर काबू नहीं रहता था, ‘जवानी फट रही है इस औरत की. पता नहीं कहांकहां, किसकिस के बिस्तर पर पड़ी रहती है और यहां आ कर सतीसावित्री बनने का नाटक दिखाती है. मैं क्या अंधीबहरी हूं कि मुझे कुछ दिखाई और सुनाई नहीं देता?’

खूब कलह होती. उन से कहती कि लड़की पर क्या असर पड़ेगा जरा यह तो सोचें. पर वे कतई कुछ न सोचतीं. एकदम भड़क जातीं, ‘तेरी तरह वह भी शरीर का धंधा करेगी और क्या होगा? खानदान का नाम वह भी रोशन करेगी.’

ऐसे माहौल में न खुद मैं रहना चाहती थी, न अपनी बेटी को रखना चाहती थी. जितनी जल्दी हो सके मैं अपनी बेटी को ले कर किसी बड़े शहर में चली जाना चाहती थी, जहां अच्छे अस्पताल हों और मेरे अनुभव और कुशलता के अनुरूप जहां अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल सके. लड़की का भी यह गंदा माहौल बदले और इस बुढि़या से नजात मिले.

दिल्ली के एक नामी अस्पताल में काम मिला तो मैं ने वहां जाने की तैयारी कर ली. लड़की ने सुना तो तुनकी, ‘आप चली जाएं, मैं यहीं दादी के पास रहूंगी.’

‘क्यों?’ मेरी भवें तनीं.

‘उस बड़े शहर में जहां हमारा कोई परिचित नहीं होगा…कोई मित्र, कोई सहेली नहीं…नया स्कूल होगा…नए लोग और नई बस्ती…वहां कैसे जा कर अपने को जमा पाऊंगी?’ पर मैं ने उस की एक न सुनी.

ये भी पढें- Short Story: प्यार के रंग- क्यों अपराधबोध महसूस कर रही थी वर्षा?

पति लोचन ने कहीं मेरे मन को बहुत गहरी ठेस पहुंचाई थी. अगर वे मुझे छोड़ कर मेरठ चले जाते तो शायद मेरे अंतर्मन को इतनी चोट न पहुंचती जितनी कि उन के किसी दूसरी औरत के साथ से पहुंची. मुझे वह सब अपनी औरत जाति का अपमान महसूस हुआ. मुझे लगा कि मेरे सौंदर्य, मेरे यौवन, मेरे बदन का यह घोर अपमान है. उन्हीं पर फिदा होने वाली लड़कियां नहीं हैं, मुझ में भी अभी बहुत कुछ ऐसा बचा है जिस के लिए जीभ लपलपाते तमाम लोग बढ़ आएंगे.

यहां इस छोटे से शहर में यह सब संभव नहीं था. एक तो सब हमें जानते थे. दूसरे, सब को हमारी सचाई का पता था. देह पाने के मतलब से भले कोई चोरीछिपे संपर्क बनाता पर दिल से चाहने वाला शायद ही कोई मिलता.

उस बड़े शहर में इस सब की असीम संभावनाएं थीं. सब अपरिचित होंगे. महल्ले में कोई किसी को न जानता है, न किसी की परवा करता है. यहां तो हर वक्त जासूसी नजरें आप का पीछा करती रहती हैं. वहां किसे फुरसत है आप को देखने की? ऐसे माहौल में बहुत आसानी से कोई मन का मीत मिल सकता था. पति लोचन मुझे ऐसा करने से रोक भी नहीं सकते थे.

फिर मैं अभी कुल 36-37 साल की हूं. यह उम्र सतीसाध्वी बनने की नहीं होती…खेलनेखाने की होती है, बशर्ते कोई मनमाफिक मिल जाए.

स्वर्णा : बेटी

शुरू में मां ने एक कमरे का मकान लिया, जिस में उस कमरे के अलावा मात्र एक रसोई व एक छोटा बरामदा और बाथरूम था. मुझे यह नया घर कतई पसंद नहीं आया. मेरी नाराजगी वैसी ही बनी रही. अकसर मां से कहती थी, ‘अपना पहले वाला घर कितना अच्छा था, मेरे लिए पढ़ने का अलग कमरा था और वहां जितनी बड़ी रसोई थी उतना बड़ा तो यहां का कमरा मिला है. मां, यहां कहां तो मैं अपनी पढ़ने की मेज लगाऊंगी, कहां अपनी किताबकापियां रखूंगी.’

