Hasya Vyangya : रचना का अति कोमल मन अपने घर में न जाने क्यों झुंझलाया सा रहता था. उस की हालत ऐसी होती थी जैसे रेस के घोड़े को खूंटे से बांध दिया गया होपरवह रस्सी तुड़ा कर मैदान में दौड़ने को उतावला हो रहा हो.
हर काम को जल्दी से जल्दी निबटाने की चेष्टा में रचना बेहाल रहती. वह एक हाथ से कंप्यूटर पर डेटा ऐंट्री कर रही होती तो दूसरे से मोबाइल पर व्हाट्सऐप और फेसबुक देखती. जो इक्कादुक्का कागज उस की मेज पर पहुंच जाते उन्हें जल्दीजल्दी लिबटा कर आधे कमेंट्स के साथ, ईमेलों में बिना पढ़े आई ऐग्री, मे बी, ओके करती जाती.
हर समय अपने काम में ही उलझे रहो, यह भी कोई जीना है भला? दिनभर में 2-4 बार दूसरों के डैस्कों का चक्कर लगाए बिना रचना का हाजमा गड़बड़ा जाता.
कभी रामेश्वरी के छोटेछोटे बच्चों में से कोई बीमार पड़ जाए तो तुरंत इंटरनैट से ही सूप और दलिया आदि की रैसिपी के प्रिंट आउट दे देती. उस का ड्रिंक्स का कुछ ज्यादा आदी पति तो कुछ ध्यान रखने से रहा. जितनी देर वह सूप आदि बनाने की रैसिपी बताएगी, उस के मोबाइल से सूप और्डर कर के उसी के घर पहुंचा न दे, उसे चैन नहीं मिलता. उस दौरान दुखियारी दूसरे डैस्कों पर काम में बिजी रामेश्वरी के दिल का कितना सारा बोझ उस की जबान से बाहर उगलवा कर अपने मन पर लाद लाएगी. कोई मिला तो थोड़ा बांट भी लेगी.
पहले इस तरह के चिंता के गट्ठरों को संभालने का कार्य घरेलू औरतें करती थीं. बात से बात निकलती थी और कई घरों के निरीक्षणपरीक्षण हो जाया करते थे. जवान लोग तो उन की अनुभव की पिटारियों से निकले अजूबों पर केवल हंसतेखिलखिलाते ही थे, पर रचना तो आज के जमाने की है. हर व्यक्ति इंटरनैट के रौकेट की रफ्तार से बात कर रहा है. फिर भला वह इतने महान कार्यों को घरेलू औरतों पर कैसे छोड़ सकती थी. फिर बड़े लोग भी तो कह गए हैं कि डू नाऊ, व्हाट यू कैन डू टुमारो. आज की गौसिप आज ही फैलाने में ऐक्सपर्ट थी रचना.
रचना इस बात का पालन करने में तनिक भी कंजूसी नहीं बरतना चाहती. आखिर जीवन के 29 बर्थडे मना लिए. अब अपने अनुभव और ज्ञान का सार औरों को भी बांट कर सब का उपकार करना ही तो ह्यूमन सर्विस है. वह इस का अक्षरश: पालन कर रही है.
अकसर वाणी सुब्रामणियम को घर जा कर रचना दक्षिण भारतीय रेस्तरां में डोसा, इडली, पोंगल की प्रेज करती.
एक दिन कौफी पीते हुए बोली, ‘‘वाणी, आप के होते हुए भी हम लोग डोसा और इडली उस छोटे ढाबे में खाएं. यह तो दुख की बात है. एक दिन सब को अपने घर बना कर औफिस में ला कर साउथ इंडियन डिशेज खिला.’’
‘‘क्यों नहीं रचना, तुम जब कहो मैं तैयार हूं,’’ वाणी अपनी साउथ इंडियन डिशेज की प्रशंसा से अभिभूत हो कर बोली.
रचना गदगद हो सैकड़ों थैंक्स दे कौफी का अंतिम घूंट गटक कर उमा और नीता के पास पहुंच गई.
फाइल में कार्य कर रही नीता की फाइल बंद कर उसे घसीट लाई. उमा के दराज में अपने हाथ से ताला लगा औफिस में बने इटिंग कौर्नर में औनलाइन डिलिवरी का इंतजार करती सब को विवश कर अपनी तारीफ के पुल बांधने लगी, ‘‘देखो भई, मुझे तुम लोगों का कितना
ध्यान रहता है. वाणी को तुम सब कंजूस कहती थीं पर पीठ ठोको मेरी, सब की दावत का प्रबंध कर के आ रही हूं,’’ और फिर उन्हें सारी बात बता दी.