मां गुस्से से बिफर उठतीं, ‘इस शहर में लोग हम से भी ज्यादा तकलीफ में रहते हैं. तुम ने अभी जिंदगी को ठीक से देखा कहां है?’

‘हम क्या पूरी जिंदगी तकलीफें उठाने के लिए पैदा हुए हैं?’ मैं मां से उलझती, ‘वहां जब आप नहीं होती थीं तो दादी घर में होती थीं और उन से मैं बातें कर लिया करती थी.’

‘बस कुछ दिनों की बात है,’ मां कहतीं, ‘फिर तेरा एक अच्छे स्कूल में दाखिला हो जाएगा. तेरा पूरा दिन वहां निकल जाएगा…हो सकता है, इस बीच हमें कोई अच्छा सा मकान भी मिल जाए…मैं लगातार कोशिश कर रही हूं…’

‘कहां से अच्छा मकान पा लोगी?’

‘वह सब तुम्हारी नहीं मेरी चिंता का विषय है. तुम सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना,’ मां मुझे चुप करा देतीं.

दिल्ली में अच्छे स्कूल में दाखिला आसान काम नहीं था. मां को न जाने किनकिन के आगे हाथ जोड़ने पड़े. पर उस दिन मैं मां को मान गई जिस दिन वे एक फार्म ले कर घर आईं और मुझ से उस पर हस्ताक्षर कराए.

फार्म पर स्कूल का नाम पढ़ कर मैं चकित हुई और बोली, ‘मां, फीस के इतने सारे पैसे कहां से आएंगे…’

‘कह दिया न, मेरी नजर व्यक्ति पर नहीं हमेशा उस के पैसे पर रहती है क्योंकि दुनिया का एकमात्र सच पैसा है. उसी से आदर मिलता है, उसी से सुविधाएं, उसी से हौसला. तुम्हें आम खाने से मतलब रखना चाहिए, पेड़ गिनने से नहीं,’ मां उत्साह से बोलीं.

मां ने स्कूल की महंगी ड्रेस ही नहीं बनवाई बल्कि दिनरात पहनने के लिए भी मुझे अच्छे कपड़े खरीद दिए और बोलीं, ‘मेरी बेटी फटेहाल रहे यह मुझे मंजूर नहीं है.’

मैं ने अनुभव किया कि मां से मिलने एक ढलती उम्र के सज्जन आया करते हैं. वे अकसर मां को अपनी गाड़ी में बैठा कर कहीं ले जाते हैं. मैं घर पर अकेली रहते हुए डरती रहती. पासपड़ोस से भी मेरा परिचय नहीं हुआ था. स्कूल में लड़के आएदिन की घटनाओं पर चर्चा करते पर मैं किसी से कुछ कहती नहीं थी.

ये भी पढ़ें- Short Story: सच्ची श्रद्धांजलि- दूसरी शादी के पीछे क्या थी विधवा निर्मला की वजह?

मैं किसी लड़के या लड़की से कहूं तो तब जब कोई गहरा दोस्त बने या पक्की सहेली. अकेली ही पूरे स्कूल में घूमती रहती. पता नहीं, कैसे स्कूल में सब लड़कों को पता चल गया कि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नहीं है. उस स्कूल में मैं ज्यादातर बच्चों के बीच एकदम अनफिट थी.

कई महीने बाद मेरी एक सहेली बनी लतिका. मेरी तरह ही वह भी अकेली, शर्मीली, चुपचाप रहने वाली थी. शायद हम दोनों के अकेलेपन ने ही हमें एकदूसरे से जोड़ दिया और कुछ ही दिनों में दो शरीर एक जान बन गए. लोग हमारी दोस्ती पर हंसते पर हमें इस की चिंता नहीं होती.

एक दिन लतिका मुझे अपने साथ लेकर घर गई. उस का बंगला देख कर मैं हैरान रह गई. इस दिल्ली में लोगों के पास इतनी जगह भी है? ऐसे शानदार बंगले भी हैं? इतना लंबाचौड़ा बगीचा, संगमरमर के चमचमाते फर्श. लतिका का अलग आलीशान कमरा, जिस में वह रहती व पढ़ती थी.