‘‘मान गए रचना तुम्हें,’’ कह उमा ने उसे गुब्बारे सा फुला दिया, ‘‘वैसे तो हमें भी सब आता है बनाना खाने वाला उंगली चाटता रह जाए पर वाणी से मंगवा लेने वाले खाने का आग्रह तो पूरा करना था न.’’
कभीकभी ऐसे अवसरों पर रचना को कलीग्स की मीठीमीठी चोट से भी दोचार होना पड़ता था पर वह वार फ्रंट में साहसपूर्वक डटी रहती थी.
उमा की अन्य सहेली बोली, ‘‘भई रचना, तुम्हारी मां के हाथ के गुलाबजामुन और दहीवड़े खाए अरसा हो गया. हमारी मां लाख कोशिश करें, वैसा बना ही नहीं पातीं.’’
अंदर ही अंदर रचना चिहुंक उठी पर अधरों पर राजसी मुसकराहट तैरने लगी. फिर बोली कि शीघ्र ही मां से कह कर जल्दी ही घर में चाय पार्टी करूंगी. फिर वहां से चली गई. राह में हैरत से सोचती रही कि यह उमा वगैरह तो बड़ी तेज होती जा रही हैं.
फिर भी रचना की सेवाभावना में कोई अंतर नहीं आता. सुमिता की बेटी सुनीता को कोई लड़का उन के घर देखने आने वाला था. रचना ने पहले ही कह दिया, ‘‘सुमिता, मैं तेरी छोटी बहन के समान ही हूं. कोई संकोच मत करना. सर्व करने और सुनीता को तैयार करने का जिम्मा तुम मुझ पर छोड़ दे.’’
लड़के के मिलने के अगले दिन सहेलियों के साथ कहीं बैठक जम गई. सुमिता उस में नहीं थी. एक सहेली ने पूछा, ‘‘कहो रचना, कल तो तुम खूब बिजी रही होगी. तुम ही कल की मुख्य अतिथि बनी रही होगी हुआ क्या?’’
‘‘अरे, रहने भी दो,’’ रचना मुंह चिढ़ाने का अभिनय करती. बोली, ‘‘क्या करूं, किसी की हैल्प करना मुझे अच्छा लगता है. सुमिता के होश तो लड़के के आने के नाम से ही गुम हो जाते हैं. मैं ने कहा कि चलो सहेली है सपोर्ट करने में हरज नहीं. मेरे अलावा और तो किसी को बुलाया तक नहीं था उस ने.’’
‘‘सामान क्याक्या आया, यह तो बताओ? सारी सहेलियां सुमिता की गैरमौजूदगी में उस के मुंह से रनिंग कमैंटरी सुनने को बेचैन हो उठीं.’’
रचना ने बिदक कर मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘न ही पूछो तो अच्छा है,’’ सनसनी फैला कर रचना ने सब के हावभाव देखे, फिर बोली, ‘‘अपनी फ्रैंड की इज्जत रखने के लिए मैं ज्यादा तो नहीं बता सकती पर लड़के के साथ भाभी, मां, बाप, छोटी बहन आई थी. एक कोई बूआ टाइप भी थी. अच्छी बरात थी.’’
थोड़ी देर चुक रह रचना ने फिर जोड़ा, ‘‘वह तो मैं ने संभाल लिया वरना सुमिता अकेले इतनों को कैसे हैंडल कर पाती.’’
‘‘छोड़ो मैं सब जानती हूं. यह बताओं कि सुनीता ने लड़के से बात की भी या नहीं? क्या वह राजी हो गई,’’ एक सहेली ने पूछा.
रचना अब सतर्क हो कर मुसकरा उठी, ‘‘तुम भी नीता सारी बातें कहलवा कर ही रहोगी. ऐसे में लोग कहते तो यही हैं न कि लड़की तो पसंद है, पर सोच कर बताएंगे. बाद में पता चला कि सुनीता ने खुद ही मां को मना कर दिया.
किसी की खुशी में सम्मिलित होने में रचना सदा तत्परता दिखाती थी. उसे डिस्टैंस की चिंता रहती थी और न बारिश का डर.
वंदना का नाम विशेष योग्यता की सूची में आ गया तो रचना बारिश में भाग कर बधाई दे आई.
अगली सुबह वाणी ने पूछा, ‘‘कल तुम बारिश में भाग कर कहां जा रही थी?’’
‘‘तुझे पता नहीं? वंदना का नाम विशेष योग्यता की सूची में आ गया है?’’
‘‘वह तो शुरू से ही बहुत होशियार है.’’
‘‘वाणी, क्या तुम होशियार नहीं हो? बस तुम वंदना की तरह रातदिन रटती नहीं रहती हो.’’
दरअसल, वाणी 1-2 ऐग्जाम्स में अव्वल आने से रह गई थी.