सबकुछ देख कर सहम सी गई…इतने बड़े घर की लड़की से दोस्ती कैसे निभेगी? कहां यह, कहां मैं. अपना छोटापन, अपनी असहायता मुझे एकदम दबोचने लगी.

बाथरूम जाने की जरूरत पड़ी तो लतिका के ही बाथरूम में गई और उस की साजसज्जा देख कर तो हैरत में पड़ गई. बाप रे, लतिका ऐसे भव्य बाथरूम में इतने सुखसाधनों के बीच रहती है?

‘तुम ने क्या सोच कर मुझ से दोस्ती की लतिका?’ उस दिन मैं ने उस से पूछा.

‘दोस्ती कुछ सोच कर नहीं की जाती, वैसे ही जैसे प्यार किसी से सोच कर नहीं किया जाता,’ वह हंस दी, ‘असल में मेरी मां बहुत बीमार रहती हैं. मैं उन से बहुत बातें नहीं कर पाती. इसलिए मैं स्कूल में अकेली रहती हूं क्योंकि अकेले रहना मेरी आदत बन गई है. वही आदत मैं ने तुम्हारी देखी तो हम लोग मित्र बन गए.’

‘क्या बीमारी है तुम्हारी मम्मी को?’ यह कह कर मैं लतिका के साथ ही उस की मां के कमरे में गई. वे सचमुच शांत लेटी हुई थीं. चेहरा एकदम पीला. मरी मछली की तरह बिस्तर पर पसरी हुई थीं. वहां पहुंची तो उन्होंने उठने की कोशिश की, फिर किसी तरह तकिए के सहारे बैठीं. मुझे अपने पास बैठाया. मेरे सिर पर हाथ फेरती रहीं, स्नेहासिक्त स्वर में कुछ सवाल पूछे तो मैं ने बिना लागलपेट के सचसच जवाब दे दिए.

वे मुसकराईं, ‘कोई बात नहीं. इस घर में तुम हमेशा आजा सकती हो. इसे अपना ही घर समझो. लतिका अब से तुम्हारी सहेली नहीं, सगी बहन की तरह रहेगी तुम्हारे साथ.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा. लतिका भी मुसकराई. उस ने उठने का इशारा किया तो चुपचाप उठ कर उस के साथ उस कमरे से बाहर निकल आई.

लौबी में लगी लतिका के पापा की फोटो देख कर चकित हुई कि इतने सुंदरसुदर्शन व्यक्ति ने ऐसी बेकार थुलथुल औरत से शादी कैसे कर ली? क्या देखा होगा इस में? सोच तो गई पर लतिका से पूछा नहीं. सच तो यह है कि लतिका की मां मुझे कतई अच्छी नहीं लगी थीं.

शाम को लतिका के पापा आए तो आते ही पहले पत्नी के कमरे में गए. लतिका मुसकराई, ‘अब वे अपनी मुटल्लो से पूछेंगे, हाय हनी, कैसी हो? फिर उस के फूलेफूले गाल सहलाएंगे… दवा ली डार्लिंग…सांस लेने में तो कोई तकलीफ नहीं हो रही? उठ कर कुछ दूर चलफिर सकी हो या नहीं?’

सुन कर मैं भी मुसकरा दी, ‘आखिर तो वे पापा की पत्नी हैं और तुम्हारी मां. उन्हें उन की ऐसी परवा करनी भी चाहिए…’

‘हिस्स,’ लतिका हिकारत से बोली, ‘पापा को जो कारखाना मिला है वह वास्तव में मम्मी के पिताजी यानी मेरे नाना का है. वे तो अब इस दुनिया में हैं नहीं. यह ठाटबाट सब मम्मी के पैसों की देन है…इसलिए पापा उन की लल्लोचप्पो करते हैं.’

मैं क्या कहती? ये सब लतिका की मम्मी और उस के पापा के बीच की बातें थीं. मुझे कोई हक नहीं था उन के बीच बोलने का.

कुछ देर बाद पापा बाहर निकल आए और लौबी में आ कर अपनी बेटी लतिका से पूछा, ‘तुम्हारे साथ यह अप्सरा सी लड़की कौन है?’

ये भी पढ़ें- Short Story: खुशी के आंसू- जब आनंद और छाया ने क्यों दी अपने प्यार की बलि?