वाणी उस का आशय समझने की चेष्टा किए बिना पूछ बैठी, ‘‘हां रचना तुम
भी तो कहीं इंटरव्यू दे कर आई थी. क्या हुआ उस का?’’
रचना ने मुसकरा कर लापरवाही से बात बदल दी.
शीला उन की अच्छी सहेली है. एक बार वह बीमार पड़ गई. अब उस की अस्वस्थता की बात सुनते ही रचना शाम को रोज वहां पहुंचने लगी. उस के घर में इस तरह जाने को वह न जाने कब से तरस रही थी पर ‘जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ.’
रचना रोज पनीरपकोड़े और चौकलेटपेस्ट्री उड़ाती रही. अनुभव के मोती बटोरती रही. फिर एक दिन पुरानी बैठक में अपनी प्रशंसा सुन कर गदगद होती बोल उठी, ‘‘क्या करूं, जाना ही पड़ा. उस बेचारी को पूछने वाला कौन है? घर में सिर्फ उस का हसबैंड ही है न पर वह तो पक्का फ्लर्ट लगा मुझे.
‘‘क्योंक्यों?’’ उत्सुक आवाजों ने रचना को घेर लिया.
‘‘देखो भई, मेरी शिकायत मत कर देना पर अपनी आंखों से अब तो देख लिया. शीला के हब्बी की पीए क्या पटाखा चीज है. वह भी हर रोज शीला को देखने आती और पूरी किचन संभालती रही.’’
‘‘हाय सच? कैसी है? वह शीला के सामने कैसे आ गई?’’ सहेलियों की बढ़ती उत्सुकता से रचनाका चेहरा विजयी पताका सा फहराने लगा.
‘‘न पूछो बाबा, शीला के हब्बी ने मेरे सामने ही उस बीमार से जिस तरह लड़ाई की उस से दिल दहल गया.’’
‘‘पर पूरा किस्सा तो सुनाओ,’’ उमा ने रचना को टोका तो वह चिहुंक उठी, ‘‘न बाबा, कल यह बात फैलेगी तो मेरा ही नाम बदनाम होगा,’’ वह रंग फैला कर कदम बचाने लगी.
‘‘लेकिन तुम बहुत तेज हो रचना,’’ उमा ने हंस कर कहा, ‘‘सेवा कर के मजे से पूरा सीन देख आई. हम लोग तो खाली हवा में ही सुनीसुनाई अटकलें लगाया करते थे.’’
‘‘यह लो, एक तो किसी के काम आओ ऊपर से बातें सुनो,’’ रचना बिदक उठी.
‘‘भई, तुम्हारे जैसी सहेली भी अगर यों बुरा मानेगी तो हम मजाक किस से करेंगे?’’ उमा ने बात पलट कर कहा.
रचना उठते हुए सोचने लगी कि यह उमा तो शतरंज की गोटियों की तरह शह और मात देने लगी है. फिर हंसने का उपक्रम करती हुई बोली, ‘‘मुझे क्या अपना कोई काम नहीं है? तुम लोगों ने तो मुझे फालतू ही समझ लिया है,’’ और वह चली गई.
तब रचना की अंतरंग सहेलियों की खिलखिलाहट के मध्य एक नवपरिचिता बोली, ‘‘इन का हब्बी तो कालेज में पढ़ाता है न?’’
‘‘हां,’’ नीता ने जवाब दिया.
‘‘कितनी सिगरेट पीता है भई और जब देखो तब एमए की स्टूडैंट्स से घिरा रहता है. एक दिन तो मैं ने पिक्चरहौल में देखा था.’’
रचना की अंतरंग सहेलियां आंखों ही आंखों में मुसकरा पड़ीं.
‘‘बेचारी ने बचत करने के लिए मेड भी फुलटाइम नहीं लगा रखी है,’’ एक अन्य स्वर फूटा तो रचना का भेद देने वाली नवपरिचिता ने फिर बातों की कड़ी संभाल ली.
आवाजों के घेरे से दूर तेज कदमों से चलती हुई रचना घर पहुंची. ताला खोल कर घर में बिखरी चीजों को समेटते हुए सोचने लगी कि अपना घर छोड़ कर इन लोगों के लिए दिनरात भागती रहती हूं, पर सब ऐसी ही हैं और फिर गुस्से में उस ने उन के पास फिर कभी न जाने तक की बात सोच ली.
अगली सुबह फिर सूरज उगा. रोशनी के फैलते सागर में रचना का मन हुलसने लगा. हाथ फिर तीव्र गति से काम निबटाने में जुट गए. गौसिप की रोशनी को तो हर डैस्क में बिना बुलाए फैलना ही है. भला सहेलियों का क्या बुरा मानना, जब सेवा ही अपना परपज हो.