उन के कहे शब्द मुझे बहुत गहरे तक झनझना गए. इतना अच्छा लगा कि मैं एकदम सुर्खलाल पड़ गई. दर्पण में जब खुद को देखती थी तो मुझे लगता तो था कि मैं बहुत सुंदर हूं…अपनी मां से भी कहीं ज्यादा सुंदर, पर मेरी तरफ कोई लड़का कभी ध्यान नहीं देता था, इसलिए यह सोचने लगी थी कि शायद मुझ में वह बात नहीं है, जो औरों में होती होगी…

आखिर औरों में कोई तो ऐसी खूबी होती होगी जिस कारण लड़कों की आंखें उन्हें ढूंढ़ती रहती हैं, दिखाई देते ही उन की आंखों में चमक पैदा हो जाती है. ऐसा कुछ उन की आंखों में मैं अपने लिए कतई नहीं पाती थी.

‘पापा, यह मेरी सहेली स्वर्णा है. मेरी क्लास में ही पढ़ती है. अब तक स्कूल में सिर्फ यही मुझे अपनी सच्ची दोस्त लगी है,’ लतिका उत्साह से बोली.

‘तो अपनी इस दोस्त को कुछ खिलायापिलाया या सिर्फ बातें ही करती रहीं?’ यह कहने के साथ ही लतिका ने महाराज को आवाज दी और मेज पर चायनाश्ता लगाने को कहा.

बाथरूम से फ्रैश हो कर जब वे बाहर आए. तब तक चायनाश्ता लग चुका था. उन के साथ मेज पर मैं बैठना नहीं चाहती थी. पर सहसा मुझे अमिताभ बच्चन द्वारा बोला गया वह संवाद याद हो आया जो कुछ दिनों पहले अखबारों में चर्चा का विषय बना था, ‘वे राजा हैं, हम रंक. राजा की मरजी है, वह जिस से चाहे दोस्ती रखे, जिस से न चाहे न रखे…हम रंकों को यह हक कहां है?’

नाश्ते में इतनी सारी चीजें मेज पर सजी देख कर मैं चकराई…ऐसी तमाम चीजें थीं जिन्हें मैं पहली बार देख रही थी. यहां तक कि उन्हें खाया कैसे जाएगा, यह भी मुझे मालूम नहीं था. जब पापा या लतिका खाने लगते तभी उन चीजों को लेती थी.

‘पापा प्लीज, देर हो गई है. आप मेरी दोस्त को उस के घर छोड़ देंगे? आप तो शाम को क्लब जाते ही हैं…उधर से ही क्लब निकल जाइएगा…’ लतिका ने पापा से अनुनय किया.

‘ओ.के. डियर. मैं तो अपनी बिटिया के हुक्म का गुलाम हूं…’ कहते हुए वे हंसते- हंसते कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चले गए. जब मैं उन के साथ बाहर निकली और उन की गाड़ी की तरफ बढ़ी तो चकित रह गई. लतिका के पापा की बगल वाली सीट पर बैठी तो धंस गई.

रास्ते में लतिका के पापा ने मेरे बारे में सबकुछ पूछ लिया और मैं ने भी उन से कुछ छिपाया नहीं. यह सोच कर कि छिपाने से क्या लाभ. अभी वे मुझे ले कर कमरे तक पहुंचेंगे तो सब देखते ही समझ जाएंगे. तेज आदमी हैं. लाखोंकरोड़ों का कारोबार करते हैं. दुनिया की सारी ऊंच- नीच जानते होंगे.

पता नहीं कैसे लतिका के पापा की एक जांघ मेरी गोरीगुदाज जांघ से सट गई. सटते ही भीतर तमाम बिजलियां दौड़ने लगीं. जानबूझ कर मैं ने अपनेआप को सिकोड़ा नहीं क्योंकि तब मेरा मन मचल सा उठा था. मन हो रहा था, खुद को उन के और नजदीक कर लूं…उन से और सट जाऊं और इस अद्भुत छुअन का और सुख लूटूं…

आगे पढें- उस दिन अपने खयालों में खोई मैं ने धीरे से दरवाजा खोला तो …

ये भी पढ़ें- Serial Story: सोने के वरक के पीछे छिपा भेड़िया

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें